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संख्या १]
भूषण का दूषण
थे। युग के प्रभाव से भूषण भी नहीं बचे। उनका ग्रीषम तपनि एती तपनी न सुनि कान, शिवराजभूषण अलङ्कार का ही ग्रन्थ है और शिवा- कंज कैसी कली बिनु पानी मुरझाती है । बावनी के कवित्तों में भयत्रस्त मुग़ल-स्त्रियों का वर्णन तोरि तोरि आछे से पिछौरा सों निचोरि मुख, नायिकाभेद का ही एक स्वरूप है। वे कहते हैं, शिवाजी कह 'अब कहाँ पानी मुकतों मैं पाती हैं ?" || की धाक सुनकर मुग़लानियाँ डरी हुई भागी जा रही तात्पर्य यह कि जिस वक्त शिवाजी और औरङ्गहैं, उनकी साड़ियाँ ढीली हुई जा रही हैं, पैजाम जब में लड़ाई हो रही थी भूषण यह देखने में लगे खिसकते जा रहे हैं, बाल बिखर रहे हैं, बहुतों की थे कि मुग़ल-राजघराने की सुन्दर सुकुमार औरतें सुथनियाँ उतर भी गई है, स्तन खुल गये हैं। पर्दे से निकल कर कहाँ किस प्रकार धक्के खा रही कुछ उदाहरण लीजिए---
है। वीर योद्धा अपने शत्रु की स्त्रियों के साथ बाजि गजराज सिवराज सैन साजतहि, उदारतापूर्वक पेश आते हैं। उन्हें इस प्रकार भयत्रस्त दिली दिलगीर दसा दोरघ दुखन की। नहीं करते-उनका इस प्रकार उपहास नहीं करते। तनियाँ न तिलक सुथनियाँ पगनियाँ न,
फिर यह भी एक प्रश्न है कि शिवाजी से शाही घामै घुमरात छोड़ संजियाँ सुखन की ।।
औरत ही क्यों इतना डरी हुई थीं। मुग़लों की फौज भूषन भनत पतिबाँह बहियाँ न तेऊ, नहीं भगी, सरदार नहीं भगे, स्वयं औरङ्गजेब नहीं छहियाँ छबीली ताकि रहियाँ रुखन की। भगा। उसके महलों पर शिवाजी का क़ब्ज़ा नहीं बालियाँ बिथुरि जिमि आलियाँ नलिन पर, हुआ, पर उन महलों से शाही औरतें भग निकलीं। ला लियाँ मलिन मुगलानियाँ मुग्खन की।
ग़रीबी और विवशता ने उनके वस्त्र उतार लिये । इस
प्रकार कामुक हिन्दू-समाज ने उनके नग्न अङ्गों को आगरे अगारन कै फाँदती कगारन छ्वै,
देखा । वीर-रस की आड़ में भूषण ने तत्कालीन बाँधती न बारन मुखन कुम्हिलानियाँ।
कामुक हिन्दू-समाज के सामने मुग़ल-राजवंश की कीबी कहैं कहा औ गरीबी गहे भागी जाहिं,
सुकुमार सुन्दरियों को नङ्गी करके इस प्रकार उपबीबी गहे सूथनी सु नीबी गहे रानियाँ ।
स्थित करके खूब यश और धन लूटा है ! खेद है अन्दर ते निकसी न मन्दिर को देख्यो द्वार, कि उनकी इस गंदी मनोवृत्ति को आज भी हम बिन रथ पथ ते उघारे पाँव जाती है।
वीर-रस की पवित्र मन्दाकिनी समझते और उसी हवा हू न लागती ते हवा ते बिहाल भई, रूप में उसका आदर करते हैं । यदि हमारे साहित्य में लाखन की भीरि में सम्हारती न छाती हैं। वीर-रस का अभाव है तो हमारा यह कर्तव्य है कि भूषन भनत सिवराज तेरी धाक सुनि, हम उसकी वृद्धि करें। न कि यह कि जिसमें वीरता हयादारी चीर फारि मन मुझलाती हैं। का नाम-निशान नहीं है उसका दंभ करके अपने ऐसी परी नरम हरम बादशाहन की,
आपको धोखा दें। शिवाबावनी धोखे की टट्टी है । नासपाती खाती ते बनासपातो खाती हैं ।।
महात्मा जी ने यह प्रश्न बहुत ठीक उठाया है।
हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का यह कर्तव्य है कि वह सांधे को अधार किसमिस जिनको अहार, शीघ्र स शीव्र समस्त पाठ्य पुस्तकों से ऐसे जहरीले चारि को सो अंक लंक चंद सरमाती हैं। अंश निकाल दे और जैसा कि महात्मा जी कहते ऐसी अरि-नारी सिवराज बीर तेरे त्रास, हैं, नवीन राष्ट्रीय दृष्टि-कोण से नये पाठ्य ग्रन्थों पायन में छाले परे कन्द-मूल खाती है ।। का निर्माण करे।
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