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सम्यक् आचार
उपाध्याय उपयोगे जेन, उपाय लष्यनं धुवं । अंग पूर्व उक्तं च, साधं न्यानमयं धुर्व ॥ ३३० ॥
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रहता उपाध्याय वर्ग नित, उपयोग में लवलीन है । उपयोग ही तो जीव का लक्षण विनाश-विहीन है ॥ पूर्वांग का देते वे नित, संसार में उपदेश हैं । तत्वार्थ का तो सहज ही, करते कथन सुविशेष हैं ।
उपयोग चेतन का निश्चित लक्षण है। उपाध्याय इसी ज्ञानोपयोग में नित्यप्रति लवलीन रहा करते हैं । वे ग्यारह अंग व चौदह-पूर्व का कथन करते व नित्यप्रति अपनी ज्ञानमय ध्रुव आत्मा की अर्चना में तल्लीन बने रहते हैं ।
साधुस्व सर्व सार्धं च, लोकालोकं च सुद्धये । रयनत्रय मयं सुद्धं, तिअर्थं साधु जोइतं ||३३१ ||
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सद्गुरु वही नित साधना में मग्न जिनके ध्यान हैं । रे ! लोक और अलोक के, जिनको भलीविधि ज्ञान हैं || शुद्धात्म की ही अर्चना में, जो निरन्तर चूर हैं । जो तीन रत्नों के अलौकिक, ज्ञान से भरपूर हैं |
साधु वही कहलाते हैं, जो साधना में निरन्तर मग्न रहते हों; लोकालोक का जिन्हें भली विधि ज्ञान हो; रत्नत्रय के जो अमूल्य निधान हों और शुद्धात्मा की अर्चना में तल्लीन रहते हुए जिन्हें अपूर्व आनन्द का आभास होता हो ।