________________
... ..........
सम्यक आचार .
..
.
[८९
मानं राग संबंध, तप दारुन नंतं श्रुतं । अनृतं अचेत सद्भावं, कुन्यानं संसार भाजनं ॥१६०॥ कितने कठिन तप का ही, मानी जीव क्यों न निधान हो ? कितनी ही श्रुतियों का भरा. उसमें न क्यों विज्ञान हो ? होती न पर उससे विलग, मिथ्यात्व की वह धार है।
कुज्ञान से जो पूर्ण है, संसार की आधार है ॥ जिसके हृदय में मान के चरण पड़ जाते हैं, वह अनेकों दारुण तपों को करता हुआ और संसार भर की श्रुतियों का पाठी हाते हुये भी, मिथ्याज्ञानी व अज्ञानी ही बना रहता है और उस कुज्ञान के कारण बार बार संसार का पात्र बना करता है।
माया
माया असत्य रागं च, असास्वतं जल विंदुवत् । धन यौवन अभ्र पटलस्य, माया बंधन किं करोति ॥१६॥
माया है क्या. यह उस जगत से एक झूठा राग है । जल-चुदबुदों के तुल्य रे, जिसका अनित्य सुहाग है । यौवन अशाश्वत है, अनृत है, जलद-पटल समान है । आश्चर्य माया-जाल में क्यों, फंस रहा अज्ञान है ?
माया क्या वस्तु है ? असत्य रागों की एक भूधराकार राशि ! वह क्षणभंगुर वस्तु, जिसका मुहाग जल के बुबुदों के समान पल भर में नाश हो जाने वाला है। और जिस यौवन की पूर्ति के लिये यह मायाजाल रचा जाता है वह ? वह भी अनित्य ! पावस में उठने वाली घनघोर घटाओं सा अनित्य ! फिर यह मूर्ख मनुष्य क्यों और किस लिये इस सब पाप की उधेड़बुन में फंसा हुआ है ?