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सम्यक् आचार
न्यानं चारित्र संपूरनं, क्रिया त्रेपन मंजुतं । तप व्रतं च समिदि च, गुप्ति त्रय प्रति पालकं ॥४४६॥
पन क्रियायुक्त रहते हैं, सद्गुरु तारणतरण सुजान । जगमग करते रहते उनको, ज्ञान आचरण रत्न महान ॥ पंच महाव्रत, पंच समिति का, वे नित पालन करते हैं । तीन गुप्ति का पालन कर नित, आत्मध्यान वे धरते हैं ।
साधु ज्ञान और चारित्र से पूर्ण रहा करते हैं। त्रेपन क्रिया, पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का वे पूर्णतया पालन करते हैं और इस तरह संसार के सामने सम्यक्चारित्र का अलौकिक आदर्श रखते है।
मन वचन काय को रोककर योग साधना
चारित्रं चरन सुद्धं, समय सुद्धं च उच्यते । मंपूरनं ध्यान योगेन, माधुओ साधु लोकयं ॥४४७॥ साधु पालते हैं नितप्रति ही, शुद्ध और व्यवहार चरित्र । देते हैं वे शुद्ध तत्व का ही, जग को उपदेश पवित्र । मन, वच, काय त्रियोग रोक वे, योगसाधना करते हैं।
सौख्यसिन्धु शुद्धात्म-कुंज में, ध्रुव हो सतत विचरते हैं। साधु महाराज शुद्ध निर्दोष व्यवहार व निश्चय चारित्र का पालन करते हैं और संसार को शुद्ध रत्नत्रय का उपदेश देने हैं और मन वचन काय इन तीनों योगों को निश्चल बनाकर आत्मसमाधि का अवर्णनीय आनन्द प्राप्त करते हैं ।