Book Title: Samyak Achar Samyak Vichar
Author(s): Gulabchandra Maharaj, Amrutlal
Publisher: Bhagwandas Jain

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Page 318
________________ २४ - ---------सम्यक विचार जे मुक्ति मुक्वं नर कोपि माधु, सम्यक्त्व शुद्धं ते नर धरेत्वं । रागादयो पुन्य पापाय दुरं, ममात्मा स्वभावं ध्रुव शुद्ध दृष्टं ॥६॥ मैं सिद्ध हूँ, मुक्तिरमणी बिहारी, है मोक्ष मेरी यही चारु काया । मद मोह मल पुण्य गगादिकों की, पड़ती न मुझ पर कभी भूल छाया । मम्यक्त्व से पूर्ण जिनके हृदय हैं, जो चाहते मोक्ष किम रोज पावें । वे स्वावलम्बी इसी भांति अपने, हृदयस्थ परमात्मा को रिझावें ॥ मंमार बन्धनों को काटकर, जो मुक्ति के अनन्त सुग्न को पाने के अभिलापी है, जिनक हृदयमगंबर में मम्यक्त्व पल पल शीतल हिलारें लिया करना है, उन्हें अपनी आत्मा को पहिचानने में तनिक भी समय नहीं लगना । वं मानन है कि मैं ध्र व है, शाश्वन ह और शुद्ध हवा अनन्त ज्ञान का धारी हूँ, वह अलौकिक आत्मा है, जो नीन लोक का प्रकाशित करनी है। और है प्रकाश का वह पुंज जो मदेव अवाध गनि से एक समान चमकना रहता है । राग, द्वंप, पुण्य पाप इन विकारों की कोई छाया उनकी श्रान्मा पर नहीं पड़ती। से सम्यग्दो जीव अपनी आत्मा का चितवन ठीक इसी तरह से करते रहते हैं। उनका एमा ग्रामचिनन ही उनकी आत्मा को परमात्मा बना देता है। श्री केवलंज्ञान विलोकतत्वं. शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं । मम्यक्त्व ज्ञानं चर नंत सौख्यं, तत्वार्थ मार्धं त्वं दर्शनेत्वं ॥७॥ ज्ञानारसी में जिस तत्व का रे ! दिखता सतत है प्रतिविम्म प्यारा । जिसके बदन से प्रतिपल बिखरता, रहता प्रभा-पुंज शुचि शुद्ध न्यारा ।। सम्यक्त्व को पूर्ण प्रतिमूर्ति है जो, हे जो अनूपम आनन्द-राशी । तत्वार्थ के सार उस आत्मा को, देखो, बिलोको, मोक्षाभिलाषी ॥ कंवलज्ञान में जिस तत्व की स्पष्ट छाया दृष्टिगोचर होती है। जिसके कण-कण से प्रकाश के सैकड़ों पुज एक साथ प्रस्फुटित होते रहते हैं तथा जो सम्यक्त्व की पूर्ण प्रतिमूर्ति है ऐसा शुद्धात्म तत्त्व ही वास्तव में सदैव मनन करने योग्य है।

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