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. सम्यक आचार...
अरहन्त
परमिस्टी परंजोति, आचरनं नंत चतुस्टयं ।
न्यानं पंच मयं सुद्ध, देव देवं नमामिहं ॥४॥ त्रिभुवन के जो तिलक कहा कर. शोभा देते हैं छविमान | भवन अनन्त चतुष्टय के जो, केवलज्ञान निधान महान ।। ऐसे उन देवाधिदेव की, रज मस्तक पर धरता हूँ।
परं ज्योति अरहंत प्रभो को, नमस्कार में करता हूँ ॥ जो पंच प्रभुत्रों की कोटि में आने वाले सर्वोत्कृष्ट इष्ट देव है; अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त मुख, और अनन्त शक्ति इन चार अनन्त सम्पदाओं के जो निकेतन है: केवलज्ञान के जो म्वामी है; ऐसे उन परम ज्योति त्रिभुवन-तिलक श्री अरहंत प्रभो को मैं नमस्कार करता हूँ।
सिद्ध
अांत दर्म न्यानं, वीज त अमूर्तयं । विस्व लोकं सुयं रूप, नमामिहं धुव मास्वतं ॥५॥ जो अनन्त दर्शन के धारी, ज्ञान वीर्य के पारावार । निखिल विश्व जिनके नयनों में, श्रुत-समुद्र के जो आगार ॥ निराकार. निमूर्ति, जगत्रय करता जिनका गुणवादन ।
मुक्ति-रमावर उन सिद्धों को, करता हूँ मैं अभिवादन ।। जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति इन चार चतुष्टयों के अधिनायक हैं; जो निमूर्त है; अशरीरी है ; लोक और अलोक के पदार्थों को जो हाथ में रखे हुए आमले के समान देखते हैं; श्रुतज्ञान की जो साक्षान प्रतिमूर्ति है. ऐसे उन ध्रुव और निश्चल पद में निवास करने वाले, मुक्ति-कामिनी कंत श्री सिद्ध प्रभु को मैं अभिवादन करता हूँ।