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सम्यक् आचार
श्रियं सर्वन्य साथ च, स्वरूपं विक्त रूपयं । श्रियं संमिक्त धुवं सुद्धं, श्री संमिक चरनं बुधै ॥३६४॥ श्रुतज्ञान क्या ? सर्वज्ञ का साक्षात् पुण्य स्वरूप है । श्रुतज्ञान क्या ? आनंदघन, सत् ममल,ध्रुव चिद्रूप है ॥ जिस पंथ पर चल मनुज, बन जाता स्वयं तारणतरण ।
श्रुतज्ञान, वह सम्यक्त्व से, परिपूर्ण है शुद्धाचरण ॥ जिनवाणी सर्वज्ञ प्रभु का साक्षात् स्वरूप है; सत , चित , आनन्द घन परमात्मा है और मुक्ति की ओर ले जाने वाला वह मार्ग है जिस पर चलकर मनुष्य स्वयं विश्व को तारने वाला अविनाशी पुरुष बन जाता है।
पचहत्तर गुन वेदंते, माधं च सुद्धं धुवं । पूजतं अस्तुतं जेन, भव्य जन सुद्ध दिस्टिनं ॥३६५॥ ध्रुव, सत्य, मंगलमय, जो पचहत्तर गुणों का हार है। ध्रुव, सत्या, मंगलमय जो पहल चरणानुयौगिक ग्रन्थ का, सर्वस्व जो सुखसार है । उस हार को देते विनय से, जो हृदय पर ठौर हैं । वे भव्यजन ही शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं, शिरमौर हैं ।
चरणानुयौगिक ग्रंथों का सार ७५ गुणों में भरा हुआ है। जो उन गुणों की वंदना, साधना व पूजा करते हैं, वे नरश्रेष्ठ ही शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले कहाते हैं।