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की या त्रा
सू या प्रसाद पाठक
प्रख्यात मन्दिर का जो संक्षिप्त विवरण दिया है, वह पाठकों को काफ़ी मनोरञ्जक प्रतीत होगा। मारते-मारते कोणार्क के ५ मील इधर ही पसर जाता है-- बालू को देखकर उसके नथुने फूल जाते हैं । और बैलगाड़ी कितने ही मुर्दे बैल क्यों न हों, मन्दिर तक ले ही जाती है। हम लोग गाड़ियों में बैठ कर कोणार्क को ४ बजे संध्या-समय रवाना हुए।
पुरी नगर के बाहर आने पर बालुकामय मार्ग का श्रीगणेश हो गया। सारे हिन्दुस्तान भर में जिसकी लोग इतनी खोज करते हैं वही केवड़ा, यहाँ मार्ग के दोनों तरफ़ बन्दनवार-सा सुशोभित था। जहाँ तक मार्ग दिखता, दोनों तरफ़ केवड़ा या माऊ के ही वृक्ष दिखते । रात को १० बजे हम लोग एक गाँव में पहुँचे । यह गाड़ीवालों का गाँव था। बैल बदलने और भोजन करने के लिए वे लोग रुक गये। हम लोगों ने भी यहीं जलपान कर लेना उचित समझा।
रात को १२ बजे वहाँ से चले । पौष मास का
[ मन्दिर का पूर्वी द्वार।]
[मन्दिर का दक्षिणी भागा-रश के साथ शिलाखंड का सिंह।]
[कोणार्क-मन्दिर के ऊपर की मूर्ति । ]