Book Title: Samyak Achar Samyak Vichar
Author(s): Gulabchandra Maharaj, Amrutlal
Publisher: Bhagwandas Jain

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Page 305
________________ - सम्यक् विचार वस्त्रं च धर्म सद्भावं, आभरणं रत्नत्रयं । मुद्रका मम मुद्रस्य, मुकुटं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥१६॥ शुद्ध आत्म-सद्भाव-धर्म ही, है पंडित का उज्वल चीर । झिलमिल करता रत्नत्रय ही. है उसका भूषण गंभीर ॥ समताभावमयी मुद्रा ही, है उसकी मुद्रिका अनूप । अविनाशी, शिव, सत्यज्ञान है, उसका ध्रुव किरीट चिद्रूप ॥ आत्म-सरोवर में रमण करने वाले विद्वान म्नान करने के बाद जिन श्राभरणों से अपनी देह सजाते हैं उनमें वस्त्र और आभूपण ये दो ही मुख्य सामग्री होती हैं । वस्त्र तो होता है उनका सद्भावरूपी धम, और आभूषणों में मुद्रिका होती है उनकी समता तथा मुकुट होता है उनका आत्मज्ञान । जो आत्म-ज्ञान सत्यं शिवं सुन्दरम् से युक्त होने से इन्द्र तथा चक्रवर्ती के मुकुटों को भी फीका कर देता है। दृष्टतं शुद्ध दृष्टीं च, मिथ्यादृष्टि च त्यक्तयं । असत्यं अनृतं न दृष्टन्ते, अचेत दृष्टिं न दीयते ॥१७॥ जो ज्ञानी-जन करते रहते, ज्ञान-नीर से अवगाहन । परमब्रह्म उनका दर्पण-वत, होजाता निर्मल पावन ॥ मिथ्यादर्शन को क्षय कर वे, शुद्ध दृष्टि हो जाते हैं । असत, अचेतन, अनृतदृष्टि से, फिर न दुःख वे पाते हैं । जो ज्ञानीजन इस आत्म-सरोवर के नीर में अवगाहन करते रहते हैं, उनका अन्तरंग दर्पण के समान पवित्र हो जाता है। मिथ्यादर्शन को क्षय करके फिर वे शुद्ध दृष्टि हो जाते हैं और उनकी दृष्टि फिर असत्य, अनृत या अचेत की मान्यता की ओर भूलकर भी नहीं जाती। और उनकी शुद्ध दृष्टि में एकमात्र शुद्धात्मा ही झलकती है तथा उसी का वे मनन, ध्यान व चितवन करते हैं।

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