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- The TFIC Team.
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सम्यक् आचार : सम्यक् विचार
अर्थात्
[ सारणतरण श्रावकाचार, पंडित पूजा, मालारोहण और कमलबत्तीसी ग्रंथों का अनुवाद ]
मूल प्रणेना १६ वीं शताब्दी के महान् संत श्री गुरु तारणतरण स्वामी जी महागज
प्रस्तावना-लेम्यक
डॉ० हीरालाल जी जैन डायरेक्टर-वैशाली प्राकृत जैन विद्यापीठ, मुजफ्फरपुर (बिहार)
सम्पादक
समाजरत्न, धर्मदिवाकर ब्रह्मचारी पूज्य श्री गुलाबचन्द्र जी महाराज
अनुवादक भक्तामर, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तारणत्रिवेणी आदि के पद्यानुवादक
''कविभूषण" श्री अमृतलाल जी "चंचल"
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= सम्पादकीय
धर्म के क्षेत्र में मानव मात्र को समान अधिकार है, जाति कुल भादि धर्मपालन में बाधक नहीं। धर्म की शीतल छाया सब को सुलभ हो। धर्म मात्मा का गुण है। सदाचरण और मद्ज्ञान उसके प्रमुख अंग हैं। उनका विकास मानव में किस प्रकार हो, कैसे उसका कल्याण हो, यही लक्ष सामने रखकर श्रीमद् तारण स्वामी जी ने सम्यक् प्राचार को प्रकट करने वाले ग्रंथ श्री श्रावकाचार और सम्यक विचार को प्रकट करने वाले प्रथ श्री मालारोहण, पाहन पूजा, और कमल बत्तीसी की रचना की और इन्हीं सबका सामूहिक उपनाम 'सम्यक् आचार : मम्यक् विचार' है ।
सम्यक् आचार और सम्यक् विचार परस्पर अवलपित हैं। धर्म की व्याख्या में निश्चय और व्यवहारनय है। निश्चय के अभाव में व्यवहार केवल शुष्क क्रियाकांड मात्र है, अभीष्ट सिद्धि के लिए एक अकेला ही पर्याप्त नहीं। सद्गृहस्थ और मुनि के धार्मिक विचारों में अन्तर ही केवल यह है कि सद्गृहस्थ अपने धर्माचरण में निश्चय विचारों की गौणता रखता है और मुनि अपने धर्माचरण में निश्चय विचारों की प्रधानता रखते हैं। तात्पर्य यह कि एक के बिना दूसरा पंगु है। स्वामी जी ने सम्यक् आचार और सम्यक विचार की एकता का पद-पद पर दिग्दर्शन कराया है। अपनी रचनाओं में "अध्यात्मवाद" के माग को प्रशस्त किया है। तत्वदर्शी महान् प्राचार्यों ने यही तो बताया था कि चंतन और जड़ दो भिन्न हैं। चेतन के उपासक को अन्तरात्मा और जड़ के उपामक को बहिरात्मा कहा है । स्वामी जी ने सम्बोधन किया, भव्यो ! भटकते क्यों हो ? मूल लक्ष्य की ओर चलो, आत्मा की उपासना करो, उसो में तुम्हारा कल्याण निहित है ।
श्री 'चंचल' जी ने उपरोक्त प्रथों का ( जिनकी भाषा सम्कृन-प्राकृत मिश्रित अपने प्रकार की एक विशिष्ट शैली की है) जन-साधारण के ज्ञानलाभार्थ सरन और ललित पद्यों में अनुवाद किया है, बहुत सुन्दर एवं हृदयस्पर्शी है ।
ग्रंथ की भूमिका में प्रसिद्ध विद्वान डॉ० हीरालाल जी जैन डायरेक्टर वैशाली प्राकृत जैन विद्यापीठ मुजफ्फरपुर ( विहार ) ने मार्मिक विवेचन करते हुए प्रकट किया है कि श्री तारण स्वामी जी के सिद्धान्त जैन धर्म के मूल स्वरूप को बताने वाले हैं, और उनके द्वारा की गई कांति समयानुकूल और धर्म के प्रति फैली हुई क्रांति की उन्मूलक था।
____सागर निवासी तीर्थभक्त, समाजभूषण श्रीमान् सेठ भगवानदास जी शोभालाल जी ने ग्रंथ को उपयोगिता समझकर बगभग ६०००) व्यय करके १००० प्रतियां प्रकाशित करवाई है । मानव कल्याण के लिए जिन्होंने जो कुछ किया है वे सभी अभिनंदनीय हैं ।
हितैषी- गुलाबचन्द ।
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तीर्थभक्त, समाजभूषण सेठ भगवानदास जी शोभालाल जी का संक्षिप्त परिचय
तारण समाज और समाजों को अपेक्षा एक छोटी सी समाज है, किन्तु छोटी सी समाज होते हुए भी आज उसने अन्य समाजों के बीच अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। उसकी अपनी संस्कृति है, अपनी परंपरा है, अपने धमस्थल और अपने शिक्षा के स्थान हैं। जंगल में मंगल नहीं होता, किंतु उसके जो अपने ताथ है - वे तीथे जहां कि तारण स्वामी का बचपन बीता, जहाँ उन्होंने जाति-पांति और ऊँच-नीच के भेदभाव को तेज कर, मानवता को समान रूप से अध्यात्मवाद का पाठ पढ़ाया और जहाँ की ऊँची ऊँची पहाड़ियों पर बैठकर उन्होंने घोर तपस्या कर अपने कर्मों की निर्जरा की, वे तीथे वास्तव में ही जंगल में मंगल करने वाले हैं। घनघोर जंगलों के बीच, उमड़ते हुए बादलों के नाचे, नाचते हुए मयूरों की पृष्ठभूमि में इन तीर्थक्षेत्रों में वास्तुकला का जो प्राचीन और अर्शचीन सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है, वह वास्तव में ही एक दर्शनीय वस्तु है, किन्तु इन सब विविधताओं का केन्द्रविन्दु कौन है, किसके कन्धों पर खड़ी होकर तारण समाज की यह संख्या हरी बनी है और पूरी तारण समाज की तसवीर के पंछे से ऐसा वह कौन व्यक्ति है जो उसमें से झाँक रहा है, और तमवीर को दोनों हाथों से पकड़े हुए जो गौरव के साथ यह कह रहा है कि यह तारगा समाज को तमचोर है; मुझे इसका गौरव है और अपने रहते यह तसवीर सदा मुमकगती ही रहेगी, ऐसा वह व्यक्ति है दूसरा कोई नहीं, केवल इम ग्रन्थ का प्रकाशक ही, दो भाइयों का एक वह जोड़ा जो हमें बरवम कलियुग की परिधि से बाहर खींच ले जाता है और उन भाइयों के जोड़ की याद दिलाता है जो सदा दो काया और एक प्राण होकर रहते थे ।
अगर किसी धार्मिक मेले में, किसी सभा में, किसी संस्था के अधिवेशन में और दरिद्रता से चीखती हुई नंगी और भूखो प्यासी मानवता की सेवा में, आपको कहीं भरत और राम से दो भाई दीख पढ़ें-कहीं आपको यह दीख पड़े कि छोटे बड़े का भेद छोड़कर, परहित के कार्य में कहीं दो इकाइयाँ एक होकर आपस में विचार-विमर्श कर रही हैं और कहीं आपको यह दीख पड़े कि देश, धर्म या जाति के कार्य में दो ऐसे सहोदर कार्य कर रहे हैं जो एक दूसरे की बात को काटना जानते ही नहीं प्रत्युत एक दूसरे से एक कदम आगे बढ़कर यह कह रहा है कि
नौका में पाना बढ़े, दोनों हाथ उल्लीचिये,
घर में बाढ़े दाम । यही सयानो काम ॥
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तीर्थभक्त समाजभूषण श्री सेठ भगवानदास जी, सागर SODOOD00000000000
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-तो पाप किसी से बिना पूछे-पछे, बिना किसी से पता लगाये फौरन यह समझ जाइए कि यह जोड़ा समाजभूषण सेठ भगवानदास और शोभालाल जी का ही है, जो धरती पर आज भी भ्रातृस्नेह को मूर्तिमान करता हुआ फिर रहा है । - समाजभूषण सेठ भगवानदास और शोभालाल सागर निवासी श्री पूरनचन्द जी समैया के पुत्र हैं। आपके एक बड़े भ्राता और थे जिनका नाम श्री मोहनलाल जी था। स्व. श्री मोहनलाल जी की कोई संतान नहीं है, किन्तु उनकी विधवा पत्नी आज भी विद्यमान हैं और अपने परिवार के साथ पूर्ण धार्मिकतामय जीवन बिता रही हैं। सेठ भगवानदास जी के पाँच पुत्र हैं-(१) डालचंद (२) प्रेमरन्द (३) शिखरचन्द (४) दीपचन्द और (५) अशोककुमार। तथा भी शोभालाल जी के को पुत्र हैं-(१) मानिकचन्द (२) हुकुमचन्द। दोनों भाइयों को दो-दो सुशील पुत्रियां तथा भनेको पौत्र और पौत्रियाँ भी हैं, और इस तरह आपका घर मव भांति सम्पन्न है।
भाज से ४० साल पहले इनकी स्थिति बहुत ही साधारण थी, किन्तु भाज जो उतारता और दानादिली ननमें है, चित्त की यहो वृत्ति भी उम समय थी, इसमें कमी नहीं थी, और अपने परिश्रम से कमाये हुए द्रव्य का वे अपने मित्रों के और सम्बन्धियों के बीच में उम समय भी वैसा ही उपयोग किया करते थे। समय पलटते देर नहीं लगत'; कुछ पुण्य का संयोग ऐसा मिला कि उस समय के बाद से ही, आपकी जो स्थिति पलटी तो पलटती ही गई और आज तो आपका निगला ही ठाठ है, लेकिन ठाठ के मायने यह नहीं कि अपने आप किसी को समझते ही नहीं या गरीबों के बीच में बैठकर आप उनके सुख दुःख के भागी ही नहीं बनते । ठ ठ बनने के बाद ६५ प्रतिशत लोगों में ये बातें भा जाती है, किन्तु आप उन ५ प्रतिशत लोगों में से एक है, जो फलों का भार पाकर वृक्ष के समान झुकते ही गये, और जैसे जैसे घर में लक्ष्मी बढ़ो दान और धर्म में जिनका हाथ बढ़ता ही गया। नवाब अब्दुर्रहीम स्वानखाना जब दरबार में बैठते थे, तो जो भी उनके सामने भाता था, खाली हाथ वापिस नहीं जाता था। हाथ उनके सदा ऊँचे ही रहते थे, पर क्या मजाल कि हाथ के साथ उनके नयन जरा भी ऊँचे उठ जायें। एक कविहृदय को यह बात कुछ अचरज भरी लगी, इतना बड़ा दानी, पर जरा भी गुमान नहीं। एक कागज उठाया और
सीखी कहाँ नवाब ज़, ऐसी बांकी देन ।
ज्यों ज्यों कर ऊँचे उठे, त्यो त्यों नीचे नैन । यह दोहा लिखकर उत्तर के लिए नवाब साहब के पास भिजवा दिया। नवाब सा० ने तुरन्त लिख भेजा
देनहार कोऊ और है, जो देवत दिन रैन ।
लोग भरम मो पै करें, यासें नीचे नैन । समाजभूषण जी के साथ भी यही उक्ति घटती है। लोगों ने उनके हाथ अवश्य ऊँचे स्टे देखे हैं, लेकिन नैन उनके सदा ही नीचे रहे हैं। तारण समाज के क्षेत्रों को और उसके साहित्य को प्रकाश में लाने के लिए तो आपने लाखों का दान दिया ही है और आये दिन वह दान उसे
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तो देते ही रहते हैं, लेकिन दिगम्बर जैन मूर्तिपूजक समाज की संस्थाओं को भी पाप अपने दान से वंचित नहीं रखते हैं और जब भी आपके सामने कोई माँग पाती है, आप उसे एक कदम बढ़ाकर पूरी कर देते हैं।
साल में बराबर भाप नियम से गरीबों को सहस्रों वस्त्र बँटवाते ही हैं। जिनको पाने के लिए दूर दूर से भिखारी पा ही जाते हैं। सागर में आपके स्व० भ्राता जो के नाम से एक "मोहन धर्मार्थ औषधालय" भी चल रहा है जिससे प्रतिदिन सैकड़ों गरीब औषधि प्राप्त करते रहते हैं। धर्म के प्रति आपका स्नेह इतना अधिक है कि जब भी कहीं मेला भरता है या पूज्य ब्रह्मचारी जी का शुभागमन होना है पूरा का पूरा कुटुम्ब उस ओर मुड़ जाता है। जब कोई सामाजिक या धार्मिक गुत्थी उलझ जाती है तो अपने विश्राम का भी ध्यान न रख कर रात के ४-४ बजे तक बैठकर समस्या सुलझाया करते हैं।
सुधार के मार्ग में इतने आगे बढ़े हुये हैं कि आज जैनियों में ही नहीं इतर समाजों में भी जो आदर्श विवाह होते हैं, उनके जनक आप ही हैं। अपने पुत्र-पुत्रियों के स्वयं आदर्श विवाह कर, आपने ही सबसे प्रथम इस समान में इस कान्ति का बीजारोपण किया । ये शादियां सामूहिक रूप से आयोजित की जाती हैं जिसमें श्री गुरु महागज के केवल मालारोहण के पुण्य मंत्र ही वर और वधू को जीवन भर के लिए पाणिग्रहण के पवित्र बंधनों में बांध देते हैं। विनोदी दोनों भ्राता इतने हैं कि जहां चार पंच मिले वहीं उनकी हँसी का पिटारा खुल जाता है और फिर वे उनमें इतने घुल मिल जाते हैं, जो देखते ही बनता है।
निसई जी पर उदासीन आश्रम और पाठशाला पापकी ही देन है। वि० सं० १६६७ में सागर में वेदी प्रतिष्ठा कराने के उपलक्ष में आप समाज से 'सेठ सा.' की तथा २००१ में अपनी अन्यान्य सेवामों के उपलक्ष में 'समाजभूषण' की पदवी से विभूषित हुए हैं। आज तक आप जैन भजैन संस्थाओं को लाखों का दान कर चुके हैं, और आये दिन करते ही जाते हैं। तारण साहित्य से तो आपको अगाध प्रेम है और उसके प्रचार में दोनों भ्राता सब तरह से अपना तन, मन और धन लगाने को प्रस्तुत बने रहते हैं। निसई जी क्षेत्र की तो आपने काया पलट ही कर दी है। आपके द्वारा वहां का निर्मित स्वाध्याय भवन, तारण द्वार, ब्रह्मचारी निवास, धर्मशाला तथा वेदी जी का विस्तृत रूप वास्तव में देखने योग्य वस्तु हैं।
श्री गुरुदेव दोनों भाइयों की यह जोड़ी सुरक्षित बनाये रखें जिससे देश धर्म व जाति का महर्निश कल्याण होता रहे, यही पूरी तारणसमाज की प्रार्थना है और है मंगल काममा ।
-चंचल ।
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तीर्थभक्त समाजभूषण श्री सेठ शोभालाल जी, सागर
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प्रस्तावना [ डा. हीरालाल जैन, डायरेक्टर-वैशाली प्राकृत जैन विद्यापीठ, मुजफ्फरपुर ]
कुछ वर्ष पूर्व तारण म्वामी की तीम रचनाएं अमृतलाल जो चंचल के अनुवाद सहित 'तारण-त्रिवेणी' के नाम से प्रकाशित हुई थीं। उस प्रन्थ को प्रस्तावना में मैंने संत परम्परा में सारण स्वामी के स्थान व उनकी प्रन्थों के विषय व भाषा सम्बन्धी विशेषतामों पर अपने विचार प्रकट किये थे। मुझे चंचल जी से यह जानकर बड़ी प्रसन्नता है कि उक्त प्रकाशन बहुत लोकप्रिय हुमा और उसके द्वारा जनता की रुचि स्वामी जी की रचनाओं की ओर अधिकाधिक प्राकष्ट होने लगी । इसी लोक-रुचि और भावश्यकता की पूर्ति के लिये अब चंचल जी ने तारण स्वामी की अन्य कुछ रचनाओं का अनुवाद प्रस्तुत किया है जो स्वागत करने योग्य है।
___ तारण स्वामो की रचनायें धार्मिक भावों से ओत प्रोत हैं और उनमें अध्यात्म चिन्तन को धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित हो रही है। स्वामी जी की यह विचारधारा एक ओर तो भारतीय सन्त परम्परा से मेल खाती है और दूसरी ओर अपनो कुछ विशेषता भी रखती है। आप वोदक परम्परा की उपनिषद भादि रचनाओं से लेकर कवीर की वाणी तक के सन्त साहित्य को देखिये, बौद्धों के सिद्धां और योगियो के दोहा काषां और चा-पदों का अवलोकन काजिये एवं जैन साहित्य में कुन्दकुन्द आचाय से लेकर योगीन्द्र व रामसिंह भादि मुनियों की रचनाओं का स्वाध्याय कीजिय और उनके साथ तारणस्वामी को वाणो पर ध्यान दीजिये ! आपका वही भारतीय अध्यात्म चिन्तन का प्रवाह दिखाई देगा जिसका केन्द्रीय विषय है संभार की निस्सारता, भौतिक पदार्थों की क्षणभंगुरता, इन्द्रियों के भोग-विलामों और सुग्वभासों की तुच्छना तथा प्रात्म और परमात्म अनुभवों को सारभूतता । भारत के ऋषियों मुनियों ने जब से इम नश्वर देह से भिन्न शाश्वत आत्मा को सत्ता को पहिचान पाया है तब से उन्हें व उनके अनुयायिओं को सांसारिक वासनाओं से विरक्ति होगई है। यही नहीं, किन्तु उनका ममम्त विचार-सरणि और चया उस दिशा में प्रवाहित हुई है जहाँ उस आत्मा का शुद्ध, बुद्ध और नित्य स्वरूप प्रकाश में आ सके । इस भावना ने संसार को भौतिक नीला के पाच भारतीयों के हृदय में अध्यात्म की एक अदम्य लालसा उत्पन्न कर दी है, जिससे यहां के भावालवृद्ध सभा मनुष्यों को इस लोक के साथ-साथ परलोक सुधारने को भी प्रेरणा मिलता रहती है।
अध्यात्म की इस सामान्य भारतीय चिन्तन धारा में वंदिक और जैन परम्परा की अपनी अपनी भी कुछ विशेषतायें हैं। वैदिक धारा में इसका चरम विकास वेदान्त दर्शन में पाया जाता है जिसके अनुसार ब्रह्मसत्यं जगान्मध्या-जावा ब्रह्मेर नापरः। अथात् समस्त दृश्यमान चराचर
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जगत् मूल एक सा तत्व ब्रह्म ही है जो इन्द्रियानीत है । उसके अतिरिक्त जो इन्द्रियगोचर पदार्थ हैं वे सब मिथ्या हैं । माया रूप हैं। जो सजीव पदार्थों में हम एक चेतन तत्व पाते हैं वह ब्रह्म ही है, अन्य कुछ नहीं । इस दृष्टि से एक मात्र विश्वव्यापी तत्त्र ब्रह्म ही सत्य है । शेष समस्त गोचर व अनुभवगम्य पदार्थ माया है, मिथ्या है। जीव के यदि कोई बंधन है, आवरण है, तो दृष्टिभ्रम का ही । जब जीव अपने को ब्रह्म रूप जान जाता है तब वह शुद्ध, बुद्ध मुक्त होकर उसी ब्रह्म में लीन हो जाता है और यही उसका अन्तिम ध्येय है- ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ।
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इसके विरुद्ध जैन धर्म ने जीव और अजीत्र दोनों तत्वों को सत्य स्वीकार किया है। अजीव का सूक्षतम रूप कर्म-रज है जो अत्मा के साथ संबद्ध होकर उसे नाना भवों व पर्यायों तथा सुख दुःख का अनुभव कराती है। यह कर्म-रज जीव तत्त्र में तभी अनुप्रविष्ट होती और उसको बांधती है जब जीव के मन, वचन, काय की क्रिया और क्रोध, मान, माया, लोभ रूप विकार होता है। जब जीव अपनी चैतन्यरूप आत्मसत्ता को जड़ तत्व से भिन्न पहिचान कर सतर्क हो जाता है, संयम द्वारा इन्द्रियों और कषायों का दमन करने लगता है तथा आत्मतत्व में तल्लीन बहने लगता है तब उसके कर्म बन्ध की परम्परा क्षीण हो जाती है, समस्त बंधे हुये कर्म नष्ट हो जाते हैं, यही उसका मोक्ष व निर्वाण है 1
इस प्रकार जैन तत्वज्ञान के अनुसार कोई विश्वव्यापी एक मात्र ब्रह्म नहीं है, जिसमें समस्त जीव मुक्त होने पर विलीन हो जायें । किन्तु मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी कीट पतंग एवं वनस्पतियों तक जितने सचित्त प्राणी हैं उन सब की अपनी अपनी अलग आत्म-सत्ता है। इस प्रकार नोबों की संख्या अनन्त है । उनका संसार में बन्धन उनकी भ्रान्ति मात्र रूप नहीं है, किन्तु उनकी शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा सींची हुई कर्म रज से उत्पन्न हुआ है। जिस जीव ने संयमादि द्वारा अपने को इस बन्धन से मुक्त कर लिया वह किसी अन्य सत्ता में अपने को विलीन नहीं करता, किन्तु स्वयं परमात्मा बन जाता है। अनादिकाल से यह क्रम चला श्र हा है और इस प्रकार परमात्माओं की संख्या भी अनन्त है । जगत का जड़ तत्व भी मिथ्या नहीं है, पृथ्वी, आकाश व काल की अपनी अपनी पृथक् सत्ता है और उनके द्वारा जीवों का अपने अपने भावों के अनुसार उपकार भी होता है और अपकार भी । चेतन को जड़ से मुक्त करने की प्रक्रिया का नाम ही धर्म है ।
इस प्रकार धर्म का मूल स्वरूप आध्यात्मिक ही सिद्ध होता है । किन्तु जब धर्म को मूर्तिमान स्वरूप देने का प्रयत्न किया जाता है, उसे व्यावहारिक व सामाजिक बनाया जाता है, तब उसमें नाना प्रकार के दृश्यमान प्रतीकों का समावेश हो जाता है। जिन परमात्माओं के चरित्र का
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ध्यान करके हम अपने चरित्र को सुधारते हैं, उनकी हम मूर्तियां स्थापित कर लेते हैं और उनके प्रति अपनी श्रद्धा, भक्ति-भाव व्यक्त करने के लिये उनकी स्तुति करते एवं नाना द्रव्यों से उनकी पूजा अर्चना करने लगते हैं । और जब व्यक्ति ही नहीं, किन्तु समाज का समाज इन्हीं पूजा अर्चा
आदि क्रियाओं को धर्म का सर्वस्व समझने लगता है और अध्यात्म भाव को भूलने लगता है. यही नहीं. किन्तु इन्हीं क्रिया प्रों द्वारा वह अग्ने इहलौकिक अभीष्टों को सिद्ध करने का प्रयत्न करने लगता है, तब धर्म में विकार उत्पन्न हो जाता है और मनीषी साधुओं को इसकी चिन्ता हो उठती है कि सच्चे धर्म की यह विकृति किस प्रकार दूर की जाय ।
तारण स्वामी इसी प्रकार के महान साधु हुए हैं। उन्होंने देखा कि जिस अध्यात्म को विशुद्ध धारा को तीर्थंकरों, उनके गणधरों एवं कुन्दकुन्दादि आचायों में प्रवाहिन किया था, वह मूर्तिपूजा सम्बन्धी क्रिया-काण्ड द्वारा कुंठित और अवरुद्ध होने लगा है, तब उन्होंने अपने उपदेश द्वारा, अपनी वाणी के बल से, लोगों का ध्यान पुन: अध्यात्म की ओर आकर्षित किया । उनकी जितनी रचनाएं उपलब्ध हैं उन सब में वही विशुद्ध जैन अध्यात्म की धारा प्रवाहित है। उसमें कोई खंडन-मंडन नहीं, रागद्वेष नहीं, किसी की अपनी मान्यता की आघान पहुँचाने की भावना नहीं । उसमें तो सीधे और सरल रीति से जैन अध्यात्म की नाना भावनामों का स्वरूप बतलाया गया है। न ननकी वाणी में किसी सम्प्रदाय -विशेष का संगठन करने का भाव है, और न किसी दर्शनशास्त्र को उत्पन्न करने का प्रयत्न । उस में यदि कुछ है तो केवल वही अध्यात्म की पुकार । जड़ प्रवृत्तियों में मत उलझो, सच्चो आत्मशुद्धि की ओर ध्यान दो।
स्वामी जी का यह उपदेश उनके नाम से प्रचलित अनेक ग्रन्थों में पाया जाता है । जिस काल में और जिस रूप में उन्होंने यह उपदेश दिया होगा वह अवश्य ही लोगों के हृदयंगम होता होगा। तब ही तो उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ी, जो आज तक भी कई सहस्र पाई जाती है। तथापि उपलब्ध ग्रन्थों की भाषा व प्रतिपादन शैली ऐसी पाई जाती है कि वह बिना गुरु उपदेश के आजकल के पाठकों को सुज्ञेय नहीं है। इस कठिनाई को दूर करने का प्रथम श्रेय स्वर्गीय ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसाद जी को है, उन्होंने अनेक ग्रन्थों की सुबोध टीकायें लिखकर स्वामी जी के उपदेशों का मर्म खोलने का प्रयत्न किया था। अब श्री अमृतलाल जी चंचल ने अपनी काव्यकुशलता और सरलार्थ रचना द्वारा इन ग्रन्थों को और भी सुगम, आकर्षक और उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है, जो प्रशंसनीय है।
प्रस्तुत रचना के माधारभूत प्रन्थ तारनस्वामी द्वारा विरचित चार प्रन्थ हैं। श्रावकाचार, पंडितपूजा, मालारोहण और कमलबत्तीसी। इन्हीं का अनुवादक ने नया नाम 'सम्यक् भाचार :
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सम्यक विचार' रख दिया है। पाठकों को प्रतीत होगा कि अनुवादक अपनी रचना में मूल ग्रन्थों के पाठ का उल्लंघन कर गये हैं, किन्तु यदि वे शान्त हृदय से विचार करेंगे तो उन्हें यह विश्वास उत्पन्न होने में देर नहीं लगेगी कि अनुवादक ने उल्लंघन 'शब्दरचना मात्र' में ही किया है और वह इसीलिये कि जो गूढ़ तत्व मूल ग्रन्थ की वाणी में सूक्ष्मता सूत्र रूप में अन्तर्हित सुस्पष्टता से आज की सरल और चित्ताकर्षक भाषा-शैली में उतर आवें ।
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मैंने जहां तक नई रचना का मूल पाठ से मिलान करके देखा है वहां तक मुझे तो सन्तोष हुआ है कि अनुवादक ने अपने कवि कर्तव्यों को निबाहते हुए बड़े प्रयत्न और सावधानी से मूजाथ को ही सुस्पष्ट करने का उद्योग किया है ।
यों तो प्राचीन आचायों की वाणी अपने रूप में अद्वितीय है और कोई भी उनका सच्चा सर्वाग सम्पूर्ण अनुवाद प्रस्तुत करने में सोलहों आने सफल होने का दावा नहीं कर सकता, किन्तु चंचल जी का यह प्रयास उचित रूप से उचित दिशा में हुआ है जिसके द्वारा इन प्राचीन रचनाओं को लोकप्रिय बनाने में बड़ी सहायता मिलने की आशा की जा सकती है । इस दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता व प्रकाशक अभिनन्दनीय हैं ।
मुजफ्फरपुर ( बिहार ) २४-४-१६४७ ई०
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- हीरालाल जैन ।
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श्री निसई जी का मूल मन्दिर ( जिसका द्विगुण विस्तार वि० मं० २०१० में श्री समाजभूषण जी सागरवालों द्वारा किया गया )
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अपनी बात
आज के इम विज्ञान के युग में, जब कि कृत्रिम उपग्रह, पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं, पलक मारते ही लोग चन्द्रमाकी धरती पर उतर जाने का स्वप्न देख रहे हैं और मनुष्य के मस्तिष्क इस बान से ग्वाली नहीं रह गये हैं कि कुछ वर्षों के बीच में ही जगह जगह यत्र-चालिन मानव दृष्टिगोचर होने लगेंगे, "धर्म" नाम का शब्द बड़ी विडम्बनापूण स्थिति में पड़ गया है और लोग जैसे उसका उपहाम सा करने लगे हैं, लेकिन देश, क्षत्र, काल और भाव के अनुसार धर्म को परिभाषा में चाहे जो अन्तर आजाये. धर्म का मूलरूप न कभी नष्ट हुआ है और न होगा, और उसका एक ही कारण है। धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है पुगन से नहीं । और जब प्रात्मा अमर है. अविनाशी है और ध्रुव है तो उसका जो स्वभाव धर्म है, उसको कोन नष्ट कर मकना है ? वह संसार से कैसे लुप दो मकना है !
अभी हाल में ही ( १७नबम्बर १६५७ को) दिल्ली में जो विश्वधर्म सम्मेलन हुआ था, उसमें बोलते हुए राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था
आज विज्ञान की प्रगनि ने एक दृमर्ग और जटिल समस्या उपस्थित कर दी है। प्रकृति और प्रकृति के साधनों पर मनुष्य इतना अधिकार पा चुका है, और पाता जा रहा है कि वह सपने को कंवल सर्वज्ञ ही नहीं, सर्व शक्तमान भी मानने ला है और भौतिक प्रगति र भतिक मुमः को ही सर्वश्रेष्ट ध्येय मानने लग जाये तो उसमें आश्चर्य नहीं । धर्म का मूल तत्व भौनिक माधनों पर निर्भर नहीं बल्कि अध्यात्म पर आधारित है। आज की परिस्थिति में मनुष्य उस मुख्य अाधार को ही खोता जा रहा है और इसके परिणामस्वरूप मनुष्य-समाज भौतिक पदार्थों के लिये घातक होड़ में लग गया है और इसलिये परस्पर सहिष्णुता और उदारता की भावना कमजोर होती जा रही है।"
... धर्म अथवा अध्यात्मवाद का सहारा लिये विना मानव न तो विज्ञान की ही उन्नति से लाभ उठा सकता है और न ही सवनाश के अभिशाप से बच सकता है।"
धम का स्वरूप क्या है, इस को समझाते हुए आपने कहा
" मूल में सब धर्म एक रूप हैं और सब का एक ही ध्येय है, वह है मानत की आत्मा का पूर्ण विकास, जिससे वह सच्चो शान्ति अथवा मोक्ष या निर्वाण प्राप्त कर सके। दूसरे शब्दों में जिससे वह परमात्मा को प्राप्त कर सके। मनुष्य की यह महत्वाकांक्षा इतनो प्रवल और सार. गर्भित है कि दैनिक जीवन में इससे बढ़कर हमारा पथप्रदर्शन और कोई भावना नहीं कर सकती। सच्चे धर्म के धरातल पर पहुंचते ही आपसी मतभेद, सभी प्रकार के कलह और वैमनस्य सहसा लुप्त हो जाते हैं और मानव ऐसी व्यापकता के दर्शन करता है कि उसे सब एक समान दिखाई
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देने लगते हैं। इस भावमा का ही दुसरा नाम जोवन का आध्यात्मिक पक्ष है। यह स्पष्ट है कि इस आध्यात्मिक पक्ष का मानव के विकास और उसकी सच्चो सुख शान्ति से घनिष्ट सम्बन्ध है।"
इसी धर्म की बाधारशिला पर खड़े होकर १६ वीं शताब्दी के माध्यात्मिक संत श्री गुरु सारण तरण महाराज ने कई प्रन्थ प्रस्तुत किये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ उनके श्रावकाचार, पण्डित पूजा, मालारोहण और कमलबत्तोसो इन चार ग्रन्थों का एक संग्रह है। प्राचार खड में श्रावकाचार और विचार खंड में बाद के तीन ग्रन्थों का ( तारण त्रिवेणी का ) समावेश किया गया है। यह ग्रन्थ श्री गुरुने गृहस्थों के निमित्त लिखा है। गृहस्थों से उनका तात्पर्य उन गृहाथों से है जो जप, तर. व्रत अथवा अन्य कियाओं से तो हीन है, किन्तु जो अनात्मवादी नहीं हैं; आत्मा पर जिनको श्रद्धान है और जो कम से कम इतना अवश्य जानते हैं कि शरीर अलग वस्तु है और आत्मा अलग, शरीर नाशवान है, जबकि भात्मा अमर है, ध्रुव है और भविनाशी है।
जैन धर्म के भंडार में प्राचार विचार के ग्रन्थों को कमो नहीं। अनेकों प्राचार्यों ने इस विषय में ज्ञान दान दिया है और भूनती भटकती मानवता को अनेकों तरह से मार्ग बताया है, लेकिन उनमें और तारणस्वामी के ग्रन्थों में मौलिक अन्तर है, और वह अन्तर यह है कि जहां अन्यान्य भाचार्यों ने गृहस्थों के पूर्ण व्यावहारिक सांचे में ही ढल जाने की प्रेरणा की है, वहाँ श्री तारणस्वामी ने सबको अध्यात्मवाद की भोर ही मोड़ने का प्रयास किया है, फिर चाहे वह विषय पूर्ण व्यावहारिक ही क्यों न रहा हो । यदि पाठक इस ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़ेंगे तो उन्हें यह अनुभव करते देर न लगेगी कि पूरे ग्रन्थ में स्वामीजी की एक ही टेर चल रही है और वह टेर है
देवं गुरुं श्रुतं वंदे धर्म शुद्धं च विंदते । तीर्थ अर्थलोकं च स्नानं च शुद्धं जलं ॥
आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सद्गुरु भाई ! आतम शास्त्र, धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म हो सुखदाई ॥ आत्म-मनन ही है रत्नत्रय, पूरित अवगाहन सुखधाम ।
ऐसे देव, शास्त्र, सद्गुरुवर, धर्म, तीर्थ को सतत प्रणाम ॥ वे मनुष्यों के कार्य-कलापों को नहीं, प्रत्युत उनकी वृत्ति को ही अध्यात्मवाद की ओर एकवारगो मोड़ देना चाहते हैं, ताकि जड़वाद के जाल में वह किसी तरह फंस ही नहीं सके. क्योंकि आपके विचार से जिसके हृदय में जड़वाद का बसेरा हो गया, वहां शुद्ध बुद्ध परमात्मा का प्रकाश फिर जाता ही नहीं। अपने इसी ग्रंथ की २० वी गाथा में वे कहते हैं
अनृतं विनासी चिन्ते, असत्यं उत्साहं कृतं । अन्यांनी मिथ्या सद्भाव, सुद्ध बुद्ध न चिन्तए ॥
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[ १३ ]
अनृत वस्तुओं के चिन्तन से, मार्ग असत् बढ़ता है । इस पथ का अनुगामी नितप्रति, मिथ्या पथ चढ़ता है । यह मिथ्यात्व जमा लेता है, जिसके उर में डेरा ।
शुद्ध, बुद्ध प्रभु का न वहाँ फिर, रहता नेक वसेरा ॥ आगे एक जगह वे पुन: यही बात दोहराते हैं
मिथ्यात मति रतो जेन, दोसं अनंता नंनयं । सुद्ध दिस्टि न जानन्ते, असुद्धं सुद्ध लोपन ॥
जो मिथ्यामति के सरवर में, नितप्रति करता क्रीड़ा । वह अनन्त दोषों का भाजन, होकर महता पीड़ा ।। दर्शन--मणि के सपने तक में, उस को दर्श न होते ।
यत्र तत्र वह दुर्गतियों में, खाता नित प्रति गोते ॥ अध्यात्मवाद की ओर उनका यह मोड़ इतना प्रवल है कि उन्होंने हर वस्तु को अध्यात्म के रंग में रंगने का प्रयास किया है,-हर वस्तु में उन्होंने आध्यात्मिकता की झांकी देखी है।
मदिरा क्या है, यह सब जानते हैं, और सप्रव्यमन के अन्तर्गत होने से सबने उसको त्याज्य ही बतलाया है, लेकिन चेतन और अचेतन को नहीं पहचानना, क्या यह भी कोई मदिरापान है ? जी हां ! है, श्रीगुरु का अध्यात्मवाद कहता है
अनृतं असत्य भाव च, कार्याकार्य न सूच्यते । ते नरा मद्यपी होन्ति, संसारे भ्रमनं सदा ॥
जो नर अचेतन और चेतन को नहीं पहिचानते । क्या कार्य और अकार्य क्या, जो नर नहीं यह जानते ॥ अविवेक मदिरा से छलकती, पी निरन्तर प्यालियां ।
वे मद्यपी संसार की नित, छानते हैं नालियां ॥ शुद्ध तत्वं न वेन्दन्ते, अशुद्ध शुद्ध गीयते । मद्यं ममत्व भावेन, मद्य दोषं जथा बुधैः ॥
जो शुद्धतम तत्वार्थ का लाते न मनमें ध्यान हैं । जड़, पुद्गलों का आत्मवत, करते सतत जो गान हैं ।। इस भांति के मिथ्यात्व में ही, जो सदा लवलीन हैं । वे मद्यपी हैं, छानते नित चतुर्गति मतिहीन हैं ।
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[१४]
इसी तरह गुरुदेव 'पाखेट' के अन्तर्गत "पारधी" की अपनी व्याख्या करते हैं ।
पारधी दुस्ट सद्भाव, रौद्रं ध्यान च संजुतं । आरति आरक्तं जेन, ते पारधी च संजुतं ॥ जो निठुर भावों से भरा, कटु रौद्र का जो धाम है । सर्वज्ञ कहते 'पारधी' उस जीव का ही नाम है। जो जीव आर्त-ध्यान में ही, लिप्त है आसक्त है ।
वह भी सरासर 'पारधी' की भावना से युक्त है ॥ म्वामी जी की अपनी दूसरी विशेषता है बाह्य डम्बरों के प्रति जागरूकता,- बाह्याडम्बरों को समूल नष्ट करने की प्रवृत्ति जैसी कि दाद. कबीर, नानक श्रादि सभी सन्तों में समानरूप से व्यान थी। बाह्याडम्बरों पर उन्होंने कहीं पर्दा नहीं डाला है, प्रत्युन उमकी उन्होंने जी भरके भर्त्सना की है। प्रात्मप्रतीति के विना जप, तप, क्रिया, व्रत साधने वालों के प्रति उनका व्यक्तित्व कहता है
जस्य मंमिक्त हीनस्य, उग्रं तव व्रत मंजुतं । मंजम क्रिया अकार्ज च, मूल विना वृष जथा ॥
जो उग्र तप तपता है, पर श्रद्धान से जो हीन है । वह मूर्ख अपना तन बनाता, निष्प्रयोजन क्षीण है। जिस भांति होती वृक्ष की रे ! मृल ही आधार है ।
उस भांति जप, तप, क्रिया में दर्शन प्रथम है-सार है ॥ एक स्थल पर वे पुन: कहते हैं
संमिक्त विना जीवा, जाने अंगाई श्रुत बहु भेयं । अनेयं व्रत चरनं, मिथ्या तप वाटिका जीवो ॥
यह जीव तीनों लोक के, श्रुतज्ञान का भण्डार हो । व्रत, तप क्रिया से युक्त हो, आचार का आगार हो । पर यदि न इसके हृदय में, समक्ति-सलिल का ताल है ।
जप, तप, क्रिया, व्रत सभी, इसका एक मायाजाल है ॥ संसार की जड़वादिता पर भी वे इस ग्रन्थ में चुप नहीं बैठे हैं और एक सुधारक के नाते उन्होंने जड़पूजा को भी इसमें अछूता नहीं छोड़ा है । वे कहते हैं
अदेवं देव प्रोक्तं च, अंध अंधेन दिस्टते । मार्ग किं प्रवेसं च, अंध कूप पतति ये ॥
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। १५ ।
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......."
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चैतन्यता से हीन जो अबान, जड़ स्वयमेव हैं । उनको बना आराध्य ये नर, कह रहे ये देव हैं । अन्धों को अन्धे राज ही यदि, स्वयं पथ दिखलायेंगे । तो है सुनिश्चित वे पथिक जा, कूप में गिर जायेंगे ।
और
असुद्धं प्रोक्तं स्वैव, देवलि देवपि जानते । षेत्रं अनन्त हिण्डते, अदेवं देव उच्यते ॥
जो मन्दिरों की मूर्तियों को, मानते भगवान हैं । वे जीव करते हैं असम्यक, अशुभ कर्म महान हैं। पाषाण को, जड़ को अरे जो, देव कह कर मानते ।
वे नर अनन्तानन्त युग तक, धूल जग की छानते ।। मोक्षमार्ग में जाति पांति के भेद भाव को तथा ऊँच नीच की भावनाओं को आपने अपने बोलों में कहीं स्थान नहीं दिया है, प्रत्युत १६ वीं सदी के सन्तों के समान आपने भी इन भेदभावों की भर्त्सना ही की है
संमिक्त मंजुत्त पात्रस्य, ते उत्तमं मदा बुधै । हीन संमिक्त कुलीनस्य, अकुली अपात्र उच्यते ॥
सम्यक्त्व निधि का पात्र, यदि चांडाल का भी लाल है । तो वह नहीं है नीच, वह भूदेव है, महिपाल है ॥ सम्यक्त्व-निधि से रहित, यदि एक उच्च, श्रेष्ठ कुलीन है ।
तो वह महान दरिद्र है, उससा न कोई हीन है ॥ इस तरह यह पूरा प्रन्थ क्रान्तिकारक विचारों से भरा हुआ है। प्राचार विचार के शाखों से इसमें शुष्कता नहीं, प्रत्युत विचारों में नवीनता होने के कारण पढ़ने वालों की गति इसमें कहीं रुकती नहीं और जब स्वामी जी "यह पात्मा ही परमात्मा है" का नारा लगाते हैं तब तो विचारवान् पाठकों की गति में जैसे बिजली का संचार हो जाता है
परमानन्द सं दिष्टा, मुक्ति स्थानेषु तिस्टते । सो अहं देह मध्येषु, सर्वन्यं सास्वतं धुवं ॥
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[१६]
सिद्ध प्रभो हैं सिद्ध भवन में, परमानंद मगन हैं । समकित समता सुरसरिता मय, उनके युग्म नयन हैं । मैं भी तो हूँ सिद्ध, कि मेरा अंतर सुख-सागर है ।
मैं ध्रुव, मैं सर्वज्ञ, देह-देवल मेरा आगर है ॥ और
दर्शन न्यान संजुक्तं, चरन वीर्ज अनंतयं । मय मूर्ति न्यान सं सुद्धं, देह-देवलि तिस्टते ॥
अमित ज्ञान दर्शन के धारी, अमित शक्ति के सागर । वीतराग, निस्सीम, निराकुल, पुण्य आचरण आगर ॥ ज्ञानमूर्ति, निमूत, निरन्तर, घट घट मय अविनाशी ।
ऐसे श्री जिन, मेरे तन के देवालय के वासी ॥ प्रस्तुत ग्रन्थ का आचार खंड पांच भागों में और विचार खंड तीन भागों में बंटा हुआ है, जो आद्योपान्त पठनीय है।
इस ग्रन्थ का 'प्राचार' खंड पहिले सर्वधर्म समन्वय की दृष्टि को लेकर गीता, महाभारत, बाइबिल, कुरान आदि के उद्धरण सहित निकलने वाला था और "तारणतरण साहित्य सदन" जबलपुर के अन्तर्गत उसकी पूर्ण तैयारियां भी हो चुकी थी, किन्तु किन्हीं कारणोंवश वह प्रयास पुस्तकाकार न हो सका और अब विचार खंड के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ आपके सम्मुख उपस्थित है।
जैन समाज के अद्वितीय विद्वान् डॉ. हीरालाल जैन ने 'तारगा त्रिवेणी' की भांति फिर इस ग्रन्थ के लिये अपनी प्रस्तावना लिखी है। यह उनका मुझ अकिंचन पर अनुराग ही है, जिसके लिये मैं सिवा 'धन्यवाद' के उन्हें और क्या दे सकता हूँ ! - तीर्थभक्त समाज भूषण सेठ श्री भगवानदास जी शोभालाल जी सागर वालों ने इस ग्रन्थ को मुद्रित कराया है । समाज को तो उनसे ज्ञान-दान मिला ही है, मेरे उत्साह में भी इससे काफी चतना भा गई है, अत: उन्हें भी मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
अन्त में मैं इस युग के गुरुदेव के अनन्य शिष्य, धर्मदिवाकर पूज्य ब्रह्मचारी गुलाबचन्द जी महाराज को जो कि मानवता के बीच आज भी श्रीगुरु की कान्ति का वही विगुल फूक रहे हैं और गुरुदेव के साहित्य को नया रूप देने में दिनरात एक कर रहे हैं, इस ग्रन्थ का सम्पादन करने तथा उसे सैद्धांतिक दृष्टि से पूर्ण बनाने के नाते, धन्यवाद देकर भाप लोगों से विदा लेता हूँ।
शरीर क्षणभंगुर है, किन्तु यदि यह बना रहा तो गुरुदेव के अन्यान्य ग्रन्थ लेकर शीघ्र ही मापके सम्मुख उपस्थित होऊँगा। ललितपुर
-अमृतलाल चंचल। २२-११-५७
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तारण समाज भूषण, धर्मदिवाकर
श्री ब्रह्मचारी गुलाबचन्द्र जी महाराज SORTSKE TRESNSALSARTARTALSKETNETIK
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सम्यक् आचार : सम्यक विचार
अनुक्रमणिका
सम्यक आचार
वन्दनायें
पृष्ठ ३ से १०
०
०
ओम् ह्रीं श्रीं पंच परमेष्ठी अरहन्त सिद्ध भगवान महावीर धर्म के तीन पात्र
ur orY
जिनवाणी देव, गुरु, शास्त्र
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[ १८ ]
प्रथम खंड
पृष्ठ १३ से २९
संसार : और यह कैसे मिटे ?
संसार, शरीर और भोग
संसार
शरीर
भोग
१५ से
मिथ्यात्व चार कषायें
से
लोभ .
क्रोध मान
माया तीन मूढ़तायें सम्यक् श्रद्धान में २५ दोष
२० से २२ मिथ्यात्व का अभाव या सम्यक्त्व का उदय ____२२ से २९ शुद्धात्मा का ध्यान
२५-२६ सोऽहं की अर्चना
२७ से २९ द्वितीय खंड आत्मा के तीन रूपः उनके लक्षण और कार्य
पृष्ठ ३२ से १०६ आत्मा के तीन रूप
परमात्मा
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अन्तरात्मा
हरात्मा
बहिरात्मा के कार्य रागद्वेषयुक्त कुदेवों का पूजन
देवत्व से हीन अदेवों की अर्चना
अमद्गुरुओं की सेवा सद्गुरु के लक्षण
असद्गुरु के लक्षण मिथ्या धर्म की उपासना
व्यर्थ की चर्चाओं में संलग्नता
नारी चर्चा
राज्य चर्चा
चौर्य चर्चा
[ १६ ]
सप्त व्यसनों में रति
धत क्रीड़ा
Q.
मांस भक्षण
मद्यपान
यागमन
आखेट
चौर्यकर्म
परस्त्री - रमण
अष्ट मदों में आसक्ति चार कपायों में प्रवृत्ति
३३
३४
३५ से ४१ ३५ से ३८
३९ से ४१
४१ से ५७
४१ से ४६
४६ से ५५
५६-५७
५८ से ६२
५९
५९
६० से ६२
६२ से ८०
६३
६३ से ६५
६५ से ६८
६८
६८ से ७३
७३ से ७६
७६ से ८०
८० से ८४
८४ से १२
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[२०]
लोम
मान
माया
८५-८६ ८६ से ८९
८९ से ९१ क्रोध
९२ अंतरात्मा के कार्य
९३ से १०३ धर्मध्यान की साधना
९३ से ९७ धर्मध्यान के ४ भेद
९७ पदस्थ ध्यान
९८ से १०० पिण्डस्थ ध्यान
१००-१०१ रूपस्थ ध्यान
१०१-१०२ रूपातीत ध्यान देव गुरु और शास्त्र या सम्यग्दर्शन में अटूट श्रद्धा १०१ से १०६
तृतीय खंड अटूट प्रहाकान किन्तु साधनाओं से हीन १०९ से २०० गृहस्थाश्रमी अव्रत सम्यग्दृष्टि और उसके कर्तव्य १०९ अव्रत सम्यग्दृष्टि
१०९-११० स्थूल किन्तु ज्ञानमय १८ क्रियाओं का पालन १११ से ११३ ___ अव्रत सम्यग्दृष्टि के कर्तव्य
१११ से ११३ प्रगाढ सम्यग्दर्शन की ओर प्रवृत्ति
११३ से १२४ मोक्षपथ का आधार सम्यग्दर्शन
११३ से १२४ अष्ट मूलगुणों का पालन
१२४ से १२१ पंच उदम्बर
१२४-१२५ तीन मकार
१२६ से १२९
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________________
[२१]
१२९ से १३६ १३७ से १३९ १४० से १६०
१४०--१४१ १४२-१४३ १४४--१४५ १४५ से १४९
१४९
१५०
शुद्धात्मा का मनन और पाखंडियों में अश्रद्धा ज्ञान और आचरण का अभ्यास सत्पात्रों को विवेकपूर्ण दान
उत्तम पात्र-निग्रंथ साधु मध्यम पात्र-व्रती सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र-अव्रत सम्यग्दृष्टि पात्र-दान का फल कुपात्र कुपात्रदान का फल पात्रता और कुपात्रता में भेद
मिथ्यादृष्टियों का दान रात्रिभोजन त्याग छने हुए जल का पान अशुद्ध कर्मों को छोड़कर, सम्यक् षटकर्मों
का नियम से पालन
अशुद्ध षट्कर्म सम्यषटकर्म
सम्यग्देव पूजा गुरु उपासना स्वाध्याय संयम
१५० से १५७
१५८ से १६० १६० से १६३ १६४ से १६५
१६५ से २०० १६६ से १७१ १७२ से १८२ १७२ से १८२ १८२ से १८४ १८५ से १९७ १९७-१९८
१९८ १९९-२००
तय
दान
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[ २२ ]
चतुर्थ खंड
परम पद्धालु और कठोर साधनाओं में रत ती सम्यग्दृष्टि
के विचार और उसके कर्तव्य
२०३ से २३६
२०३ से २३२
ग्यारह प्रतिमाओं का उत्तरोत्तर पालन ग्यारह प्रतिमायें
दर्शन प्रतिमा
व्रत प्रतिमा
सामायिक प्रतिमा
प्रोषधोपवास प्रतिमा
सचित्त त्याग प्रतिमा
अनुराग भुक्ति त्याग प्रतिमा
ब्रह्मचर्य प्रतिमा
आरम्भ त्याग प्रतिमा
परिग्रह त्याग प्रतिमा
अनुमति त्याग प्रतिमा
उद्दिष्ट भोजन त्याग प्रतिमा
पंच अणुव्रतों की निर्मलता में उत्तरोत्तर वृद्धि
अहिंसा
सत्य
अचौर्य
ब्रह्मचर्य
अपरिग्रह
२०४
२०५ से २१६
२१६
२१७
२१८ से २२१
२२१-२२२
२२३
२२४ से २२६
२२७ से २२९
२३०
२३०
२३१--२३२
२३२ से ३६
२३३
२३३
२३४
२३४-२३५ २३५-२३६
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मुक्तिमार्ग के पथिक तपोपूत मुनि या साधुओं के कर्तव्य
पृष्ठ २३९ मे २४७
२३९-२४०
त्रेपन क्रियाऐं व तेरह विध चारित्र का पालन मन वचन काय को रोक कर योगसाधना शुद्धात्म तत्व का निरूपण व चिन्तवन
आगम की वन्दना
[ २३ ]
पंचम खंड
अभिवादन अन्तिम निवेदन
पंडित पूजा मालारोहण कमल बत्तीसी
अनुक्रमणिका
सम्यक् विचार
२४१ मे
२४०
२४७
२४८
२४८ २४८
२ से १९
२० से ३७
३९ से ५५
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स्व० श्री पूरनचन्द जी
- श्री समाजभूषण जी सागर के ज्येष्ठ भ्राता -
स्व० श्री मोहनलाल जी
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सम्यक् आचार : सम्यक् विचार
सम्यक प्राचार
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वन्दनायें
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श्री तारणस्वामी
सम्यक प्राचार
वन्दनायें
ओम् देव देवं नमस्कृतं, लोकालोकप्रकासकम् । त्रिलोकं भुवनाथ ज्योति, उर्वकारं च विन्दते ॥१॥ जिस ज्योतिर्मय का आराधन, करते त्रिभुवनपति अरहंत । लोकालोक प्रकाशित करता, जो बिखेर रवि-रश्मि अनंत ।। द्रव्य-राशि को हस्तमलकवत् , करता जो नित व्यक्त ललाम ।
उस पुनीततम महा ओम् को, करता हूँ मैं प्रथम प्रणाम ॥ जो, तीन लोक के नाथ, कर्मों के विजेता श्री अरहंत प्रभु द्वारा आराधन किये जाने योग्य है; लोक और अलोक दोनों का जो प्रकाशक है; तीनों लोक में फैली हुई द्रव्यराशि का जो समीचीन दर्शन कराता है, ऐसे उस ज्योति के पुंज महा पुनीत ओम् को मैं सर्व प्रथम प्रणाम करता हूँ।
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४]
सम्यक् आचार
ओम् ह्रीं श्रीं
उवं हियं श्रियं चिंते, शुद्ध सद्भाव पूरितम् । संपूर्न सुयं रूपं, रूपातीत बिंद संजुत्तम् ||२||
शुद्ध, श्रेष्ठ सद्भाव - पुंज ही, जिस पद का कंचन - धन है । निराकार निष्कल निमूर्त, शुचि शून्ययुक्त जिसका तन है | स्वयं - शुद्ध श्रुतज्ञान तत्व का, जो असीम भण्डार महान । उस विशुद्ध ओम् ह्रीं श्रीं का करता हूँ मैं प्रतिपल ध्यान ||
जो शुद्ध सत्तात्मक सद्भावों से परिपूर्ण है, जो स्वयं शुद्ध है, सम्पूर्ण श्रुतियों के ज्ञान जिसमें अपना अस्तित्व छिपाये हुये हैं; जो निराकार, निर्मूर्त या शून्यमय है, ऐसे उस विशुद्ध ओम ह्रीं श्रीं का मैं निरंतर चिन्तवन करता हूँ ।
पंच परमेष्टी
नमामि सततं भक्तं, अनादि आदि सुद्धये । प्रतिपूर्वं ति अर्थ सुद्धं, पंचदीप्ति नमामिहं ॥ ३ ॥
आदि अनादि मलों से मैं भी, हो जाऊं तुम-सा स्वाधीन | इसी सिद्धि को छूने को मैं, होता हूँ तुममें तल्लीन ॥ पंच दीप्ति ! सम्यक्त्व-सूर्य तुम, मैं हूँ क्षुद्र अनल का कण । मुझको भी अनुरूप बनालो, हे परिपूर्ण, तुम्हें चन्दन ||
आत्मा के साथ बंधे हुए, आदि और अनादि कर्मों से मैं उनकी ही तरह मुक्त हो जाऊँ; छूट जाऊँ. और सब तरह से शुद्ध हो जाऊँ, इसी सिद्धि को प्राप्त करने के लिये मैं उन पंचविभूतियों को, जो कमों के विजेता रहंत, आवागमन से रहित सिद्ध, शिक्षा और दीक्षा के दाता आचार्य, पठन पाठन के विशेषज्ञ उपाध्याय और आत्मा का परमात्मा से संयोग कराने वाले साधु के नाम संसार में विख्यात हैं, प्रणाम करता हूँ।
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. सम्यक आचार...
अरहन्त
परमिस्टी परंजोति, आचरनं नंत चतुस्टयं ।
न्यानं पंच मयं सुद्ध, देव देवं नमामिहं ॥४॥ त्रिभुवन के जो तिलक कहा कर. शोभा देते हैं छविमान | भवन अनन्त चतुष्टय के जो, केवलज्ञान निधान महान ।। ऐसे उन देवाधिदेव की, रज मस्तक पर धरता हूँ।
परं ज्योति अरहंत प्रभो को, नमस्कार में करता हूँ ॥ जो पंच प्रभुत्रों की कोटि में आने वाले सर्वोत्कृष्ट इष्ट देव है; अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त मुख, और अनन्त शक्ति इन चार अनन्त सम्पदाओं के जो निकेतन है: केवलज्ञान के जो म्वामी है; ऐसे उन परम ज्योति त्रिभुवन-तिलक श्री अरहंत प्रभो को मैं नमस्कार करता हूँ।
सिद्ध
अांत दर्म न्यानं, वीज त अमूर्तयं । विस्व लोकं सुयं रूप, नमामिहं धुव मास्वतं ॥५॥ जो अनन्त दर्शन के धारी, ज्ञान वीर्य के पारावार । निखिल विश्व जिनके नयनों में, श्रुत-समुद्र के जो आगार ॥ निराकार. निमूर्ति, जगत्रय करता जिनका गुणवादन ।
मुक्ति-रमावर उन सिद्धों को, करता हूँ मैं अभिवादन ।। जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति इन चार चतुष्टयों के अधिनायक हैं; जो निमूर्त है; अशरीरी है ; लोक और अलोक के पदार्थों को जो हाथ में रखे हुए आमले के समान देखते हैं; श्रुतज्ञान की जो साक्षान प्रतिमूर्ति है. ऐसे उन ध्रुव और निश्चल पद में निवास करने वाले, मुक्ति-कामिनी कंत श्री सिद्ध प्रभु को मैं अभिवादन करता हूँ।
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~~~~~~-सम्यक् आचार
भगवान महावीर नमस्कृतं महावीरं, केवलं दिस्टि दिस्टितं । विक्त रूपं अरू पंच, सिद्ध सिद्धं नमामिहं ॥६॥
जिनके केवल-ज्ञान-मुकर में, युगपत् दिखते तीनों लोक । कर्मों का आवरण हटा जो, शरच्चन्द्र से बने निशोक ॥ सम्यविधि से व्यक्त किन्तु जो, अशरीरी, अव्यक अरुप ।
नमस्कार करतो मैं उनको, स्वीकृत करें वीर चिद्रूप ॥ जिनके केवल ज्ञान रूपी दर्पण में तीनों लोक युगपत् दिखाई देते हैं; जो व्यक्त और अव्यक्त दोनों हैं, ऐसे उन विशुद्ध सिद्ध प्राप्त करने वाले, भगवान महावीर को मैं नमस्कार करता हूँ।
धर्म के तीन पात्र केवली नंत रूपी च, मिद्ध-चक्र नमामिहं । बोच्छामि त्रिविधं पात्रं, केवलि-दिस्टि जिनागमं ॥७॥ सिद्ध-शिला जगमगा रहे हैं कोटि कोटि जो कवल धाम ! उस पुनीततम सिद्धशशि को, मेरे सविनय कोटि प्रणाम ॥ तीन तरह के धर्म मात्र हैं, देव, शास्त्र,गुरु सौख्य सदन ।
उनकी भी मैं पूर्ण भक्ति से, करता हूँ इस क्षण वन्दन ॥ मैं उन अनन्त सिद्धों के समूह को भी नमस्कार करता हूँ, जो सिद्ध शिला पर प्रकाश की अपूर्व छटा छिटका रहे हैं। धर्म के पात्र तीन हैं (१) केवल ज्ञान के आधार. केवली (२) सर्वज्ञ के वचन, जिनवाणी (३) सर्व परिग्रह से रहित-निर्ग्रन्थ साधु; इनको वन्दन कर मैं अब इनका विश्लेवण करूँगा।
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सम्यक् आचार
गरु
साधुओ साधु लोकेन ग्रंथ चेल विमुक्तयं । रत्नत्रयं मयं सुद्ध, लोकालोकेन लोकितं ॥८॥ परिग्रहों की दलदल से जो, दूर दूरतम रहते हैं। एक सूत्र के अम्बर को भी, आडम्बर जो कहते हैं। जिनका ज्ञान समस्त जगत में, छिटकाता रहता आलोक । प्रतिभासित होते रहते हैं, जिसमें नित प्रति लोकालोक ॥
निग्रंथ साधु जो सूत्र के एक धागे को भी आडम्बर मानते व कहते हैं तथा परिग्रह रूपी कीचड़ से अत्यन्त दूर अथवा विरक्त रहते हैं, जिनका मंजा हुआ अनुभवपूर्ण ज्ञान संसार को प्रकाश प्रदान करता है, इतना ही नहीं, उनके अपने अन्तस्तल में भी लोकालोक का ( वस्तुरूप का ) प्रकाश सदैव बना रहता है।
गत
संमिक्त सुद्ध धुवं दिस्टा, सुद्ध तत्व प्रकासकं । ध्यानं च धर्म सुकलं च, न्यानेन न्यान लंकृतं ॥९॥ रत्नत्रय से आलोकित हैं, जिनके अंतरतम के देश । सारभूत शुद्धात्म तत्व का, करते जो नितप्रति निर्देश । धर्म-शुक्ल ध्यानों से जिनने, किया पूर्ण वश मत-गजराज।
जिनको ज्ञायक बना, ज्ञानने पाया नव वसन्त का साज ।। जिनके अन्तरंग के प्रदेश रात्रय से सुसज्जित हैं; जो सारभूत पदार्थ आत्मतत्व का ही उपदेश संसार को देते हैं; धर्म और शुक्ल ध्यान ही जिनके चिन्तवन के विषय है, और अपने ज्ञान से जो ज्ञान की अलौकिक शोभा बढ़ा रहे हैं।
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सम्वक आचार
गुरु
आरति रौद्र, परिन्याजं, मिथ्यात् त्रय न दिस्टिते । सुद्ध धर्म प्रकासीभूतं, गुरु त्रैलोक वंदितं ॥१०॥
आर्त रौद्र भ्रमरों को हैं जो, चंपक के से निर्मम फूल ! दर्शन मोह नष्ट कर जिनने, ध्वंस किये भव भव के शूल ॥ निज स्वरूप में दृढ़ होकर जो, करते भव भव का कंदन | ऐसे जगतपूज्य सद्गुरु का करता हूँ नितप्रति वंदन ||
और रौद्र, आत्मा की शान्ति भंग करने वाले, ये दो ध्यान, जिनके चिन्तवन में नहीं आते, तीन प्रकार के मिध्यात्व जिनसे सर्वथा दूर हो गये हैं, और शुद्ध आत्मिक धर्म ही जिनका प्राण है, ऐसे जगत्पूज्य सद्गुरु या सत्साधु की मैं वन्दना करता हूँ ।
जिनवाणी
सरस्वती सास्वती दिस्टं, कमलासने कंठ अस्थितं । उवं हियं श्रियं सुद्ध, तिअर्थ प्रति पूर्णितं ॥ ११ ॥
श्री जिनेन्द्र के हृदय - कमल में, जो सम्यक् विधि से आसीन । दृश्यमान होते हैं जिसमें, ओम् ह्रीं श्री नित्य नवीन ॥ द्वादशांग हो, हुई प्रस्फुटित, जिसकी श्रुतमय शुचितम धार । जिसके कणकण में 'कलकल' कर, बहता आत्म-तत्व का सार ॥
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aarग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी भगवान के हृदय कमल में जो किल्लोल किया करती है, जो ॐ ह्रीं श्रीं इन तीनों की आगार है और जिसमें रत्नत्रय से परिपूर्ण आत्मतत्व प्रतिपल निनाद किया करता है।
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................... सम्यक् आचार
जिनवाणी कुन्यानं त्रि विनिर्मुक्तं, मिथ्या छाया न दिस्टते । सर्वन्यमुष वानी च, बुद्धि प्रकास सरस्वती ॥१२॥ तीनों ही कुज्ञान रहित है, जिसकी निर्मलतम काया । भूल नहीं पड़ती है जिस पर, मिथ्यादर्शन की छाया । श्रीजिनेन्द्र का मुख-सरसीरुह, जिसका उद्गम, तीर्थ महान् ।
गणधरादि से व्यक्त, सदा जो बहती रहती एक समान ।। तीनों ही मिथ्याज्ञान से जो सर्वथा रहित है और जहां पर मिथ्यादर्शन की छाया भी दृष्टिगोचर नहीं होती है; जिसको म्वयं सर्वज्ञ देव ने अपने मुख से प्रस्फुटित की है और जो गणधर आदि विशिष्ट कोटि के प्राचार्यों द्वारा सदा प्रवाहित होती रहती है।
कुन्यानं तिमिरं पूर्न, अंजनं न्याय भेषजं । केवलि दिस्टि सुभावंच; जिन कंठ सरस्वती नमः ॥१३॥ मिथ्याज्ञान-तिमिर को है जो, ज्ञानांजन उपचार महान । जिसके वर्ण, वर्ण में होते. दृश्यमान केवलि भगवान ॥ संशय, विपर्ययादिक-खगदल जिसे देख उड़ जाता है।
ऐसी उस जिनवाणी मां को, यह रज शीश झुकाता है। मिथ्याज्ञान रूपी अंधकार में दिव्य प्रकाश पाने के लिये, जो ज्ञान रूप अंजन महान औषध है, और जिसमें यत्र तत्र केवली भगवान का अनुभव किया हुआ ज्ञान दृष्टिगोचर होता है, उस जिनवाणी माता को मैं अभिवादन करता हूँ।
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१० ]
सम्यक् आचार
देव, गुरु, शास्त्र
देवं गुरं श्रुतं वन्दे, न्यानेन न्यानलंकृतं ।
वोच्छामि श्रावगाचारं अविरतं संमिक दिस्टितं ॥ १४ ॥
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जिन विभूतियों के ज्ञानों से, पाता स्वयं ज्ञान श्रृंगार । ऐसे देव, शास्त्र, गुरु को हो, नमस्कार नित बारम्बार || अत्रत सम्यग्दृष्टीजन के हों कैसे आचार-विचार ! इसी विषय को ले कहता हूँ, परम पवित्र श्रावकाचार ॥
जिनके ज्ञान को पाकर स्वयं ज्ञान भी कृतकृत्य हो जाता है, ऐसे उन मोक्ष - पथ के आधार, सनदेव, सद्गुरु और सत्शास्त्र को मेरे कोटि कोटि प्रणाम हों ।
अत सम्यग्यदृष्टि के कैसे आचार विचारहों, इस दृष्टि को प्रमुख स्थान देकर, मैं श्रावकाचार का कथन प्रारम्भ करूँगा ।
अब इस
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तीर्थक्षेत्र श्री निसई जी का नवनिर्मित स्वाध्याय - भवन [ जिसका समाजभूषण मेठ भगवानदास जी शोभालाल जी ने निर्माण कराया है ]
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संसार : और वह कैसे मिटे ?
(प्रथम खण्ड)
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संसार : और यह कैसे मिटे?
[ १५ से ४६ तक ]
“इष्टार्थोघदना (वा) प्त तद्भवसुखक्षाराम्भसि प्रस्फुरमानामान स दुःखबाड़वशिखा संदीपिताम्यन्तरे । मृत्युत्पत्तिजरातरंगचपले संसारपोरोणवे, मोहग्राहविदारितास्य विवराहरे चरा दुर्लभाः ॥"
यह संसार एक समुद्र के समान है ! किम तरह ? इष्ट विषयों से उत्पन्न हुआ सांसारिक सुख ही इस समुद्र का खारा जल है, जिसके पीने से कभी भी प्यास का अंत नहीं होता। नाना प्रकार के मानसिक दुःखों का समूह ही इस समुद्र के बीच उठो वाला बड़वानल है, जो इसके बीच हिलोरें लेने वाले सुख-रूसी जल को नित्य प्रति तप्तायमान करता रहता है, और जन्म, मरण तथा जरा-ये ही इस समुद्र की तरंगें हैं, जो इस समुद्र के जल को नित्य प्रति अस्थिर और चपल बनाया करती है । ऐसे संसार-रूपी भयानक समुद्र के बीच में वसने वाले मोह रूपी मगर से जो पुरुष बचते हैं उनकी संख्या बहुत ही थोड़ी है।
_ - आचार्य गुणभद्र ।
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संसार : और वह कैसे मिटे ?
संसार, शरीर और भोग
संसार
संसारे भय दुष्यांनि, वैराग्यं जेन चिंतये । अनृतं असत्यं जानते, असरनं दुष भाजनं ॥ १५ ॥
यह संसार अगम अटवी है, इसमें भय ही भय है । सुख का इसमें अंश नहीं है, हां दुख है; अक्षय है | जग असत्य, जग जड़, जग मिथ्या, जग में शरण नहीं है । दुखभाजन जग से विरक्त हो, जग में सार यही है ।।
यह संसार भय और दुःखों से भरी हुई एक विशाल अटवी है । इसको मिथ्या, जड़ और वास्तविक समझना चाहिये। इस दुःखभाजन संसार में प्राणिमात्र के लिये कोई शरण नहीं है, अतः सार यही है कि मनुष्य इस संसार से सदा विरक्त होने की भावना का ही चितवन करे ।
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१४ ]
सम्यक् आचार
शरीर
असत्यं असास्वतं दिस्टा, संसारे दुष भीरुहं । मेरीरं अनित्यं दिस्टा, असुच अमेवे रितं ॥१६॥
यह संसार अनित्य, नित्य की इसमें रेख नहीं है । दुख ही दुख, सुख इसमें मिलता ढूँढ़े से न कहीं है । तन भी क्या है ? रे, क्षणभंगुर, पल भर में मिट जाये । उन मल मूत्रों का घर, जिनका नाम लिये घिन आये ॥
यह संसार असत्य है; अनित्य है और अगणित दुःखों से भरा हुआ है; सुख का तो इसमें चिह्न भी दृष्टिगोचर नहीं होता । यह शरीर भी, जिस पर हम सबको इतना गौरव है, क्या है ? एक क्षणभंगुर, धूल का पुतला और ऐसी ऐसी मलिन वस्तुओं का भंडार, कि जिनका नाम लेने मात्र से घृणा आती है।
भोग
भोगं दुषं अती दुस्टं, अनर्थं अर्थ लोपितं । संसारे स्रवते जीवा, दारुनं दुष भाजनं ||१७||
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पंचेद्रिय के भोग न सुखकर, वे अति दुखकर भाई । अनहित कर हरते जीवों की वे सब धर्म - कमाई ॥ भव-जल में बहने वाले जो, शरण यहां लेते हैं । वे मानों जलती होली में, बलि अपना देते हैं ॥
पंचेन्द्रियों के भोग दुःखों के मूल कारण हैं । ये स्वभाव से ही दुष्ट हैं। ये खल आत्मा को अपने स्वभाव से विस्मृत कर, अपने पथ पर ले जाते हैं और इस तरह आत्मा का भारी अहित करते हैं। इन भोगों में फँसकर, प्राणी भयंकर से भयंकर दुःख उठाता और चारों गतियों में ठोकरें खाता फिरता है।
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तीन मिथ्यात्व -
सम्यक् आचार
अनादि भ्रमते जीवा, संसार सरन रंजितं । मिथ्यात त्रय संपूर्ण, संमिक्तं सुद्ध लोपनं ॥ १८ ॥
त्रय मिथ्यात्व महा दुखदाई, जन्म-मरण के प्याले । व्यक्त नहीं होने देते ये, दर्शन - गुण मतवाले || इन तीनों मिथ्यात्व मोह की, डाल गले में फांसी । बनता रहता है अनादि से, यह नर भव भव वासी ॥
मिथ्यात्व शुद्ध सम्यग्दर्शन का लोप करने वाला होता है। यह मिथ्यात्व तीन प्रकार का होता
। इसी मिध्यात्व या मिथ्याज्ञान के वशीभूत होकर यह प्राणी इस सार रहित संसार में अनादिकाल से भ्रमण कर रहा है और करता रहेगा ।
मिथ्या देवं गुरं धर्म, अनृत अचेत रागं च
मिथ्या माया विमोहितं । संसारे भ्रमनं सदा ॥ १९॥
[ १५
मिथ्या देवों को यह मानव अपने देव बनाता । नित्य अदेवों के ढिंग जाकर, उनको शीश झुकाता ॥ मिथ्या माया में फंसकर यह, बनता अनृत पुजारी । और इसी से भव भव फिर यह बनता दुर्गतिधारी ॥
संसार में आवागमन क्यों होता रहता है ? मिध्यात्व और मायाचार से लिपटे हुए तथा असत्य और अचेत देव, गुरु और धर्म, इन तीनों की उपासना करने से ! मिथ्यादेव, मिध्याधर्म और मिथ्या गुरु, बस ये तीनों ही संसार-भ्रमण के प्रमुख कारण होते हैं ।
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सम्यक आचार ......।
अनृतं विनासी चिंते, असत्यं उत्साहं कृतं । अन्यानी मिथ्यासद्भावं, सुद्ध बुद्ध न चिंतए॥२०॥ अनृत वस्तुओं के चिन्तन से, मार्ग असत् बढ़ता है । इस पथ को अनुगामी नितप्रति, मिथ्यापथ चढ़ता है। यह मिथ्यात्व जमा लेता है, जिसके उर में डेरा ।
शुद्ध बुद्ध प्रभु का न वहां फिर, रहता नेक बसेरा ।। मिथ्या वस्तुओं के चिन्तवन से मिथ्या कार्यों के करने में उत्साह बढ़ता रहता है। जो इन मिथ्या वस्तुओं का चितवन करते करते अज्ञान मिथ्यादृष्टि हो जाता है, वह फिर इस योग्य नहीं रहता कि वह अपनी आत्मा का, जो शुद्ध बुद्ध प्रभु का पवित्र निवास स्थान है, चितवन कर सके। दूसरे शब्दों में, शुद्ध बुद्ध प्रभु, उस मिध्यादृष्टि के हृदय से कूच कर देते हैं।
मिथ्या दर्सनं न्यानं, चरनं मिथ्या उच्यते ।
अनृतं राग सपूर्न, संसारे दुष वीर्जयं ॥२१॥ मिथ्यादर्शन, ज्ञान, आचरण, ये हैं तीन पनाले । जिनमें बहते रहते हैं नित, राग अशुभ मतवाले ॥ ये तीनों दुख-बीज मनुज को, दारुण दुख दिखलाते ।
अशुभ कर्म से बांध उसे ये, नट सा नाच नचाते ॥ मिध्यादर्शन. मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण ये तीनों, मिथ्यात्व रागों से परिपूर्ण हैं और इमलिये अनंत दुःखों के दाता हैं। इनके कारण ही प्राणी अनेकानेक अशुभ कमों को बांध कर, इस भयानक संसार-अटवी में परिभ्रमण किया करता है।
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सम्यक ओचार
[१७
मिथ्या संयम ह्रदयं चिंते, मिथ्यातप ग्रहमदा।
अांतानंत मंमारे, भ्रमते अनादि कालयं ॥२२॥ ख्याति, लाभ, यश की इच्छा से, संयम पालन करना । स्वर्गादिक मिल जायें इससे, द्वादश तप आचरना ।। ऐसे मिथ्या संयम या तप, बस संसार बढ़ाते ।
जीवों को इस भव से उस भव, मर्कट-तुल्य नचाते ॥ मिथ्या संयम-इम कामना को लेकर संयम पालना कि मुझे संसार में कुछ ख्याति या लाभ मिल जाव और मिथ्या तप-इस इच्छा को लेकर तप करना कि मुझे वैकुंठ या स्वर्ग प्राप्त हो जावे, ये दोनों ही अनंतानंत संसार परिभ्रमण के कारण होते हैं। इन दोनों के चक्कर में पड़कर प्राणी अनादिकाल से आवागमन के पाश में बंध चले आ रहे हैं।
चार कषायें
मिथ्यातं दुस्ट मंगेन, कमायं रमते मदा।
लोभं क्रोधं मयं मानं, गृहितं अनंत बंधनं ॥२३॥ मिथ्यादर्शन-बैरी की कर, संगति अति दुखदाई । लोभ, मान, माया व क्रोध की, करता जीव कमाई ॥ ये कषाय वे, जिनके कर में जन्म मरण का प्याला । जिसमें नित जलती रहती है, धृ धृ विष की ज्वाला ।।
जो प्राणी मियादर्शन या विपरीत श्रद्धान करने लगता है. वह क्रोध, मान, माया व लोभ इन चार कपायों के चंगुल में फँस ही जाता है। ये कपायें वे होती हैं जो बंध की परम्परा को दीर्घकाल तक ग्वींचकर ले जाती रहती है या दूसरे शब्दों में, जिनके हाथों में जन्म-मरण का सूत्र रहता है और जो संसार को अनंतानंत समय तक जन्म-मरण के बंधनों में डालती रहती हैं।
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१८ ]
सम्यक् आचार
लोभ
लाभकत असत्यस्या, असास्वतं दिस्टत सदा। अनृतं कृतं आनंद, अधर्म संसार भाजनं ॥२४॥ लोभी को दिखता है शाश्वत, मेरी है यह काया । शाश्वत कंचन, शाश्वत कामिनि, शाश्वत मेरी माया ॥ वह इस ही मिथ्या प्रवृत्ति में, नित आनन्द मनाता ।
किन्तु लोभ है मूल पाप का, पाप न इससा भ्राता ! जो लोभी जीव होता है, उसे संसार की प्रत्येक वस्तुओं में नित्यता के दर्शन होते हैं। जो कार्य मिथ्यात्व से पूर्ण होते हैं, उनके करने में ही वह आनंद मानता रहता है, किन्तु हे भाई ! लोभ अधर्म है: निम्मार है और उसके समान कोई दूसरा पाप नहीं है !
कोहाग्निप्रजुलते जीवा, मिथ्यातं घत तेलयं। कोहाग्नि प्रकोपनं कृत्वा, धर्मरत्नं च दग्धये ॥२५॥ मानव के उर में जलती जब, दुष्ट क्रोध की होली । तेल और घृत बनती उसमें, कुज्ञानों की टोली ॥ होता है क्या ? जन्म जन्म से संचित प्राणों प्यारा । धर्मरत्न उस पावक में जल, हो जाता चिर न्यारा ॥
जिस समय मनुष्य के हृदय में क्रोध रूपी अग्नि जलती है, उस समय यह मिथ्याज्ञान या मिथ्यात्व उसमें तल और घी का काम करता है। होता यह है कि मनुष्य का संचित किया हुआ धर्म म्पी रत्न इम क्रोध रूपी अग्नि में गिर पड़ता है और जलकर स्वाहा हो जाता है।
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सम्यक् आचार
मान
मानं अनृतं रागं, माया विनासी दिस्टने । असास्वतं भाव बृद्धन्ते, अधर्मं नरयं पतं ॥ २६ ॥
कैसा मान करे मन मूरख, किसका मान रहा है ? और सोच माया कर किसने, कितना दुःख सहा है ? मान और माया पर यदि तू, चढ़ता ही जायेगा |
तो अधर्म - भाजन बनकर तू घोर नर्क पायेगा ||
•
जब
स्पष्ट दिखता है कि संसार की माया विनाश में लीन होने वाली है; स्वप्न समान है: धोखे की टट्टी है, तब यह मनुष्य इस झूठ राग में पड़कर मान करता है; मायाचारी करता है ! यह मान मिथ्याभावों को वृद्धिंगत करता है; यह अधर्म है और एक न एक दिन लोभी को यह निश्चत रूप से नर्क में पकने वाला है ।
माया
जदि मिथ्या मायादि संपूर्न, लोकमृढ़ रतो मदा। लोकस्य जीवस्य मंमारे भ्रमनं सदा ||२७||
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[ १९
मिथ्या मायादिक में रहता, रत जो मिथ्याचारी । लोकमूढ़ता का बन जाता है वह परम पुजारी || जिसकी गर्दन में लग जाती, इस पापिन की फांसी । मुक्त नहीं वह नर हो पाता, बनता भव-भव वासी ॥
जो मनुष्य मिथ्यात्व के संसर्ग से क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कपायों में लीन रहता है. वह नियम से लोकमृढ़ता का दास बन जाता है और जो इस मूढ़ता का शिकार हो गया. वह फिर नियम से संसार-सागर में गोते खाया ही करता है।
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२०]
सम्यक् आचार तीन मूढ़तायें
लोक मृढ़ रतो जेन, देव मूढस्य दिस्टते । पापंडी मढ़ मंगानि, निगोयं पतितं पुनः ॥२८॥
लोकमूढ़ता का बन जाता, है जो जीव पुजारी । देवमूढ़ता भी आ करती, उसके सिर असवारी ॥ शेष नहीं पाखंडमूढ़ता, भी फिर रह पाती है । और कि यह त्रयराशि उसे फिर. दुर्गति दिखलाती है ।
जो मनुष्य लोकमूढ़ता का पुजारी बन जाता है, वह देवमूढ़ता के जाल से भी नहीं बच पानः । पाखंड मूढ़ता भी जो तीसरी मूढ़ता होती है, उसको असहाय जान, श्राकर उसका गला दबा देती है और इस तरह तीनों मिलकर उसे निगोद में फेंक देती हैं।
सम्यक् श्रद्धान में २५ दोष
अन्यानं मद अस्टं च, संकादि अस्ट दृषनं । मलं संपून जातं, सेव दुष दारुनं ॥२९॥ छह अनायतन और अष्ट मद, शंकादिक अठभाई । तीन मूढ़ता; ऐसे ये पच्चीस दोष दुखदाई ॥ ये कंटक सम्यक्त्व-मार्ग के, जो दारुण दुख देते । चौरासी लख योनि घुमाकर, प्राण जीव का लेते ॥
छह अनायतन, आठ मद, सम्यग्दर्शन के आठ दोप, और तीन मूढ़तायें ये सम्यक्त्व के २५ दोप होते हैं या यों कहिये कि मोक्षमार्ग के ये २५ रोड़े होते हैं। इनका जीवन में आचरण करना, महान दुःखों का कारण होता है।
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सम्यक् आचार
[ २१
मिथ्यात मति रतो जेन, दोमं अनंता नंतयं । सुद्ध दिस्टि न जावंते, असुद्ध मुद्ध लोपनं ॥३०॥ जो मिथ्यामति के सरवर में, नितप्रति करता क्रीड़ा । वह अनंत दोषों का भाजन, होकर सहता पीड़ा ॥ दर्शन-मणि के सपने तक में, उसको दर्श न होते ।
यत्र तत्र वह दुर्गतियों में, खाता नित प्रति गोते ॥ जो पुरुष मिथ्याज्ञान में क्रीड़ा करता है, वह अनंत दोषों का भाजन बनता रहता है । शुद्ध दृष्टि क्या वन्तु होती है, इसे वह स्वप्न तक में नहीं जान पाता है और कुज्ञान में रत रहते हुए, विकराल दुःख सहा करता है।
वैराग्य भावनं कृत्वा, मिथ्या तिक्त त्रि भेदयं । कमायं तिक्त चत्वारि, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं ॥३१॥ भव्यो ! यदि तुम यह चाहो, हों शुद्धदृष्टि के धारी । तो ध्याओ वैराग्य-भावना, सर्व प्रथम सुखकारी ॥ त्यागो त्रय मिथ्यात्व और फिर चार कषायें छोड़ो।
शुद्ध दृष्टि हो शाश्वत सुख से, फिर तुम नाता जोड़ो॥ हे मोक्षाभिलाषी जीवो ! यदि तुम यह चाहते हो कि हमें शुद्ध दृष्टि प्राप्त हो जावे तो तुम सबसे प्रथम वैराग्य भावनाओं का चिन्तवन करो; तत्पश्चात तीन मिथ्यात्वों का परित्याग करदो और इसके बाद चार कषायों से नाता तोड़कर, मोक्ष से अपना पल्ला जोड़ लो।
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२२]
सम्यक आचार
मिथ्या समय मिथ्या च, समय प्रकृति मिथ्ययं । कमायं चत्रु अनंतानं, तिक्तते मुद्ध दिस्टितं ॥३२॥
सर्व प्रथम मिथ्यात्व शास्त्र में, है मिथ्यात्व कहाता । है द्वितीय सम्यक् तृतीय, सम्यक् प्रकृति है भ्राता ॥ क्रोध मान माया व लोभ ये, होती चार कषायें । जो होते हैं शुद्ध दृष्टि वे इनमें मन न रमायें ।
(१) मिथ्यात्व (२) सम्यक् मिथ्यात्व (३) सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व-ये तीन मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया, और अनंतानुबंधी लोभ-ये चार कपायें जो छोड़ देता है, उसे मम्यग्दर्शन की प्रानिधी जाती है ।
मिथ्यात्व का अभाव या सम्यक्त्व का उदय
सप्त प्रकृति विच्छदो जत्र, मुद्ध दिस्टिदिस्टतं । श्रावकं अविरतं जेन, मंगारदुष परान्मुषं ॥३३॥ सप्त प्रकृतियां अन्तस्तल से, जब विलीन हो जाती। शुद्धदृष्टि की छवियाँ तब ही, अंतर में दिख पातीं ॥ शुद्धदृष्टि धारी जन ही बस, अव्रत श्रावक होता ।
सांसारिक दुख दूर बसा, जो अविरल सुख में सोता ॥ जब अंतस्तल से सप्तप्रकृतियों का या तीन मिथ्यात्व व चार कपायों का लोप हो जाता है तभी शुद्ध दृष्टि के दर्शन होते हैं। यही शुद्ध दृष्टि जीव अत्रत सम्यग्दृष्टि श्रावक कहलाना है जो संसार के मारे दुःखों से पर रहकर मुख और शान्ति का अनुपम अनुभव करता है।
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सम्यक आचार
[२३
संमिकदिस्टिनो जीवा, सुद्ध तत्व प्रकासकं । परिनाम सुद्ध मंमिक्तं, मिथ्या दिस्टि परान्मुषं ॥३४॥
शुद्धदृष्टि जन शुद्ध तत्व का, ही करता उजियाला । छलका करता शुद्धदृष्टि से, उसका अंतर-प्याला ॥ उसकी हर परिणतियों में, सम्यक्त्व घुला रहता है । मानस तज, मिथ्यात्व-कुण्ड में, हंस न वह बहता है।
जो सम्यग्दृष्टि पुरुष होते हैं, वे शुद्ध आत्मतत्व का ही प्रकाश करते हैं । उनके अंतरंग परिणामों में शुद्ध सम्यक्त्व ही घुला रहता है और वे मिथ्यात्व या मिध्यादृष्टि पुरुपों के रंचमात्र भी संपर्क में नहीं आन ।
मंमिक देव गुरं भक्तं, मंमिक धर्म समाचरेत् । मंमिक तत्व वेदंते मिथ्या त्रिविध मुक्तयं ॥३५॥ सत्य आप्त का ही करता है, शुद्ध दृष्टि आराधन । सद्गुरु को ही करता है वह अपने कर से बंदन ॥ सम्यक् धर्ममयी पथ पर ही, वह निज पैर बढ़ाता ।
त्रय मिथ्यात्व रहित समकित ही, वह अनुभव में लाता॥ सम्यग्दनि पुरुप सन्देव और सद्गुरु की ही उपासना-भक्ति करता है और जो सत् धर्म है उसी के अनुसार वह आचरण करता है। उसके अनुभव का बस एक ही विषय होता है और वह है 'सम्यक्त्व' । जो तीन मिथ्याज्ञान होते हैं, वे उस का स्पर्श भी नहीं कर पाते हैं, वह उनसे मुक्त हो जाता है।
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२४ ]
सम्यक आचार
संमिक दमेनं युद्धं न्यानं आचरण मंजुतं । सार्द्धति-त्रि-संपूर्न, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं ॥ ३६ ॥
आत्म-प्रतीति ही श्री गुरु कहते, सच्चा सम्यग्दर्शन । आत्म-ज्ञान ही ज्ञान, आत्म-अनुभव ही चारित है मन ! कुज्ञानों से शून्य जहां दिखती रत्नत्रय - झांकी । बिछ जाती है राह वहीं पर, चिर-सुख - राशि रमा की ||
शुद्ध आत्मा की प्रतीति का नाम ही सम्यग्दर्शन है । उसके सहित जो ज्ञान होता है, वही सम्बग्ज्ञान है और उसके सहित ही जो आचरण होता है, वही सम्यकूचारित्र है । इन तीनों की, तीनों ही कुज्ञान से शून्य, एकता का नाम ही पूर्णत्व अथवा मोक्ष है।
संमिक संजम दिस्टा, मंमिक तप सार्द्धयं । परिनै प्रमानं सुद्धं, असुद्धं सर्ब तिक्तयं ||३७||
सम्यक दर्शनयुत संयम ही, शुचि सम्यक् संयम है । वह ही सम्यक् तप है जिसमें सम्यग्दर्शन क्रम है ।।
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सम्यक् संयम, सम्यक् तप का ही जब साधन होता । तब ही चेतन के भावों में, शुद्ध परिणमन होता ||
सम्यग्दर्शन या आत्मप्रतोति के साथ पाला हुआ संयम ही यथार्थ संयम है और उसी के साथ पा हुआ तप यथार्थ तप है। जब सब अशुद्ध विकारी भावों को छोड़कर उक्त प्रकार से साधना की जाती है तभी आत्मा के भावों में शुद्ध परिणमन होता है ।
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सम्यक् आचार
[ २५
षटकर्म समिक्तं सुद्धं, संमिक अर्थ मास्वतं । मंमिक्तं सुद्ध धुवं साई, संमिक्तं प्रति पूनितं॥३८॥ वे ही सत षट्कर्म कि जिनमें, 'दर्शन' पद पद डोले । मुखरित होकर नित जिनमें से, आत्म-भावना बोले । 'दर्शन' युत षट् कर्म शुद्ध हैं, ध्रुव हैं. श्रद्धास्पद हैं ।
मोक्ष महल के अभिनव पथ को, ये विद्युत् के पद हैं ।। गृहस्थ के लिये निर्धारित किये गये दैनिक षट् कर्म भी तभी शुद्ध कहे जाते हैं, जबकि उनके नाथ शुद्ध सम्यक्त्व की पुट लगी हो । सम्यक् विशेषण सहित जो षट् कर्म सम्पादन किये जाते हैं वे शुद्ध होते हैं। धूव होते है और श्रद्धास्पद होते हैं। इतना ही नहीं, पूर्णता या मोक्ष की ओर जाने वाले पदों नवे एक स्फूर्ति उत्पन्न कर देते हैं ।
शुद्धात्मा का ध्यान मंमिक देव उपाद्यते, राग दोष विमुक्तयं । अरूपं सास्वतं सुद्धं, सुयं आनंद रूपयं ॥३९॥ राग द्वेप से वंचित है जो, परंज्योति परमेश्वर । शुद्ध बुद्ध आनन्द अरूपी, शाश्वत स्वयं जिनेश्वर ॥ रत्नत्रय से हो जाता है, जिसका हत्तल पावन ।
वह ऐसे शुद्धात्म-प्रभू का, ही करता आराधन ।। जिसको शुद्ध दृष्टि प्राप्त हो जाती है वह राग द्वेष से विमुक्त, निराकार, शाश्वत, शुद्ध, स्वयंभूत, आनन्दम्वरूप जो शुद्धात्मा है, उसी परमात्मा की उपासना व वन्दना करता है।
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२६ ]
सम्यक आचार
देव देवाधिदेवं च, नंत चतुस्टय मंजुतं । उर्वकारं च वेदंते,तिस्टितं मास्वतं धुवं॥४०॥ देव और देवों का अधिपति, देवाधिप, अधिनायक । चार चतुष्टय शोभित होते, जिसमें नित सुखदायक । प्रणव मंत्र में भी जिस प्रभु का, निर्मल वास सुहाता ।
शुद्धदृष्टि उस शुद्धातम को, ही निज शीश झुकाता ॥ जो देव और देवों का देव है; अनंत चतुष्टय से जो मण्डित है तथा स्वयं ॐकार पद में जिसका वाम है, एसा जो शुद्धात्मा म्पी सर्वशक्तिमान परमात्मा है, शुद्धदृष्टि बस उसी का आराधन करता है।
उर्वकारस्य ऊर्धस्य, ऊर्ध मद्भाव तिस्टतं । उर्व ह्रियं श्रियं बन्दे, त्रिविधि अर्थं च मंजुतं ॥४१॥ पंच परम प्रभु का जिस पद में, है अस्तित्व निराला । चतुर्विंशि के पुष्पराग से सुरभित जिसकी माला ॥ सुमुखि मुक्ति जिस पर, बिखराती है अपनी फुलवारी ।
शुद्ध दृष्टि उस ओम् मंत्र के, होते पूर्ण पुजारी ।। जो शुद्ध दृष्टि के धारी होते हैं, वे ऊर्ध्व स्वभावधारी, शुद्ध सत्तात्मक भावों के निधान उस प्रकार का ही वंदन करते हैं, जो पंच परमेष्ठी, चतुर्विंश तीर्थंकर और मुक्ति रूपी लक्ष्मी का एक साथ एकमात्र निवासस्थान है।
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सम्यक् आचार
सोऽहं की अर्चना
देवं च न्यान रूपेन, परमिस्टी च संजुतं । मो अहं देह मध्येषु, यो जानंति स पंडिता ॥४२॥
पंच परम जिन परमेश्वर हैं, मोक्ष महल के वासी । अगम, अगोचर, अलख, अवाधित, अजर अमर अविनासी ॥ मैं भी जिन हूँ, इस काया के भीतर मेरा घर है । जो जाने यह मर्म वही नर, पंडित प्रज्ञाधर है ॥
पंच परम प्रभुओं के सहित जो कोई परमात्मा है, वह मैं ही अपने इस देह रूपी देवल के भीतर है। जो मानव इस मर्म को जानता है वही सम्यग्दृष्टी जीव प्रज्ञावर या पंडित है.
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कम अस्ट नियुक्त, मुक्ति स्थान तिति । मो अहं देह मध्येषु, यो जाति में पंडिता ||४३||
[ २७
वसु मल क्षय कर जीती जिनने, जन्म मरण की पीड़ा । सिद्ध क्षेत्र में करते ऐसे सिद्ध जिनेश्वर क्रीड़ा ॥ मैं भी तो हूँ सिद्ध प्रभो, यह तन मेरा मन्दिर है । जो जाने यह मर्म वही नर, पंडित प्रज्ञाधर है ॥
सिद्ध या जो महापुरुष कृतकृत्य हो चुके हैं, उनकी महत्ता यही है कि वे आठ कर्मों की बेड़ियों को काट चुके हैं और मुक्ति स्थल में रहते हैं। मैं भी सिद्ध हूँ । अंतर इतना ही है कि सिद्धशिला के स्थान पर मेरा घर मेरे हृदय रूपी मंदिर में ही है । जो इस महत्वपूर्ण तथ्य को जानता है वही वास्तविक पण्डित है ।
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२८]
सम्यक आचार
परमानंद में दिम्टा, मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते । मो अहं देह मध्येषु, मर्वन्यं नास्वतं धुवं ॥४४॥
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सिद्ध प्रभो हैं सिद्ध भवन में, परमानन्द मगन हैं । समकित-समता-सुरसरिता मय, उनके युग्म नयन हैं । मैं भी तो हूँ सिद्ध कि मेरा, अंतर सुखसागर है ।
मैं ध्रुव, मैं सर्वज्ञ, देह-देवल मेरा आगर है ॥ परम आनन्द के नन्दननिकुंज में विहार करने वाले जो सिद्ध भगवान हैं, व मोक्षपुरी में वाम करत है; व सर्वज्ञ हैं, शाश्वत हैं, ध्रव है। मैं भी इन समस्त दिव्य गुणों से विभूषित हूँ। अंतर इतना ही है कि सिद्ध भगवान मुक्तिनगर के वासी है और मेरा मंदिर अपने देह-देवल में ही है।
दर्मन न्यान संजुक्तं, चरखं वीर्ज अनन्तयं । मय मूर्ति न्यान नं सुद्धं, देह देवलि तिस्टिते ॥४५॥
अमित ज्ञान दर्शन के धारी, अमित शक्ति के सागर । वीतराग निस्सीम निराकुल, पुण्य आचरण-आगर ॥ ज्ञानमूर्ति, निमूर्त, निरन्तर घट घट मय अविनाशी ।
ऐसे श्री जिन मेरे तन के, देवालय के वासी ॥ जो परमात्मा अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान के सहित अनन्त शक्ति और वीतराग चारित्र को धारण करने वाले हैं; जो निर्मूर्त और परम पवित्र ज्ञान के भण्डार हैं, वे किसी दूसरी जगह नहीं बसते, उनका मन्दिर मेरे इस देह-देवल में ही है।
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सम्यक आचार
अरिहंत देव तिम्टते, ह्रींकारेन सास्वतं । उवं अर्ध मद्भावं, निर्वानं सास्वतं पदं ॥ ४६ ॥
ह्रीं मंत्र पद में बसते हैं, चार चतुष्टय धारी । चतुर्विंश तीर्थंकर निष्कल, श्री अरहन्त सुखारी ॥ ॐ मंत्र में विचरण करते, सिद्ध शिला के नायक | श्रेष्ठ, ऊर्ध्व, वसु कर्म विजेता, अग जग घट घट ज्ञायक ॥
[ २९
ह्रीं मंत्र पद में, कर्मों के विजेता अरहन्त भगवान, चौबीस तीर्थंकरों महित शोभायमान है और
श्रम में वे सिद्ध भगवान वास करते हैं, जो निश्चल ध्रुव निर्वाण पढ़ के वासी हैं।
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आत्मा के तीन रूप; उनके लक्षण और कार्य
(द्वितीय खण्ड)
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पूज्य ब्र. जी, सेठ भगवानदास शोभालाल जो, चंचल जी आदि सेमरखेड़ी में
[तीर्थक्षेत्र श्री सूखा निसई जी के मेले के समय का एक दृश्य]
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[बाल ब्र. श्री त्रिमलादेवी जी साहित्यरत्न, शास्त्री-निसई जी क्षेत्र में]
[पूज्य श्री ब्रह्मचारी जी महाराज सागर के तारण जयन्ती मेने।
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आत्मा के तीन रूप उनके लक्षण और कार्य
[ ४७ से १९४ तक ]
"आत्मा और परमात्मा की वस्तुत: एक ही सत्ता है । अद्वैतवाद और रूप का
'माया' के कारण ही परमात्मा में नाम are है । इस माया से छुटकारा पाना मानों आत्मा और परमात्मा की फिर एक बार एक ही सत्ता स्थापित करना है । आत्मा और परमात्मा एक ही शक्ति के दो भाग हैं, जिन्हें माया के परदे ने अलग कर दिया है । जव उपासना या ज्ञानार्जन पर माया नष्ट हो जाती है, तब दोनों भागों का पुनः एकीकरण हो जाता है । कवीर सा० इसी बात को इस प्रकार लिखते हैं :
जल में कुंभ, कुंभ में जल है. बाहिर भीतर पानी ।
फुटा कुंभ जल जलहिं समाना. यह तत कथहु गियानी ॥
- डा. रामकुमार वर्मा
( कवीर का रहस्यवाद, पृष्ठ ८ )
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आत्मा के तीन रूपः उनके लक्षण और कार्य
आत्मा के तीन रूप
आत्मा त्रिविधि प्रोक्तं च, पर अंतरु वहिरपयं । परिणामं जं च तिस्टंते, तस्यास्ति गुण संजुतं ॥४७॥
श्री जैन आगम में मधुर स्वर से कहें परमात्मा । पर्यायनय की दृष्टि से, भव्यो ! त्रिविध है आत्मा || 'परमात्मा' उत्तम है, मध्यम है कि 'अन्तर आतमा' | निकृष्ट है जो आतमा, वह आत्मा ' बहिरात्मा' ||
संयोगप्रात कमों के निमित्त से आत्मा की जो भिन्न भिन्न अवस्थाएं होती हैं, उस दृष्टि से आत्मा तीन प्रकार की होती है ( १ ) परमात्मा ( २ ) अंतरात्मा ( ३ ) बहिरात्मा । ये सब अवस्थायें अपने अपने गुणों के अनुसार होती हैं ।
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सम्यक् आचार
[ ३३
परमात्मा
आत्मा परमात्मा तुल्यं च, विकल्पं चित्त न क्रीयते । मुद्ध भाव अथिरी भूतं, आत्मा परमात्मनं ॥४८॥ जिसमें विकल्प विभेद की, लहरें कभी उठती नहीं । जिसमें नयादि विचार की, पड़ती नहीं भँवरें कहीं॥ वह ही सुदृढ़ परमात्मा, परमात्मा अभिराम है ।
यह आत्मा है क्षुद्र सर परमात्मा जल-धाम है । आत्मा और परमात्मा वास्तव में समान अर्थी हैं। भद केवल इतना ही है कि साधारण आत्माओं नं विकल्प भंद की लहरें उठती है, पर परमात्मा इन सबसे रहित होता है। दूसरे शब्दों में जब सान्मा अपने शुद्ध म्वभाव में स्थिर हो जाता है, तब परमात्मा की संज्ञा प्राप्त कर लेता है।
अन्तरात्मा
विन्यान जेवि जाते, अप्पा पर परषये । परिचये अप्प मद्भावं, अंतर आत्मा परषये ॥४९॥ जिस आत्मा के पास असिवत् , तीक्ष्ण भेद-विज्ञान है । 'यह आत्मा है और यह पर है', जिसे पहिचान है। जो आत्मा की शुद्ध सत्ता से, नहीं अनभिज्ञ है ।
भव्यो वही मविवेक, अंतर-आत्म सद्विज्ञ है ।। जिसके पास भद-विज्ञान रूपी कसौटी विद्यमान है जिसमें इतना विवेक है कि वह स्व और पर की पहिचान कर सकें और जो आत्मा के सत्ता रूप शुद्ध स्वभाव से पूर्ण परिचित है, वही आत्मा अन्तरात्मा है. एसा समझना चाहिये ।
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सम्यक् आचार
बहिरात्मा
वहिरप्पा पुदगलंदिस्टा, रच अनन्त भावना। परपंचं जेन निस्टंने वहिरप्पा मंमार अम्थितं ॥५०॥
जो पुद्गलों में आत्म-विस्मृत है. निरन्तर मग्न है । जो पुद्गलों के खेल में ही, रात-दिन संलग्न है ।। संसार-सागर में पड़े, रहना ही जिसका ध्येय है । वह ही प्रपंची जीव बस, बहिरात्मा अजेय है ।।
जो पौनलिक पदार्थों को देखने में और उनकी रचना करने में अन्यन्न आनन्द मानना है. जिमका माग समय मांसारिक प्रपंचों में पड़े रहने में ही व्यतीत होता है और जो इस तरह अपने संमार की स्थिति दृढ़ बनाये रहता है. वही आत्मा बहिरात्मा कहलाता है।
वहिरप्पा परपंच अर्थ च, तिक्तते जेवि चपनः ।
अप्पा परमप्पयं तुल्यं. देव देवं नमस्कृतं ॥५१॥ जड़ सृष्टि में ही लिप्त रहता है, सदा बहिरात्मा । उस मूढ़ पर अज्ञान की रहती, सतत छाई अमा ।। जिस आत्मा को नमन करते. इंद्र तक थकते नहीं ।
उस आत्म-मणि को काँच कहकर, फेंक देते जड़ वहीं ।। बहिरात्मा जीव मदा पुद्गलों के प्रपंच में ही फैमा रहना है। इस अज्ञान के कारण. वह उम विशुद्ध प्रान्म-मणि को, जिसको कि देवों के देव इन्द्र तक भी नमन करते थकते नहीं. काच मी जानकर. त्याग बैठता है ।
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सम्यक् आचार
वहिरात्मा के कार्य
रागद्वेष युक्त कुदेवों का पूजन
कुदेवं प्रोक्तं जेन, रागादि दोम मंजुतं । कुन्यानं त्रति संपूर्ण, न्यानं चैव न डिस्टते ॥५२॥
जो रागद्वेपादिक मलों से पूर्ण हैं संतप्त हैं । जो विधि मिथ्याज्ञान की, कटु कालिमा से लिप्त हैं || जिनके हृदय अणुमात्र, सम्यग्ज्ञान से भी हीन हैं । वे हैं कुदेव, कुदेव यह कहते जिनेन्द्र प्रवीण हैं ॥
जो अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर चुके हैं, ऐसे प्रभु कहते हैं कि जो रागादि अनेक दोषों के घर हैं, जो कुमति, कुश्रुत और कुअवधि इन तीन ज्ञानों के धारी हैं और जिनके हृदय सम्यज्ञान से पूर्णतया रहित हैं, वे सब देव, कुदेवों की कोटि में आते हैं ।
माया मोह ममत्तस्य, अशुभ भाव तो सदा | तत्र देव व जाति, जत्र रागादि मंजुतं ॥ ५३ ॥
[ ३५
जो जीव मायाचारिता में, स्वत्व अपना खो चुके । जो अशुभ भावों की शरण में जा सदा को सो चुके ॥ वे ही कुमति वहिरात्मा, जो स्वपर भेद न जानते । ऐसे कुदेवों को ही अपना, देव कहकर मानते ||
जो दिन रात माया मोह के चक्कर में फँसे रहते हैं और जो अशुभ भावों के चिन्नवन में ही लीन रहा करते हैं, ऐसे बहिरात्मा प्राणी ही, संसार के रागों के वशीभूत होकर ऐसे मिथ्या देवों को, देव कहकर पुकारते हैं ।
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३६ ]
सम्यक औचार
आरति रौद्रं च सद्भावं, माया क्रोध मयं जुतं । कर्मना अभावस्य, कुदेवं अनृतं परं ॥ ५४ ॥
जो आर्त्त रौद्र ध्यान के, नरकों से गहरे कुण्ड हैं जिनके मलिन तन पर कषायों के विचरते झुण्ड हैं ॥ ऐसे कुदेवों की विनय, मिथ्यात्व है; अज्ञान है उनकी असत् विरदावली करती मलिन सत्ज्ञान है ||
और रौद्र इन दो अशुभ ध्यानों का चिन्तवन करते हैं: माया, क्रोध, मद आदि
जो दुर्गुणों से जो परिपूर्ण रहते हैं, ऐसे मिथ्या देवों की विनय या पूजा करना महान अज्ञानता है. मिथ्यात्व है । उनकी मिथ्या प्रशंसा भी, भावों को अशुद्ध बनाने में सहायक होती है, इसका ध्यान रखना चाहिये ।
अनंत दोष संजुक्त, सुद्ध भाव न दिम्टते । कुदेवं रौद्र आरूढं, आराध्यं नरयं तं ॥ ५५ ॥
जो जन अनंतानंत दोषों से मलों से युक्त हैं । ऐसा न कोई अगुण जिससे, वे तनिक भी मुक्त हैं ॥ जिनमें न शुभतर भाव हैं, जो रौद्र ध्यानारूढ़ हैं । ऐसे कुदेवों की विनय से, नर्क जाते मूढ़ हैं ||
जो अनंत दोषों के घर हैं: शुद्ध भावों की जिनके हृदय में छाया तक नहीं दिखाई देती हैं। तथा जो रौद्र ध्यान के चिन्तवन करने में ही संलग्न रहा करते हैं, ऐसे जो देव नाम धारी कुदेव होते हैं, उनकी आराधना, मनुष्य को पतन के गर्त में या नर्क में डालने वाली होती है।
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सम्यक आचार
[३७
कुदेवं जेन पूजते, बन्दना भक्ति तत्परा । ते नरा दुष माहंते, मंमारे दुष भीरुहं ॥५६॥ जो नर कुदेवों की सश्रद्धा, नित्य करते वंदना । जो भक्ति में आरूढ़ हो, उनकी करें नित अर्चना ।। वे जीव इस संसार में, अगणित युगों तक घूमते ।
विकराल दुख सहते हुए, जग की दुखद रज चूमते ॥ जो कुदेवों की पूजा करते हैं; जो उनकी वन्दना भक्ति में निरन्तर तत्पर रहते हैं, पस मानव इस भयानक संसार में अनन्त काल तक दुःख सहते हुए विचरण करते रहते हैं।
कुदेवं जेन मानते, अस्थालं जेवि जायते । ते नरा भयभीतस्य, मंसारे दुष दारुनं ॥५७॥ जो जीव गाते हैं कुदेवों की. सतत विरदावली । जो नित्यप्रति ही छानते, रहते कुदेवों की गली ॥ उनका कभी मिटता नहीं, संसार से आवागमन ।
भव-वावली में वे लिया करते, समय जीवन मरण ॥ जो कुदेवों की मान्यता करते हैं या जो उनकी अराधना के लिये उनके स्थानों में जान है. वे मनुष्य इस दुःखपूर्ण संसार से कभी निवृत्त नहीं होते और हमेशा ही वे इस भव-कृप में जन्म लेकर भय-भीत बने रहते हैं।
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३८ ]
सम्यक् आचार
मिथ्या देवं च प्रोक्तं च, न्यानं कुन्यान दिस्टते । दुरबुद्धि मुक्ति मार्गस्य, विस्वान नरयं पतं ॥५८॥
रागादि दोपों से भरे, मिथ्या कुदेवों का कथन । शशि से समुज्ज्वल ज्ञान पर, घन सदृश बनता आवरण ।। चिर सुख-सदन की राह में, वुद्धि फिर जाती नहीं ।
पतितोन्मुख बहिरात्माएं, सुख कभी पाती नहीं ॥ इवां के विपरीत गुणों को धारण करने वाले कुदवों का कथन, ज्ञान को भी मियाज्ञान में परिणत कर देता है। इन कुदेवों की आराधना से जिनकी बुद्धि दुर्बुद्धि में बदल जाती है, वन फिर मुक्ति मार्ग में जाने का साहस नहीं करतेः उनकी बुद्धि मुक्ति से परान्मुग्ब हो जाती है और पल यह होता है कि उनके विश्वास के कारण व नर्क के पात्र बनते रहते हैं।
जम्म देव उपायंते, क्रियते लोकमुढयं । तत्र देवं च भक्तं च, विग्जामं दुर्गनि भाजपं ॥५९॥ सर्वज्ञभापित देव से, जिनके हृदय प्रतिकूल हैं । जन मूदता बम जो. कुदवों को चढ़ाते फूल हैं । जिनको कुदवों की विनय. देती परम आनन्द है । मिलती उन्हें वस अमरवेला सी नरक निष्कन्द है ॥
जो देवाचित गुणों से पृण मुदवों या वास्तविक दवा की आराधना तो नहीं करत. किन्तु लोगों की दवादेवी, लोकमृदना वश होकर कुदवों का बंदन करते है; कुदवों की भक्ति करने है या कुदवों में विश्वाम करते हैं, व मानव अवश्य पतन के गड्ढे में या नर्क में गिरत है ।
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सम्यक् आचार ........
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[३९
देवत्व से हीन अदेवों की अर्चना अदेवं देव प्रोक्तं च. अंधं अंधेन दिस्यते । मार्ग किं प्रवेन च. अंध कृपं पतंति ये ॥६॥
चैतन्यता से हीन जो. अज्ञान जड़ स्वयमेव हैं । उनको बना आराध्य ये नर, कह रहे ये देव हैं ॥ अन्धों को अन्धराज ही यदि, स्वयं पथ दिखलायेंगे । तो है सुनिश्चित वे पथिक जा, कृप में गिर जायेंगे ।
मनुप्य दवों में कहे गय गुगों से शून्य अंदवों को दव कहकर पुकारते हैं। अदेवों को देव मान लना याने एक नेत्र-विहीन पुरुप का. उम पुरुप में अपने गंतव्य स्थान की राह पूछना है, जो स्वयं बहुन दिनों में अपनी दृष्टि ग्योंय वटा है । भल! मृग्दाम को सृग्दाम ही क्या गह बनायेंगे? फल यही होगा कि अगर उनके बनाय हाप पथ का अनुशरण किया गया ना निश्चित ही व पथिक कुए में जाकर गिर जायेंगे।
अटेव जैन दिन्टने. मानने मृढ मंगते । ने नरा नीव दुपानि, नरयं तिरयं च पतं ॥६१॥ जिन मूढ पुरुषों पर, कुसंगति का अकाट्य प्रभाव है । जिनके हृदय में राज्य करता, भेद-ज्ञान-अभाव है ।। वे देव-सी करते अदेवों की सतत आराधना । नक-स्थली या तिथंग गति पा, दुःख वे सहते घना ॥
जो पुरुप मियाज्ञान से ढंक हुए, मूढ़ पुरुषों की संगति के प्रभाव से अदेवों में देव क प का दर्शन करते है और उनको देव के समान मानकर उनकी आराधना करते हैं, वे या तो विकराल दःखों के समुद्र नर्क में जाते हैं, या फिर तिर्यंच गति में जन्म लेकर भयंकर कष्ट सहते है।
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४०]
सम्यक् आचार .........
अनादि काल भ्रमनं च, अदेवं देव उच्यते । अनृतं अचेत दिस्टते, दुर्गति गमनं च मंजुतं ॥१२॥ यह ही नहीं कि अदेव को, सतदेव कहना भूल है । परिपक्व इस अज्ञान से. होती अरे भव-मूल है ॥ जड़-पत्थरों के दर्शनों से, कर्म ही बँधते नहीं ।
उनका पुजारी नर्क तज, जग में न थल पाता कहीं ॥ जो देव के अनिवार्य गुणों से हीन हैं, उनको देव कह देना, संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करने का एक प्रधान कारण है। जिनमें वास्तविकता नहीं है और जो जड़ है: चैतन्य से रहित है. ऐसे देवों के दर्शन नर्क में गमन कराने वाले होते है।
अनृतं अचेत मानं च, विनाम जत्र प्रवर्तते । ते नरा थावरं दुषं, इन्द्री इत्यादि भाजनं ॥६॥ जिम ओर सर्व विनाश की, विकराल दावा जल रही । जिनके बदन से प्रलयकर, गिरि-तुल्य ज्वाल निकल रही ॥ जो नर असत् को सत्य कह. जाता कहीं इस ओर है । एकेन्द्रियों में जन्म ले वह, कष्ट सहता घोर है॥
जो अन्न या मिथ्यावस्तु को सत्य मानता है और विनाश की ओर अपने कदम बढ़ाता है. वह मरण को प्राप्त होकर उस एकेन्द्रिय स्थावर पर्याय में जन्म लेता है, जहाँ उसे अनन्त काल नक कठिन से कठिन दुःख उठाना पड़ते हैं।
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सम्यक् आचार
मिथ्यादेव अदेवं च, मिथ्या दिस्टी च मानते । मिथ्यातं मूढ दिस्टी च, पतितं संसार भाजनं ॥६४॥
जो नर कुदृष्टी हैं, न जिनके पास भेद-विज्ञान है। जो नित कुदेव अदेव के, करते सुविस्तृत गान हैं। उनसे नहीं होती विलग, संसार की क्रीड़ा-स्थली ।
वे नित नया जीवन-मरण ले, छानते जग की गली ॥ जो मिथ्यादृष्टि, सम्यक नहीं किन्तु कुदेवों और अदेवों को मान्य देते हैं और उनकी वन्दना भक्ति करते हैं, उन पुरुषों से संसार कभी भी नहीं छूटता है और वे अपनी मिथ्या देवोपासना के फलवाप संसार-सागर में अगणित समय तक जन्म मरण किया करते हैं।
असद्गुरुओं की सेवा
सद्गुरु के लक्षण
मंमिक गुरु उपायंते, नमिक्तं सास्वतं धुवं । लोकालोकं च तत्वार्थ, लोकितं लोक लोकितं ॥६५॥ सद्गुरु वही है जो सदा, सम्यक्त्व में लवलीन है। तत्वार्थ का सत्ज्ञान जिसका, सुदृढ़ शंका-हीन है । जो लोक और अलोक के, विज्ञान का भण्डार है ।
जिसके अलौकिक ज्ञान से, जगमग सकल संसार है ॥ सद्गुरु कौन ? किसे सद्गुरु की संज्ञा दी जाना चाहिये ? उसे ही, जो आत्मा के सर्वमान्य, त्रिकालाबाधित सम्यक्त्व गुण का निश्चल और प्रगाढ़ पुजारी होः जो लोक और अलोक के तथा आत्मतत्व के विज्ञान का प्रकाण्ड पण्डित हो तथा जो इतने ज्ञान का निधान हो, कि जिसके प्रकाश के पुंज से सारा संसार आलोकित हो जाये।
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४२ ]
सम्यक् आचार
ऊर्ध अधो मध्यं च, न्यान दिस्टि समाचरेत् । सुद्ध तत्व अस्थिरी भूत, न्यानेन न्यान लंकृतं ॥६६॥
सद्गुरु वही जिसके दृगों में, ज्ञानमय समदृष्टि है । जो ज्ञानमय समदृष्टि से ही देखता यह सृष्टि है ॥ तत्वार्थ की ही अर्चना, जिसका सुभग संसार है । जिस ज्ञानमय से ज्ञान नित, पाता नया श्रृंगार है ||
जो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक अर्थात् जहाँ तक सृष्टि का विस्तार है, सर्वत्र ज्ञान से पूर्ण समताभाव का आचरण करते हैं, अर्थात् संसार के समस्त प्राणियों में समता का अनुभव करते हैं; किसी को बड़ा और किसी को छोटा या किसी को ऊँच और किसी को नीच नहीं लेखते; जो शुद्ध श्रात्मतत्वमें ही ध्यानारूढ़ रहते हैं और जो अपने ज्ञान से स्वयं ज्ञान को अलकृत करते हैं. वही सद्गुरु कहलाते हैं ।
सुद्ध धर्मं च सद्भावं सुद्ध तत्व प्रकासकं । मुद्धात्मा चेतना रूपं, रत्नत्रयं लंकृतं ॥६७॥
सत्धर्म की सावन सरीखी, जो लगा देते झड़ी । तृण के सदृश जो तोड़ देते, स्वपर कर्मों की कड़ी ॥ जो शुद्ध आत्मिक धर्म से, करते प्रकाशित हैं मही । शिव, सत्य, सुन्दर, तत्व उपदेशक, सुगुरु सद्गुरु वही ॥
जो शुद्ध भावों की सत्ता से पूर्ण है; चैतन्य जिसका प्रधान लक्षण है तथा मोक्ष - लक्ष्मी को प्रात करानेवाले रत्नत्रय जिसके आभूषण हैं, ऐसा जो श्रात्मिक धर्म है, जगत को उसका ही उपदेश देकर जो स्वपर कर्मों की कड़ी तोड़ते हैं, वही सच्चे साधु या गुरु कहलाते हैं ।
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सम्यक् आचार .......
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[ ४३
न्यानेन न्यानमालव्यं, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं । मिथ्या माया न दिम्टते, मंमिक्तं सुद्ध दिस्टते ॥६८॥ सद्गुरु वही जिसका हृदय, सम्यक्त्व का शुचि स्रोत है । जो ज्ञान का अवलम्ब है, भव-सिन्धु का जो पोत है ॥ जिसका हृदय सद्ज्ञान रत्नों से, सुविधि सम्पन्न है ।
मिथ्यात्व मायाचारिता से, सर्वथा जो भिन्न है ॥ जिनका पहुँचा हुआ आत्मज्ञान ज्ञान का अवलम्ब या सम्बल बन जाता है; जो तीन मिथ्याज्ञान से सर्वथा हीन रहते हैं, जिनमें सांसारिक मायाचार देखने को भी नहीं मिलता है तथा जो सम्यक्त्व या पूर्णत्व के छलछलाते हुए पात्र रहते हैं, वही पुरुषश्रेष्ठ सद्गुरु कहलाते हैं।
मंसारे तारनं चिंते, भव्य लोकेक तारकं । धर्मस्य अप्प सद्भावं, प्रोक्ततं जिन उक्तयं ॥६९॥ 'संसार से कैसे मिदे, इस लोक का आवागमन' । नितप्रति इसी का चिन्तवन, करते सुगुरु तारनतरन ॥ "निज आत्म ही सद्धर्म है', जिनराज का है जो वचन ।
उस तथ्य का ही लोक में, सद्गुरु सदा करते कथन ॥ जो सद्गुरु होते हैं, वे संसार से प्राणियों का किस भांति उद्धार हो; संसारी जीव जन्ममरण के बंधनों से किस भाँति छूटें, सदा इन्हीं समस्याओं में डूबे हुए रहते हैं तथा जिससे प्राणियों का संसार सूख जावे, ऐसे उस जितेन्द्रिय परमपुरुष द्वारा कथित आत्मधर्म का ही उपदेश संसार के मानवों को दिया करते हैं।
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४४].
सम्यक् आचार
न्यानं त्रितिय उत्पन्न. ऋजु विपुलं च दिस्टते । मनपर्ययं च चत्वारि, केवलं सिद्धि माधकं ॥७०॥
मति, श्रुत, अवधि सद्ज्ञान से, जो तीन मुक्ताराज हैं । सत् साधु के वे नियम से, रहते हृदय के साज हैं । होता उन्हें नव मनःपर्यय-ज्ञान का भी भास है। कैवल्य की सद् प्राप्ति में, चलता सतत अभ्यास है।
जो सद्गुरु होते हैं उन्हें मति, श्रुत और अवधि ये तीन सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हो जाते हैं। ऋजु और विपुल ये मनःपर्यय ज्ञान भी उन्हें दिखलाई पड़ते हैं। कभी कभी मन:पर्यय को लेकर, चारों ज्ञान का भी उन्हें आभास हो जाता है। जो पांचवों केवलज्ञान है, उसकी साधना में सद्गुरु सदा लवलीन रहन है।
रलं त्रय सुभावं च, रूपातीत ध्यान मंजुतं । सक्तिस्य विक्त रूपेन, केवलं पदमं धुवं ॥७१॥ सद्गुरु वही जिसका कि, रत्नत्रय-मयी शुभ धर्म है । पर-ब्रह्म के रंग से रँगा, प्रत्येक जिसका कर्म है। जो व्यक्त, ध्रुव, कैवल्य, पावन श्री जिनेन्द्र समान है ।
जो अचल मुद्रा-रूढ़ हो, धरता अरूपी ध्यान है। जिनके स्वभाव रत्नत्रय धर्म से पूर्ण हैं या जो निशिवासर रत्नत्रय धर्म के पालन में लवलीन रहा करते हैं; रूपातीत ध्यान ही एकमात्र जिनकी निमग्नता का विषय है और उसके द्वारा जो आत्मा से साक्षात्कार या सामीप्य स्थापित कर लेते हैं और जो केवलज्ञान के धारी सिद्धों के समान ध्रुव व पवित्र है, वही पवित्रात्मा सद्गुरु कहलाते हैं।
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सम्यक् आचार
[४५
कर्म त्रि-विनिर्मुक्तं व्रत तप मंजम मंजुतं । मुद्ध तत्वं च आराध्यं, दिस्टतं नमिक दर्न ॥७२॥
सद्गुरु वही, उस आत्म का ही ध्यान जो धरता सदा । जो तीन दारुण कर्म के, भय से रहित है सर्वदा ॥ व्रत, तप, सुसंयम-साधना में, जो सतत संलग्न है । शुद्धात्मा में लीन जो, सम्यक्त्व-सिन्धु निमग्न है।
जो सद्गुरु होते हैं वे तीन प्रकार के कमां से सर्वथा हीन होते हैं। बन, तप व संयम से व युक्त होते हैं। उनका एकमात्र आराध्य शुद्धात्म तत्व ही होता है और उनकी जहाँ कहीं भी दृष्टि जाती है. सर्वत्र उनको शुद्ध सम्यग्दर्शन की झांकी ही दिखाई पड़ती है।
तस्य गुनं गुरुम्चैव, तारनं तारकं पुनः । मान्यते सुद्ध दिस्टि च, संसारे तारनं सदा ॥७३॥ शुद्धात्मा की अर्चना, इतनी मृदुल सुखसार है । भव-सिन्धु से इसका पथिक, तरता न लगती बार है ।। जो तर गया वह तरनतारन, आत्म-ध्वनि उच्चारता । संसार सागर से करोड़ों, जीव पार उतारता ॥
जिसमें साधुगण निशिबासर निमग्न रहते हैं, उस आत्मा की आराधना इतनी मृदुफलदायिनी है कि वह अपने आराधक को इस संसार सागर से पार कर देती है। इतना ही नहीं, किन्तु उसका आराधक भी आत्मतत्व पर श्रद्धान करता हुआ और जग को शुद्धात्म तत्व का पाठ पढ़ाता हुआ, मानवों को तारने के लिये संसार सागर में पोत के समान हो जाता है।
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४६ ]
सम्यक् आचार
जावत् सुद्ध गुरं मन्य, तावत् गत विभ्रमं । सल्यं निकंदनं जेन, तस्मै श्री गुरुभो नमः ॥७४॥ शुद्धात्मा के अनुभवी, गुरुवर्य की जब तक शरण । मोहादि भ्रम के हृदय में तब तक, नहीं पड़ते चरण ॥ जिन साधुओं के शून्य, तीनों शल्य से हृद-धाम हैं ।
उनके पदाम्बुज में अकिंचन के. असंख्य प्रणाम हैं। जब तक शुद्ध, सम्यक् और आत्मानुभवी गुरु की शरण रहती है, तब तक किसी भी मोह या विभ्रम के इस हृदय में चरण नहीं पड़ने पाते । जिन गुरुवयों ने तीनों शल्यों को नष्ट कर डाला है. उनको मेरे असंख्य प्रणाम हों।
असद्गुरु के लक्षण
'कुगुरुस्य गुरुं प्रोक्तं च, मिथ्या रागादि संजुतं । कुन्यानं प्रोक्तं लोके, कुलिंगी असुह भावना ॥७५॥ जो रागद्वेषादिक मलों के. पूर्णतम आधार हैं । जो अशुभ कुत्सित-भावनाओं के विशद भण्डार हैं। कुज्ञान का जो दान दें, जिनके कुलिंगी वेश हैं ।
वे गुरु नहीं हैं, कुगुरु हैं, कहते महान जिनेश हैं । जो रागद्वेष आदिक प्रात्मा की मिथ्या परिणतियों के धारी हैं; जनता में मिथ्याज्ञान का प्रचार करते हैं; साधु का जो परिग्रहों से हीन वेष होना चाहिए, उसे छोड़कर जो आडम्बरों से युक्त वेष को धारण करते हैं और जिनकी भावनाओं में अशुभ परिणाम विचरण किया करते हैं, वही इस संसार में कुगुरु कहलाने योग्य साधु हैं।
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सम्यक् आचार ...........
[४७
कुगुरुं राग संबंध, मिथ्या दिस्टी च दिस्टते । राग दोष मयं मिथ्या, इन्द्री इत्यादि सेवनं ॥७६॥ जो कुगुरु होते, राग में रहते सदा वे लिप्त हैं । मिथ्यात्व से उनके हृदय, रहते न रंच अरिक्त हैं । संसार को जो दृढ़ बनाने में, महान प्रवीण हैं ।
रहते कुगुरु उन ही पंचेन्द्रिय, भोग के आधीन हैं। जो कुगुरु या खोटे गुरु होते हैं वे राग में संतप्त रहा करते हैं, अत: इस राग भाव के संसर्ग से उनकी कपि पर असम्यक्त्व का पर्दा चढ़ जाता है। राग-द्वेषों से भरे हुए और देखते देखत विनाश हो जान वान जो पंचेन्द्रियों के विषय है, वं कुगुरु उन्हों विषयों के आधीन रहत हुप पाये जाते हैं।
मिथ्या ममय मिथ्यं च, प्रकृति मिथ्या प्रकासये। मुद्ध दिस्टी न जानते, कुगुरु मंग विवर्जए ॥७॥ मिथ्या कुवचनों से रँगे. जिन आगमों के पृष्ठ हैं । उपदेश उन ही का सतत् देते कुगुरु निकृष्ट हैं । जड़-कथन में ही शब्द की वे, जालियाँ रचते रहे । एसे कुगुरु बहिरात्माओं से, सुमति बचते रहें ॥
जो कुगुम होते हैं, वे सदा ऐसे शास्त्रों का ही उपदेश दिया करते हैं, जो मिथ्याज्ञान से परिपूर्ण रहते हैं। विवेचन भी उन्हीं वस्तुओं का करते हैं जो क्षणभंगुर पर्याय वाली होती है। शुद्धात्मा तत्व क्या है, इमको कुगुरु नहीं जानते हैं, अत: बुद्धिमानों को उचित है कि वे ऐसे मिथ्यामार्ग-गामी गाओं की संगति से सदा ही बचते रहें।
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सम्यक् आचार
कुगुरुं कुन्यानं प्रोक्तं च, सल्यं त्रि-दोष मंजुतं । कसायं बर्धनं नित्यं, लोकमूढस्य मोहितं ॥७॥ जो तीन शल्यों के घिनौने, अशुचिपूर्ण निवास हैं । जिनमें कषायों के भरे, अगणित भयंकर त्रास हैं। मूढत्व जिनके वचन से, शत शत मुखों से बोलता ।
जग में कुज्ञान विखेरता, ऐसा कुगुरु है डोलता ॥ मिथ्याज्ञान के उपदेशक साधु कैसे होते हैं ? मिथ्या, माया और निदान इन तीन शल्यों से भरे हाएः क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार संसारवद्धिनी कपायों को बढ़ाने वाले और भेदविज्ञान रहित लोकमूढ़ता के जाल में पूर्ण रूप से फँसे हुए।
इन्द्रियानां मनोनाथा, प्रमरंतं प्रवर्तते । विमयं विषय दिस्टं च, ममतं मिथ्या भूतयं ॥७९॥ पंचेन्द्रियों का नाथ मन है, जो महा बलवान है । जितना उसे अवकाश दो, वह प्रसरता द्रुतिमान है ॥ इस मन-कुरंग पर कल्पना में, कर कुगुरु असवारियाँ । जड़ इन्द्रियों के भोग की, निरखें विषम फुलवारियां ॥
मन पाँचों इन्द्रियों का नाथ माना जाता है। इसमें एक विशेषता होती है कि इसे जितना भी फैलने का अवकाश दिया जाय, यह फैलता ही जाता है। जो खोटे गुरु होते हैं, वे इस मिथ्याभूत मन पर असवारी करके, निशिवासर संसार की विषम विषय भोगों की फुलवारियों की सैर किया करते हैं।
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सम्यक् आचार
[ ४९
अनृतं उत्साहं कृत्वा, भावना असुहं परं । माया अनृत असत्यस्य, कुगुरुं संसार अस्थितं ॥८॥ मन के परों पर कुगुरु उड़ते, दूर और सुदूर हैं । पर जब न फलती कामना, होते दुखों से चूर हैं । इस तरह माया मोह की, पीते सुरा की प्यालियाँ । वे छानते रहते सदा, इस विशद भव की नालियाँ ।।
मन रूपी घोड़े पर सवारी करकं खोटं गुरु अपने उत्साह को प्रनिपल द्विगुणित बनाते हुए, संसार की नित नई सैर करत है, किन्तु क्या यह उन्नाह से किया हुआ काम किमी सब का देनेवाला होता है ? नहीं ! फल यह होता है कि जब मनोवांछिन कामना नहीं फलनी, तब ये कुगुरु अनेकों प्रकार के संकल्प विकल्प परिणाम करते है और माया, मोह और अमत्य आचरण के पात्र होने से अन्न में अनंत काल नक मंमार मागर में परिभ्रमण किया करते हैं।
आलापं अनुहं वाक्यं, आरती रौद्र मंजुतं । क्रोध लोभ मयं मानं, कुलिंगी कुगुरुं भवेत् ॥८१॥ जो कुगुरु हैं, जिनके मलिन कुत्सित कुलिंगी वेश हैं । उनके कपायों से भरे, होते हृदय के देश हैं । वे मूढ क्या हैं, अशुभतम आलाप के भण्डार हैं । गंद्रात से उनके सभी होते, सने व्यवहार हैं ।
जो कुगुम होन है व मुग्य से कटु शब्दों का उच्चारण करते हुए दिग्याई देते हैं: आन और रोद्र अपध्यानों का व चिन्नवम करते है: क्रोध, मान, माया, लोभ ये जो चार कपायें होती हैं, उनके व भण्डार हात है और परिग्रहों से लदे हुए अशुभ उनके वेश होते है।
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सम्यक आचार
कुगुरुं पारधी मंजुक्तं, मंमार बन आश्रयं । लोक मूढस्य जीवस्य, अधर्म पामि बंधनं ॥२॥ जो गुरु नहीं हैं कुगुरु हैं, जो कुगुरु ही न, बहेलिये । वे घूमते संसार-वन में, हाथ में फंदे लिये ॥ जग-मूढ़ता-स्थित जीव जो, बसते जगत के बीच हैं । मिथ्यात्व-बंधन में उन्हें, नित फांसते वे नीच हैं।
खोटे गुरु बहेलियों के समान हुआ करते हैं, जो संसार रूपी बन में अपना अड़ा जमाकर वैट रहते हैं। इनके शिकार होत है, देखा-दग्बी करने वाले भद-विज्ञान से रहित, लोकमृढ़ता में फंसे हुए प्राणी। इन अंधविश्वासी मानवों के आगे ये कुगुम रूपी बहेलिये अपना अधर्म रूपी फंदा डाल दन हैं श्रार उसमें इन भोले जीवों को फांम लिया करते हैं।
अरंडते ते बने जीवा, वृप जाल पारधी करं । विस्वामं अहं बंधे, लोकमृदस्य किं पम्यति ॥८३॥
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मिथ्यात्व-माया के कुगुरु जन, फेंकतेजय जाल हैं । मोहान्ध फंस जाते वहीं, उस जाल में तत्काल हैं । मिथ्यात्व कर देता उन्हें, इस भांति से बेहाल है । उनको न होता भान यह, हम फंस रहे, यह जाल है।
संसार बन के प्राणी रूपी पखेरु कुगुरु रूपी बहेलियों के द्वारा बिछाये हुए जाल में एक एक करकं फंस जाते हैं, वे संसारासक्त प्राणी इस बात को नहीं देखते कि वह पारधी के द्वारा बिछाया हुआ कोई जाल है और अगर मैं इसमें के दाने चुराने गया तो सिवा अपने प्राणों को फँसा देने के मेरे हाथ कुछ भी नहीं आयेगा।
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सम्यक् आचार
कुगुरुं अधर्म पस्यंतो, अदेव कृत ताडकी । विकथा राग दंड जालं, पास विस्वास मूढयं ।।८४॥ जिसको कुगुरु के धर्मरूपी, व्याल ने आ डस लिया । उसका अदेवों से समझ लो, भर गया पूरा हिया ॥ विकथा कषायों में ही अपना, वह समय खोने लगा । मूढत्व में हो लिप्त, भव के बीज वह बोने लगा ॥
जो कुगुरुओं के उपदेश से अधर्म के पात्र बन जाते हैं, वे अदेवों की भक्ति में निश्चयत: लीन हो जाते हैं; रागों से भरी हुई जो विकथाएं हैं, उनके सुनने में आनन्द लेने लगते हैं और इस तरह विश्वाम रूपी उस पाश में सदा के लिये बंदी बन जाते हैं जो मूढ़ता रूपी रेशों से बनी रहती है और अगणित जन्म मरण धारण कराती रहती है।
बनं जीवा गणं रुदन, अहं बंधति जन्मयं । अगुरु लोकमूढस्य, बंधति जन्म जन्मयं ॥८५॥ फँसती बधिक के जाल में, जो भी विहँग की पांत है । वह एक भव के लिये ही, धोती वहाँ पर हाथ है ॥ जिन पर कुगुरु-रूपी बधिक की, पड़ गई पर जालियाँ । पीलीं समझ लो, उन खगों ने कई भवों की प्यालियाँ ॥
हे मानवो ! बनवासी पारधी के जाल में जो पक्षी फँस जाते हैं, वे सिर्फ एक जन्म के लिये ही मदन मचाते हैं, किन्तु लोकमूढ़ता के वशीभूत होकर जो प्राणी कुगुरों के फन्दे में फंस जाते हैं, वे जन्म जन्म के लिये बंधन में पड़ जाते हैं अर्थात् उनका अगणित काल तक संसार से आवागमन नहीं मिटता।
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सम्यक् आचार
कुगुरम्य गुरूं मान्ये, मृढ दिस्टि च मंगता। ते नरा नरयं जांति, मुद्ध दिस्टी कदाचना ॥८६॥ जो मूढ़ कहते अगुरु को. मेरे यही गुरुदेव हैं । जो मूदृष्टि मनुष्य का. करते कुसंग सदैव हैं । वे नर कुगति को बांध. भीषण नर्क में जाते सही । सत् दृष्टि की उनको कभी, फिर प्राप्ति होती है नहीं ।
जो अगुरुओं को अपना गुरु मानते हैं और मिथ्याट्रियों की मंगनि कग्न है. व मनुष्य अवश्य ही नर्क में जान हैं और शुद्धदृष्टि का लाभ फिर उन्हें कभी नहीं होता है ।
अनृतं अचेतं प्रोक्तं, जिन द्रोही वचन लोपन । विस्वानं मूढ जीवस्य, निगोयं जायते धुवं ।।८।। जिन के वचन को लुप्तकर, उपदेश जो देते, अरे ! वे गुरू नहीं हैं. किन्तु वे जिनराज द्रोही हैं वरं ।। जो मू; करते, इन कुगुरुओं में तनिक विश्वास हैं । व अन्धविश्वासी सतत, करते निगोद नियाम हैं ।।
मज्ञ ने शुद्धात्म नत्य की जो महत्ता बनाई है, उसका लोप कर. जो अचनन और अन्त पदय की उपासना करने का उपदेश दत है, उन्हें ज्ञात होना चाहिये कि चूंकि व आत्र के वचनों का लापन कर रहे हैं, अत: वे निश्चित ही आनद्रोही है । एस मिथ्यापदशकों में जो मनुष्य विश्वास करते है. व निश्चय हा नि गोद के पात्र बनते है।
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सम्यक आचार
दर्सनं भृस्ट गुरुश्चैव, अदर्मनं प्रोक्तं सदा । मानते मिथ्या दिस्टी च, न मानते सुद्ध दिष्टितं ॥८॥ जो नामधारी गुरु हैं, पर जो पूर्ण मिथ्यादृष्टि हैं । वे नित्य ही करते अदर्शन की, जगत में वृष्टि हैं । बस अंधविश्वासी ही ऐसे. कुगुरु को गुरु मानते ।
सत दृष्टि तो ऐसे कुगुरु की, भूल विनय न जानते ॥ जो गुरु नामधारी अवश्य है, किन्तु जो रंचमात्र भी आत्मनिष्ट नहीं है; दर्शनभ्रष्ट है, व सदा अनात्म को ही प्रधानता देते हुए उपदेश करते हैं अर्थान आत्मतत्व की ओर से व सदा पराङ्गमुग्व रहते हैं। से अनात्म-चारी कुगुम्ओं को सिर्फ मियाज्ञान से श्रावृत्त पुरुप ही गुरु मानते हैं। जिनके हृदय में आत्म-प्रतीति का सूर्य जाग चुका है. से ज्ञानवान पुरुष उनकी विनय भूलकर भी नहीं करते।
कुगुरुं मंगते जेन, मारते भय लाजयं । आमा अनुनेह लोभेन, ते नरा दुर्गति भाजां ॥८९।। भय, लाज, आज्ञा, स्नेह या पड़ लोभ के जंजाल में । जो कुगुरु को कर मान्यता, पं.सते हैं उनके जाल में । वे मू! कर मिथ्यात्व को यों, मान्यता अनुमोदना । पड़कर अधोगति में निरन्तर, दुःख महते हैं धना ॥
जो मनुप्य अाशा, भय, म्नेह, लोभ या लाज भीमन होकर, कुगुरुओं के धर्मापदश के श्रवण करते हैं या उनकी विनय पूजा करते हैं, व मनुष्य अवश्य ही दुगति के पात्र होते है।
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५४ ]
सम्यक् आचार
कुगुरु प्रोक्तं जेन, वचनं तम्म विस्वामन । विस्वामं जेन कर्तव्यं, ते नरा दुर्गति भाजनं ॥९०॥
जो कुगुरु के मुख से निकलते, कटु वचन के ब्याल हैं । वे हैं न रे ! विश्वासभाजन, व्याल तो वस काल हैं ॥ दुर्भाग्य से विश्वास उन पर, जिन नरों ने कर लिया ।
उनने अनन्तानन्त भव के, पान से उर भर लिया ॥ कुगुरुओं के मुख से जो उपदेश निकलते हैं, वे सम्यक् न होने के कारण कदापि ग्राह्य नहीं होते। जो मनुष्य उनकी वचनावली पर विश्वास कर लेता है; उनके उपदेश को सश्रद्धा ग्रहण कर लेता है, वह अनेकों दुर्गतियों के पात्र बनने का भार अपने कंधों पर रख लेता है।
कुगुरु ग्रंथ मंजुक्तं. कुधर्म प्रोक्तं सदा । असत्यं सहितं हिंसा, उत्साहं तस्य क्रीयते ॥११॥ जो अन्त रंग वहिरँग परिग्रह के विपुल भण्डार हैं । ऐसे कुगुरुओं के कथन, होते सदा सविकार हैं । जिस धर्म का इन कुगुरु से, मिलता हमें उपदेश है ।
वह "नित असत् पथ पर बढ़ो" करता यही निर्देश है ।। अनेकानेक परिग्रहों से संयुक्त जो खोटे गुरु होते हैं, वे सदा कुधर्म का ही उपदेश दिया करते हैं। उनका उपदेश असत्य बातों से परिपूर्ण रहता है और वह मानव को उत्तरोत्तर असत् पथ की ओर अग्रसर किया करता है।
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सम्यक् आचार
ते धर्म कुमति मिथ्यातं, अन्यानं राग बंधनं । आराध्य जेन केनापि, संसारे दुष कारणं ॥ ९२ ॥
जो कुगुरुओं का धर्म है, वह राग- बंधन हेतु है । मिथ्यात्व उसका सार है, अज्ञान का वह सेतु है | मिथ्यात्वमय इस धर्म की, जो वंदना में चूर हैं । संसार में वे नर उठाते, दुख दुसह भरपूर हैं ॥
खोटे गुरु जिस धर्म का उपदेश जन-साधारण को देते हैं, वह कुमति और मिथ्याज्ञान का भंडार होता है; अज्ञान से वह परिपूर्ण होता है और संसार में राग पैदा कराने वाला होता है । जो मनुष्य उनके धर्म की आराधना करते हैं, वे इस दुःख के कारण संसार में अनेकों कष्ट पाते हैं 1
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अधर्मं धर्म प्रोक्तं च अन्यानं न्यान उच्यते । अचेत अमास्वतं वंदे, अधर्मं भंसार भाजनं ॥९३॥
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जो है अधर्म, कुसाधु उसको धर्म कहकर मानते । अज्ञान को ही वे अहंमति, ज्ञान कहकर जानते || जो है अनित्य, कुगुरु उसे कहते यही ध्रुव, सार है । पर यह सुजान ! अधर्म है, संसार का यह द्वार है ॥
जो कुगुरु होते हैं वे अधर्म को धर्म और अज्ञान को ज्ञान कहकर पुकारते हैं। जो अनित्य, नश्वर-शील पदार्थ हैं, उनको वे कुगुरु शाश्वत और ध्रुव बतलाते हैं, पर यह सब मिध्याधर्म की बातें होती हैं, जो संसार को वृद्धिंगत बनाने ही में सहायक होती हैं ।
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५६]
सम्यक आचार
कुगुरुं अधर्म प्रोक्तं च कुलिंगी अधर्म मंचितं । मानते अभव्य जीवम्य, मंमारे दुष कारणं ॥१४॥ जो हैं अभव्य नहीं जिन्हें, चिर शान्ति सुख की कामना । वे कुगुरु के ही धर्म की, करते सतत आराधना ॥ जो हैं कुलिंगी साधु उनके, वे चरण नित चूमते ।
मिथ्यान्व बंधन बाँध ऐसे. कुजन भव भव घूमते ।। जो अभव्य जीव है या जो जीव संसार में ही बंध रहना चाहत है. व कुगुरु के कथिन अधर्म को धर्म कहकर ग्रहण कर लेन है और मिथ्या वेषधारी माधु को माधु कहकर मान लेते हैं और उनकी उपामना करने लग जाते हैं. पर भेद-विज्ञान शून्य उनका यह कार्य संमार को बढ़ाने वाला ही होता है।
निःया धर्म की उपासना अधर्म लक्षणम्चैव, अनृतं अनत्यं श्रुतं । उत्माहं महितं हिना, हिंमानंदी जिनागमं ॥९५॥ जिसका असत् श्रुत मात्र में, मिलना मुजन ! विस्तार है । मिथ्यात्व मायाचारिता का. जो वृहत् आगार है। कट दानवी हिंसा ही जिसका. लक्ष्यविन्द महान है ।
वह ही मुमुक्षु अधर्म है, करता जिनागम गान है। जैन धर्म अधर्म किसको कहता है ? उसे. जिमके अाधार मिथ्यात्व और अमत्य से भरे हुए शाम्म्र होः जो हिंसा करने के लिये प्रोत्साहन देता हो तथा जिममें ऐसे पाठों की भरमार हो कि पढ़ने वाले का मन हिंमा की भावनाओं से ओत प्रोत हो जाये।
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सम्यक् आचार .
हिंमानंदी, अनुतानंदी, स्तेयानंद अबभयं । रौद्रध्यानं च संपूर्ण, अधर्म दुषदारुनं ॥९६॥ जो घोर हिंसा और मिथ्यावाद में रंजित रहे । जो चौर्य का पोषण करे, अब्रह्मता को शुचि कहे ॥ इस भाँति चारों रौद्र का जो, बृहत् पारावार है ।
वह ही मुमुक्षु अधर्म है, जो दुःख का भंडार है ॥ अधर्म उसे ही माना गया है कि जिसमें हिंसानंदी, मृषानंदी, स्तेयानंदी और अब्रह्मानंदी इन चार गद ध्यानों का सविस्तार वर्णन पाया जावे। ऐसे विषयों से पूर्ण अधर्म निश्चय हो दारुण दुःख का देने वाला होता है।
आरति रौद्र मंजुक्तं. ते धर्म अधर्म संजुतं । रागादिमलमंपूर्न अधर्म मंमार भाजनं ॥१७॥ जो चार विधि के आर्त ध्यानों से भरा है, पूर्ण है । जो रागद्वेषादिक मलिनतम, भाव से संपूर्ण है ॥ जो रौद्र ध्यानों का गहन, विटपी सरिस आगार है ।
वह ही मुमुक्षु अधर्म है, संसार का जो द्वार है । अधर्म में आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों का विशेषतया वर्णन पाया जाता है या यों कहिये कि अधर्म में जिन उपदेशों का समावेश होता है, उनमें आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों का स्पष्ट संकेत मिलता है। यह अधम रागद्वेष की भावनाओं को विस्तीर्ण करने वाला होता है और इसलिये मनुष्य को बार २ मनार में आवागमन करने के लिये बाध्य करता रहता है।
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५८ ] ......
सम्यक् आचार .... व्यर्थ चर्चाओं में मंलग्नता
विकहा राग मंवधं, विमयं कपायं मदा। अनृतं राग आनंद, ते धर्म अधर्म उच्यते ॥९८॥ जो राग संबद्धक कथाओं की, पिलावे प्यालियाँ । जिसमें कपायों को. विषय को, बह रही हो नालियाँ ।। जो अन्त में, मिथ्यात्व में ही, मग्न परमानंद है।
वह हो मुमुक्षु अधर्म है, जो भव दुखों का कंद है ॥ वह धर्म. जो काम विकथा, चोय विकथा, राज्य विकथा व स्त्री विकथा इन चार विकथाओं से संबंधित हो; विषय-कपायों की चर्चाएं जिसमें पद पद पर भरी हो नथा जो अनात्म या पौगलिक विवचनों में विशप आनन्द लेता हो, वह वास्तव में अधर्म है।
विकहा परिनाम अमुहं च, नंदितं अमुह भावना । ममत्व काम रूपेन, कथितं वन विमेषितं ॥९९॥ विकथा जनित जो ज्ञान है, वह अशुभ है, कटु म्लान है । विकथा जनित आनंद जो है. वह अशुभतम ध्यान है ।। कई भांति से चित्रित बनाकर, ये कथा उच्चारना । यह कुछ नहीं, पर विषय भोगों में ममत्व प्रसारना ॥
विकथा सम्बन्धी जितना भी ज्ञान होता है, वह पूर्णतया अशुभ भावनाओं से परिपूर्ण होता है। उसमें आनन्द लेना, मानो अशुभ परिणामों से अपने आत्मा के स्वभाव को विकृत करना है। इन विकथाओं को जहाँ विशेप रूप से चित्रित करके कथन किया जाता है, वहाँ काम भाव का सहज ही प्रसार हो जाना है।
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................... सम्य क आचार .......................
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नारी-चर्चा
असत्रियं काम रूपेन, कथितं वन विमेषितं । ते नरा नरयं जांति, धर्म रत्न विलोपितं ॥१०॥
इन कामसेना नारियों का, वह अकाट्य प्रभाव है । इनका कथन करता हृदय में, काम प्रादुभाव है। इन नारियों का अतिशयोक्तिक, चित्र जो नर खींचते । वे धर्म-मणि खो. नक में निज नयनवारि उलीचते ॥
स्त्रियाँ काम की मातान अवतार होती हैं। जो इन कामसेना नारियों का अतिशयोक्ति पूर्वक नखशिम्ब वर्णन करते है या उनका बढ़ाकर वर्णन करते हैं, वे मनुष्य अपने धर्म रत्न को खोकर. नक के अवश्यम्भावी पात्र बनन है।
राज्य-चर्चा राज्यं का उत्पाद्यन्ते, ममतं गारव स्थितं । रहन आदं, राज्यं वर्न विसेषितं ॥१०१॥
वर्णन किसी भी राज्य का. करना बढ़ाना राग है । इससे भभक उठती है. गारवमयी ममता आग है ॥ करना अलंकृत राज्य वर्णन, यह महा दुख-मूल है । इससे सदा बढ़ता ही जाता, रोद्र-नद का कूल है।
अकारण किसी राज्य का प्रमादवश वर्णन करना, संसार के प्रति ममता पैदा कर लेना है । इन राजवंशों के वर्णन से गारव जाग जाता है; मोह पैदा हो जाता है और न मालूम आत्मा को किन २ दोषों का भाजन बनना पड़ता है। राज्यों के वर्णन सुनने से रौद्र ध्यान का चितवन भी हो जाता है जो अत्यंत ही पीड़ा देनेवाला होता है ।
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सम्यक् आचार
हिमानंदी च राज्यं च, अनृतानंद अनाम्वतं । कथितं अमुह भावन, नमारे भ्रम मदा ॥१०२॥
करना अशुभतम भाव से रे ! चलित राज्यों के कथन । बंधते हैं इससे आत्मा के सँग, मलिनतम कर्म-कण ।। यह कथन हिंसा, मृपामय, कटु म्लान रौद्र-ध्यान है । जो जीव को भव भव घुमा, देता विपत्ति महान है ॥
अशुभ भावनाओं को लेकर, क्षणभंगुर और चलित गज्यों के कथन करना, संमार भ्रमण करने का कारण होता है। क्यों ? इमलिय. कि इन राज्यों के कथन करने में जिन भावनाओं का उपयोग होता है. व पूर्णतया हिंसा में डूबा हुई होती है: अमत्य मे उनका जन्म होता है और उनमें नाममात्र को भी निश्चलपना नहीं होता अर्थात व निरी जड़ और अचेतन होती है।
चौथ-चर्चा भयस्य भय भीतस्य, अनृतं दुष भाजनं । भावं विकालतं यांति, धर्म रलं न सुद्धये ॥१०३॥ जो भीरु हैं. जिन प्राणियों के, हैं हृदय भय से सने । देती उन्हें यह दुःखभाजन, चौर विकथा दुख घने । यह कथा भर देती हृदय में, विकलतामय भाव है । रहता नहीं इससे कभी भी, धर्म का सद्भाव है।
जो कापुरुष हैं या जिनके हृदय भय से संतप्त रहते हैं, उनको दुःख से भरी हुई चौर्य विकथायें अनेक संतापों की कारण बन जाती हैं। इन डरावनो कथाओं के सुनने से उनके परिणामों में अशान्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे उनके चिरसंचित धर्मरत्न का एकदम लोप हो जाता है।
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सम्यक आचार
चौरस्य उत्पाद्यते भावं, अनर्थ मो मंगीयते । असुद्ध परनाम तिम्रते, धर्म भाव न दिस्टते ॥१०४॥ यह चौर विकथा. चौर्यभावों का ही करती है सृजन । उन भाव का ही, जो बनाते, प्राणियों का विकल मन ॥ इनसे मलिन भावों को ही, मिलती हियों में ठौर है । दिखता नहीं फिर धर्म का सद्भाव हिय में और है ॥
चौर्य विकथा अनिष्ट क्यों ? इसलिय कि इसके मनने से परिणामों में भी चौयं भावों का ममावेश हो जाता है। परिणाम अशुद्ध हो जाते हैं। जहां परिणामों में विकृति आई, वहां फिर धर्म का सद्भाव कैसा ? धर्मभाव फिर यहाँ दृटिगोचर नहीं होता है।
चौरस्य भावना कृत्वा, आरति रौद्र मंजुतं । अम्तेया नंद आनंद मंमारे दुष दारुनं ॥१०५॥ यह चौर्य विकथा. हृदय में जिन भाव का करती सृजन । वे आतं रौद्र ध्यान से. संतप्त रहते विज्ञजन ! इन चौर्य विकथाओं में जो, लेते सतत आनंद हैं ।
उनको सदा ही फाँसते रहते, विकट भव-फंद हैं । चोरी की भावना हृदय में जिन परिणामों की मृष्टि करती है, वे आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों से संयुक्त होते हैं। जो मनुष्य इस चौर्य विकथा में प्रानन्द लेते हैं, वे संसार में अगणित समय तक भयंकर से भयंकर दुःख उठाते रहते हैं।
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६२]
सम्यक् आचार
चोरी कृत व्रतधारी च, जिन उक्तं पद लोपनं । अमाम्वतं अनृतं प्रोक्तं, धर्म रन विलापितं ॥१६॥ जो जीव चार्यानन्द से, बिलकुल पराङ्मुख हो चुके । व्रत-श्रृंखला में बद्ध हो, जो चौर्य से कर धो चुके ।। जड़ कथन कर. जिनवचन यदि वे. लुप्त करते हैं कहीं ।
तो वे अमृत कर, धम-मणि को फेक देते हैं वहीं ॥ जो जीव चौर्य विकथाओं को नहीं सुनता है, न दुसगं को सुनाता है तथा जिसने प्रमुखता से चोरी न करने का व्रत ले लिया है, वह यदि जड़ पदाथों का, पुद्गल का या अनात्मा का कथन करता है; उपदेश देता है तो वह चोरी ही करना है। चारी माधारण नहीं-जिनेन्द्र के वचनों की चोरी वह चोरी जिससे धर्म-रत्न का बिलकुल लोप ही हो जाता है।
सप्त व्या
रति
विकहा अधम मूल-म, अधर्म मंस्थितं । ते जरा भवनि पुनः पुनः ॥१०७॥ भव्यो ! जहाँ कि अधर्म की, चारों कथायें मूल हैं। सातों व्यसन उप ही जगह, उसके ठिकाने, कूल हैं । जो जीव इस रिपु-राशि से. किंचित बढ़ाता राग है । वह मूढ़ समझो, भवदुखों से खेलता बस फाग है ।।
हे बुद्धिमानो ! जहां विकथाएं अधर्म की जड़ है, वहां व्यसन उसके रहने के ठिकाने हैं। जो मनुष्य इन विकथाओं व व्यसनों से राग बढ़ाता है, वह भव-सागर में बार बार दुःख उठाने को जन्म धारण करता रहता है।
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सम्यक् आचार.....
....... [६३
द्यून क्रीड़ा जूआ अमुद्ध भावस्य. जोइतं अनृतं श्रुतं । परिणय आरति मंजुक्तं, जूआ नरय भाजनं ॥१०८॥ यह जुआ करता सृजन, अंतर में मलिन संसार है । यह क्या ? नहीं कुछ, असत् वाणी का विशद भंडार है। करता है आते ध्यान का, यह हृदतलों में परिणमन । इसके खिलाड़ी, नर्क में करते गमन, करते गमन ।।
जुआ हृदय में मलिन भावों का संमार उत्पन्न करने वाला होता है। मिथ्या और कटु वचनां का तो यह निवास ही मनभा जाना चाहिये । इम व्यसन में फंसने से परिणामों में आनध्यान का प्राचुर्य हो जाता है, इससे यह जुा मानवों को निश्चय से नर्क में पतन करनेवाला है।
माँस-भक्षण
मामं रोदस्य ध्यानस्य, मंगर्छन जत्र तिम्टने । जलं कंद मूलस्य माकं मंमूर्छनम्तथा ॥१०९॥ सम्मुर्छन म जन्तुओं की, वस्तु जो आगार हैं । वे हैं सभी ही मांस भव्यो, रौद्र की वे द्वार हैं । अनछना जल पीना व करना कंदमूलों का अशन ।
यह कुछ नहीं, बस जन्तुओं से, पोषणा है एक तन ॥ मांस किसे कहते हैं ? उन सारी वस्तुओं को जिनमें सम्मूछन जन्तुओं की सृष्टि दिखाई पड़े। मांस खाना रौद्र ध्यान का कारण होता है अर्थात् मांस खाने से हृदय में रौद्र भाव उत्पन्न हो जाते हैं अनछना जल, कंदमूल, पत्तेवाली शाक भाजी, ये सब मांस के ही अन्तर्गत आने वाली वस्तुए हैं।
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६४ ]
सम्यक आचार
स्वादं विचलितं जेन, मंमूर्छनं तस्य उच्यते । जे नरा तस्य भुक्तं च, तिर्यंच नरय स्थितं ॥ ११० ॥
जिन वस्तुओं के स्वाद, अपने स्वाद छोड़ बिगड़ गये । उसही समय उनमें वहाँ, सम्मूर्च्छन त्रस पड़ गये || इन वस्तुओं से जो उदर भरते, कि वे अज्ञान हैं ।
र नहीं, नर-योनि में हैं, पर तिर्यच समान हैं ||
जिन पदार्थों के स्वाद, अपना मूल स्वाद छोड़कर विकृत हो जाते हैं, उनमें असंख्यात सम्मूर्च्छन जीव पड़ जाते हैं। जो मनुष्य इन विकृत स्वाद वाली वस्तुओं का उपभोग करते हैं, वे तिर्यच पर्याग में जाकर विविध जाति के पशु पक्षी बनते हैं ।
विदल संधान बंधानं, अनुरागं जस्य गीयते । मनस्य भावनं कृत्वा, मामं तस्य न सुद्धये ॥ १११ ॥
जो द्विदल हैं या जिस किसी भी वस्तु में दो दाल हैं । उनको दही के साथ खाना, दोप ये विकराल हैं | संधान भी अनमक्ष्य पापों के विशद भंडार हैं जो नर इन्हें खाते हैं, वे करते अमिष - आहार हैं ॥
जो मनुष्य विल अर्थात जिस अन्न में व मेवा में दो दालें होती है, दही के साथ मिलाकर खाता है. या निश्चित अवधि के बाद का अचार या मुरब्बा सेवन करता है, वह निश्चित रूप से मांसभक्षण करना है क्योंकि इन वस्तुओं के खाने का राग, उसके हृदय से छूट नहीं पाता है।
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सम्यक आचार
फलंपून भुक्तं च, ममूर्छन त्रस विभ्रमं । जीवन उत्पादते दिस्टं, हिंमानंदी मांस दपनं ॥ ११२ ॥ रे! कली के भीतर न, सम्मूर्छन विचरते हों कहीं। इससे बिना काटे कभी भी, पूर्ण फल खाओ नहीं । अधिकांश में यह सत्य. फल सम्मळुनों के कोष हैं । जो फल खाते उन्हें लगते अमिष के दोष हैं ।
पूर्ण फल ( ममृ. न ) को. बिना काट या विना चीर, कभी भी नहीं खाना चाहिय, क्योंकि उसमें मम्मूछन पाये जाने .. मंभावना है। अधिकांश में यह देखा गया है कि फलों में सम्मृङ्घन जीव पाय जान है. अन: जो विः भग्ब पूरे फन को ग्वा जाना है, वह हिमानी जाब कहा जाता है और उसे मांस भक्षण करने का दोष ना है ।
मद्यपान
मद्यं ममत्व भावन. गज्यं आरूढ चिंतनं । भाषा नद्धि न जावंत, मद्यं तम्य उच्यतं ॥ ११३ ॥ जो ना पाता, स्वप्न के संमार में वह घूमना । संसार की समृद्धि को, वह मद्यपी नित चूमता ॥ वह अनर्गल बक रहा, रहता न' उसको ध्यान है । बनता भी वह रंक, बनता वह कभी धनवान है ।।
मनुष्य मदा पीक. यान के संमार में विचरण करने लगता है। कभी उसके नशे में वह राज्यामढ़ हो जाता है और कभीय समृद्धियों का धनी बन जाता है। मद्य के नशे में उसे अपनी भाषा का भी ध्यान नहीं रहता कि २ या बक रहा है और जो कुछ वह पालाप-प्रलाप कर रहा है, वह कहां तक उचित है।
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६६ ]
सम्यक् आचार
अनृतं असत्य भाव च, कार्याकार्य न मुच्यते । ते नरा मद्यपा होति. मंमारे भ्रमनं नदा ॥ ११४ ॥ जो नर अचेतन और चेतन. को नहीं पहिचानते । क्या कार्य और अकार्य क्या, जो नर नहीं यह जानते ॥ अविवेक-मदिरा से छलकतीं, पी निरंतर प्यालियाँ ।
वे मसी संसार की नित. छानते हैं नालियों ॥ जो मनुष्य चेतन और अचंतन या मत्य और असत्य पदार्थ के भेदाभेद को नहीं जानते हैं, वे मा एक मद्य पीने वाले के महश ही होते हैं और जिस तरह मद्यपी को अपने कुकर्म का फल भोगने पर विवश होना पड़ता है, उसी तरह इन अविवेकियों को भी संसार सागर में घूमकर अपने अज्ञान का फल भोगना ही पड़ता है।
जिन उक्तं न मार्द्धन्ते, मिथ्या रागादि भावनं । अनृतं नृत जानति, ममत्वं मान भूतयं ॥ ११५॥
प्रभु की सुधा सी गिरा पर, जिसको नहीं श्रद्धान है। मिथ्यात्व में ही लीन जिसका, नित निरन्तर ध्यान है। जो जड़ अचेतन को ही, चिर, ध्रुव, सत्य कहता मूढ़ है। मिथ्यात्व का उस पर समझ लो, भूत बस आरूढ़ है।
जो मर्वज्ञ, वीतराग प्रभु के वचनों पर श्रद्धान नहीं करके, संसार के मिथ्या रागों में चूर रहता है और अचेतन पदार्थों को ही एकमात्र सारभूत पदार्थ समझकर उनकी, शाश्वत पदार्थों-सी विनय भक्ति करता है. उसके शीश पर पाठों याम बस मिथ्यात्व का भून ही सवार रहता है।
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सम्यक् आचार
मुद्ध तत्वं न वेदंते, असुद्धं मुद्ध गीयते । मद्यं ममत्व भावेन, मद्य दोष जथा बुधैः ॥ ११६ ॥ जो शुद्धतम तत्वार्थ का, लाते न मनमें ध्यान हैं । जड़, पुद्गलों का आत्मवत्, करते सतत जो गान हैं । इस भांति के मिथ्यात्व में ही, जो सदा लवलीन हैं।
वे मद्यपी हैं, छानते नित चतुर्गति मतिहीन हैं। जो मनुष्य शुद्ध आत्मतत्व का तो अनुभव नहीं करते और जड़ अचेतन पदार्थ की वन्दना भक्ति कर, उसके निरन्तर गीत गाते रहते हैं, वे पुरुष संसार को आसक्ति रूपी मदिरा का पान करने वाले होते हैं। अचेतन पदार्थ की चेतन के समान पूजा करना, यह भी मद्य पीने के समान एक महान दोष है।
जिन उक्तं सुद्ध तत्वार्थ, जेन मार्धन्त्यव्रती व्रती । अन्यानी मिथ्या ममतस्य, मद्ये आरूढ ते सदा ॥ ११७ ॥ जिस शुद्ध आत्मिक तत्व का, जिनराज करते हैं कथन । उसको नहीं जो साधते हैं, प्रती या अवती जन ॥ वे नर महा अज्ञान है, मतिहीन हैं, जड़, मूढ़ हैं। वे मद्यपी के सदृश मिथ्यामार्ग में आरूद हैं।
श्री सर्वज्ञ प्रभु द्वारा जिस शुद्धात्मधर्म का कथन किया गया है, उसको जो व्रती या अवती मानव पालन नहीं करते हैं, वे महा अज्ञानी और मूद होते हैं और ठीक उनके समान आचरण करते हैं जो दिन रान मब के नशे में चूर रहा करते हैं।
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६८ ]
सम्यक् आचार
वश्यागमन
विस्वा आमक्त आरक्तं, कुन्यानं रमतं सदा । नरय जस्य मद्धावं, ते भाव विम्बा दिम्हितं ॥ ११८ ॥
जो वेश्यों के प्रम में, आरक्त है, आसक्त है । उसका हृदय कुज्ञान से रहता सदा संयुत्ता है । करती है उसके चित्त में बस, वेश्या ही परिणामन । पूर्णायु कर वह अधम, निश्चित नक में करता मान ॥
जो वेश्या के प्रेम में आमत रहन है, व मानव सटा कुज्ञान में ही माण किया करत है । वश्या गामियों के मनम मदा वश्या का ही ध्यान बना रहता है. अनः कुशील ने करने के परिणामस्वरूप उनका निश्चित ही नर्क में मद्भाव होता है।
· पारधी दुस्ट मद्धावं. रोद्र ध्यानं च मंजुलं !
आरति आरक्तं जेन. ले पारधी च मंजतं ।। ११९ ।।
'जो निदर भावों से भरा: कटु.गंद्र का जो धाम है । सर्वज्ञ कहते, 'पारधी', उस जीव - का ही नाम है ।।
जो जीव आत ध्यान में ही, लिप्त है आसक है । 'वह भी सरासर पारधी की, भावना से युनः है ॥
जो दुष्ट और कर भावों से संयुक्त रहता है; दिनरात जिसके रौद्रभान के चिन्तवन में ही बीत है नथा आध्यान से भी जिसका मन रिक्त नहीं रहता है, एसे दोषां से 'पूर्ण जो पुरुष रहता है. वह 'पारधी' कहलाना है।
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मम्यक आचार
मान्यते दुस्ट मद्धावं, वचनं दुस्ट रतो सदा । चिंतनं दुस्ट आनंदं, ते पारधी हिंमा नंदितं ॥ १२० ॥ जो दुष्ट भावों को सदा, देते क्रियात्मक स्थान हैं । जिनके मुखों से. दुष्ट भावों के, निकलते बाण हैं ।। जो दुष्ट भावों का ही करते हैं, निरंतर चितवन । वे घोर हिंसानंद मय, सब पारधी हैं विज्ञजन ॥
जो दुष्ट भावों को मान्य दता है। जिसके प्रत्येक कार्य दुष्टता से पूर्ण होत है नथा जो दुष्ट भावों के चिन्तवन में विशेष आनन्द लेता है, कह हिंसा के भावों में मना हा पुरुप, पारधी कहलाता है।
विम्वामं पारधी दुम्टा, मा कूड वचन कूडयं । कर्मना कूड कर्तव्य, पारधी दोष जुत्तं ॥ १२१ ।। जो दृष्ट, मन वच और क्रम से कर हैं. अति कर हैं । जो दुष्ट भावों की , विषैली, वारुणी में चूर हैं ॥ ऐसे बधिक-दल का, मुनो ! विश्वास जिनने कर लिया।
उनने समझ लो पारधी-भावों से अंतर भर लिया । मन, वचन व कमों से दुष्ट पारधी, विश्वास देकर या लालच देकर, जिस तरह पशु पक्षियां को अपने जाल में फाँस लेता है, वैसे ही दुष्ट स्वभावी कुगुरु, भोले व अज्ञानी जनों को धर्म नथा म्वादिक का लोभ अथवा सांसारिक वासनाओंकी पूर्ति का लालच बनाकर, अपने माया जाल में फॉम लेता है। इसमें उसमें पूर्णपने पारधी के दोपों का समावेश हो जाता है।
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७० ]
सम्यक आचार
जे जीव पंथ लागते, कुपंथं जेन दिस्टते । विस्वास दुस्ट नंगानि, ते पारधी दुप दारुनं ॥ १२२ ॥ जो जीव को सत्पन्थ पर. लगने से नितप्रति रोकते । अपनी कुसँगति से जो, औरों को नरक में झोंकते ॥ जिनकी रगों में मात्र दिखते, कुपथ के ही कूप हैं । ऐसे मयंकर पारधी, प्रत्यक्ष भव-दुख-रूप हैं ।
जो रास्ते से लगे हुए जीवों को, विश्वास दिलाकर अपनी दोषपूर्ण संगति से कुपंथ या विनाश कं गम्ने में ले जाते हैं, ऐसे पारधी इस संसार में विकराल दुःखों के जीने जागते स्वरूप हुआ करते हैं ।
संसार पारधी विस्वास, जन्म मृत्युं च प्राप्तये । जे जीव अधर्म विस्वास, ते पारधी जन्म जन्मयं ॥ १२३॥ जो पारधी के हृदय पर, करते अरे विश्वास हैं। वे जीव आवागमन का ही, मात्र पाते त्रास है। पर जो अजान अधर्म पर, करते अरे ! श्रदान है ।
दे पारधी बन बांधते नित, कर्म-बंध महान है ॥ पारधी के विश्वास में फंसनेवाले जोव (पशु पक्षी) तो एक ही बार के जन्म मरण का दुःख उठाते हैं, किन्तु जो मानव कुगुरु-पारधी के मायाजाल में फंस जाते हैं, वे जन्म जन्म के अर्थात् अनन्त जन्म मरम के दुःखों को भोगते हैं।
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सम्यक आचार
मुक्ति पंथं तत्व सार्द्ध च, लोका लोकं च लोकितं । पंथ भृस्ट अचेतम्य, विस्वास जन्म जन्मयं ॥ १२४ ॥
शुद्धात्म का श्रद्धान क्या है ? मुक्तिश्री का द्वार है। यह तत्व तीनों लोक का, करता सुभग शृंगार है ॥ पर मूढ़ जन इस तत्व का, करते न किंचित् ध्यान हैं । जड़ पत्थरों के ही सतत, गाते अधम वे गान हैं।
शुद्धात्मा का श्रद्धान क्या वस्तु है ? साक्षान मुक्तिश्री या स्वाधीनताः जन्म मरण के बंधनों से न्वाधीनता का द्वार ! किन्तु अज्ञानी लोगों की समझ में यह बात नहीं आती। वे पथ भ्रष्ट मानव अचेतन देव. प्रदेवों पर देव पने का विश्वास करके जन्म जन्मान्तर पतन-कूप में गिरते रहते हैं।
पारधी पासि जन्मम्य, अधर्म पामि अनंतयं । जन्म जन्मं च दुस्टं च. प्राप्तं दुष दारुणं ॥ १२५ ॥ भव्यो ! अधिक तो. एक जीवन के लिये ही पाश है । पर यह अधर्म, अनन्त पाशों का दुखान्त निवास है ॥ यह दुष्ट इस संसार का, करता महा अपकार है ।
भव भव रुला देता उसे, यह त्रास अपरम्पार है ॥ जो दुष्ट हृदय वाला या पारधी होता है, वह तो एक जन्म के लिये ही पाश सिद्ध होता है, किन्तु हे मानवो ! यह अधर्म रूपी पारधी जन्म जन्मों के लिये बंधन रूप हो जाता है। संसार के प्राणियों को यह दुध. अगणित समय तक दारुण से दामणतम दुःख दिया करता है।
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७२ ] .
सम्यक् आचार
। जिन लिंगी तत्व वेदन्त, मुद्ध तत्व प्रकामकं । "कुलिंगी तत्व लोपंत, परपंचं धर्म उच्यते ॥ १२६ ॥
सर्वज्ञ-भाषित धर्म के जो, पूज्य साधु महान हैं। वे शुद्ध आत्मिक तत्व का ही, नित्य करते गान है ॥ पर जो कुलिंगी साधु हैं, वे आत्मतत्व न जानते । आडम्बरों को ही कि वे वस, पुण्य धर्म बखानते ॥
श्री वीनगग प्रभु के बनाये हुए मार्ग पर चलने वाले जो माधु है, व मंसार में शुद्धात्म तत्व का ही प्रकाश करते हैं, किन्तु उनसे विपरीत मार्ग पर चलने वाले माधु शुद्धात्म तत्व को नगण्य ठहराकर उसका तो लोप कर दन है और बाह्याडम्बर को ही एकमात्र धर्म वनलाकर, उसका ही उपदेश जनमाधारण को देते हैं।
ते लिंगी मृढ दिस्टी च, कुलिंगी विस्वानं कृतं । दुरबुद्धि पामि बंधते. संभारे दुप दारु ॥ १२७॥ जो मूढ़ हैं; जिनको हिताहित का न कुछ भी ध्यान है । उनको कुलिंगी साधु पर, होता सहज श्रद्धान है ॥ उनके वही श्रद्धान बनते, स्वयं उनको पाश हैं । " उपहार में वे मूढ़ पाते, नित भवोंभव त्रास हैं ॥
जो अज्ञान मृष्टि पुरुष होते हैं, वे कुलिंगी या खोटे वपधारी साधु पर विश्वास कर लेन है। फल यह होता है कि वे मतिमंद अपनी भेद-विज्ञान शून्यना के कारण अपनी ही दुर्बुद्धि के पाश में बंधकर मंमार में नाना भाँति के दुःग्य उठाते फिरते हैं ।
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सम्यक आचार
[७३
पारधी पामि मुक्तस्य, जिन उक्तं सार्थ धुर्व । मुद्ध तत्व च साद्धं च, अप्प सद्भाव चिन्हितं ॥१२८॥ सर्वज्ञ भाषित धर्म पर, श्रद्धान जिसको आ गया । 'शुद्धात्म ही तत्वाथं है, जो यह अतुल निधि पा गया । वह पारधी के जाल में, फिर और रह पाता नहीं । अपने परों को तौल कर, वह बिहग उड़ जाता वहीं ।
श्री जिनेन्द्र भगवान ने जिसका महत्व संसार को समझाया है, उस शुद्ध सत्तात्मक भाव से श्रोत प्रांत शुद्धात्मा पर श्रद्धान लाकर जो उसका पुजारी बन जाता है, वह अधर्मरूपी पारधियों के या स्वयं गरधियों के जाल में फिर और नहीं रह पाता है: तुरन्त ही उनके फन्दे से उसकी मुक्ति हो जाती है।
___ चौर्य कर्म अस्तेयं अनर्थ मूलम्य, विटवं असुह उच्यते । ममारे दुष सद्भावं. अस्तेयं दुर्गति भाजनं ॥१२९॥ चोरी, सुनो हे भव्यजन, आपत्तियों का मूल है । करती विकल परिणाम, यह उर का खटकता शूल है ॥ इस लोक में तो यह पिलाती है, दुखों की प्यालियाँ ।
उस लोक में भी पर दिखाती, यह कुगति की नालियाँ । चोरी सारे अनर्थों की मूल हुआ करती है; हृदय को आकुलता रूप परिणामों से यह भर देती है: अशुभ परिणामों को उत्पन्न करने में इसका प्रमुख हाथ रहता है। जब तक मनुष्य जीता है, तब तक तो उमे मसार मागर में यह अनेकों दुःख देकर कलाती है और उसके अनंतर परलोक में यह उसे नीच से नीच गति का पात्र बनाती है।
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७४ ]
सभ्यक आचार
मनस्य चिंतनं कृत्वा, अतेस्यं दुर्गति भावना । कृतं अमुद्ध कर्मस्य. कूड भाव रतो नदा ॥१३०॥ चोरी करूँगा आज मैं, इस भाँति करना चिन्तवन । हे भव्य ! यह दुर्भावना, करती है दुर्गति का सृजन ॥ जो इस अशुभतम कर्म में, रहते सदा लवलीन हैं ।
उनके हृदय छल कपट से, रहते सदैव मलीन हैं । सिर्फ इतना ही चितवन करना कि मुझे आज चोरी करना चाहिये या मैं आज चोरी करूंगा, चौर्य नामक महान दोप हो जाता है जो मनुष्य को दुर्गति का पात्र बना देता है। जो मनुष्य इस दुष्कर्म में मदा ही लवलीन रहा करते हैं. उनके हृदय कर भावनाओं से या छल कपट से ओत प्रोत हो जाते है ।
अतस्यं अदत्तं चिंते, वयनं असुद्धं मदा । हीनकृत कूड भावस्य, अस्तेयं दुर्गति कारणं ॥१३१॥ जो चौर्य या कि अदत्त जड़ का, नेक करते चिन्तवन । उनके नियम से, अशुभ हो जाते हृदस्तल के वचन ।। मोया कपट में वीतता, उनका सदा ही काल है ।
यह चौर्य दुर्गति हेतु है, यह चौर्य काल कराल है ॥ बिना दी हुई किसी चीज को ले लेने का चिंतवन करना, यह भी चौर्य दोप ही है - इस प्रकार की चोरी करने से मनुष्य के आलाप-प्रलाप में विकार आ जाता है और वह मनुष्य कटु भाषी बन जाता है। चौर्य एक महान नीचकर्म है। इसको करने वाला मनुष्य छलकपटी और कूटकर्मी हो जाता है और अन्न में जाकर दुर्गनियों में धूल छानना है।
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सम्मक आपार ..
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[७५.
अस्तेयं दुस्ट प्रोक्तं च, जिन वयन विलोपितं । अर्थ अमर्थ उत्पाद्यते, म्तेयं व्रत खंडनं ॥१३२॥ कटु क्रूर वचनालाप करना; चौर्य दोष महान है। जिन वचन का आलोप यह भी, चोर्य है. असमान है ॥ कुछ अर्थ का कुछ अर्थ करना, यह भी चौर्य स्तेय है । करना व्रतों का भंग यह भी, एक चोरी हेय है ॥
दूसरे की चीज़ चुरा लेना, इतने ही से चोरी का प्राशय पूरा नहीं हो जाता । कटु वचन बोलनाः वीतराग ने जो वचन कहे हैं, उनको लुप्त कर देना; अर्थ का अनथ करना और त्रन लेकर उसे भंग कर देना, ये सब चोरी के ही लक्षण हैं।
सर्वन्य मुख वानी च. मुद्ध तत्व समाचरेत् । जिन उक्तं लोपनं कृत्वा, अम्तेयं दुर्गति भाजयं ॥१३३॥ सर्वज्ञ ने शुद्धात्म की रे, जो बहाई धार है । नर कर उसी में तू रमण, वह ही तुझे सुखसार है ॥ जो जिन वचन का लोपकर, प्रतिकूल उनके जायेगा । वह चीर्य के कटु पाश में, बँधकर कुगतियें पायेगा ।
- सर्वज्ञ ने अपने मुख-कमल से जिस शुद्ध आत्मतत्व का प्राक्कथन किया है, हे प्राणियो ! तुम उसी में रमण करो। जितेन्द्रिय भगवान के वाक्यों को लुप्रकर जो उनके प्रतिकूल कार्य करेगा. वह चोय का भाजन बनकर दुर्गति का पात्र बनेगा।
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७६ ] .
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सम्यक् आचार
दर्सन न्यान चारित्रं, मय मूर्त न्यान संजुतं । सुद्धात्मा तत्व लोपंते, अतेस्यं दुर्गति भाजनं ॥१३४॥ निमूर्त रत्नत्रय मयी, जो शुद्ध आत्मिक धर्म है । उस धर्म का जो लोप कर, करता महा दुष्कर्म है ॥ वह चौर्य के कटु बंधनों से, बांधता निज गात्र है ।
संसार में बनता कि वह. नाना कुगति का पात्र है ॥ दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्ण जो निष्कल, निराकार आत्मा है, जो उसका लोपकर. संसार को जड़-पूजा सिखाता है, वह पुरुष चौर्य का पात्र बनकर अनेक दुर्गतियों में भ्रमण करता है।
परस्त्री-रमण परदारा रतो भावं, परपंच कृतं सदा। ममतं असुद्ध भावस्य, आलापं कूड उच्यते ॥१३५॥ जो नर परस्त्री-रमण के, कटु भाव में आसक्त हैं । वे नियम से रहते प्रपंचों से, सदा संयुक्त हैं ॥ उनके हृदय क्या ? मोह के होते विशद भण्डार हैं।
वचनावली में छल कपट की नित्य बहती धार हैं ॥ जो परस्त्री-रमण के भावों में रत रहता है, वह पुरुष निश्चय से सांसारिक प्रपंचों में फंसा हुआ होता है; उसका हृदय अशुद्ध भावों से पूर्ण मोह का एक विशाल भागार होता है और उसके मुख से जितने भी शब्द निकलते हैं वे रंचमात्र भी छल कपट से रिक्त नहीं होते। सारांश यह कि परस्त्रीगामी पुरुष प्रपंच, मोह और छल, कपट आदि नाना दुर्गुणों से पूर्ण होता है।
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सम्यक् आचार
अबंभं कूड सद्भावं, मन वचनस्य क्रीयते । ते नरा व्रतहीनस्य, संसारे दुष दारुनं ॥ १३६ ॥
अब्रह्म मन, वच में सृजन करता है मायाचारिता । सद्भावनाओं की बना देता, हृदय में वह चिता ॥ सेवा सतत अब्रह्म की, करते अरे जो मुद हैं । वे जीव शूलों से भरे, भव - मार्ग पर आरूढ़ हैं ||
अब्रह्म या परस्त्री-रमण मन और वचन दोनों में छल कपट के भाव पैदा कर देता है। जो इस कुशील का आचरण करते हैं, वे पुरुष सारे व्रतों को पालते हुए भी, निरे व्रतहीन हैं और इस दुर्गुण के परिणामस्वरूप संसार-सागर में अनेकों भयंकर दुःख उठाते हैं ।
कषायं जेन विकहस्य, चक्र इन्द्र नराधिपा । भावनं तत्र तिस्टंते, पर दारा रतो नरा ॥ १३७ ॥
[ ७७
जिस विषयलोलुप जीव की, परनारि में आसक्ति है । विकथाजनित आनन्द में, रहता मगन वह व्यक्ति है ॥ वह सोचता है " प्राप्त हो जो हमें नृप की सम्पदा । तो हम भी राजाओं सरीखा, भोग मृदु भोगें सदा " ॥
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जो पुरुष परस्त्री-रमण के भावों में आसक्त रहता है, वह विकथाजनित श्रानन्दों में अत्यधिक रस लेता हुआ दिखाई देता है । कषायों का तो वह दास बन जाता है। लोभ की मात्रा उसमें इतनी बढ़ जाती है कि वह सोचता रहता है कि अगर मुझे चक्रवर्ती, इन्द्र या किसी नरेश की सम्पदा प्राप्त हो जावे तो मैं अनेकों भोगों को भोगूं और समृद्धि से रहकर अपना जीवन, पूर्ण मेश्वर्य-विलास में व्यतीत करूँ ।
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७८ ] .
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सम्यक् आचार
काम कथा च वर्मत्वं, वचनं आलाप रंजनं । ते नरा दुष माहंते, पर दारा रतो सदा ॥१३८॥ जो नित निरन्तर काम की संवर्धिनी विकथा कहें । जो नर निरन्तर विपय, चर्चा ही में आनंदित रहे । ऐसे पुरुष, रखते पर-स्त्री--रमण की जो भावना । संसार--अटवी में निरन्तर, दुःख सहते हैं घना ॥
जो परस्त्री रमण के भावों में आसक्ति रखते हैं, विषयभोग की कहानियों को बहुत ही आनन्द और प्रेम के साथ सुनते हैं तथा काम-भावना को बढ़ाने वाले वचनों में मगन रहते हैं, वे पुरुप इस मंमार ममुद्र में विविध भांति के दुःम्ब सहा करते हैं।
विकहा अश्रत प्रोक्तं च, कामार्थ श्रुत उक्तयं । श्रुतं अन्यान मयं मूडं व्रत पंड दार रंजितं ॥१३९॥ विकथा मयो श्रुति का सुनाना. यह कुशील महान है । कामोत्पादक शास्त्र पाठन भी कुशील समान है। रमना कुशास्त्रों में अरे. यह भी कुशील कराल है ।
वत खण्ड करना भी कुशील. अब्रह्म है, विकराल है । परमी सेवन कंवल कुशील को ही व्यक्त नहीं करना । विकथा से भरे हुए, विषय भोगों से पूरा तथा काम को उत्पन्न करने वाले व अज्ञानता से सने हुए इन सब शाम्रों का जनसाधारण के बीच कथन करना यह भी परस्त्री गमन के ममान दोपहै। लिये हुए व्रतों को भंग कर देना, इसमें भी वही पाप लगना है जो कुशील सेवन में।
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सम्यक आचार
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[७९
परिणाम जस्य विचलंते, विभ्रमं रूप चिंतनं । आलापं श्रुत आनंई. विकहा पर दार मेवनं ॥१४०॥ विकथा-कथन से चलित. हो जाते हृदय परिणाम हैं । होते हैं विभ्रम के ही इससे, दर्श आठों याम हैं। कामादि के कुश्रुत सुना, यह सजग करती काम है । इससे ही विकथा को दिया, 'परदार-सेवन' नाम है ॥
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विकथाओं का श्रवण करना कुशील सेवन के समान क्यों ? इसीलिये कि विकथाओं को सुनने में आत्मा के परिणाम चल विचल हो जाते हैं; वस्तुस्वरूप को भूलकर पुरुप विभ्रम में पड़ जाता है और उसका ध्यान काम संवर्द्धक कथाओं की ओर आकृष्ट हो जाता है। ये सारी बातें अब्रह्म में सन्निहित है और कुशील का ही दूसरा नाम अब्रह्म है।
मनादि काय विचलंति, इन्द्रिय विषय रंजितं । . व्रत खंड सर्व धर्मस्य, अनृत अचेत मार्द्धयं ॥१४१॥
विकथा-कथन से चलित हो जाते सुजान ! त्रियोग हैं । पाते हैं इससे वृद्धि ही, नित भोग रूपी रोग हैं ।। व्रत खंड कर भरती हृदय में, यह अरे ! कुज्ञान है । जड़वाद में करती नियम से, यह अमिट श्रद्धान है।
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विकथाओं के कहने सुनने से मन, वचन, कायों के परिणाम विचलित हो जाते हैं और मनुष्य इन्द्रियों के विषय भागों में मत्त हो जाता है। विकथाएं मनुष्य के मारे व्रतों व धमों को पल भर में खंडिन कर देती हैं और इसके श्रोता व वक्ता नियम से अन्त व अचेत पदार्थों में श्रद्धा करने लग जाते हैं।
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८° ]
सम्यक् आचार
विषयं रंजितं जेन, अनृतानंद संजुतं । पुन्य सद्भाव उत्पादते, दोषे आनंदनं कृतं ॥ १४२ ॥
जो नर विषय-भोगादि को ही मानते सुखसार हैं । वे मृषानंदी रौद्र के, होते नियम से द्वार हैं । बस पुण्य संचय में लगाते, वे हमेशा शक्ति हैं । इस माँति भव से ही बढ़ाते, नित्य प्रति आसक्ति हैं ।
जो मनुष्य विषय भोगों में ही आनन्द लेते हैं, वे मृषानंदी रौद्रध्यान के निश्चय से चिन्तवन करने वाले हो जाते हैं। ऐसे मनुष्य इस विचार से कि अगर हम दान पुण्य वगैरह प्रचुर मात्रा में करेंगे तो उस जन्म में भी हमें अगणित भोग प्राप्त होंगे, बहुत से पुण्य के काय कियाह करते हैं और इस तर संसार के बंधनरूप दोषों में ही रंजायमान होते रहते हैं ।
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अष्ट मदों में आसक्ति
एतानि राग संबंध, मद अस्टं रमते सदा । ममत्वं असत्य आनंद, मदष्टं नरयं पतं ॥ १४३ ॥
जो मृद नर, अब्रह्म के सातों व्यसन के कुण्ड हैं । उनमें विचरते नियम से, आठों मदों के झुण्ड हैं । वह जड़ ममत्व असत्य को ही, मानता सुखमूल है । पाकर अधोगति, नर्क की वह छानता नित धूल है ॥
जो मनुष्य निरन्तर व्यसनों के उद्यान में क्रीड़ा किया करता है, वह आठ मदों का शरणस्थल बन ही जाता है— आठ मढ़ आकर उसके हृदय में घर बना ही लेते हैं। मदों के चक्कर में पड़कर वह जगत के पदार्थो में और असत्य वस्तुओं में झूठा श्रानन्द मानता रहता है और एक दिन नर्क का महापात्र बन जाता है ।
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सम्यक् आचार
असत्यं असास्वतं रागं, परपंच रतो मदा । सरीरे राग वृद्धन्ते, ते नरा दुर्गति भाजनं ॥ १४४ ॥
मिथ्या. अशाश्वत राग में, उत्साह से करना रमण | उस राग के ही बाग में, होकर मुक्ति करना भ्रमण ॥ यह राग, सुन उत्पन्न करता, मोह का संसार है । जो नियम से होता . अशुभ गति का भयंकर द्वार है ॥
असत्य और नश्वर पदार्थों में मोह करना; उनमें प्रतिपल उत्तरोत्तर उत्साह के साथ रमण करना शरीर में राग पैदा करने का प्रबल कारण होता है, और शरीर की आसक्ति एक न एक दिन मनुष्य को दुर्गति का पात्र बनाती ही है।
जाति कुल सुरूपं च, अधिकारं न्यान तपं बलं । बलं सिल्प आरूढं, मद अस्टं संसार भाजनं ॥ १४५ ॥
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माता मेरी विदुषी पिता बलवीर, मैं धनवान हूँ । मैं काम की प्रतिमूर्ति हूँ. मैं एक सत्तावान हूँ ॥ मैं तापसी, मैं शूर, मेरा ज्ञान - कुण्ड अथाह है । यह अष्ट- मह दल ही, संसार की कटु राह है ||
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अपनी माता के पक्ष का, अपने पिता के पक्ष का अपने धन का, सुन्दर रूप का, अपने अधि कारों या सत्ता का, तपोबल का, शरीर बल का और शिल्पादि विद्याओं के ज्ञान का मद ये आठ प्रकार के मद, मनुष्य को संसार-सागर में बार बार डुबाने वाले हुआ करते हैं ।
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सम्यक आचार
जातिं च राग मयं, अनृतं नृत उच्यते । ममत्वं अस्नेह आनंद, कुल आरूढं रतो सदा ॥१४६॥ जो जीव माता पक्ष का, करता वृथा अभिमान है। वह नर मृपा को सत्य कह, करता अनर्गल गान है॥ जो नर पिता के पक्ष से, वनता अरे कुलवान है। उसका कुममता-कीच में ही, फंसा रहता ध्यान है ।
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जो मनुष्य अपनी जाति का या अपनी माता के पक्ष का अभिमान करता है, वह व्यर्थ एक मिथ्या वस्तु को सत्य कह कह कर पुकारता है। अपने पिता के पक्ष का या अपने कुल का जो पुरुष घमंड करता है, वह सिर्फ अपने कुटुम्बियों के ममत्व और झूठे स्नेह में फंसता है, और कुछ नहीं।
रूप अधिकार दिस्टा, रागं वृद्धति जे नरा । ते अन्यान मयं मूढा, संमारे दुष दारुनं ॥१४७॥ निज रूप या अधिकार को, जो देखकर कहते "अहा ! हम भी हैं कितने भाग्यशाली, सम्पदा पाई महा" ॥ यह राग है! यह राग रूपी, जो पकड़ते ब्याल हैं । वे जीव नित संसार में, दुख भोगते विकराल हैं।
अपने रूप या अधिकार को देखकर, जो पुरुष फूले नहीं समाते और उन्मत्त बनकर व्यर्थ का राग संचय करते हैं, वे अज्ञान से आवृत, महामूर्ख इस दारुण दुःख के घर संसार में अनंत समय तक भटकते रहते हैं और भयावने कष्ट पाते रहते हैं।
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सम्यक् आचार
[ ८३
कुन्यानं तप तप्तानं, राग वर्द्धन्ति ते तपा। ते तानि मूढ सद्भावं, अज्ञानं तप श्रुत क्रिया ॥१४८॥ जो तप्त रहते मृढ़ नर, कुज्ञान-तप में ही सदा । वे राग-भावों की कमाते, सतत खोटी सम्पदा ॥ सत्भाव के बदले, कुभावों की वे करते हैं क्रिया । अर्थात् वे कुश्रुत, कुतप, कुक्रिया से भरते हिया ।
कुज्ञान रूप तपस्या करने से कुछ हम्तगत नहीं होता, केवल संसार में परिभ्रमण कराने वाले गगों का बंधन ही प्राप्त होता है। जो मनुष्य मूढ़तावश उक्त प्रकार का आचरण करते हैं, वे कुक्रिया करते हैं, कुशास्त्र सुनते हैं और कुतप तपकर अपना समय नष्ट करते हैं।
अनेय तप तप्तानं, जन्मनं कोड कोडभि । श्रुतं अनेय जानते, राग मूढ़ मयं सदा ॥१४९॥
अज्ञान तप तप देह को, जो जड़ बनाते क्षार हैं । वे जीव जीवन में बसाते, कोटिशः संसार हैं। यह सत्य हो सकता है, वे जाने सहस्रों शास्त्र हैं ।
पर लिप्त रहते राग से, उनके हृदय के पात्र हैं। जो अज्ञान से आच्छादित या आत्मानुभव रहित तप तपते हैं, वे पुरुष इस संसार में करोड़ों जन्म मरण प्राप्त कर कठिन से कठिन दुःख भोगते हैं। अनेकों वेद शास्त्रों के पाठी होते हुए भी, ज्ञान तिमिर में वे इतने जकड़े हुए रहते हैं. कि राग उनके हृदय से दूर ही नहीं होता है।
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८४ ] .
सम्यक् आचार
मानं राग संबंधं, तप दारुनं नंतं श्रुतं । सुद्धतत्वं न पस्यंति, ममतं दुर्गति भाजनं ॥१५॥ जो कुतप तपता, उसे हो जाता भयंकर मान है । वह समझने लगता है वह तो एक साधु महान है ॥ शुद्धात्म को विस्मृत बना, पर मोह में वह घूमता ।
उस मोह के ही चक्र में फंस, वह कुगतियें चूमता । जो मनुष्य कुतपश्चर्या करता है, उसे अत्यधिक मान हो जाता है और वह समझने लगता है कि हम तो बड़े भारी तपस्वी है। आत्मानुभव में शून्यता होने के कारण उसे अपने स्वरूप का किंचित भी दिग्दर्शन नहीं हो पाता है; संसार के ममत्व में ही वह फंसा रहता है और अंततोगत्वा वह महान दुर्गतियों का पात्र बनता है।
चार कषायों में प्रवृत्ति
कषायं जेन अनंतानं, रागं च अनृतं कृतं । विस्वामं दुर्बुद्धि चिंते. ते नरा दुर्गति भाजनं ॥१५१॥ मिथ्यात्व--संगिनि कषायों का, जिन हृदय में वास है । मिथ्यात्व पद का बन चुका जो नर सदा को दास है। उसके हृदय में नित्य ही, कुज्ञान करता है रमण । वह जीव .अर्घट तुल्य. दुगति में सदा करता भ्रमण ॥
संसार जनित राग के कारण उत्पन्न हुई, अनंतानुबंधी कपायों का जिनके हृदय में वास रहता है, व मनुष्य मिथ्याज्ञान में विश्वास करने लग जाते हैं और उसके परिणामस्वरूप दुगति के अवश्यंभावी पात्र बनते हैं।
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सम्यक आचार
८५
लोभ अनृतं सद्भावं, उत्साह अनृतं कृतं । तस्य लोभ प्राप्तं च, तं लोभ नरगं पतं ॥१५२॥
यह लोभ करता है सृजन, रे ! अनृत का संसार है । मिथ्यात्व का करता, निठुर जो हृदय में संचार है । इस भांति का जो लोभ है, होता नहीं उसका शमन । वह नियम से निज पात्र का, करता नरक में है पतन ।
जिसका हृदय लोभ का भण्डार होता है, वह अपने प्रति कार्यों से मिथ्यात्व का संसार मृजन किया करता है और अंतर से मिथ्यात्व-जनित कार्य करने में प्रोत्माहन पाया करना है । ऐसे लोभ पुरुष के लोभ की ज्वाला कभी भी शान्त नहीं होती और वह नियम से नर्क का पात्र बनता है।
लोभं कुन्यान मद्धावं, अनाद्यं भ्रमते सदा। अति लोभ चिंतंते येन, लोभं दुर्गति कारनं ॥१५३॥ यह लोभ ही, हे भव्यजन. कुज्ञान का आधार है । जिसका शरण ले नर सदा से, छानता संसार है। लोभी असत्य पदार्थ में ही. नित्य करता है रमण ।
इस ही लिये वह मूद नर, करता है दुर्गति में भ्रमण ॥ जिसके कारण यह प्राणी अनादिकाल से संसार की धूल छान रहा है, उस मिथ्यात्व को य. मिथ्याज्ञान को, यह लोभ ही इस संसार पर अवतीर्ण करता है। इस लोभ के कारण ही यह मनुष्य असत्य और अचेतन पदार्थ का चितवन किया करता है। मनुष्य जितनी भी दुर्गतियें पाता है, सब इसी दुष्ट लोभ के कारण ।
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सभ्यक आचार
असास्वतं लोभ कृत्वं च, अनेक कष्ट कृतं सदा । चेतना लष्यनो हीना, लोभ दुर्गति बंधनं ॥१५४॥ जग की अशाश्वत वस्तुओं की नित्य करते भावना । इस जीव ने संसार--वन में, दःख पाया है घना ।। यह खेद है. चैतन्य से जो पूर्ण पुरुष प्रवीण है ।
वह दुष्ट दुर्गति--हेतु इक जड़, लोभ के आधीन है ॥ अनित्य और अशाश्वत पदार्थों का चिंतवन करते करत ही, इस मनुष्य ने अगणित समय तक इस संसार वन में दुःख उठाया है। बड़े ही आश्चर्य की बात है कि एक चेतन सी अनंत शक्ति का धारी पुरुप, एक तुच्छ लोभ से अचेतन पदार्थ के वश में होकर,विविध दुर्गतियों में मर्कट के समान नाच रहा है।
मान
मानं अमत्य रागं च, हिंसानंदी च दारुनं । परपंचं चिंतते येन, सुद्ध तत्वं न पस्यते ॥१५५।। मिथ्यात्व में कटु राग से, होता सृजन जो मान है । उसमें बना रहता सदा, हिंसामयी ही ध्यान है ॥ मानी, प्रपंचों के रचा करता है, बस फंदे सदा । मिलती कभी शुद्धात्म की, उसको नहीं सुख-सम्पदा ॥
मिथ्या पदार्थों में जो राग होता है, उसी के कारण मान का प्रादुर्भाव हुआ करता है। मान के होने से हृदय में सदा हिंसानंदी रौद्र ध्यान बना रहता है । इसका पात्र सांसारिक प्रपंचों में ही पड़ा रहता है और जो सारभूत शुद्धात्म तत्व है उस पदार्थ का उसे स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता है।
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- सम्यक् आचार
मानं असास्वतं कृत्वा, अनृतं राग नंदितं । असत्यं आनंद मूढस्य, रौद्र ध्यानं च संजुतं ॥ १५६॥
यह मान का जो कूट है, वह क्या ? नितांत असत्य है । वह एक झूठा राग है, उसमें न कुछ भी तथ्य है ॥ अविवेकियों के हृदय का, वह एक मिथ्यानन्द है । जो रौद्र - वर्णों से गठित है, एक यह वह छन्द है ।
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मान क्या है ? अशाश्वत, अकिंचन और झूठे रागों से बना हुआ, एक वह असत्य पदार्थ. जिस पर सवार होने में सिर्फ मूर्खो को ही आनन्द आता है; रौद्र ध्यान जिसमें निश्चयात्मक रूप से निवास करता है अर्थान जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मनुष्य के रौद्र परिणाम हो जाते हैं ।
मानं पुन्य उत्पाद्यंते, दुर्बुद्धि अन्यानं श्रुतं । मिथ्या माया मूढ दिस्टी च, अन्यान रूपी न समयः ॥ १५७॥
जो मूढ़ होते मानके, मद के घिनौने पात्र हैं । वे ज्ञान -- मद में चूर हो, रचते अनोखे शास्त्र हैं | ये शास्त्र क्या ? मिथ्यात्व के होते निरे आगार हैं । अज्ञान की जिनमें बहा करतीं, अशुचितम धार हैं ।
जो मानी पुरुष होता है, वह अपने को एक प्रकाण्ड विद्वान और शास्त्रीय विषयों का ज्ञाता समझा
करता है और उस नशे में वह अनेकों शास्त्रों की रचना कर डालता है। ये शास्त्र, जिन्हें कि मानी जीव अपनी लेखनी से लिखता है, निरी कुमति से भरे हुए, मिथ्या मायाचार से पूर्ण और अज्ञान के साक्षात स्वरूप होते हैं ।
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८८ ]
सम्यक आचार
मानस्य चिंतनं दुर्बुद्धि, बुद्धि हीनो न मंसयः । अनृतं ऋतं जानते, दुर्गति पस्यति ते नरा ॥१५८॥ वे जीव ही, अविवेकियों के जो अरे ! शिरमौर हैं । इस मान रूपी दुष्ट को, देते हृदय में ठौर हैं । वे अन्त में भी सत्य के, करते निरन्तर दश हैं । मिथ्यात्व बंधन बांध, करते नर्क में अपकर्ष हैं ।
इस मान को अपने हृदय में वही पुरुष स्थान देते हैं, जो बुद्धि से विलकुल रिक्त होते हैं अथात जिनमें लेशमात्र भी विवेक बुद्धि नहीं होती। व पुरुप मिथ्या वस्तु में ही सत्य के दर्शन किया करते हैं और इसी से अनेकों दुर्गतियों में व पुरुप मर्कट के समान घुमते रहते हैं।
मान बंधं च रागं च, अर्थ विचिंतन नंतयं । हिंमानंदी च दोषं च, अनृतं उत्माहं कृतं ॥१५९॥
जिनके अशुभ अन्तस्तलों में, वास करता मान है । पर द्रव्य हरने में ही रहता, नित्य उनका ध्यान है॥ वे जीव हिंसा, चौर्य से ले, संग में अंतर सने ।
गिरकर कुगति के कूप में, सहते हैं दुःख भयावने ॥ जिनकी प्रात्मा मान के बंधनों से बंध जाती है. वे पर द्रव्य को किस तरह हरण किया जाय, नदा इमी चितवन में पड़े रहते हैं। इस दुष्कर्म की चिन्ता उन्हें हिंसानदी और चौर्यानन्दी रौद्रध्यानी बना दनी है, जिसके फलम्वरूप उन्हें अनेक दुर्गतियों में जन्म लेने पर विवश होना पड़ता है।
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सम्यक आचार .
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मानं राग संबंध, तप दारुन नंतं श्रुतं । अनृतं अचेत सद्भावं, कुन्यानं संसार भाजनं ॥१६०॥ कितने कठिन तप का ही, मानी जीव क्यों न निधान हो ? कितनी ही श्रुतियों का भरा. उसमें न क्यों विज्ञान हो ? होती न पर उससे विलग, मिथ्यात्व की वह धार है।
कुज्ञान से जो पूर्ण है, संसार की आधार है ॥ जिसके हृदय में मान के चरण पड़ जाते हैं, वह अनेकों दारुण तपों को करता हुआ और संसार भर की श्रुतियों का पाठी हाते हुये भी, मिथ्याज्ञानी व अज्ञानी ही बना रहता है और उस कुज्ञान के कारण बार बार संसार का पात्र बना करता है।
माया
माया असत्य रागं च, असास्वतं जल विंदुवत् । धन यौवन अभ्र पटलस्य, माया बंधन किं करोति ॥१६॥
माया है क्या. यह उस जगत से एक झूठा राग है । जल-चुदबुदों के तुल्य रे, जिसका अनित्य सुहाग है । यौवन अशाश्वत है, अनृत है, जलद-पटल समान है । आश्चर्य माया-जाल में क्यों, फंस रहा अज्ञान है ?
माया क्या वस्तु है ? असत्य रागों की एक भूधराकार राशि ! वह क्षणभंगुर वस्तु, जिसका मुहाग जल के बुबुदों के समान पल भर में नाश हो जाने वाला है। और जिस यौवन की पूर्ति के लिये यह मायाजाल रचा जाता है वह ? वह भी अनित्य ! पावस में उठने वाली घनघोर घटाओं सा अनित्य ! फिर यह मूर्ख मनुष्य क्यों और किस लिये इस सब पाप की उधेड़बुन में फंसा हुआ है ?
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९० ] ...
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सम्यक् आचार
माया असुद्ध परिणाम, असास्वतं मंग संगते । दुस्ट नटं च सद्भावं, माया दुर्गति कारनं ॥१६२॥ नश्वर परिग्रह सृजन करता, जो मलिन परिणाम है । उस अशुभतम परिणाम के, दल का ही 'माया'नाम है ॥ उत्पन्न करती है यह माया, रे अनिष्ट स्वभाव है ।
होता है दुर्गति में अरे, जिस हेतु से सद्भाव है ॥ इस नश्वरशील परिग्रह के कारण जो अशुद्ध परिणाम उत्पन्न होते रहते हैं, उन परिणामों के समूह को ही 'माया' कहते हैं। यह दुष्ट माया हृदय में अनिष्ट स्वभाव उत्पन्न किया करती है, जिसमें मनुष्य को बारंबार दुर्गतियों में जन्म लेना पड़ता है।
माया अनंतानं कृत्वा, असत्ये राग रतो सदा । मन वचन काय कर्तव्यं, माया नंदी च ते जड़ा ॥१६३॥ जो जीव मायाचार में रहता सदा आसक्त है । मिथ्यात्व का वह मूढ़ बन जाता, निसंशय भक्त है । मन के, वचन के. काम के कर्तव्य से धो करथली ।
मायात्व में ही चूर रहता, है निरंतर वह छली ॥ जो मनुष्य अनन्तानुबंधी माया किया करता है, वह निश्चय से असत्य रागों में आसक्त हो जाता है: अपने मन, वचन और कर्म से किये जाने योग्य कार्यों को वह विलकुल विस्मृत कर बैठता है और दिन रान मायाचार करने में ही आनन्द लेता रहता है।
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... सम्यक् आचार .....
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माया आनंद संजुक्तं, अनृतं अचेत भावन । मन वचन काय कर्तव्य, दुर्बुद्धि विस्वास दारुनं ॥१६४॥ जिस जीव का संसार केवल, एक मायाचार है। मिलता उसे मिथ्यात्व में ही, हर्षे अपरम्पार है॥ मन, वचन, क्रम के योग्य, इस संसार में जो कर्म है ।
उनसे विमुख हो वह कुमति, करता सदैव अधर्म है। जो प्राणी मायात्व में ही जीवन का आनन्द मानता है, वह अनृत और अचेत भावनाओं का निश्चल पुजारी बन जाता है। मन वचन और कर्म से किये जाने योग्य कार्यों से विमुख होकर, वह मूढ़ प्राणी कुबुद्धियों में विश्वास करता हुआ सदा दारुण अधर्मपूर्ण कर्म किया करता है।
माया अचेत पुन्यार्थ, पाप कर्म च वृद्धते । सुद्ध दिस्टि न पस्यंते, मिथ्या माया नरयं पतं ॥१६५॥ जो पुण्य कर्मों में भी करता, मूढ मायाचार है । वह नर बढ़ाता बस समझ लो, पाप का संसार है । जो शुद्ध आत्मिक तत्व का, करता नहीं है चिन्तवन । वह अधम, मायावी नियम से, नक में करता गमन ।
जो अचेत पुरुष पुण्य कार्यों में भी मायाचारी का प्रदर्शन करता है, वह अपने संचित कमों में पाप का एक हिस्सा और बढ़ा लेता है। सारभून शुद्धात्म तत्व क्या है, इस तथ्य को वह मंदमति जीवन भर भी न जान पाता है और अपनी मायाचारिता के परिणामस्वरूप नर्क में अपना पतन कर लेता है।
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क्रोध
कोहाग्नि असास्वतं प्रोक्तं, सरीरे मान बंधनं । .:: असास्वतं तस्य उत्पाद्यन्ते, कोहाग्नि धर्म लोपनं ॥१६६॥
नर के अशुचि तन में बसा. जो मान शत्रु महान है । क्रोधाग्नि में नित प्रति, भरा करता अरे ! वह प्राण है ॥ क्रोधाग्नि करती है सृजन, सुन! दुख भरा संसार है ।
प्रिय धर्म-मणि को वह, बना देती क्षणों में क्षार है ॥ __ शरीर में जो मान रूपो शत्रु निवास करता है, वह क्रोधाग्नि को हमेशा प्रज्वलित बनाता रहता है। इस क्रोधाग्नि से क्या उत्पन्न होता है ? अशाश्वत और अनिष्ट वस्तुएं अर्थात वे वस्तुएं, जो आत्मा के स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल हैं । धर्मरत्न इस क्रोधाग्नि में गिर पड़ता है और गिरकर क्षार हो जाता है।
एतत् भावनं कृत्वा, अधर्म तस्य पस्यते । रागादि मल संजुक्तं, अधर्म नु नंगीयते ॥१६॥ जिस ठौर व्यसन, कषाय, मद के यूथ का सहवास है । उस ठौर. निश्चय समझ लो, करता अधर्म निवास है ॥ रागादि-मल से युक्त दोषों का, जहाँ संसार हो ।
उस ठौर फिर कैसे, अधर्म-पिशाच का न बिहार हो ? जहां पर व्यसन, कषाय और मदों के झुंड विचरते हैं, वहाँ पर निश्चय से ही अधर्म निवास करता है। जहाँ रागादि मलों का भंडार हो, केवल वहीं तो अधर्म का अड्डा रहा करता है।
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..... सम्यक आचार ...
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अन्तरात्मा के कार्य
___ धर्म ध्यान की साधना मुद्ध धर्म च प्रोक्तं च, चेतना लक्षनो सदा । मुद्ध द्रव्यार्थिक नयेन, धर्म कर्म विमुक्तयं ॥१६८॥ जो वस्तु जग में 'धर्म' इस शुभ नाम से विख्यात है । वह आत्मा के ज्ञान, गुण, चैतन्य से ही व्याप्त है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा, धर्म का यह रूप है ।
'शुद्धात्मा ही धर्म है, जो कर्मशून्य, अरूप है ॥ जो चैतन्य आदिक लक्षणों से मंडित हो और जो सर्व प्रकार के कर्मों से रहित हो, शुद्ध द्रव्य दृष्टि से या निश्चयनय से संसार में वही एक शुद्ध धर्म है।
धर्म च आत्म धर्म च, रत्नत्रय मयं सदा । चेतना लक्षनो जेन, ते धर्म कर्म विमुक्तयं ॥१६९॥ यदि कोई जग में धर्म है, तो एक आतम धर्म है । सप्राप्ति में जिसके न आवश्यक, कोई भी कर्म है ॥ इस आत्मिक सद्धर्म में रे! ज्ञान-सिंधु अथाह है ।
यह आत्मिक-सद्धर्म ही, चिर सुख-सदन की राह है ॥ यदि संसार में कोई शुद्ध और वास्तविक धर्म है तो वह वस 'आतम धर्म' ही है, जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीन रत्नों और चेतना या स्वानुभव रूप गुणों से संयुक्त है। यह शुद्ध धर्म सर्व कर्मों की व्याधि से या सर्व प्रकार के बाह्याडम्बरों से हीन रहता है।
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.................. सम्यक आचार
धर्म च्यानं च आराध्य, उर्वकारं च अस्थितं । ह्रींकार श्रींकारं च, त्रि-उर्वकारं च संस्थितं ॥१७॥ यह आत्मिक सद्धर्म ही रे! एक धर्म--ध्यान है । जिसमें सुसज्जित है अरे ! विज्ञान ओम् समान है । वह ओम् जिसका मोक्षलक्ष्मी से अभिन्न स्वरूप है ।
तारण तरण तीर्थङ्करों का, जो निधान अनूप है ।। यह श्रात्मधर्म ही वास्तव में आराधने योग्य वह धर्मध्यान है, जो ओंकार का पुण्य निवासस्थान है मुक्ति लक्ष्मी का प्रवेश द्वार है और तारणतरण चतुर्विंश तीर्थकरों का परम पवित्र तीर्थ स्थान है।
धर्म ध्यान त्रिलोकं च, लोकालोकं च सास्वतं । कुन्यान त्रिविनिर्मुक्तं, मिथ्या माया न दिस्टते ॥१७१॥ जो आत्मिक सद्धर्म का, गाते मनोहर गान हैं । सालोक तीनों लोक का. धरते पुरुप वे ध्यान है । यह आत्मिक सद्धमं, मिथ्या ज्ञान--तम से हीन है ।
मायात्व का इसमें न दिखता, बिम्ब अशुचि मलीन है ।। धर्म ध्यान की आराधना में सालोक तीनों लोकों का स्वरूप चितवन किया जाता है। यह आत्म चिन्तवन रूपी धर्म ध्यान तीनों कुज्ञान से रहित रहता है और वहां पर मिथ्यात्व या मायाचार नाम मात्र को भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।
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सम्यक् आचार
उत्तम षिमा उत्पाद्यंते, उत्तम तत्व प्रकासकं । ममलं अप्प सद्भावं, उत्तम धर्मं च निस्वयं ॥ १७२ ॥
उत्तम क्षमा की जो मही पर, प्रत्येक कण से तत्व की,
सृजन करता सृष्टि है । करता सतत जो वृष्टि है | जो आत्मा का रूप है, निजरूप का जो मर्म है । वसुधातली पर भव्य वह ही, एक उत्तम धर्म है ॥
[ ९५
संसार में, जो उत्तम क्षमा की सृष्टि का सृजन तथा परमोत्तम आत्म तत्व का प्रकाशन करता हो व जिसमें आत्मा का अस्तित्व पूर्ण रूप से निहित हो या जो आत्मा के सद्भावों का स्वयं साक्षात् रूप हो, वही परमोत्कृष्ट उत्तम धर्म है।
मिथ्या समय मिथ्यातं, रागादि मल वर्जितः ।
असत्यं अनृतं न दिस्टंते, ममलं धर्म सदा बुधैः ॥ १७३ ॥
मिथ्यात्र, मिथ्या शास्त्र से, जिसका पृथक संसार है । रागादि मल की जिस जगह, बहती न कुत्सित धार जिसमें न दिखता अनृत या कोई अचेतन कर्म है । विज्ञो ! वही संसार में, बस, एक उत्तम धर्म है ॥
जो मिथ्याज्ञान और मिथ्या शास्त्रों से सर्वथा दूर हो; रागादि मल के जिसमें चिन्ह भी न हो तथा असत्य और अनृत पदार्थों का जिसकी दृष्टि में कोई भी महत्व न हो वही संसार में सर्वोत्तम धर्म है ।
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.......... सम्यक् आचार
धर्म उत्तम धर्म च, मिथ्या रागादि खंडितं । चेतनाचेतनं द्रव्यं, सुद्ध तत्व प्रकासकं ॥१७४॥ संसार में सब धर्म में, उत्तम वही एक धर्म है । मिथ्यात्व खंडन कर दिखाता, सत्य का जो मर्म है ॥ चेतन, अचेतन द्रव्य का, जिसको भलीविधि ज्ञान है । जो शुद्ध निर्मल तत्व का ही, सतत करता गान है ॥
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जो मिथ्याज्ञान व आत्मा के विभाव रूप रागादिक परिणामों का सर्वथा खण्डन कर, शुद्धात्म नत्व का प्रकाश करता हो; चेतन और अचेतन पदार्थों के स्वरूप का जिसे स्पष्ट ज्ञान हो, संसार में सब धमों में बस वही एक उत्तम धर्म है।
धर्म अर्थ तिअर्थ च, ति अर्थ विंद संजुतं । षट् कमल त्रि उर्वकारं, धर्म ध्यानं च जोयतं ॥१७५॥ रे ! धर्म क्या ? शुद्धात्मा का, एक निर्मल रूप है । जगमग किया करता है, रत्नत्रय से यह वह स्तूप है ॥
ओंकार कर षट् कमल मय, करता जो उसका ध्यान है । वह पारखी है, शुद्ध आतम की उसे पहिचान है ।
धर्म क्या है ? सब पदार्थों में श्रेष्ठ प्रात्म पदार्थ का सर्वोत्कृष्ट रूप ! वह स्तूप जो अहर्निश तीन रत्नों से प्रदीप्त रहा करता है। ओंकार को एक मलयम मलमय कर, जो ध्यान किया जाता है. उस ध्यान में इस धर्म की ही अनुभूति होती है।
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सम्यक आचार
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धर्म च अप्प सद्भावं, मिथ्या माया निकंदनं । सुद्ध तत्वं च आराध्यं, ह्रींकारं न्यान मयं धुवं ॥१७६॥ वसुधातली में, एक आतम धर्म ही सुखसार है । मिथ्यात्व, मायाचार से जो, शून्य है. अविकार है । करते हैं जो शुद्धात्मा की, यह महा आराधना । भाते हैं वे परमात्मा की, नर निसंशय भावना ।।
संसार में सर्वोत्कृष्ट धर्म शुद्ध प्रात्म धर्म ही है। यह धर्म मिथ्यात्व और मायाचार का समूल नाश करने वाला होता है। चतुर्विंश तीर्थकर या परमोत्कृष्ट पद में रहने वाले परमात्मा की जो अनुभूति होती है, वह इस शुद्धात्म धर्म की आराधना से प्राप्त हो जाती है।
धर्म ध्यान के चार भेद पदस्तं पिंडस्तं जेन, रूपस्तं विक्त रूपयं । चतु ध्यानं च आराध्यं, सुद्ध मम्मिक दर्सनं ॥१७७॥ भव्यो ! जो धर्मध्यान है. वह चार भेद प्रमाण है । पहिला प्रकार पदस्थ है. पिण्डस्थ दुजा ध्यान है । रूपस्थ ध्यान तृतीय, चौथा ध्यान रूपातीत है । यह ध्यान अंतिम ही कि बस, शुद्धात्म रूपी भीत है।
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धर्म ध्यान के ४ भेद हैं (१) पदस्थ ध्यान (२) पिण्डस्थ ध्यान (३) रूपस्थ ध्यान (४) म्पातीत ध्यान । जो चौथा रूपातीत ध्यान होता है, वही सर्वोत्कृष्ट आराधने के योग्य ध्यान होता है और उसी में शुद्धात्मा का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप झलकता है।
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९८ ]
सम्यक् आधार
पदस्थ-ध्यान
पदस्तं पद विंदते, अर्थ सर्वार्थ सास्वतं । व्यंजनं तत्व सार्द्ध च, पदस्तं तत्र संजुतं ॥१७८॥ होता पदस्थ-ध्यान में है, उन पदों का चिन्तवन । शुद्धात्मिक-सद्भाव ही, करते जहां पर हैं रमण ॥ इन पदावलियों में जो करते, वर्ण-गुच्छ निवास हैं ।
तत्वार्थ देने का ही वे, करते अनन्त प्रयास हैं । पदस्थ ध्यान में उन पदों का चितवन किया जाता है, जो शुद्धात्मिक सद्भावों से परिपूर्ण रहते हैं। इस पदावली में जितने भी व्यंजन या वर्णगुच्छ रहते हैं, वे शुद्धात्म पदार्थ की ओर ही मन को आकृष्ट करने का प्रयत्न करते हैं।
कुन्यानं त्रि न पस्यंते, माया मिथ्या विखंडितं । विजनं च पदार्थ च, सार्द्ध न्यान मयं धुर्व ॥१७९॥ सद्भाव सत्तापूर्ण जो, होता पदस्थ-ध्यान है । उसमें नहीं कुझान का, दिखता कहीं मुख म्लान है ॥ मिथ्यात्व-मायाचार करता, उस जगह न किलोल है ।
कण कण में उसके व्याप्त रहता, तत्व-- ज्ञान अमोल है ॥ पदस्थ ध्यान में, जो तीन मिथ्याज्ञान होते हैं, उनका दर्शन नहीं होता है। मिथ्यात्व मायाचार से वह शून्य होता है तथा उसके एक एक व्यंजन व पद में अमोल तत्वज्ञान भरा रहता है।
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सम्यक आचार......
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९९
पदस्तं सुद्ध पदं मार्द्ध, सुद्ध तत्व प्रकामकं । मल्यं त्रय निरोधं च, माया मिथ्या न दिस्टते ॥१८०॥
जो शुद्ध आत्मिक भाव मय, होता पदस्थ-ध्यान है । करता है वह शचि शुद्धतम, तत्वार्थ का ही गान है ।। दिखते न तीनों शल्य के, उसमें कहीं भी शूल हैं । मिथ्यात्व मायाचार की, दिखतीं वहाँ बस धूल हैं ।
पदम्य ध्यान में शुद्ध पदों का ही निवास रहता है। इसके सारे पद व व्यंजन शुद्ध तत्व का है: प्रकाश करने वाले होते हैं। मिथ्या, माया व निदान इन शल्यों से सम्बन्धित विचारों को इस ध्यान में कोई भी स्थान नहीं रहता है, न मायात्व या मिथ्याचार ही इस ध्यान में कहीं दृष्टिगोचर होने पाता है।
पदस्त लोक लोकांतं, लोकालोक प्रकासकं । विजन सास्वतं सार्द्ध, उर्वकारं च विंदते ॥१८१॥ जितना भी लोकालोक का, भव्यो ! सविस्तृत ज्ञान है । सांग उसका चितवन, करता पदस्थ ध्यान है । यह शुभ पदस्थ--ध्यान, शाश्वत व्यंजनों का यास है। यह ध्यान वह, करता जहाँ पर, 'ओम्' दिव्य प्रकाश है।
पदस्थ ध्यान लोकालोक के प्रकाशक, समस्त तत्वों का एक साथ चिन्तवन करता है। इस ध्यान में ओम् पद का शाश्वत वास रहता है और इसके सारे व्यंजन व पद शाश्वत आत्म पदार्थ के ही द्योतक होते हैं।
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सम्यक् आचार
अंग पूर्वं च जानते, पदस्तं सास्वतं पदं । अनृत अचेत त्यक्तं च, धर्म ध्यान पदं धुवं ॥१८२॥ जो भी चतुर्दश पूर्व, ग्यारह अंग का विज्ञान है । शाश्वत पदों से जानता, उनको पदस्थ ध्यान है । भव्यो ! अचेतन, अनृत, जड़ का ध्यान करना हेय है ।
ध्यावो पदस्थ-ध्यान, जीवन का इसी में श्रेय है । पदम्थ ध्यान में ११ अंग व १४ पूर्व का पदों के द्वारा क्रमश: चिन्तवन किया जाता है। हे प्राणियो ! तुम अमृत और अचेत पदार्थों की वन्दना कर व्यर्थ में क्यों कर्मबन्ध करते हो ? यह वन्दना हेय है। जीवन का श्रेय इसी में है कि तुम जड़ की आराधना छोड़कर इस धर्म ध्यान में जुट जाओ।
पिण्डस्थ ध्यान
पिंडस्तं न्यान पिंडस्य, स्वात्मचिंता सदा बुधैः। निरोधं असत्य भावस्य, उत्पाद्यं सास्वतं पदं ॥१८३॥ पिण्डस्थ ज्ञानस्वरूप. उस शुचि आत्मा का ध्यान है । जिस आत्मा का चिन्तवन, करता सदा विज्ञान है ॥ यह ध्यान मिथ्या भाव का, करता महान निरोध है । शाश्वत अमर पद का कराता, यह सहज ही बोध है ।।
पिण्डस्थ ध्यान, ज्ञान के कुज उस आत्मा का ध्यान है, जिसका कि ज्ञानवान प्राणी निरन्तर चिन्तवन किया करते हैं। यह पिण्डस्थ ध्यान असत्य भावों का निरोध करने वाला और शाश्वत पदार्थों का बोध व मृजन करने वाला होता है।
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सम्यक् आचार
आत्म सद्भाव आरक्तं, पर द्रव्यं न चिंतये । न्यानमयो न्यान पिंडस्य, चिंतयंति सदा बुधैः ॥ १८४॥
यह आत्मा सद्भाव-पुंजों का, अगाध निधान है ।
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पर द्रव्य का फिर मूढ़ क्यों करता अरे ! तू ध्यान है ? जो जीव प्रज्ञावान हैं, अविवेक से जो हीन हैं ।
शुद्धात्म में ही वे पुरुष, रहते सदा तल्लीन हैं ।
यह आत्मा सद्भाव पुंजों का एक अगाध और अटूट निधान है। फिर यह समझ नहीं पड़ता कि यह प्राणी क्यों और किस लिये आत्मा से विगत पर पदार्थ का चिन्तवन किया करता है ? जो प्राज्ञ पुरुष होते हैं वे ज्ञान पिंड आत्मा के चिन्तवन करने में ही सदा तल्लीन रहा करते हैं ।
रूपस्थ ध्यान
रूपस्तं चिद्रूपस्य, अधो ऊर्ध्वं च मध्ययं । सुद्ध तत्व अस्थिरी भूतं, ह्रींकारेन जोड़ते ॥ १८५ ॥
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रूपस्थ के ध्यानी सदा करते हैं यह ही चिन्तन | अर्हन्त में तीनों ही, लोकालोक करते हैं रमण || होते हैं उनके लक्ष्य श्री जिन चतुर्विंश महान हैं । उन ही से वे शुद्धात्म पद का प्राप्त करते ज्ञान हैं ।
रूपस्थ ध्यानी विचार करता है कि अहन्त भगवान में तीनों ही लोक का ज्ञान विचरण कर रहा है अर्थात् अरहन्त भगवान तीनों ही लोक और अलोक में विद्यमान हैं। चौवीस तीर्थंकर ही उसके लक्ष्य के महान विन्दु होते हैं और उनका स्वरूप चिन्तवन करते करते ही वह शुद्धात्मतत्व का अनुभव कर लेता है ।
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१०२]
सम्यक् आचार
चिद्रूपं सर्व चिहरूपं, धर्म ध्यानं व निस्चयं । मिथ्यात्व राग मुक्तं च, अमलं निर्मलं धुवं ॥१८६॥
संसार में प्रति आत्मा, अरहन्त प्रभु का रूप है । मिथ्यात्व, राग-विहीन है; सत् चित् ममल चिद्रूप है ॥ इस भांति करता आत्म का, जो भी मनन गुणवान है । वह सत्पुरुष धरता है शुचि, रूपस्थ रूपी ध्यान है।
रूपस्थ ध्यानी यह चिन्तवन करता है कि संसार में प्रत्येक आत्मा शुद्धात्मा है और प्रत्येक आत्मा विज्ञान की दृष्टि से अरहंत प्रभु का रूप है। वह आत्मा को सर्व प्रकार मिथ्या भावों से विरक्त, रागादि विभावों से मुक्त, निर्मल और शाश्वत अजर अमर रहने वाली मानता है।
रूपस्तं अर्हत् रूपेन, हींकारेन दिस्टते । उर्वकारस्य ऊर्ध्वस्य, ऊर्ध्वं च मुद्धं धुवं ॥१८७॥ अरहन्त शुद्ध स्वभावमय, सद्भाव सत्तावान हैं । रूपस्थ ध्यानी के यही, होते सुलक्ष्य महान हैं । अरहन्त से ही जानते वे, ही पद का रूप हैं ।
श्रुचि ही ही से जानते वे, ओंकार स्वरूप हैं । रूपस्य ध्यानी अरहन्त परमात्मा को शुद्ध स्वभावमय जानते हुए, उनही के ध्यान में तल्लीन रहते है। अरहन्त देव को आधारभूत मानते हुए ही, वे चतुर्विंश तीर्थंकर का चितवन कर लेते हैं और चतुर्विंश के आधार पर से ओम् की अनुभूति में मग्न हो जाते हैं।
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सम्यक् आचार
रूपातीत ध्यान रूपातीत विक्त रूपेन, निरंजनं न्यान मयं धुवं । मति श्रुत अवधि दिस्टं, मनपर्यय केवलं धुर्व ॥१८८॥ हे भव्य ! रूपातीत, उस शुचि आत्मा का ध्यान है । किल्लोल करता सिद्ध का, जिसमें स्वरूप महान है। मति, श्रुत, अवधि से पांच होते जो अरे ! विज्ञान हैं । इस ध्यान में देते कि वे पांचों, झलक असमान हैं ।
रूपातीत ध्यान प्रकट रूप से उस आत्मा का साक्षात्कार है, जो निरंजन, ज्ञानमय और ध्रुव है। इस ध्यान में मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पांचों ही एक रूप नित्य दिखलाई पड़ते हैं।
अनंत दर्सनं न्यानं, वीज नंत सौख्ययं । सर्वन्यं सुद्ध द्रव्याथ, सुद्ध समिक दर्सनं ॥१८९॥ वसुधातली में चार जो भी, चतुष्टय विख्यात हैं । होते हैं रूपातीत में, सब आत्म में वे ज्ञात हैं। ध्यानी को होता भान, वह सर्वज्ञ है, गुणगेह है ।
शुचि शुद्ध दर्शन-ज्ञान से, परिपूर्ण उसकी देह है ॥ क्रांत दर्शन, अनतज्ञान, अनन्तवीर्य, अनंत सौख्य, जो ये चार चतुष्टय होते हैं, वे रूपस्थ ध्यानी को ध्यान करते समय अपनी आत्मा में प्रकट दिखलाई पड़ते हैं। उसे उस अवस्था में अनुभव होता है कि वह एक साधारण श्रात्मा नहीं, किन्तु सर्वज्ञ है; शुद्धात्मा परम पुरुष है और शुद्ध सम्यग्दर्शन से उसका आत्म-सरोबर सतह तक भरा हुआ है।
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१०४]
सम्यक् आचार
देव, गुरु और शास्त्र या मम्यग्दर्शन में अटूट श्रद्धा
प्रति पूर्न मुद्ध धर्मस्य, असुद्धं मिथ्या तिक्तयं । सुद्ध संमिक मं सुद्धं, सार्द्ध ममिक दिस्टितं ॥१९०॥ जो शुद्ध निर्मल धर्म को, करता सदा प्रतिपूर्ण है । मिथ्यात्व का गढ़ तोड़, जो उसको बनाता चूर्ण है ॥ शुद्धात्मा की जिसे सम्यक, भली विधि पहिचान है । संसार में 'दर्शन' उसी का, नोम प्रज्ञावान है।
जो धर्म को अपने समीचीन भाव से सदा पूर्ण बनाता हो, मिथ्या और अशुद्ध भावों को अपनी छाया से विलग करता हो, शुद्धात्मा की जिसे भली प्रकार पहिचान हो या जो वस्तु के यथार्थ स्वरूपों को भली प्रकार जानता हो, संसार में उसी को विद्वान लोग 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं।
देव गुरु धर्म सुद्धस्य, सार्धं न्यान मयं धुवं । मिथ्या त्रिविध मुक्तं च, मंमिक्तं सुद्धं धुवं ॥१९१॥ जो आप्त, गुरु और धर्म में, रखता अटल श्रद्धान है । इन तीन जगमग ज्योतियों का, जिसे सम्यग्ज्ञान है ।। जिससे विलग मिथ्यात्व की. दुखदायिनी कटु सृष्टि है ।
भव्यो ! वही ध्रुव अचल, ज्ञानी शुद्ध सम्यग्दष्टि है । जिमको ज्ञानमय देव, गुरु और धर्म में अचल श्रद्धान है तथा जो तीनों मिथ्याज्ञान से सर्वथा रहिन है, वही पुरुप शुद्ध सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
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सम्यक् आचार ......
........ [१०५
देव देवाधि देवं च, गुरु ग्रंथं च मुक्तयं । धर्मस्य सुद्ध चैतन्यं, सार्द्ध समिक्तं धुवं ॥१९२॥ जो सिद्ध हैं, कृतकृत्य हैं, बस वही देव महान हैं । जो सब परिग्रह रहित है, गुरु वही ज्ञान-निधान हैं।
चैतन्यमय शुद्धात्मा ही, धर्म वस अविकार है।
इन तीन का श्रद्धान ही, दर्शन सुखों का सार है। देवों के देव अरहन्त या सिद्ध ही यथार्थ देव हैं; सर्व प्रारम्भ परिग्रहों से रहित निर्मथ गुरु ही यथार्थ गुरु हैं; चैतन्य लक्षण से मण्डित शुद्धात्मा की आराधना ही यथार्थ धर्म है और इन तीनों का सम्यक् श्रद्धान ही यथार्थ सम्यक् दर्शन है।
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समिक्तं जस्य जीवस्य, दोषं तस्य न पश्यते । नतु मंमिक्त हीनस्य, संसारे भ्रमनं सदा ॥१९३॥ जिस सत्पुरुष के सन्निकट, सम्यक्त्व रूपी कोप है । उसमें नहीं दिखता है कोई, भूलकर भी दोष है। सम्यक्त्व की इस सम्पदा से, जो अभागा हीन है । संसार अटवी में सदा, करता भ्रमण वह दीन है ॥
जिस प्राणी के पास सम्यग्दर्शन रूपी निधि होती है, उसके पास किसी भी जाति के दोष नहीं फटकने पाते हैं, किन्तु जो सम्यक्त्व से हीन रहता है, वह दोषों से युक्त होकर सदा ही संसार में भ्रमण किया करता है।
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.... सम्यक् आचार
जस्य हृदयं सार्द्ध व्रत तप क्रिया संजुतं । सुद्धं तत्वं च आराध्य, मुक्ति गामी न संशयः ॥१९॥ सम्यक्त्व रूपी संपदा, जिस हृदय के आधीन है । व्रत, तप, क्रियाओं में समझ लो, वह सदा तल्लीन है॥ शुद्धात्म की आराधना, रे ! वह सुधा की बिन्दु है ।
पीकर जिसे नर प्राप्त कर जाता, अमर-सुख-सिंधु है॥ जो पुरुष सम्यक्त्व से युक्त रहता है, वह व्रतधारी नहीं रहते हुए भी, व्रत, तप, क्रिया आदि सब दैनिक कर्म करने वालों के समान ही रहता है ! शुद्ध तत्व की आराधना या शुद्धात्म तत्व में प्रतीति वास्तव में एक ऐसी वस्तु है कि उसके आराधक को मुक्ति प्राप्त करते देर ही नहीं लगती।
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तीर्थक्षेत्र श्री निसई जी का पार्श्व दृश्य
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अटूट श्रद्धावान किन्तु साधनाओं से हीन वृहस्थाश्रमी अवत सम्यग्दृष्टि और उसके कर्तव्य
(तृतीय खंड)
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अटूट श्रद्धाकान
किन्तु
साधनाओं से हीन गृहस्थाश्रमी, अव्रत सम्यग्दृष्टि और उसके कर्तव्य
___[ १९५ से ३७७ तक ]
"देखो, गृहस्थ जो दूसरे लोगों को कर्तव्य-पालन में सहायता देता है और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीन करता है. वह ऋषियों से भी अधिक पवित्र है।"
-महर्षि तिरुवल्लुवर तामिल वेद, पृष्ठ १६/८
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अट श्रद्धावान किन्तु साधनाओं से हीन
गृहस्थाश्रमी अव्रत सम्यग्दृष्टि
और उसके कर्तव्य
अव्रत सम्यग्दृष्टि
लिंगं च जिनं प्रोक्तं, त्रिय लिंग जिनागमं । उत्तम मध्य जघन्य च, क्रिया त्रैपन संजुतं ॥१९५॥
संसार के सन्मुख कि कहते, सत् सनातन वेद हैं । जो मोक्ष-साधक श्रेणियां हैं, तीन उनके मेद हैं। उत्तम प्रथम, मध्यम द्वितिय, जो तृतिय है वह जघन्य है । त्रेपन क्रिया से युक्त, इन सबका निकुंज सुरम्य है।
__ सर्वज्ञ भगवान मोक्ष साधक श्रेणियों को ३ विभागों में विभाजित करते हैं। प्रथम श्रेणी उत्तम, द्वितीय मध्यम व तृतीय जघन्य श्रेणी कहलाती है। ये तीनों श्रेणिये त्रेपन क्रियाओं का नित्यप्रति आचरण करने वाली होती हैं।
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११०] ...
सम्यक् आचार
उत्तम जिन रूपी च, मध्यमं च मति श्रुतौ । जघन्यं तत्व सार्द्ध च, अविरत संमिक दिस्टितं ॥१९६॥ उत्कृष्ट लिंग विराग प्रभु के रूप, साधु महान हैं । मध्यम विमल मतिश्रुत मयी, श्रावक व्रती गुणवान हैं। अन्तिम प्रमेद स्वरूप वे, व्रतहीन सभ्यग्दृष्टि हैं । जिनके हृदय में शुद्ध दर्शन की, बसी नव सृष्टि हैं।
उत्तम श्रेणी के अन्तर्गत जितेन्द्रिय भगवान के साक्षात स्वरूप निमथ गुरु आते हैं, मध्यम श्रेणी में मति और श्रुतज्ञान के धारी, व्रती सद्गृहस्थ आते हैं और तृतिय श्रेणी में आते हैं अचल श्रद्धान के धारी अनती सद्गृहस्थ । इस प्रकार ये तीन श्रेणियां होती हैं।
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लिंगं त्रिविध उक्तं, चतुर्थ लिंग न उच्यते। जिन सासने च प्रोक्तं च, संमिक दिस्टि विसेसतं ॥१९७॥ सर्वज्ञ का शासन जो, सम्यग्दृष्टि है अविकार है। कहता है साधक श्रेणियों का, बस यही विस्तार है । इन तीन के अतिरिक्त, चौथा भेद और न शेष है। शुचि शुद्ध दर्शन का ही, पर सबमें महत्व विशेष है।
मोक्ष साधक श्रेणियों के उत्तम, मध्यम व जघन्य ये तीन ही भेद होते हैं। चतुर्थ भेद और कोई नहीं है। बीतराग प्रभु के शासन में सम्यग्दर्शन और उसके पालने वाले सम्यग्दृष्टि का ही विशेष महत्व है।
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सम्यक् आचार...
स्थूल किन्तु ज्ञानमय १८ क्रियाओं का पालन
जघन्यं अवृतं नाम च, जिन उक्तं जिनागर्म । साद न्यान मयं सुद्धं, दस अष्ट क्रिया संजुतं ॥१९८॥ अव्रती सम्यग्दृष्टि, यह जिस पात्र का शुचि नाम है । आराध्य होता एक उसका, शुद् आतमराम है ॥ कहते हैं यह, वसुधा में जो सर्वज्ञभाषित शास्त्र हैं । होते हैं अष्ठादश क्रियामय, ये जघन्य सुपात्र हैं ।
जो जघन्य मोक्ष-साधक श्रेणी के अन्तर्गत आने वाला अत्रत सम्यग्दृष्टि होता है, वह वीतराग प्रभु के बताये हुए मार्ग के अनुसार शुद्धात्मा का अचल श्रद्धान और अठारह क्रियाओं का नियम से पालन करता है।
अव्रत सम्यग्दृष्टि के कर्तव्य संमिक्तं सुद्ध धर्मस्य, मूल गुनस्य उच्यते । दानं चत्वारि पात्रं च, सार्धं न्यान मयं धुवं ॥१९९॥ अवतीजन का आत्म में, होता अडिग श्रद्धान है। वह अष्ट गुण को पालता. करता उन्हीं का गान है। जो तीन विधि के पात्र हैं, करता वह उनका मान है ।
देता उन्हें आनन्दयुत हो, वह चतुविधि दान है। अत्रत सम्यग्दृष्टि का आत्मा में अचल श्रद्धान होता है। वह पाँच अभक्ष्य फलों को नहीं खाता और मद्य, माँस व मधु इन तीन मकारों का नियम से त्यागी होता है। तीन विधि के पात्रों को चार प्रकार के दान देना भी उसके कर्तव्य का एक अंग होता है।
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११२]
सम्यक् आचार
दर्सन न्यान चारित्रं, विसेषितं गुन पर्जयं । अनस्तमितं सुद्ध भावस्य, फासू जल जिनागमं ॥२०॥ रहता है वह शुचि शुद्ध, दर्शन का नियम से पात्र है । होता है ज्ञानाचार, इन दो वर्ग का वह छात्र है ॥ वह रात्रि भोजन त्यागता, करता छना जल पान है । शास्त्रादिकों के पठन में, रखता सजग नित ध्यान है ॥
वह सम्यग्दर्शन का तो नियम से धारी होता ही है किन्तु सम्यग्ज्ञान और सम्यक-चारित्र का भी वह यथाशक्ति आचरण करता है। रात्रि को भोजन करना वह बिलकुल त्याग देता है और अपने सारे व्यवहारों में वह छने जल का उपयोग करता है । इसके अतिरिक्त शास्त्रों का पठन पाठन करना भी अत्रत सम्यग्दृष्टि का एक प्रमुख कर्म होता है।
एतत् क्रिया संजुक्तं, सुद्ध समिक्त धारना । प्रतिमा व्रत तपस्वैव, भावना कृत सार्ध यं ॥२०१॥ अवती में बहती सदा, समकित-सुधा की धार है । रहता अठारह क्रियायुत, उसका सुभग संसार है। व्रत, तप, क्रिया, प्रतिमादि से, होता यदपि वह हीन है। रहता है पर शुभ भाव से, वह सतत उनमें लीन है ॥
अत्रत सम्यग्दृष्टि शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारण करने वाला होता है। अठारह क्रियाओं का तो वह पालन करता ही है, किन्तु साथ ही साथ यदि नियम से नहीं तो शुद्ध भावनाओं के साथ वह प्रतिमाओं और व्रतों के पालन करने में भी संलग्न रहा करता है।
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............... सम्यक् आचार....
[११३
अन्या संमिक्त संमिक्तं, भाव वेदक उपममं । क्षायिकं सुद्ध भावस्य, समिक्तं सुद्धं धुर्व ॥२०२॥ सर्वज्ञ के मुख-कमल से, विकसित हुए जो फूल हैं । रुचि करो उनही पर वही, सम्यक्त्व निधि के मूल हैं। भगवान में श्रद्धान सब, श्रद्धान का श्रद्धान है ।
वेदक यही, उपशम यही, क्षायिक यही मतिमान है । भगवान के कहे हुए वचनों में श्रद्धा रखना, यह सबसे महान कोटि का सम्यक्त्व है। यही उपशम, यही वेदक, और यही वह शुद्ध और ध्रुव क्षायिक सम्यक्त्व है, जिसे पाकर मनुष्य एक दिन स्वयं शुद्ध और ध्रुव की संज्ञा से विभूषित हो जाता है।
प्रगाढ़ सम्यग्दर्शन की ओर प्रवृत्ति
मोक्ष पथ का आधार सम्यग्दर्शन उपादेय गुण पदवी च, सद्ध मंमिक्त भावना । पदवी चत्वारि साद्धं च, जिन उक्तं सुद्ध दिस्टितं ॥२०३॥ सम्यक्त्व क्या है ? आत्मा का, वह अनित्य निधान है । जो पंच परमेष्ठी पदों से, व्याप्त नित्य समान है ।। सर्वज्ञ कहते, विज्ञजन ! सम्यक्त्व क्यों ध्याते नहीं । सम्यक्त्व पा, क्यों पंच परमेष्ठी स्वपद पाते नहीं ?
सम्यक्त्व की भावना भाते हुए या अपने आत्म श्रद्धान को उत्तरोत्तर वृद्धिंगत बनाते हुए मनुष्य को इस संसार से मुक्ति प्राप्त करने का साधन जुटाना ही योग्य है। अर्थात् जीवन का श्रेय इसी में है कि मनुष्य मुक्त बनने का प्रयास करे। सर्वज्ञ कहते हैं कि हे भव्यो ! अपने प्रात्मा के प्रकाश को विस्तृत बनाओ और श्रेष्ठ परमेष्ठी पद को प्राप्त करो।
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११४] .......................
सम्यक् आचार
मति न्यानं च उत्पादंते, कमलासने कंठ स्थिते । उर्वकारं सार्द्ध च, तिअर्थ साई धुवं ॥२०४॥ यह ओम् शाश्वत मुक्ति का, पर्यायवाची रूप है । यह ऊर्ध्व है, सद्भावमय है, ममल है. चिद्रूप है ।। ग्रीवा-कमल आसीन कर. करता जो इसका ध्यान है ।
प्रति निमिष उसका अग्रसर, होता अरे मतिज्ञान है ।। सद्भावों से पूरित श्रोम् ऊर्ध्व स्वभाव का धारी है। रत्नत्रय का वह शाश्वत निवास-स्थल है; मुक्ति का वह साक्षात् प्रतीक है। कठस्थित कमल में स्थिर कर, इस पुण्य ओम् का जो चिन्तवन करता है, वह पुरुष उत्तरोत्तर प्रखर मतिज्ञान का धारी बनता है।
कुन्यानं त्रि-विनिर्मुक्तं, छाया मिथ्या तिक्तयं । उवं हियं श्रियं सुद्धं, साई न्यान पंचमं ॥२०५॥ सम्यक्त्व में मिथ्यात्व का, होता न किंचित् बोध है । यह तीन मिथ्याज्ञान का, करता सदैव निरोध है ।। करता है जो इस मोक्ष के, पथ की निरंतर साधना ।
वह ओम् ही व श्रीं की, करता सतत आराधना ॥ सम्यक्त्व तीनों मिथ्याज्ञान से शून्य होता है; मिथ्यात्र की छाया तक उसमें कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती है। जो इस मोक्ष के मूल सम्यक्त्व की सतत आराधना करता है वह ओम् , ह्रीं श्रीं तीनों का या ओम् ह्रीं श्रीं इस पुण्य मंत्र का स्तवन कर लेता है और केवलज्ञान उत्पन्न करने के मार्ग को सरल और सीधा बना लेता है।
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... सम्यक् आचार ......................... [११५
देवं गुरुं धर्म सुद्धस्य, मुद्ध तत्व सार्धं धुवं । मंमिक दिस्टि मुद्धं च, समिक्तं संमिक दिस्टितं ॥२०६॥ सत देव, गुरु और धर्म में, जिसको अटल श्रद्धान है । शुद्धात्म के ही चिन्तवन में, लीन जिसका ध्यान है॥ जिसकी समीचीनत्व से, परिपूर्ण निर्मल दृष्टि है ।
वह विज्ञजन ही भव्यजीवो, शुद्ध सम्यग्दृष्टि है ॥ जिसको सन्देव, सद्गुरु ओर सद्धर्म में अटल श्रद्धान हो; अपनी आत्मा के ही चिन्तवन में जो सदा लवलीन रहता हो तथा जिसकी दृष्टि में पूर्णरूपेण पूर्णता आ गई हो, वही पुरुष सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
संमिक्तं जस्य सुद्धं च, व्रत तप संजमं सदा। अनेय गुन तिटते, संमिक्तं सार्द्ध बुधैः ॥२०७॥
जिसका हृदय सम्यक्त्व का, शुचि शुद्ध पूर्ण निवास है । व्रत तप क्रिया संयम सभी का, उस हृदय में वास है। सम्यक्त्व की सद् प्राप्ति करना, एक अनुपम सिद्धि है ।
इस सिद्धि से होती गुणों में, नित्य नूतन वृद्धि है। जिसका हृदय सम्यक्त्व-गंगा से पवित्र हो जाता है, वह व्रत, तप आदि क्रियाओं से रहित होते हुए भी, अनेक व्रतों का स्वामी हो जाता है। सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेना, एक दैवी शक्ति पर विजय पा लेना है, क्योंकि सम्यक्त्व ही एक ऐसी वस्तु है जिसको सींचने से व्रत, तप, क्रिया आदि का वृक्ष अपने आप हरा हो जाता है ।
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११६]
सम्यक् आचार
जस्य संमिक्त हीनस्य, उग्रं तव व्रत संजुतं । संजम क्रिया अकार्ज च, मूल विना वृषं जया ॥२०८॥
जो उग्र तप तपता है पर, श्रद्धान से जो होन है । वह मूर्ख अपना तन बनाता, निष्प्रयोजन क्षीण है । जिस भांति होती वृक्ष की रे ! मूल ही आधार है । उस भाँति जप तप क्रिया में, दर्शन प्रथम है; सार है ॥
जो कठिन तपश्चरण तो करता है, किन्तु श्रद्धान जिसका बिलकुल शिथिल है, उसको समझ लेना चाहिये कि वह निष्प्रयोजन अपनी देह को सुखाकर कांटा बनाता है। त्रत हो, तप हो, क्रियाएं हों, कुछ भी हों, सम्यक्त्व का सबको आधारस्थल चाहिये ही । जिस प्रकार वृक्ष के लिये जड़ की नितान्त आवश्यकता है, उसी प्रकार सारे बाह्य कर्मों के लिये सम्यक्त्व या आत्मानुभूति की नितान्त आवश्यकता है ।
मिक्तं जस्य मूलस्य, साहा व्रत डाल नंत नंताई । अवरेवि गुणा होंति, संमिक्तं हृदयं यस्य ॥ २०९ ॥
जिस क्रिया रूपी वृक्ष की, सम्यक्त्व रूपी मूल है । वह वृद्धि पा देता अनन्तानन्त, मृदु फल-फूल है || जिनके हृदय पर लग चुकीं, सम्यक्त्व की दृढ़ छाप हैं । अगणित गुणों के गेह, बन जाते वे अपने आप h
जो क्रियायें सम्यक्त्व को आधार बनाकर सम्पन्न की जाती हैं, वे शीघ्र विलम्ब ही अपना फल दिखा देती हैं। जिसके हृदय पर सम्यक्त्व की दृढ़ छाप लग जाती है, वह अपने आप अनेक व्रतों का धारो बन जाता है; सद्गुण स्वयं चले आते हैं और उसके गले में वरमाल डाल देते हैं ।
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सम्यक आचार
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समिक्त बिना जीवा, जाने अंगाई श्रुत बहु भेयं । अनेयं व्रत चरनं, मिथ्या तप वाटिका जीवो ॥२१०॥ यह जीव तीनों लोक के, श्रुतज्ञान का भंडार हो । व्रत तप क्रिया से युक्त हो, आचार का आगार हो । पर यदि न इसके हृदय में, समकित सलिल का ताल है । जप तप क्रिया व्रत सभी, इसका एक मायाजाल है।
मनुष्य तीनों लोक के श्रुतज्ञान का वेत्ता ही क्यों न हो; व्रत तप क्रियाओं के उम्पादन में उसका पूरा का पूरा समय ही क्यों न जाता हो; वाह्य आचरण और व्यवहार उसके गंगाजल स हा पवित्र क्यों न हों, पर यदि उसके हृदय में आत्मप्रतीति का या शुद्ध सम्यक्त्व का सरोवर नहीं है तो उसके ये व्रत तप, धर्माचरण नहीं, किन्तु संसार को ठगने के लिये प्रत्यक्ष माया के जाल हैं।
सुद्ध समिक्त उक्तं च, रत्नत्रयं च संजुतं । मुद्ध तत्वं च साद च, मंमिक्ति मुक्ति गामिनो ॥२११॥
जिस शुद्धतम सम्यक्त्व का, सर्वज्ञ करते हैं कथन । वह तीन अनुपम रत्न से, रहता है मंडित विज्ञजन || उसमें निहित रहता सदा, शुद्धात्म का श्रद्धान है ।
मिलता है शिवपुरगामियों को, यह अटूट निधान है ॥ जिस शुद्ध सम्यक्त्व का कथन श्री वीतराग देव करते हैं, हे भव्यो ! वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन रत्नों से निरन्तर ही अलंकृत रहता है। यह सम्यक्त्व आत्मा के श्रद्धान से भरपूर होता है और जिसको मोक्ष-प्राति का सौभाग्य होता है, उसे ही इस दुर्लभ रत्न को प्राप्त करने का अवसर मिलता है।
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११८]
सम्यक् आचार
संमिक्तं जस्य न तिस्टंते, अनेय विभ्रम जे रता । मिथ्या मय मूढ दिस्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ॥ २१२ ॥
सम्यक्त्व जीवन मूरि से, जिसका हृदस्तल भिन्न है । वह जीव विभ्रम- ग्रस्त हो, रहता सदा ही खिन्न है | जो घोर तिमिराच्छन्न, मिथ्या मार्ग में आरूढ़ है । संसार - अटवी में भटकता, वह सदा ही मूढ़ है ॥
जिसका हृदय सम्यक्त्व से बहुत दूर रहता है अथात् जिसे अपनी आत्मा के ज्ञान गुणों पर विश्वास नहीं रहता, वह पुरुष हमेशा ही विभ्रम- ग्रस्त अवस्था में पाया जाता है । मिथ्याज्ञान रूपी अंधकार में भटकते २ वह नेत्रहीन हो जाता है और निरंतर संसार रूपी कुंओं में गिरना ही उसका एकमात्र काम हो जाता है ।
संमिक्तं जेन उत्पादंते, सुद्ध धर्म रतो सदा । दोष तस्य न पस्यंते, रजनी उदय भास्करं ॥ २९३ ॥
जिसके हृदय में हो चुका, सम्यक्त्व -- रवि का जागरण । जो प्रति निमप करता है, आतम--धर्म का ही आचरण || उसके हृदय में दोष को रहता न कोई ठौर है । आदित्य के पश्चात रहती,
सर्वरी
क्या और ?
जिसके हृदय में सम्यक्त्व रूपी सूर्य जाग जाता है; जो अपनी आत्म अर्चा में ही निरंतर तल्लीन रहता है, वह फिर किसी भी अवस्था में दोषों का पात्र नहीं रह पाता है । जब सूर्योदय हो जाता है तब क्या अंधकार भी कहीं देखने को मिला करता है ?
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सम्यक् आचार
संमिक्तं यस्य न पस्यंति, अंध एव मूढं त्रयं । कुन्यानं पटलं यस्य, कोसी उदय भास्करं ॥२१४॥ सम्यक्त्व रूपी सूर्य का, जिसको न होता भान है । वह मृढ़ता से ग्रस्त: नेत्र-विहीन है: अज्ञान है॥ जैसे कि बन्दी को न होता, सूर्य का आभास है ।
जो मूढ़ है दिखता न उसको, त्यों सुदृष्टि-प्रकाश है ॥ जो मनुष्य अपनी आत्मा पर प्रतीति नहीं लाते हैं, वे अंधों के ही समान हैं। तीन मूढ़ताओं ने उनकी आँखों पर अज्ञान की पट्टी चढ़ादी है। जिस प्रकार कारागृह की चहारदीवारी में घिरे हुए बंदी को सूर्य का प्रकाश दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी प्रकार मूखों को अपने अन्तर में छिपे हुए ज्ञान-धन पर प्रतीति नहीं होती।
मंमिक्तं जस्य स्रवते, श्रुत न्यान विचक्षनं । न्यानेन न्यान उत्पादंते, लोकालोकस्य पस्यते ॥२१५॥ जिसका हृदय सम्यक्त्व का, निस्सीम पारावार है । श्रुतज्ञान का जिसके हृदय में, दूर तक विस्तार है ॥ वह ज्ञान से इस भाँति, वृद्धिंगत बनाता ज्ञान है ।
दिखता है उसके ज्ञान में, त्रैलोक्य राई समान है ॥ जिसका हृदय सम्यक्त्व से ओतप्रोत है और श्रुतज्ञान का जो विशद भंडार है, उसके भाग्य कीउसके ज्ञान की फिर क्या सीमा ? आत्मानुभव जनित और शास्त्रों के स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञानों से अपने ज्ञान का वह इतना विस्तार कर लेता है कि उसे लोकालोक का प्रत्यक्ष दर्शन होने लगता है।
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१२०]
..... सम्यक् आचार
संमिक्त जस्य न पस्य॑ते, असाई व्रत संजमं । ते नरा मिथ्या भावेन, जीवितोपि मृतं भवेत् ॥२१६॥ जिससे नहीं होती, विमल सम्यक्त्व की आराधना । होती नहीं जप तप व्रतों की, उस पुरुष से साधना ॥ करता सदा मिथ्यात्वपूरित, वह क्रिया अज्ञान है । जीता है पर जीते हुए. वह मूढ़ मृतक समान है ॥
जो पुरुप सम्यक्त्व को असाध्य कहकर, उसके पालन करने में अपने को असमर्थ बना लेता है, उससे व्रत, संयम, तप वगैरह कुछ भी पल सकेंगे, यह नितान्त भ्रमात्मक बात है। मिथ्या भावों को लेकर ही वह संसार में जीता रहता है, पर उसके जीने में और मरने में कोई अंतर नहीं रहता है अर्थात् वह मृतक के समान संसार में काल यापन करता रहता है।
उदयं संमिक्त हृदयं जस्य, त्रिलोकं मुदमं मदा । कुन्यानं राग तिक्तं च, मिथ्या माया विलीयते ॥२१७॥ जिसके हृदय में हो गया, सम्यक्त्व का सुप्रभात है । त्रैलोक्य में उसको न रहती, फिर कहीं भी रात है । मिथ्यात्व-मायाचार--तम, रहते न उसके पास हैं । कुज्ञान-राग उसे न देते, चोर सा फिर त्रास हैं ।
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जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय हो गया, उसके सम्बन्ध में यह समझ लेना चाहिये कि तीनों लोक, तीनों भुवन में उसके लिये प्रकाश ही प्रकाश हो गया; रात्रि का उसके लिये कहीं नाम भी न रहा । मिथ्यात्व और मायाचार उसके पास से सदा के लिये अदृश्य हो जाते हैं और कुज्ञान का अस्तित्व तो सदा के लिये उसके हृदय से मिट जाता है।
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सम्यक् आचार
- [१२१
समिक्त सहित नरय यम्मि, संमिक्त हीनो न चक्रियं । मंमिक्तं मुक्ति मार्गस्य, हीन मंमिक्त निगोदयं ॥२१८॥
सम्यक्त्व-निधि के सहित, नर्क-निवास भी उत्कृष्ट है । सम्यक्त्व-निधि से रहित चक्रिय पद नितान्त निकृष्ट है । सम्यक्त्व चिर सुख-सदन है, सम्यक्त्व चिर-सुख-गोद है ।
मिथ्यात्व दुख की सेज है. मिथ्यात्व नर्क निगोद है ॥ सम्यक्त्व के सहित नर्क में रहना भी उत्तम है, किन्तु सम्यक्त्व से रहित चक्रवर्ती पद नी नितान्त हेय है । सम्यक्त्व मुक्ति का मार्ग है और मिथ्यात्व भीषण दुखों से भरी हुई निगोद भूमि की संकीर्ण गली ।
संमिक्त संजुत्त पात्रस्य, ते उत्तमं सदा बुधै । हीन मंमिक्त कुलीनस्य, अकुली अपात्र उच्यते ॥२१९॥ सम्यक्त्व-निधि का पात्र, यदि चाण्डाल का भी लाल है । तो वह नहीं है नीच, वह भूदेव है, महिपाल है ।। सम्यक्त्व-निधि से रहित, यदि एक उच्च, श्रेष्ठ. कुलीन है । तो वह महान दरिद्र है, उससा न कोई हीन है।
सम्यक्त्व निधि का पात्र यदि शूद्र अस्पृश्य या चाण्डाल का पुत्र है तो वह भी उत्तम है और सम्यक्त्व से रहित यदि ब्राह्मण वैश्य या क्षत्रिय है तो वह भी नीच है। कहने का तात्पर्य यह कि सम्यक्त्व के पात्रों में जाति-पांति का या ऊंच नीच का भेदभाव नहीं गिना जाता। जिसमें सम्यक्त्व हो, वही सम्यग्दृष्टि, वही पूज्य और वही आराध्य होता है ।
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१२२] ...
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सम्यक् आचार
ति अर्थ समिक्तं सार्द्ध, तिथंकर नाम सुद्धये । कर्म पिपति त्रिविधं च, मुक्ति पंथ सिधं धुर्व ॥२२०॥
सम्यक्त्व साधन के ही करते, जो अनन्त प्रयास हैं । उनको ही मिलते, तीर्थकर, बंध के अवकाश हैं । वे तीन कर्मों के किले, पल में बनाते चूर्ण हैं । सत, चित, परम, आनंद बनकर वे कहाते पूर्ण हैं ।
जो सम्यक्त्व का साधन करता है, वही समय पाकर जग को तारने वाला बन जाता है और संसार में तीर्थंकर के नाम से प्रसिद्ध होता है। सम्यक्त्व साधन करने वाला द्रव्यकम, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों कर्मों को नाश कर डालता है और सन चित आनन्द बनकर पूण पुरुप परमात्मा कहलाता है।
मंमिक्तं जस्य चिंतंति, बारंवारेन मार्धयं । दोषं तस्य विनस्यंति, निंघ मनंग जूथयं ॥२२१॥ सम्यक्त्व का जो जीव करता है, सदा ही चिन्तवन । उसके हृदय में दोष के, पड़ते नहीं कलुषित चरण ॥ क्या सिंह को, होता जो अनुपम शक्ति का आगार है ।
आकर कभी रे ! छेड़ता गजराज का परिवार है ? जो पुरुष सम्यक्त्व का वार बार चिन्तवन करता है और उसके अर्थ का मूक्ष्म बुद्धि से मनन करता है, उसके हृदय में दोपों के चरण किसी भी अवस्था में नहीं पड़ने पाते हैं। क्या विशाल शक्ति के मागर सिंह को हाथियों का समूह भी कभी आकर छेड़ सकता है ?
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सम्यक् आचार
[१२३
समिक्तं सुद्ध धुवं साधु, सुद्ध तत्व प्रकासकं । ति अर्थ सुद्ध संपूर्न, संमिक्तं सास्वतं पदं ॥२२२॥
सम्यक्त्व ही जगतीतली में, ग्राह्य है, सुखसार है । सम्यक्त्व ही शुद्धात्म का आलोक है, आधार है ॥ सम्यक्त्व तीनों रन्न का, पूर्णत्व है, एकत्व है ।
सम्यक्त्व ही शिवमार्ग है, सम्यक्त्व ही शिवतत्व है । इस जगतोनली में सम्यक्त्व ही एक शुद्ध और मार्थक पद है और यही शुद्धात्म तत्व को प्रकाश में लाने के लिये एक मुदृढ़ आलोक स्थल है। यह पद रत्नत्रय. से सुशोभित रहता है और उस मार्ग का प्रदर्शक होता है जो शाश्वत मुग्खों का आगार होता है और जिसको पाकर मनुष्य के जन्ममरण के बंधन कट जाते हैं।
यस्स हृदये समिक्तस्य, उदयं सास्वतं अस्थिरं । तस्य गुनस्य नाथस्य, असक्य गुण अन्तयं ॥२२३॥
सम्यक्त्व पद का लाभ कर, जो पुरुष आगे बढ़ गया । वह शाश्वत, ध्रुव, अमर उदयाचल शिखर पर चढ़ गया ॥ दिखते नहीं फिर कोई से भी, दोष उसके साथ हैं । आकर अनन्तानन्त गुण, उसको झुकाते माथ हैं ॥
जिस पुरुष ने सम्यक्त्व मार्ग का अवलम्बन कर लिया, उसने शाश्वत सुखों के उदयाचल को चूम लिया, प्रत्यक्ष यह ही समझना चाहिये । सम्यक्त्वधारी पुरुष, सम्यक्त्व का स्वामी बनकर ही नहीं रह जाता, अनेकों गुण इस सुयोग्य पुरुष के पास आते हैं और उसके गले में वरमाला डालकर उसे अपना नाथ बना लेते हैं।
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१२४] ...... .
सम्यक आचार
संमिक्तं दिस्टते जेन, उदयं त्रिभुवन त्रयं । लोकालोक त्रिलोकं च, आल वाले मुखं जथा ॥२२४॥ सम्यक्त्व-रवि से खिल चुकीं, जिसके हृदस्तल की कली । उसके लिये समझो. प्रकाशित हो गई त्रिभुवनतली ॥ दिखता है उसके ज्ञान में, इस भांति से संसार है ।
जिस भांति निर्मल कुण्ड में. दिखता वदन उनहार है। जिसके हृदय में सम्यक्त्व का प्रखर प्रकाश हो जाता है, उसके लिये तीनों भुवन प्रकाशित हो जाते हैं। सम्यक्त्व के प्रकाश से उसके ज्ञान में इतनी निर्मलता आ जाती है कि तीनों लोक उसे पानी में दिखते हुए मुख की छाया की भांति स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगते हैं ।
अष्टमूल गुणों का पालन
पंच उदम्बर मूल गुलं च उत्पादंते, फलं पंच न दिस्टते । बड़ पीपल पिलषुनी च, पाकर उदंवरं स्तथा ॥२२५॥ सम्यक्त्व से जिन भव्य पुरुषों का, हृदस्तल है सना । वे अष्टगुण को पालने की. नित्य करते साधना ।। पीपल, उदम्बर, बड़, कटुम्बर, और पाकर ये सभी ।
होते अभक्ष्य न भूल, खाते हैं सुदृष्टि इन्हें कभी ॥ जो पुरुष सम्यक्त्व पालन करने का व्रत ले लेते हैं, वे अष्ट मूलगुणों का साधन करने में सतत ही सावधान रहा करते हैं। अष्टमूलगुणों में जिन साधनाओं का समावेश है उनमें = वस्तुयें हैं, जिन्हें अभक्ष्य कहा गया है और जिन्हें न खाने का उपदेश श्री वीतराग प्रभु देते हैं । इन आठ मूल गुणों में पांच तो फल (१) बड़ के फल (२) पीपल के फल (३) कटूम्बर (४) पाकर और (५) उदम्बर और तीन मद्य मांस और मधु हुआ करते हैं।
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सम्यक आचार
[१२५
फलानि पंच तिक्तंति, त्रसस्य रष्यनार्थयं । अतीचार उत्पादंते, तस्य दोष निरोधनं ॥२२६॥ जो दीन, हीन, दरिद्र हैं, अपराध से हैं जो परे । ऐसे त्रसों के त्राण को, मत पंच फल खाओ अरे ।। जिनके किये से हनन के, अतिचार होते हों सृजन । वे दोष भी सब सर्वथा ही, त्याज्य हैं, हे विज्ञजन ।।
जो पाँच फल नहीं खाने के योग्य बताये हैं, वे इसलिये ही बताये गये है कि उनमें हजागेत्रम जीवों का निवास होता है। उन त्रम जीवों की रक्षा के लिये ही हे भव्यो ! तुम उन फलों को मत खाओ। ऐसी दूसरी वे क्रियायें भी मत करो, जिनके करने से इन फलों को खाने का अथवा जीव घात का दोप लग जाये और इन फलों को न खाते हुए भी, तुम उनको खाने के दोष के तथा हिंमा पाप लगने के भागी बन जाओ।
अन्नं जथा फलं पुहपं, वीज संमूर्छनं जथा। तथाहि दोप तिक्तंते, अनेके उत्पाद्यते जथा ॥२२७॥
जिस अन्न में घुन लग गया, रे वह असेव्य, अभोग्य है । फल-फूल-बीज-समूह भी जो, विकृत हो, अपभोग्य है ।। इस भाँति जिनमें जन्म लेते, नित्य प्रति सम्मूर्छन । उन वस्तुओं को भूल मत, भक्षण करो हे विज्ञजन ॥
जिस प्रकार उपरोक्त पांच फल भक्षण करने के योग्य नहीं ठहराये गये हैं, उसी प्रकार और वस्तुयें भी जैसे ऐसा अन्न, जिसमें कीड़ों ने घुन लगा दिया है, सड़े हुए और समूचे फल, फूल बीज घास, पत्ते वाली शाक आदि ऐसी वस्तुएं भी, जिनमें सम्मूर्च्छन जीव रहा करते हैं, त्यागने के योग्य ही ठहरती हैं। तात्पर्य यह कि हमें जहाँ भी संदेह हो कि इस वस्तु में विकार आ गया है और इसमें सम्मूच्छन जंतु होंगे, वहाँ ही हमें उस वस्तु को अभक्ष्य समझ लेना चाहिये ।
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१२६]
सम्यक आचार
तीन मकार
मद्यं च मान संबंधं, ममत्व राग पूरितं । असुद्ध आलापं वाक्यं मद्य दोष संगीयते ॥ २२८ ॥
भव्यो ! सुनो मदिरा न केवल, मद्य का ही नाम है । मदिरा वही, मदिरा-गुणों के सदृश जिसका काम है ॥ मद, मान, ममता, मद्य, ये सब मद्य के ही रूप हैं । कटु वचन भी है मद्य, कहते यह गिरा चिद्र हैं |
जिन चीजों में मदिरा या मान सम्बन्धी दोप उत्पन्न हो जायें, वे समस्त वस्तुएं अथवा मान की भावनायें मद्यपान करने के अन्तर्गत ही आ जाती हैं, जैसे अशुद्ध कटु वचन बोलना । जब मनुष्य रा पी लेता है या मान का भूत उसके सिर पर सवार हो जाता है, तभी उसके मुंह से अनर्गल शब्द निकलते हैं, अतः अशुद्ध आलाप की मदिरापान का ही द्योतक है।
संधान संमूर्च्छन जेन, तिक्तं ति जे विचष्यनं । अनंत भाव दोषेन, न करोति युद्ध दिस्टितं ॥ २२९ ॥
जो वस्तुयें सम्मूर्छन, त्रस जन्तुओं की कोष हैं । 'संधान' के जिनमें, अनन्तानन्त लगते दोष हैं || जो शुद्धदृष्टी है वह करता इन सभी का त्याग है । जो पापमूलक वस्तुएं, उनसे न रखता राग है |
ऐसी वस्तुएं, जिनमें चलित रस सम्बन्धी दोप उत्पन्न हो जावें, संधान कहलाती हैं । मर्यादा के
बाहिर का अचार, मुरब्बा, दहीबड़े आदि वस्तुएं संधान में ही गर्भित होती हैं। चूंकि इन संधानों में अनंतानंत सम्मूर्च्छन जंतुओं का निवास होता है; इनके खाने में मदिरापान करने के समान ही दोष लगता है और आत्मा के साथ अनंतानुबंधी कषायों का बंध होता है, अतः सम्यग्दृष्टि या विवेकी पुरुष को इन संधानों को भी कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए ।
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सम्यक् आचार
मांसं भष्यते जेन, लोनी मुहूर्त गतस्तथा ।
न च भोक्तं न च उक्तं च, व्यापारं न च क्रीयते ॥ २३०॥
जो पुरुष खाता, दो घड़ी पश्चात् की नवनीत है ।
वह मांसभक्षी, मांस से, उसको समझलो प्रीत है ||
इस भांति की नवनीत अनउपदेश्य और अयोग्य है । इस विकृति का व्यापार करना भी, नितान्त अयोग्य है ||
1
बाद
मक्खन में दो घड़ी के पश्चात् अनंतानंत सम्मूर्च्छन जीव पड़ जाते हैं, अत: विवेकी पुरुष को चाहिये कि वह दो घड़ी के पहले ही मक्खन को घी के रूप में परिणत कर लें । जो पुरुष दो घड़ी के के मक्खन को व्यवहार में लाता है, उसको खाने का उपदेश देता है या उसका व्यापार करता है वह जानबूझकर मांस का भक्षण करता है और यह कहने में पाप नहीं कि उस पुरुष की जिह्वा को मांस खाने में आसक्ति है
1
दो दारिया मही दुग्धं, जे नरा भुक्त भोजनं । स्वादं विचलिते जेब, भुक्तं मामस्य दोषनं ॥ २३१||
[१२७
जो तक्र के या दुग्ध के संग द्विदल करता भक्ष हैं । वह पुरुष खाता मांस है, यह नग्न सत्य प्रत्यक्ष है ॥ जिन वस्तुओं के स्वाद में, जिस क्षण विकृतियाँ आ गई । वे वस्तुएं, उस निमिप से ही, 'मांस' संज्ञा पा गईं ॥
जो दो दाल वाली वस्तुओं को या उनके रूपान्तर को फासू करने आदि का बहाना करके दही छाया दूध के साथ मिलाकर खाते हैं; या जो ऐसी वस्तुओं का सेवन करते हैं जिनका स्वाद कुछ से कुछ हो गया है, वे पुरुष मांस ही का भक्षण करते हैं और मांस खाने के दोष के भागी बनते हैं ।
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१२८] . .
सम्यक आचार
मधुरं मधुरस्चैव, व्यापार न च क्रीयते । मधुर मिश्रिते जेन, द्वि मूहूर्त संमूर्छनं ॥२३२॥ मधु. मांस, मद्यों का, न जिनमें रे ! हनन का पार है । करते नहीं, जो विज्ञ होते हैं, कभी व्यापार हैं ।। मधु का सम्मिश्रण, दो मुहतों के अनन्तर विज्ञजन । अगणित त्रसों, सम्मुर्छनों का, केन्द्र बनजाता सघन ।।
जो विवेकी पुरुप होते हैं, वे मना, माँस या मधु का कभी भी व्यापार नहीं करते हैं । शहद भी बिलकुल ही अभक्ष्य पदार्थ है । इसको जिस किसी भी वस्तु के साथ मिलाया जाता है, उसमें निश्चित रूप से दो मुहूर्त के पश्चात अगणित सम्मूर्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं।
मंमूर्छनं जथा जानते, साकं पुहपादि पत्रयं । तिक्तंते न च भुक्तं च, दोषं मांस उच्यते ॥२३३॥ पत्ती, पुहुप औ शाक जो, होती वनस्पति काय हैं । उनमें विचरते जीव नित, सम्मूर्छन पर्याय हैं । त्यागो इन्हें, इनका ग्रहण करना सभी विधि हेय है ।
व्यापार भी इनका नहीं करना, इसी में श्रेय है ॥ शाक, फूल और पत्तों में अनंतानंत सम्मूर्च्छन जीव विचरते रहते हैं, अत: इनका सेवन कभी भी नहीं करना चाहिये । चूंकि इनके क्रय विक्रय में भी वही दोष लगता है, अतः सम्यग्दृष्टि को उचित है कि वह इन वस्तुओं का व्यापार भी नहीं करे ।
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“सम्यक् आधार....
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[१३९
कंद वीज जथा नेयं, संमूर्छनं विदलस्तथा । व्यापारे न च भुक्तं च, मूल गुनं प्रति पालये ॥२३४॥ जो कंद हैं, जो बीज हैं, या जो विदल हैं विज्ञजन । ' जिनके कि कण कण में विचरते. नित्यप्रति सम्मृर्छन । जो अष्ट गुण को चाहता, करता हृदय का हार है । इनका कभी करता न वह, व्यापार या व्यवहार है।
भूमि के अन्दर उत्पन्न होने वाले कंद, बीज, द्विदल, विदल ये सब सम्मूर्छन जीवों के घर हा करते हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष को न तो इन्हें खाना चाहिये और न इनका व्यापार ही करना चाहिये। सम्मूच्छंनों के इन निवास स्थल पदार्थों को जो अभक्ष्य कहकर छोड़ देता है, वही अष्टमूल गुणों का अतिचार रहित पालन करता है।
शुद्धात्मा का मनन और पाखंडियों में अश्रद्धा
दर्सनं न्यान चारित्रं, साधं सुद्धात्मा गुनं । तत्व नित्य प्रकासेन, साधं न्यान मयं धुवं ॥२३५॥
शुद्धात्मा में तीन निधि, करतीं सदेव प्रकाश हैं । जिनमें अनन्तानन्त गुण, देते सतत आभास हैं। इन आत्मनिधियों की अरे, जो साधना करते सदा ।
उनके लिये प्रस्तुत बनी, रहती है शिव-सुख-सम्पदा ।। शुद्धात्मा में तीन निधियों का तीनों काल एक साथ प्रकाश होता रहता है। इन निधियों में अनंत गुणों की राशियें जगमगाया करती हैं, जिनमें से शुद्धात्म तत्व का छन छन कर प्रकाश होता रहता है। इस ज्ञान गुण के धारी आत्मा की जो पुरुष सदा ही अर्चना किया करता है, वह ज्ञान का पुज बनकर, एक दिन नियम से मोक्ष नगर का वासी बनता है।
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सम्यक् आचार.
दर्सन तत्व सार्धं च, ति अर्थ सुद्ध दिस्टतं । मय मूर्ति संपूरनं, स्वात्मदर्सन चिंतन ॥२३६॥ सम्यक्त्व क्या ? तत्वार्थ का रे ! दृढ़, अचल श्रद्धान है । संसार सागर तारने को, जो जहाज समान है ।। जो ज्ञान की प्रतिमूर्ति हैं, जो पूर्ण अपने आप हैं । करते हैं वे बस स्वात्म-दर्शन, स्वात्म का ही जाप हैं ।
सम्यग्दर्शन क्या है ? तत्वार्थ के श्रद्धान का नाम हो सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन, यदि शुद्ध दृष्टि से देखा जाय, तो संसार के प्राणियों को तारने के लिये जहाज के समान होता है। जो पुरुष ज्ञान की प्रतिमूर्ति होते हैं, या जो अपने आप संपूर्ण होते हैं, वे इस सम्यग्दर्शन का ही चिन्तवन करते हैं या वे अपनी शुद्धात्मा का ही ध्यान धरते हैं।
दर्मनं मप्त तत्वानं, द्रव्य काय पदार्थकं । जीव द्रव्यं च मुद्ध च, ना उद्धं दरमा ॥२३७॥
पट द्रव्य. सातों तत्व का. करता जो कि श्रद्धान है । व्यवहार सम्यग्दृष्टि कहलाता, वह नर मतिमान है। जिस जीव के श्रद्धान का, बस लक्ष्य आतमराम है । द्रव्यार्थिक नय दृष्टि से वह जीव समकित-धाम है ।।
जो पुरुप सातों तत्व, छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय और नौ पदार्थों का श्रद्धान करता है, वह व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन का पालन करता है और जो पुरुष शुद्ध जीव द्रव्य का श्रद्धान करता है वह द्रव्यार्थिक नय से सम्यग्दर्शन का साधन करता है ।
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सम्यक् आचार .................. [१३.१
दर्मनं अर्ध ऊर्ध्वं च, मध्य लोकं च दिस्टते । षट् कमलं ति अर्थ च, जोइय संमिक दर्सनं ॥२३८॥ रे ! ऊर्ध्व, मध्य व अर्ध, ये जो तीन विस्तृत लोक हैं । सम्यक्त्व में दिखते सतत, उनके वृहत् आलोक हैं । सम्यक्त्व का होता हृदय में. जिस समय पूर्णत्व है ।
षट कमल मय दिखता है तब, जयरत्न-पूरित तत्व है । सम्यक्त्व के प्रभाव से, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक, ये तीनों स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं । जिस समय मनुष्य के अंतस्तल में सम्यक्त्व पूर्ण रीति से रमण करता है, उस समय ऐसा मालूम पड़ता है, मानो, षट कमल और सर्वांग में सम्यक्त्व की धारा बह रही है।
दरमन अत्र उत्पादंते, तत्र मिथ्या न दिस्टते । कुन्यानं मलस्चैव, तिक्तंति योगी समाचरेत् ॥२३९॥ सम्यक्त्व-रवि का जिस जगह, होता प्रचण्ड प्रकाश है । मिथ्यात्व रूपी तिमिर करता, उस जगह न निवास है ।। जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि के नित, पालता आचार है ।
कुज्ञान तज करता है वह, सत्दृष्टि मय व्यवहार है। .. जहाँ सम्यग्दर्शन का पुण्य प्रादुर्भाव हो जाता है, वहाँ फिर मिथ्यात्व की छाया भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। जो पुरुष इस निर्मल सम्यग्दर्शन की आराधना करता है, वह कुज्ञान छोड़कर, सर्वत्र ज्ञानमय आचरण ही किया करता है ।
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१३२] ....................... - सम्यक् माचार
मल विमुक्त मूढादि, पंच विसति न दिस्टते । आसा अस्नेह लोभ च, गारव त्रि विमुक्तयं ।।२४०॥ त्रय मूढतादिक मलों से, जो पुरुष पूर्ण विहीन हैं । उनमें नहीं दिखते कभी, पचीस दोष मलीन हैं ।। आशा, सनेह व लोम, उनके सभिकट आते नहीं ।
जो तीन कटु गारव हैं, उनसे दुःख वे पाते नहीं। जो पुरुष तीन मूढ़ता आदिक दोषों से विमुक्त हैं, उनमें पच्चीस दोष कभी भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। आशा, स्नेह, लोभ व तीन गारव, उस मल से रहित सम्यग्दृष्टि के पास फटकने भी नहीं पाते हैं।
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दर्मनं सुद्ध द्रव्याथ, लोक मूढ न दिस्टते । जस्य लोकं च सार्धं च, तिक्तते सुद्ध दिस्टतं ॥२४१॥ तत्वार्थ का श्रद्धान ही रे ! शुद्ध, शुचि सम्यक्त्व है । इसमें नहीं दिखता कहीं, संसार का मूढत्व है ।। जो जीव लोक विमूढ़ता को, रे ! झुकाता माथ है ।
सम्यक्त्व निधि रहती नहीं, फिर भूल उसके साथ है। शुद्धात्म तत्व में दृढ़ प्रतीति करना, इसी का नाम सम्यग्दर्शन है। जिस मनुष्य के पास सम्यग्दर्शन-निधि रहती है, उसके सन्निकट लोकमूढ़ता कभी पाने का साहस ही नहीं करती है। जो पुरुष लोकमूढ़ता के शिकार में फंस जाता है वह निश्चय ही इस मणि से हाथ धो बैठता है अर्थान लोक को प्रसन्न रखनेवाला, आत्मा का पुजारी किसी अवस्था में नहीं हो सकता।
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सम्यक् आचार
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.....[१३३
देव मूढं च प्रोक्तंच, क्रीयते जेन मूढ ये । दुरबुद्धि उत्पादते जीवा, तावत् दिस्टि न सुद्धये ॥२४२॥ जो लौकिकेच्छा के लिये, जाते कुदेवों की शरण । वे जीव देव विमूढ़ता के, कूप में देते चरण । जब तक अरे ! यह मूदता, लाती कुबुद्धि कराल है।
तब तक नहीं जगती हृदय में शुद्धदृष्टि विशाल है। जो पुरुष राग द्वेष से सने हुए देवताओं के समीप जाकर, अपनी लौकिकेच्छा की पूर्ति के लिये प्रार्थना करता है, वह देवमूढ़ता की शरण लेता है, ऐसा कहा गया है। जब तक मनुष्य के हृदय में यह देवमूढ़ता रूपी इंधन सुलगा करता है, तब तक उसमें शुद्धदृष्टि का प्रादुर्भाव किसी भी प्रकार नहीं हो पाता है।
अदेवं देव उक्तं च, मूढ़ दिस्टि प्रकीर्तितं । अचेतं असास्वतं येन, तिक्तति सुद्ध दिस्टितं ॥२४३॥ जड़ वस्तु की आराधना क्या ? रे निरा मृढत्व है । अगणित मलों की भीत पर, जिसका बना अस्तित्व है। जिसके हृदय सम्यक्त्व रूपी, सलिलजा के कूल हैं।
अर्पित न करते वे अदेवों को, हृदय के फूल हैं । देवत्व से रहित अदेवों की आराधना करना मूढदृष्टिता कहलाती है। जो पुरुष शुद्धदृष्टि होते हैं या जिनका आत्मा में दृढ़ श्रद्धान रहता है वे कभी भूलकर भी, ऐसे अचेत, अशाश्वत और जड़ देव को अपना शीश नहीं झुकाते ।
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१३४] ......
.................... सम्पक आचार
पार्षडी मूढ़ जानते, पार्षडं विभ्रम जे रता । परपंचं पुद्गलार्थ च, पाषंड मूढ न संसय ॥२४४॥ जिसको न आत्मज्ञान है, जो हैं निरे बहुरूपिये । लौकिक प्रपंचों, विभ्रमों से, पूर्ण हैं जिनके हिये ॥ जो पुरुष रखते इन, कुगुरुओं में अरे श्रद्धान हैं । गुरुमूढ़ता के कूप में वे कूदते अज्ञान हैं।
जो दिनरात पाखंड में ही चूर रहा करते हैं तथा आत्मा को विस्मृत बनाकर पुद्गल की सेवा करना ही जिन्होंने अपना धर्म बना लिया है, ऐसे पाखण्डी गुरुओं की जो आराधना करते हैं, वे मूढ़ पाखण्ड मूढ़ता के काठ में अपना पैर फंसाते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है।
अनृतं अचेत उत्पादं, मिथ्या माया लोक रंजनं । पार्षडि मूढ विस्वास, नरयं पतंति ते नरा ॥२४५॥ जो नित्यप्रति मिथ्यात्व का, करते सृजन संसार हैं । जो लोकरंजन और मायाचारिता के द्वार हैं । ऐसे कुगुरुओं में जो करते. भूल भी विश्वास हैं । वे नर नियम से नर्क में, करते निरन्तर वास हैं।
जो नित्यप्रति मिथ्या बातों से सने हुए वाक्यों को जन साधारण में फैलाया करते हैं; लोकमूढ़ता और मायाचारिता के जो द्वार ही हैं, ऐसे खोटे गुरुओं में जो पुरुष विश्वास करते हैं, वे बिना किसी संशय के नर्क के पात्र बनते हैं ।
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सम्यक् आचार
पार्षडिं वचन विस्वास, समय मिथ्या प्रकासये। जिनद्रोही दुरबुद्धि जेन, अस्थानं तस्य न जायते ॥२४६॥
पाखंडियों के वचन पर, करते जो नर विश्वास हैं । वे पुरुष करते रे ! कुशास्त्रों का, यथार्थ प्रकाश हैं । सर्वज्ञ से विद्रोह करना, मात्र जिनका ध्येय है । ऐसे कुगुरु के वास तक को, लांघना भी हेय है।
जो पुरुष पाखण्डियों के वचनों पर विश्वास किया करता है वह कुशास्त्रों को प्रकाश में लाने का अपराधी भी बनता है, क्योंकि जिन बातों का प्रभाव उसके हृदय पर पड़ता है उन बातों को वह जनता में भी अवश्य फैलाता है। वास्तविक बात तो यह है कि वीतराग प्रभु के मार्ग का जो उलंघन करता है, उसके निवास के दर्शन भी नहीं करना चाहिये।
पाखंडि कुमति अन्यानी, कुलिंगी जिन उक्त लोपनं । जिन लिंगी मिश्रेनं जस्य, जिनद्रोही न्यान लोपनं ॥२४७॥ जो हैं परिग्रह से सने, जिनके कुलिंगी वेश हैं । सर्वज्ञ के प्रतिकूल वे, देते अरे ! उपदेश हैं। यह ही नहीं, जिनवेप धर कुछ, साधुओं की टोलियां । ऐसी भी हैं. जो जिनवचन की खेलती हैं होलियां ॥
जो परिग्रहों के समूह से व्याप्त रहते हैं, तथा निम्रन्थ छोड़कर जिनकं दुसरं दूसरे वेप रहते हैं, एसे साधु, वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी प्रभु के बताये हुए मार्ग के प्रतिकूल लोगों को उपदेश दिया करते हैं । कुलिंगी साधु ही नहीं, प्रत्यक्ष में कुछ ऐसे जैन निम्रन्थ साधु भी हैं, जिन्होंकी टोलियां, जिन वचनों का उलंघन करती फिरती है और जनता को मनमान बनिर्माणित उपदेश देती रहती हैं।
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१३६]
...................... सम्यक् आचार
पाषंडी उक्त मिथ्यात, वचन विस्वास न क्रीयते । तिक्तंते सुद्ध दिस्टी च, दरसनं मल विमुक्तये ॥२४॥ पाखण्डियों के वचन पर, करते जो नर श्रद्धान हैं । दिखता है उसके हृदस्तल में, बस निरा कुज्ञान है ॥ जो शुद्ध निर्मल कुंद सी, समकित सलिल की धार है । करती न फिर उस हृदय में, कलकल निनाद गुंजार है।
जो पुरुष पाखंडी साधुओं के वचनों पर विश्वास करता है; उनकी पूजा करता है, उसके हृदय में फिर कुज्ञान का ही वास हो जाता है । जग को तारने वाली समकित सुधा की जो धार होती है, वह फिर उन अज्ञानियों के हृदय में कलकल नाद नहीं करती।
मद अझं मान संबंध, कषायं दोष विमुक्तयं । दरसनं मल न दिस्टते, सुद्ध दिस्टि समाचरतु ॥२४९॥ जो अष्टमद के दोष से रे ! सर्वथा ही हीन हो । शंकादि मल की कालिमा से, जो न नेक मलीन हो ॥ जिसमें किसी भी भांति से. कोई कलंक किहेय हो ।
उस शुद्ध दर्शन का ही,प्रतिपालन जगत का ध्येय हो । जो अष्ट मद के दोपों से सर्वथा रहित हो; शंकादिक मलों को जिसमें छाया भी न पड़ती हो तथा दृमरे किसी भी प्रकार के दोषों का जिसमें समावेश न हो, एस सम्यक्त्व का पालन करने में ही इस जगन का सर्वप्रकार हिन सुरक्षित है ।
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सम्यक आचार
ज्ञान और आचरण का अभ्यास
न्यानं तत्वानि वेदते सुद्ध तत्व प्रकासकं । सुद्धात्मा तिर्थं सुद्धं न्यानं न्यान प्रयोजनं ॥ २५० ॥
जो सप्त तत्वों का रसास्वादन कराता हो सदा । जो आगमों से ढूंढकर देता हो नित नव सम्पदा || जो यह बताता हो कि रे, तू ही स्वयं जल-यान है । जो ज्ञान में तल्लीन है, भव्यो ! वही बस ज्ञान है ॥
सप्त तत्व क्या हैं; उनका स्वरूप क्या है, जो इसको प्रकाश में लाये; शास्त्रों में व आगमों में कहां कौनसी निधि छिपी हुई है, जो इसका दिग्दर्शन कराये; शुद्धात्मा ही तोर्थ है, मनुष्यों के हृदय पर जो इस बात की छाप लगाये तथा जो नित्यप्रति ज्ञान सम्बन्धी विषयों में ही रमण करे, वही ज्ञान या सम्यग्ज्ञान कहलाता है ।
न्यानेन न्यानमालंबे, पंच दीप्ति प्रस्थितं । उत्पन्नं केवलं न्यानं, सुद्धं सुद्ध दिस्टितं ॥ २५९ ॥
[१३७
यदि ज्ञान है तो, आत्मिक सद्ज्ञान ही वह ज्ञान है । जो दीप्त हो उठता हृदय में स्वयं अग्नि समान है || इस ज्ञान से होता सृजन, उस ज्ञान का संसार है । जो पंच ज्ञानों में प्रमुख है, मोक्ष का जो द्वार है ॥
यदि हृदय में सम्यग्ज्ञान विद्यमान है, तो आत्मज्ञान को अपना प्रकाश फैलाते देर नहीं लगती र्थात् सम्यग्ज्ञान हो जाने पर श्रात्मज्ञान स्वयं उत्पन्न हो जाता है । श्रात्मज्ञान से, मनुष्य उस केवलज्ञान तक को प्राप्त कर लेता है, जो पंच ज्ञानों में प्रमुख और शाश्वत सुखों के घर मोक्ष का प्रधान कारण होता है।
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१३८]
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सम्यक् आचार
न्यान लोचन भव्यम्य, जिन उक्तं माधु धुवं । मुयं एतानि विन्यानं, मुद्ध दिस्टि ममाचरेत् ॥२५२॥ जो भव्य हैं, होते हैं उनके ज्ञान के ही नेत्र हैं । उस ज्ञान से ही देखते वे, ज्ञानमय सब क्षेत्र हैं । सम्यक्त्व ही होता है जिनका, मूलभृताधार है । बसता है उनके ज्ञान पर, विज्ञान का संसार है ॥
जो भव्य पुरुष होत है, उनके नेत्र ज्ञान से परिपूर्ण रहा करते हैं। संसार की सारी वस्तुओं को वे ज्ञान रूपी नेत्रों से ही देग्वा करते हैं, यह सर्वज्ञ देव का वचन है। जो सम्यग्दृष्टि पुरुष होते हैं, वे हमेशा अपना श्रुतज्ञान वृद्धिंगत बनाया करते हैं और इस तरह तत्वों में उत्तरोत्तर विशेष ज्ञान पैदा किया करते हैं।
आचरनं अस्थिरीभूतं, मुद्ध तत्व तिअर्थकं । उर्वकारं च विंदते, तिस्टते मास्वतं पदं ॥२५३॥ जो तीन रत्नों से भरा, शुद्धात्म तत्व महान है । आरूढ़ हो उसमें जो करता, ओम् का गुणगान है । वह जीव सम्यक् आचरण में, मली विधि से लीन है ।
वह उस परम पद में विचरता, जो कि नित्य नवीन है। शुद्धात्म तत्व रत्नत्रय का निधान है। इस शुद्धात्म तत्व में ध्यानस्थ होकर, जो ओम् महामंत्र का चिन्तवन करता है, वही पुरुष पाचरणवान है; वही पुरुष सम्यक्चारित्र का आचरण करता है और वही पुरुष मोक्षमार्ग में स्थित है।
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सम्यक् आचार
[१३९
आचरनं द्विविधं प्रोक्तं, समिक्तं संयम धुवं । प्रथमं संमिक्त चरनस्य, अथिरीभूतस्य संजमं ॥२५४॥
चारित्र के त्रय भेद हैं, कहते हैं जिन तारण तरण । है प्रथम दर्शन और विज्ञो, द्वितिय संयम आचरण ॥ जो प्रथमतम आचार है, वह एक श्रद्धास्तूप है । आचार का उसमें नहीं, मिलता सबलतम रूप है।
आचरण के तीन भेद होते हैं (१) सम्यक्त आचरण (२) संयम आचरण (३) ध्रुव शुद्धात्म आचरण । प्रथम आचरण में मात्र श्रद्धा विशेष होकर संयम में अस्थिरता रहती है, जबकि द्वितीय संयमा. चरण में, वाह्य में षट्कायिक जीवों की रक्षा व अन्तर में आत्म विमलतारूप पूर्णपने संयमभाव रहता है। ये दोनो कारण उस तृतीय शाश्वत आचरण में स्थिरता कराने वाले हो जाते हैं।
चारित्रं संजमं चरनं, सुद्ध तत्व निरीष्यन । आचरनं अबंध्यं दिलं. माधं सुद्ध दिस्टितं ॥२५५॥
जो शुद्ध संयम आचरण, वह स्वानुभव का सार है । होता है उसमें तत्व-रूपण, प्रतिनिमिष प्रतिवार है ॥ श्रद्धान ही होता है रे! इस निझरी का कूल है ।
बहता है जिसमें आचरण-जल, नित्यप्रति सुखमूल है । यह संयमाचरण शुद्धात्म तत्व का अनुभव करानेवाला होता है । सम्यक्त्व इस जलाशय का किनारा होता है और पाचरण उसका जल ।
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१४.]
सम्यक् आचार मत्पात्रों को विवेकपूर्ण दान
पात्रों के भंद
पात्रं त्रिविधि जाने. दानं नम्य मुभावना । जिन रूपी उत्कृष्टं च, अत्रतं जघन्यं भवेन ॥२५६॥ विज्ञो ! सुनो यह कह रहे. सर्वज्ञभाषित शास्त्र हैं । वसुधातली में दान के रे ! तीन उत्तम पात्र हैं। निर्ग्रन्थ गुरु उत्कृष्ट, मध्यम शुद्ध दृष्टि निधान हैं । निकृष्ट वे जो व्रत रहित हैं. किन्तु समकितवान हैं ।
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dhe
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जिनको दान दिया जाता है, दान के वे पात्र तीन प्रकार के होते हैं। जितेन्द्रिय भगवान के साक्षात् स्वरूप निग्रन्थ गुरु उत्कृष्ट पात्र और व्रत रहित सम्यग्दृष्टी जघन्य पात्र होते हैं। मध्यम पात्र वे सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, जो प्रगाढ़ श्रद्धान के साथ साथ नियम से व्रतों की माधना भी किया करते हैं।
उत्तम पात्र निग्रन्थ साधु उत्तमं जिन रूर्व च, जिन उक्तं ममाचरेत् । तिअर्थ जोयते जेन, उर्ध अर्धं च मध्यमं ॥२५७॥ जिनका हृदय त्रय रत्नपुंजों का, अगाध निधान है । तीनों भुवन करता प्रकाशित. सतत जिनका ज्ञान है ॥ जिनके चरित्राधार, श्री सर्वज्ञ भाषित शास्त्र हैं ।
वे ही दिगम्बर साधु भन्यो, सुनो उत्तम पात्र हैं। जिनका हृदय रत्नत्रय से परिपूर्ण होता है; जो अपने ज्ञान से ऊर्ध्वलोक, अधोलोक व मध्यलोक सम्यक् विधि से जानते हैं तथा जो इन्द्रियों के नाथ, अष्टकमों को चूर्ण करने वाले वीतराग भगवान की आज्ञा के अनुसार चलते हैं, वही निग्रन्थ परिग्रहों से शून्य साधु, दान के उत्तम पात्र गिने जाते हैं।
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सम्यक आचार
[१४१
पट् कमलं त्रि उकार, ध्यानं ध्यायन्ति मदा बुधै । पंच दीप्तं च विदंत, स्वात्म दरसन दरमनं ॥२५८॥ करते दिगम्बर साधु नितप्रति, स्वात्म का ही ध्यान हैं । इस ध्यान से वे प्राप्त करते, पंचज्ञान महान हैं । होते हैं वे इस भांति से रे, ओम ओतप्रोत हैं । पट कमल लगते हैं उन्हें, ओंकार के ही श्रोत हैं॥
जो ज्ञानवान दिगम्बर साधु होते हैं, वे सदा आत्मा का ही ध्यान किया करते हैं और इसी के द्वारा पंचज्ञानों को वे प्रत्यक्ष अनुभव में ले जाते हैं। आत्मा का ध्यान करते करते उनकी आत्मानुभूति इतनी बढ़ जाती है कि उनको अपने शरीर में स्थित छहों कमल ओम से ओतप्रोत जान पड़ने लगते हैं, अर्थात वे स्वयं का ओम् से श्रोतप्रोत समझने लग जाते हैं।
अवधं जेन मंपूरनं, ऋजु विपुर्व च दिस्टते। मनपर्जय केवलं न्यानं, जिन रूबी उत्तम बुधै ॥२५९॥ जो पूर्ण विधि से हो चुके रे ! अवधिज्ञान निधान हैं । ऋजु, विपुल जिनके हृदय में, देते झलक असमान हैं। जो मनःपर्यय और केवलज्ञान के आधार हैं । वे ही दिगम्बर साधु, उत्तम पात्र जिन उनहार हैं।
जो अवधिज्ञान को प्राप्त कर चुके हैं। दोनो प्रकार के ऋजुमति व विपुलमति मनःपयय ज्ञान का भी जिनके हृदय में श्राभास हुआ करता है तथा केवलज्ञान की प्राप्ति में जिनका सतत अभ्यास चालू है, वही जिनेन्द्र भगवान के साक्षान स्वरूप निम्रन्थ गुरु दान के उत्तम पात्र समझे जाते हैं।
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१५२]
सम्यक् आचार
मध्यम पात्र व्रती सम्यग्दृष्टि उत्कृष्टं श्रावकं जेन, मध्य पात्रं च उच्यते । मति स्रुत न्यान संपूरनं, अबधं भावना कृतं ॥२६०॥ जो पूर्ण सम्यग्दृष्टि हैं. व्रत, तप, क्रिया आगार हैं । मति और श्रुत की बह रहीं, जिनमें विमलतम धार हैं । जो अवधि पाने की सतत, करते हैं शुभ शुचि कामना ।
मध्यम सुपात्र वही हैं, सम्यग्दृष्टि जीव महामना । जो उत्कृष्ट सद्गृहस्थ या श्रावक होते हैं, वे दान के मध्यम पात्र कहे जाते हैं। ये श्रावक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से पूर्ण होते हैं तथा अवधिज्ञान पाने की भावना इनमें प्रतिपल जाग्रत रहा करती है।
अन्या वेदक समिक्तं, उपसमं सार्धं धुवं । पदवी द्वितीय आचार्य च, मध्य पात्र सदा बुधै ॥२६१॥ जो आज्ञा वेदक व उपशम, धौव्य समकितवान हैं । सम्यक्त्व से जिनके हृदय, दैदीप्य सूर्य समान हैं। जो पुरुष करते. द्वितिय पदवी का, भली विधि आचरण । वे सुजन मध्यम पात्र हैं, कहते हैं विभु तारण तरण ।।
जो आज्ञा, वेदक, उपशम व ध्रुव या क्षायिक सम्यक्त्व को धारण करते हैं व द्वितीय पदवी के अनुसार आचरण करते हैं, वही सद्गृहस्थ जीव या व्रतधारी सम्यग्दृष्टि दान के मध्यम पात्र गिने जाते हैं।
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सम्यक् आचार
[१४३
उवंकारं च बेदन्ते, हींकारं स्रुत उच्यते । अचष्यु दरमन जोयंते, मध्य पात्र मदा बुधै ॥२६२॥ जो ओम् का ही नित्यप्रति, करते अलौकिक ध्यान हैं । जो ही-श्रुत के ही सतत, गाते मनोहर गान हैं। करते हैं नित्य अचक्षु से जो, आन्म का दर्शन मनन ।
वे जीव मध्यम पात्र हैं, कहते हैं श्री अशरण शरण ।। श्रोम् ही जिनकी आराधना का मूलमन्त्र है; ह्रींकार रूपी श्रुत के ही मदा जो गान गाते हैं तथा आत्मा ही के सदा जो अचक्षु दर्शन करते हैं, वही सद्गृहस्थ व्रती सम्यग्दृष्टि श्रावक दान के मध्यम पात्र कहलाते हैं।
प्रतिमा एकादमं जेन, व्रत पंच अनोवतं । माधं सुद्ध तत्वार्थ, धर्म ध्यानं च ध्यायते ॥२६३॥
जो पुरुष ग्यारह स्थान का, करते सतत अभ्यास हैं । पंचाणुव्रत के जो अलौकिक, मव्य पूर्ण निवास है। जो नित्यप्रति धरते सहज ही, धर्म का शुचि ध्यान है ।
वे ही हैं मध्यम पात्र, जो सम्यक्त्व-रत्न निधान है। जो ग्यारह प्रतिमाओं ( स्थानों ) का उत्तरोत्तर अभ्यास करते हैं; पाँच अणुव्रतों को पालते हैं; शुद्धात्मा का ध्यान धरते हैं व धर्मध्यान में निरन्तर लीन रहते हैं, वही व्रती सम्यग्दृष्टि जीव दान के मध्यम पात्र कहे जाते हैं।
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१४४]
सम्यक् आचार
जघन्य पात्र अत्रन सम्यग्दृष्टि अव्रतं त्रितिय पात्रं च, देव मास्त्र गुरु मानते । मदहति मुद्ध मंमिक्तं, मार्थ न्यान मयं धुवं ॥२६४॥
जो देव शास्त्र व साधु में, रखता अमिट श्रद्धान है। जो आत्म को ही मानता, तारण तरण जल-यान है। होती सदा जिसके हृदय में, शुद्ध समकित-वृष्टि है । अन्तिम जघन्य कि पात्र वह ही, अव्रत सम्यग्दृष्टि है ।
to sho sho
अवती सम्यग्दृष्टि दान का तृतीय पात्र गिना गया है। यह जघन्य पात्र कहलाता है। देव, शास्त्र व गुरु में इसकी अमिट श्रद्धा होती है; शुद्ध सम्यक्त्व का यह सम्यक् विधि से पालन करने वाला होता है तथा आत्मा को ही, यह संसार सागर से पार उतारने वाला एक मात्र जहाज समझता है।
सुद्ध दिस्टि च संपूरनं, मल मुक्तं सुद्ध भावना मति कमलासने कंठे, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं ॥२६५॥ जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है, सम्यक्त्व का जो कोष है । जिसमें नहीं अतिचार-दल, जिसमें न कोई दोष है ॥ कुज्ञान से जो हीन है, मतिज्ञान की जो सृष्टि है ।
अन्तिम जघन्य कि पात्र वह ही, अव्रत सम्यग्दृष्टि है ।। __ जो पूर्णतम शुद्ध दृष्टि है, अर्थात् सम्यक्त्व की भावना से जो श्रोतप्रोत है; सम्यक्त्व में लगने वाले दूषण जिसे छू भी नहीं गये हैं; कठस्थित कमल पर ॐ का ध्यान करने से जिसका मतिज्ञान अत्यंत ही प्रखर हो गया है और तीनों प्रकार के कुज्ञान से जो सर्वथा मुक्त है, वही अत्रत सम्यग्दृष्टि सद्गृहस्थ दान का जघन्य पात्र कहलाता है।
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सम्यक् आचार
मिथ्या त्रिविधि न दिस्टंते, सत्यं त्रय निरोधनं । सुधं च सुद्ध द्रव्यार्थ अविरत संमिक दिस्टतं ॥ २६६ ॥
जिसमें त्रिविधमिध्यात्व की, बहतीं न कुत्सित धार हैं । देतीं न जिसको त्रास. शल्य - समूह अपरम्पार हैं || द्रव्यार्थिक नय और सुश्रुत ज्ञान का जो पुंज है ।
वह ही तृतीय सुपात्र, अवत - शुद्धदृष्टि-- निकुंज है ॥
जिसमें तीन प्रकार का मिध्यात्व अंशमात्र भी नहीं पाया जाता है; तीनों शल्यों के लिये जिसके हृदय के कपाट बिलकुल बन्द हैं: शुद्ध निश्चयनय को जो सम्यक् विधि समझता है और श्रुतज्ञान का जो भण्डार है, वही ती सम्यग्दृष्टि दान का जघन्य पात्र समझा गया है ।
पात्र दान का फल
त्रिविध पात्रं च दानं च, भावना चिंतते बुधै । सुद्ध दिस्टि रतो जीवा, अट्ठावन लक्ष्य तिक्तयं ॥ २६७॥
[ १४५
जो पुरुष रहते, दान की सद्भावना में लीन हैं । होते हैं जो सम्यक्त्वधारी, सर्वदोष-विहीन हैं | षट्विंश लक्ष सुयोनि में ही, वे पुरुष करते गमन । जो हैं अठावन लाख गति, उनमें न वे करते भ्रमण ॥
जो पुरुष उत्तम, मध्यम या जघन्य इन पात्रों को दान देने की भावना किया करते हैं, वे शुद्ध दृष्टि जीव, केवल २६ लाख योनियों में ही जन्म धारण करते हैं, ५८ लाख निम्न योनियों में कभी भ्रमण नहीं करते ।
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१४६]
सम्यक आचार
नीच इतर अप तेजं च, वायु पृथ्वि वनस्पती । विकलत्रयस्य योनी च, अडावन लक्ष्य तिक्तयं ॥ २६८ ॥
सम्यक्त्व धारी नित्य' 'इतर' निगोद में जाते नहीं । अप, तेज, वायु, धरा, वनस्पति काय वे पाते नहीं ॥ विकलत्रयों की योनि में भी, वे न करते वास हैं । देतीं अठावन लाख गति, इसविधि न उनको त्रास हैं |
५८ लाख योनियाँ कौनसी ? नित्य निगोद, इतर निगोद, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, पृथ्वीकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वेन्द्रिय, तेंन्द्रिय, और चौन्द्रिय योनियां । ये योनियाँ अपने भेदों सहित ५८ लाख की संख्या में होती हैं। तीन तरह के पात्रों को दान देने वाला, इन योनियों को कदापि धारण नहीं करता ।
सुद्ध सक्ति संजुक्तं, सुद्ध तत्व प्रकासकं । ते नरा दुःष हीनस्य, पात्र दान रतो सदा ॥ २६९॥
सम्यक्त्व से जगमग अरे ! जिनके हृदय के वास हैं । जो नित्यप्रति प्रतिनिमिष करते, शुद्ध तत्व प्रकाश हैं || जो दान देने में सदा रहते भली विधि लीन हैं । वे जीव होजाते सकल, मानव - दुखों
से
हीन हैं ॥
जो शुद्ध सम्यक्त्व के धारी हैं; शुद्धात्म तत्व का प्रकाश करने वाले हैं और निरन्तर जो दान देने में तल्लीन रहा करते हैं, ऐसे पुरुष श्रेष्ठ मानव योनि में जो दुःख उठाना पड़ते हैं, उनसे बिलकुल छूट जाते हैं; उन्हें मानवयोनि में फिर दुःख का अनुभव नहीं करना पड़ता ।
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सम्यक् आचार ................. [१४७
पात्र दानं च चत्वारि, न्यान आहार भेषजं । अभयं च भयं नास्ति, दान पात्र सदा बुधै ॥२७०॥ यह दान कर देता है, मानव के भयों का नाश है । करती है विद्वत् राशि इससे. दान में विश्वास है ।। है ज्ञानदान प्रथम, द्वितिय आहारदान महान है । औषध तृतीय सुदान, चौथा दान अभय सुजान है।
पात्रों को जो दान दिया जाता है वह चार प्रकार का होता है (१) ज्ञानदान (२) आहारदान (३) औषधिदान (४) अभयदान | ये दान मनुष्यों को भय से रहित बना देते हैं, अत: जो विद्वान होते हैं, वे सदा ही दान देने की भावना किया करते हैं ।
न्यान दानं च न्यानं च, आहार दान आहार यं । अवाधं भेषजस्चैव, अभयं अभय दान यं ॥२७१॥ रे ! ज्ञानदान प्रदान करता, ज्ञानियों को ज्ञान है । आहार से आहारमय, रहता सदैव निधान है। भैषज्यदानी नर न रहता, हीन, क्षीण, मलीन है ।
रहता अभयदानी सदा ही. रे ! भयों से हीन है ॥ ज्ञानदान देने से उस भव में अनतज्ञान की प्रगति होती है; आहारदान देने से भवन अन्न और खाद्यपदाथ से परिपूर्ण रहता है; औषधिदान देने से तन निरोग और स्वस्थ बना रहता है तथा अभयदान देने से दानी के समस्त प्रकार के भय निमूल हो जाते हैं। इतना ही नहीं, परभव में निर्भय योनियों को प्राप्त करता है।
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१५८] ..................
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सम्यक आचार
पात्र दानं च सुधं च, कर्म विपति सदा बुधै । जे नरा दान चिंतते, अविरत संमिक दिम्टतं ॥२७२॥ विज्ञो ! सुनो जो पुरुष देते, पात्रदान महान हैं । उनके सभी अघ टूट जाते, लौह-बंध समान हैं। जिसके हृदय में दान की, सद्भावनामय सृष्टि है। वह पुण्यवान सुजान ही रे ! अव्रत सम्यग्दृष्टि है।
पात्र दान से प्रात्मा के साथ बंधे हुए कर्म एकदम क्षय हो जाते हैं। जो मनुष्य इस पात्र दान के चिन्तवन में लीन रहते हैं, वास्तव में वे ही पुरुष अत्रत सम्यग्दृष्टी कहलाने के योग्य हुआ करते हैं।
पात्र दानं बट बीज, धरनी वृद्धति जेतवा । न्यान वृद्धति दानस्व, दालं चिंता सदा बुधै ॥२७३॥
यह पात्र दान सुनो सुमति. वट वीज का उपमान है। जो क्षोणि में जाकर निकलता, बन विटप असमान है। यह दान वृद्धिंगत बनाता, ज्ञान का आगार है ।
बहती है बुधजन के हृदय में, नित्यप्रति यह धार है। पात्रों को दिया हुआ दान ठीक वट बीज के सदृश हुआ करता है । जिस तरह वट का बीज देखनेमें तो छोटा होता है, किन्तु भूमिमें बोये जाने के पश्चात जिस तरह वह एक विशाल वट वृक्ष के रूपमें बाहर निकलता है, उसी तरह पात्र दान देखने में तो कुछ नहीं मालूम पड़ता, किन्तु दिये जाने के पश्चात् वह भी वट वृक्ष की नाईं ज्ञान का विशाल रूप धरकर,फलता-फूलता और पथिकों को अपनी शीतल छायामें आश्रय देता है। अत: जो बुद्धिमान पुरुष होते हैं, वे हमेशा ही पात्रों को दान देने का चिन्तवन किया करते हैं।
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सम्यक आचार
[१४९
पात्र दान मोष्य मार्गस्य, कुपात्रं दुरगति कारनं । विचारनं भव्य जीवानं, पात्र दान रतो सदा ॥२७४॥
सत्पात्रदल को दान देना, मोक्ष का आधार है । दुष्पात्र दल को दान देना, अरे ! दुर्गति द्वार है ।। इसलिये भव्यों को सदा, यह ध्यान देना चाहिये ।
सत्पात्र जो हो बस उन्हीं को, दान देना चाहिये । जहां सत्पात्रों को दान देना मोक्ष का कारण है, वहां हो कुपात्रों को दान देना दुर्गति का कारण हुआ करता है। अत: विवेको पुरुषों को चाहिये कि दान देने के पहिले वे देख लें कि जिस पुरुष को वे दान दे रहे हैं, वह पात्रों की तीन कोटियों में से किसी कोटि का पात्र है अथवा नहीं। यदि वह पात्र कुपात्र ठहरता है तो उन्हें उसे कदापि दान न देना चाहिये ।
कुपात्र
कुगुरु कुदेव उक्तं च, कुधर्म प्रोक्तं सदा । कुलिंगी जिन द्रोही च, मिथ्या दुरगति भाजन ॥२७५॥ जो मृढ़ करते रे ! कुधर्मों का सदा उपदेश हैं । सर्वज्ञद्रोही जो अरे ! जिनके कुलिंगी वेश हैं। जो नर्क के आधार दुर्गतिमूल हैं दुखधाम हैं।
वे पात्रता से हीन हैं, दुष्पात्र उनके नाम हैं। जो कुगुरु कुदेव या कुधर्म की उपासना करने का उपदेश देते हैं या उनका कथन करते हैं; जिनके कुभेष हैं; जो जिनद्रोही हैं और अपने शिष्यों को व स्वयं को जो दुर्गति में ले जाने वाले हैं, ऐसे पुरुष कुपात्रों की कोटि में आते हैं।
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१५० ]
सम्यक् आचार
कुपात्र दान का फल
जस्य दानं च विनयं च, कुन्यान मूढ दिस्टतं । तस्य दान चिंतनं येन, संसारे दुष दारुनं ॥ २७६ ॥
दुष्पात्र दल को दान देना, रे ! महा अज्ञान है । दुष्पात्र दल की विनय करना, रे ! असत् श्रद्धान है || दुष्पात्र दल की पात्रता, दुष्पात्र दल का चितवन | करता है दारुण दुःख से, परिपूर्ण संसृति का सृजन ॥
कुपात्रों को दान देना, उनकी विनय करना, यह सब मूढदृष्टिता है। जो कोई ऐसे पुरुष को अपने दान का पात्र बनाने का चितवन करता है, वह संसार में अनन्तकाल तक दारुण दुख उठाता है।
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पात्रता और कुपात्रता
में भेद पात्र अपात्र विशेषत्वं, पन्नग गवं च उच्यते । तृण भुक्तं च दुग्धं च, दुग्ध भुक्तं विषं पुनः ॥ २७७॥
जिस भाँति होती सर्पिणी, और गौ अरे ! असमान हैं । होते हैं पात्र कुपात्र में, उस भाँति भेद महान हैं । गौ घास खाती, किन्तु देती नित्य मीठा दुग्ध हैं । सर्पिणि उगलती गरल, पीती यदपि दुग्ध विशुद्ध है ॥
पात्र और कुपात्र परस्पर उसी तरह भिन्न हुआ करते हैं, जिस तरह गौ और सर्पिणी । गाय तृण खाती है पर उसके बदले में मीठा दूध देती है, सर्पिणी दूध पीती है पर उसके बदले विष का वमन करती है, जो मनुष्यों के लिये प्राणघातक ही सिद्ध होता है ।
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सम्यक् आचार
पात्र दानं च भावेन, मिथ्या दिस्टी च सुद्धये । भावना सुद्ध समपूरनं, दानं फलं स्वर्ग गामिनं ॥२७॥ रे ! दान के सद्भाव को, होती है वह शुभ प्रतिक्रिया । इससे पतित से पतित, बन जाता है पावनतम हिया ।। जो दान के सद्भाव से परिपूर्ण, समकितवान हैं ।
वे नर निशंकित प्राप्त करते, स्वर्ग सौख्य महान हैं । सत्पात्रों को दान देने की भावना करने से मिध्यादृष्टि मनुष्यों के अन्तर से भी अंधकार का पर्दा हट जाता है और वे पतित से पावन बन जाते हैं। जो मनुष्य दान देने की भावना से परिपूर्ण रहते हैं, वे निश्चय ही स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करते हैं ।
पात्र दान रतो जीवा, संसार दुष्य निपातते । कुपात्र दान रतो जीवा, नरय पतितं ते नरा ॥२७९॥ सत्पात्रदल को दान देने में, सदा जो लीन हैं । वे पुरुष बन जाते नियम से, भव दुःखों से हीन हैं । जो पुरुष देते रे ! कुपात्रों को. चतुर्विधि दान हैं । पतितोन्मुख हो भोगते वे, नर्क-दुःख महान हैं।
जो मनुष्य सत्पात्रों को दान देने में तल्लीन रहा करते हैं, वे संसार के दुखों को चूर्ण कर, उनसे रहित हो जाते हैं, पर जो पुरुष कुपात्रों को दान दिया करते हैं, वे निश्चय ही नर्क के कूप में गिरकर, भयंकर से भयंकर दुख उठाते हैं ।
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१५२]
सम्यक् आचार
पात्र दानं च प्रति पूर्न, प्राप्तं च परमं पदं । सुद्ध तत्वं च सार्धं च, न्यान मयं सार्धं धुर्व ॥२८०॥ यह पात्रदान महान शुभ, अतिशय सुखद सुख-सार है । होता है इससे प्राप्त, चिर सुख-शान्ति का आगार है । आगार ? वह जिसमें कि करता, आत्म-पद किल्लोल है । जिसमें रमण करता निरन्तर, ज्ञान ध्रुव अनमोल है ॥
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तीन तरह के उत्तम, मध्यम, व जघन्य पात्रों को दान देने का उत्कृष्ट फल उस अविचल सुख की प्राप्ति है, जो मुक्ति-सौख्य कहलाता है। जहाँ आवागमन के बंध कट जाते हैं और पुरुष पूर्ण स्वाधीन होकर अनन्त सुख के नन्दन विपिन में विहार करता है। यह सुख शुद्ध आत्मिक तत्व सहित होता है और उसमें अनन्तज्ञान किल्लोल किया करता है।
पात्रं प्रमोदनं कृत्वा, त्रिलोकं मुद उच्यते । जत्र जत्र उत्पाद्यते, प्रमोदं तत्र जायते ॥२८॥ जो पात्रदल को देखकर, पाता प्रमोद अपार है। वह पुरुष बन जाता, त्रिलोकों के गले का हार है। जिस लोक को करती हैं जाकर, ये विभूति निहाल हैं ।
उस लोक के अंतर उन्हें, आ डालते वर-माल हैं॥ जो पुरुष सत्पात्रों को देखकर हर्षविभोर हो जाते हैं, त्रिभुवन तली भी उनको देखकर फूली नहीं समाती अर्थात उनके दर्शन से भी जगत्रय में आनन्द ही आनन्द बरसता है। वे दानी जीव जहाँ जहाँ जन्म लेते हैं, उनके दर्शनों से वहां वहां ही प्रमोद उत्पन्न होता है और उन्हें लोक के अंतरतम का अनन्त म्नेह प्राप्त होता है।
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सम्यक् आचार
[१५३
पात्रस्य अभ्यागतं कृत्वा, त्रिलोकं अभ्यागतं भवेत् । जत्र जत्र उत्पाद्यते, तत्र अभ्यागतं भवेत् ॥२८२॥ जो पात्र-दल का मुदित हो, करता महा आतिथ्य है । उस पुरुष का त्रिभुवन तली, आतिथ्य करती नित्य है ॥ जिस लोक में जा ये पुरुष, लेते बिमल अवतार हैं ।
उस लोक के बनते निशंकित, वे हृदय के हार हैं । जो सत्पात्रों को देखकर, उनका सम्मान करते हैं; उनकी अतिथि के समान विनय करते हैं, उनको त्रैलोक्य में विनय और सम्मान प्राप्त होता है। जहाँ जहाँ वे पुण्यवान जीव उत्पन्न होते हैं, वहीं वहीं लोक उन्हें अपना अतिथि समझने में अपना सौभाग्य मानते हैं और उन्हें असाधारण आतिथ्य भेंट करते हैं।
पात्रस्य चिंतनं कृत्वा, तस्य चिंता स चिंतये । चेतयंति प्राप्तं वृद्धिं, पात्र चिंता सदा बुधै ॥२८३॥ जो पात्रदान उचितवन में, नित्य रहता चूर है । शुभ भाव से उसका हृदय, रहता सदा भरपूर है ।। चैतन्य को वह नर बनाता, भलीविधि उपभोग्य है।
सत्पात्रदल के लाभ का, शुभ चिन्तयन ही योग्य है ॥ जो मनुष्य पात्रदान के चितवन में लवलीन रहा करता है, उसका हृदय हमेशा शुभ भावों से भरा रहता है । "मुझे सौम्य पात्र को दान देने का अवसर कब मिले" ऐसी भावना करने वाला अपनी आत्मा के चैतन्य गुण का सबसे अच्छा उपयोग करता है, यह एक मानी हुई बात है। अत: विद्वानों को दान देने की भावना हमेशा रखते रहना चाहिये।
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१५५]
सम्यक् आचार
कुपात्रं अभ्यागतं कृत्वा, दुर्गति अभ्यागतं भवेत् । मुगति तत्र न दिस्टंते, दुर्गतिं च भवे भवे ॥२८४॥
जो पुरुष करते रे ! कुपात्रों का अतिथि-सत्कार हैं । वे खोलते अपने लिये, दुर्गति-भवन का द्वार हैं ॥ दुष्पात्र दल को दान देने में, कुगति ही कुगति है ।
मिलती नहीं, इस दान से रे ! भूलकर भी सुगति है ।। जो मनुष्य कुपात्रों को देखकर, उनका आतिथ्य करता है; उनका सत्कार कर उन्हें विनयपूर्वक दान देने का चिंतवन करता है, उसका जन्म जन्म में दुर्गतियों के रूप में महान आतिथ्य होता रहता है। मरने के बाद उसे अच्छी गति के फिर दर्शन नहीं होते। हाँ, दुर्गतियां उसकी दृष्टि के सम्मुख अवश्य बनी रहती हैं ।
कुपात्रं प्रमोदनं कृत्वा, इन्द्री इत्यादि थावरं । तिरियं नरय प्रमोदं च, कुपात्र दान फलं सदा ॥२८५॥ जो नर कुपात्र विलोक कर, पाते महान प्रमोद हैं । वे जीव उस भव में अरे! बनते दरिद्र निगोद हैं। पाते हैं वे भी मोद, पर किस योनि में, कुछ ज्ञात है ?
उस योनि में जो, नर्क, तिर्यक् नाम से विख्यात है ॥ जो मनुष्य कुपात्रों को देखकर, हर्षविभोर हो जाते हैं, वे मरने के पश्चात एकेन्द्रिय स्थावर पर्याय में जन्म लेते हैं। उनको भी किसी वस्तु को देखकर, प्रमोद की सृष्टि होती है, प्रमोद बरसता है। पर कहां ? किस लोक में ? तिथंच योनि में ! नर्क लोक में !! .
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सम्यक् आचार
पात्र दानं च सुद्धं च, दात्रं सुद्ध सदा भवेत् । तत्र दानं च उक्तस्य, सुद्ध दिस्टी सदा मयं ॥२८६॥
to sho sho
सत्पात्रदल को दान देना, पुण्यवंध महान है । इससे हृदय दातार का होता, विमल अम्लान है। जिस भांति दर्शन, मोक्ष-सुख का मूल है, आधार है ।
यह पात्र-दान उसी तरह रे ! मोक्ष-सुख का द्वार है ॥ पात्रदान देना महान पुण्य बंध का कारण है। इससे दातार का हृदय सब मलों से रहित होकर शुद्ध बन जाता है और उसके लिये मोक्ष का दरवाजा खुल जाता है। जिस तरह शुद्ध सम्यग्दर्शन मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है, उसी तरह सत्पात्र दल को दान देना भी मोक्षप्राप्ति का एक अमोघ उपाय है।
पात्र सिष्यां च दात्रस्य, दात्र दानं च पात्र यं । दात्र पात्रं च सुद्धं च, दानं निर्मलतं सदा ॥२८७॥ सत्पात्र को दातार देता, रे ! जहां शुभ दान है । मिलता उसे उससे वहीं, उपदेश शुद्ध महान है ॥ होता जहाँ सत्पात्र, होता जहां शुभ दातार है । यह दान हो जाता वहाँ, चिर-सौख्य-पारावार है ।।
जहां दातार, सत्पात्र को किसी प्रकार का दान देता है, वहां उसे सत्पात्र से कई प्रकार की उत्तम शिक्षायें भी प्राप्त होती हैं। जिस जगह दातार और पात्र दोनों एक निर्मल स्वभाव वाले मिल जाते हैं, वहाँ दान अपूर्व शाश्वत सुख का रूप धारण कर लेता है।
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१५६]
सम्यक् आचार
दात्रं सुद्ध मामक्तं, पात्रं तत्र प्रमोदनं । दात्र पानं च सुद्धं च, दान निर्मलतं सदा ॥२८८॥ दातार यदि शुचि शुद्ध निर्मल दृष्टि का सत्पात्र है । तो पात्र का आल्हाद से, परिपूर्ण बनता गात्र है ।। यदि पात्र और दातार दोनों, शुद्ध समकितवान हैं । तो दान के परिणाम, रे ! निःशंक धौव्य महान हैं।
यदि दान देने वाला शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी है, तो दान लेने वाले पात्र को उसे देखकर अत्यंत ही प्रमोद होता है। जिस स्थल पर दातार और पात्र दोनों शुद्ध सम्यग्दृष्टि मिल जाते हैं उस जगह दान महान निमल. पुण्य और ध्रव स्वरूप धारण कर लेता है।
पात्रं जत्र सुद्धं च, दात्रं प्रमोद कारलं । पात्र दात्र सुद्धं च. उक्तं दान जिनागमं ॥२८९॥ यदि पात्रदल सत्पात्र, निर्मल शुद्ध सम्यग्दृष्टि है । दातार के होती हृदय में, मोद की सदृष्टि है। जिस जगह दाता, पात्र दोनों पक्ष, पूर्ण समान हैं ।
रे उस जगह ही 'दान' है, कहते विराग महान हैं। जहाँ दान का लेने वाला पात्र शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है, वहां दान देने वाले का अंतस्तल प्रमोद से भर जाता है। पांचों इन्द्रियों को निस्तेज बना देने वाले श्री वीतराग प्रभु कहते हैं कि जहाँ दाता और पात्र परम्पर प्रमोद उत्पन्न करने वाले होते हैं, वहां ही वास्तविक 'दान' का आदान-प्रदान होता है।
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सम्यक् आचार
मिथ्यादिस्टी च दानं च पात्रं न गृहिते पुनः । यदि पात्रं गृहिते दानं, पात्र अपात्र उच्यते ॥ २९०॥
दातार मिथ्या - दृष्टि है तो, पात्र का यह धर्म है । यह दान क्योंकि अधर्म है ! लेता किसी विधि दान है । वह नर अपात्र महान है ||
वह दान अस्वीकृत करे. यदि पात्र मिथ्यादृष्टि से, तो वह नहीं है पात्र रे !
यदि दान करने वाला पुरुष मिध्यादृष्टि है; उसको अपने आत्म तत्व में प्रतीति होने की अपेक्षा पर पढ़ार्थों में श्रद्धान है, तो दान लेने वाले का यह कर्तव्य है कि यदि वह वास्तव में दान का सुपात्र है, तो उस मिध्यादृष्टि के द्वारा दिये जाने वाले दान की वह कदापि अंगीकार न करें। यदि वह दान उस पात्र के द्वारा ग्रहण किया जाता है, तो यह सुनिश्चित है वह पात्र, पात्र नहीं अपात्र है । याने बाहिर से वह पात्र का लक्षणधारी अवश्य मालूम पड़ता है, किन्तु अंतरंग में वह पात्रता से बिलकुल शून्य है ।
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मिथ्या दान विषं प्रोक्तं घृतं दुग्ध विनासये । नीच संगेन दुग्धं च गुणं नामन्ति यत्पुनः ॥ २९९ ॥
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जिस भांति विष संयोग से, घृत दुग्ध होते नाश हैं । उस भांति मिध्यादान से, होते सुजन ! बहु त्रास हैं | जो मूढ़ मिथ्यादृष्टि से लेते किसी विधि दान हैं । वे भी उसी ही माँति, बन जाते कुमति अज्ञान हैं ॥
जिस प्रकार विष, घी या दूध में मिलकर उन पदार्थों का सर्वनाश कर देता है, उसी प्रकार मिध्यादृष्टियों द्वारा संकल्प किया हुआ या दिया हुआ यह मिध्यादान, जिस किसी पात्र के हाथ में पड़ जाता है, उसी पात्र का वह सर्वस्व धूल में मिला देता है। जो मूर्ख, मिध्यादृष्टियों का दिया हुआ दान ग्रहण करते हैं, वे उसके प्रभाव से उस मिध्यादृष्टि के समान ही अज्ञान और मूढमति बन जाते हैं ।
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१५८]
सम्यक् आचार
मिध्यादृष्टियों का दान
मिथ्यादिस्टी संगेन, गुणं निर्गुनं भवेत् । मिथ्यादिस्टी जीवस्य, संगति तजंति ते बुधाः ॥ २९२॥
रे ! मूढ़ का सहवास होता, इस तरह अनुदार है । गुण अगुण बनजाते हृदय बनता मलिन सविकार है || इसलिये जो विद्वान हैं, उनका यही बस धर्म है । वे मूढ़-संगति छोड़ देवें, क्योंकि वह अपकर्म है ॥
मिध्यादृष्टियों के संसर्ग में रहने से, मनुष्य के गुण अवगुणों में परिवर्तित हो जाते हैं और वह भी उन मिध्यादृष्टियों सा ही अज्ञान बन जाता है। अतएव बुद्धिमानों को उचित है कि वे उन पुरुषों की, जिनको कि सच्चे आम सच्चे गुरु व सच्चे आगमों पर श्रद्धान नहीं है या जिन्हें स्वयं अपने आत्मा पर प्रतीति नहीं है और वाह्य पुद्गल पदार्थों में जिन्हें विश्वास है, संगति भूलकर भी नहीं करें।
मिथ्याती संगते जेन, दुरगति भवति ते नरा । मिथ्या संग विनिर्मुक्तं, सुद्ध धर्मरतो सदा ॥ २९३॥
सहवास हैं ।
जो जीव मिथ्यादृष्टि का करते अरे ! वे भोगते अगणित समय तक नर्क में बहुत्रास हैं । मिथ्यात्वियों का संग इससे, रे! सदा ही हेय है । शुद्धात्मा में लीन हो तू, बस इसी में श्रेय है |
जो पुरुष भूलकर भी मिध्यादृष्टि मानवों की संगति करते हैं और उनके संग विचरते हैं, वे अनेक भवों तक दुर्गति के चक्र में पड़कर अपने को नष्ट किया करते हैं। अतएव जीवन का श्रेय इसी में है कि मिध्यादृष्टियों की संगति छोड़कर, मनुष्य अपनी आत्मा में आसक्ति उत्पन्न करे और निरन्तर उसी की अर्चना में लीन रहे ।
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सम्यक आचार
[१५९
मिथ्या मंग न कर्तव्यं, मिथ्या वाम न वामितं । दरोहि त्यति मिथ्यात्वं, देमो त्यागंति तिक्तयं ॥२९४॥ मिथ्यात्व का सहवास करना, रे कदापि न इष्ट है। मिथ्यात्व से अंतर सजाना, रे ! महान अनिष्ट है ।। मिथ्यात्व-वैरी का कदापि, न नाम लेना चाहिये ।
जिस देश में हों मूद, उसमें पग न देना चाहिये ।। मिथ्यात्व का या मिध्यादृष्टियों का कदापि भी संग नहीं करना चाहिये; मिथ्यात्व से रंगी हुई किसी भी वासना को कभी भी हृदय में स्थान नहीं देना चाहिये और जिस देश में या जिस क्षेत्र में ये मूर्ख लोग बसते हों, उस देश या उस क्षेत्र में जाने के लिये कभी पद भी नहीं बढ़ाना चाहिये।
मिथ्या दूरेहि वाचते, मिथ्या संग न दिस्टते । मिथ्या माया कुटुम्बस्य, तिक्ते विरचे सदा बुधै ॥२९५॥
मिथ्यात्व से विज्ञो! सदा ही, दूर रहना चाहिये । मिथ्यात्व की जलधार में, पड़कर न बहना चाहिये । मिथ्यात्व-माया-कीच से रे ! जो सना परिवार है । उसका कदापि न संग हो, केवल इसी में सार है।
मिथ्यात्व या मिथ्यात्वी को दूर ही से सोच समझ लेना चाहिये; उसी दिन के प्रभात को सर्वोत्तम समझना चाहिये, जिस दिन इन मूखों से भेंट न हो। मिथ्या और मायाचार से सना हुआ जो कुटुम्ब हो, उससे सर्वदा दूर ही रहा जाय, इसी में विद्वान गण सार समझते हैं।
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१६०]
सम्यक् आचार
मिथ्यातं परं दुष्यानी, समिक्तं परमं सुषं । मिथ्या माया त्यक्तंति सुद्धं समिक्त मार्धयं ॥२९६॥
मिथ्यात्व दुख का सिन्धु है, मिथ्यात्व दुख का मूल है । सम्यक्त्व सुख का केन्द्र है, सम्यक्त्व सुख का फूल है । इसलिये यह ही उचित है, मिथ्यात्व-मल का त्याग हो । सम्यक्त्व को दृढ़तम बनाने में, जगत का राग हो ।
आत्मा को छोड़कर पुद्गल पदार्थों को सारभूत समभकर उनकी पूजा करना, यही मिथ्यात्व सब से बड़ा दुख है। और आत्म तत्व को ही मोक्ष का साधन समझकर, उसी में तल्लीन रहना, यही सम्यक्त्व सबसे बड़ा सुख है अत: विवेकी पुरुपों को चाहिये कि वे दुःख के द्वार मिथ्यात्व का वर्जन कर दें और सुख के समुद्र सम्यक्त्व को अपना प्रगाढ़ मित्र-अपने जीवन का साथी बनावें ।
रात्रि-भोजन त्याग
अनस्तमितं वे घडियं च, सुद्ध धर्म प्रकासये । साधं सुद्ध तत्वं च, अनस्तमित रतो नरा ॥२९७॥ सूर्यास्त के दो घड़ी पहिले ही, जो नर विद्वान हैं । वे पूर्ण कर लेते हैं अपना, नित्य भोजन-पान हैं। करते हैं इससे वे जहां, तत्वार्थ में श्रद्धान हैं ।
निज आत्मा का वे वहाँ, करते प्रकाश महान हैं। जो मनुष्य विवेक और अविवेक को समझते हैं, वे सूर्य अस्त होने के दो घड़ी पहिले ही अपना सन्ध्या का दैनिक भोजन समाप्त कर लेते हैं। इस सूर्यास्त के पहिले भोजन करने से, जहां वे तत्वों में अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा प्रकट करते हैं, वहा ही शुद्धात्म धर्म का भी वे एक अनुपम प्रकाशन करते हैं और इस तरह धर्म के प्रचार में बहुमूल्य हाथ बंटाते हैं।
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सम्यक् आचार
-१६१
अनस्तमितं कृतं जेन, मन वच कायं कृतं । सुद्ध भावं च भावं च. अनस्तमितं पालयेत् ॥२९८॥ मन, वचन,तन से त्याग जिसने,रात्रि भोजन कर दिया । सद् श्रेष्ठ भावों से समझ लो, हृदय उसने भर लिया ॥ उसका अहिंसा धर्म में रे ! पूर्णतम श्रद्धान है ।
वह रात्रि-भोजन-त्याग का, साधक महान, महान है ॥ जिस पुरुष ने मन से. वचन से और तन से रात्रि भोजन का त्याग कर दिया, उसने शुद्ध और निर्मल भावों से अपने हृदय के सरोवर को ओतप्रोत कर लिया ! वह शुद्ध अहिंसा धर्म का पालने वाला है और यदि कोई वास्तव में ही रात्रिभोजन का त्याग करने वाला पुरुष है, तो वह है ।
अनस्तमितं जेन पालंते, वासी भोजन तिक्तये । रात्रि भोजन कृतं जेन, भुक्तं तस्य न सुद्धये ॥२९९॥
जो पुरुष करते, रात्रि-भोजन-त्याग का हैं आचरण । उनको उचित है वे नहीं, खावें कभी बासा अशन । जो जीव बासे अशन का. करते अरे ! व्यवहार हैं ।
वे रात्रि-भोजन-त्याग का, करते न पूर्णाचार हैं। जो मनुष्य रात्रि में भोजन न करने का व्रत ठान चुके हैं, उनको चाहिये कि वे एक दिन पूर्व का बना हुआ या रात में बना हुआ बासा अन्न भी नहीं खावें । जो मनुष्य बासे अन्न को ग्रहण करते हैं, वे सम्यक विधि से रात्रिभोजन-त्यागी हैं, यह कदापि नहीं कहा जा सकता।
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१६२]
सम्यक् आचार
खादं स्वादं पीवं च, लेपं आहार क्रीयते । वासी स्वाद विचलंते, तिक्तं अनस्तमितं कृतं ॥३०॥ जोखाद्य,स्वाद औलेद्य, पेयों-सा किसी विधि का अशन । करते नहीं सूर्यास्त के पीछे, किसी विधि से ग्रहण ।। बासे या विकृत अन्न को भी, जो न खाते नेक हैं । वे रात्रि-भोजन-त्याग व्रत को. पालते सविवेक हैं ।
रात्रि भोजन त्याग से क्या तात्पर्य ? तात्पर्य यही कि मनुष्य को मूर्यास्त होने के दो घड़ी पहिले ही खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय, जो यह चार प्रकार का भोजन है, उसे ममान कर लेना चाहिये । जो मनुष्य इन चार भोजनों में से अवधि के बाद किसी भी भोजन को ग्रहण नहीं करता है, या बासा, गा जिसका स्वाद बिगड़ गया है, एस अन्न को नहीं खाता है, वही मनुष्य वास्तव में रात्रि भोजन का त्यागी कहा जा सकता है।
अनस्तमितं पालितं जेन, रागादि दोष वंचितं । सुद्ध तत्वं च भारं च, मंमिक दिष्टी च पस्यते ॥३०१॥ जो पुरुष करता रात्रि में, कोई न भोजन पान है । वह रागद्वेषों को नहीं, देता हृदय में स्थान है ।। शुद्धात्म के ही चिन्तवन में, जिस पुरुष का राग है । उसही विवेकी जीव का बस, रात्रि-भोजन त्याग है ।।
जो रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग कर देता है, उस पुरुष में फिर रागद्वेष आदिक दोष नहीं दिखाई देते हैं। एक मात्र शुद्धात्म तत्व की भावना करना ही उस पुरुष-श्रेष्ठ का कर्तव्य हो जाता है और वह उसी की अर्चना में तल्लीन रहता है । अतः रात्रि भोजन त्यागी का यह एक विशेष गुण होता है कि वह आत्मा का अनन्य पुजारी और शुद्ध सम्यक्त्व का धारी होता है ।
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सम्यक् आचार
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....... [१६३
सुद्ध तत्वं न जानते, न मंमिक्तं सुद्ध भावना । स्रावकं जत्र न उत्पादंते, अनस्तमितं न सुद्धये ॥३०२॥ तत्वार्थ क्या है, रे ! जिसे, इसका न कुछ भी भान है । शुद्धात्म-समकित भावना से, जो निपट अनजान है ॥ वह पुरुप श्रावक के गुणों से, सर्वथा ही हीन है । रे ! रात्रि-भोजन त्याग उसका. दोषयुक्त मलीन है।
शुद्ध नत्व का क्या म्वरूप है या शुद्ध सम्यक्त्व की भावना का किस प्रकार आराधन किया जाता है, जिसे यह कुछ भी नहीं मालूम, वह पुरुप न तो श्रावक या सद्गृहस्थ कहलाने योग्य है, न कोई यह कह सकता है कि वह सम्यक विधि से रात्रि भोजन का त्यागी व्रतो पुरुप ही है। तात्पर्य यह कि रात्रि भोजन त्यागी पुरुष को शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी होना ही चाहिये ।
जे नरा सुद्ध दिष्टी च. मिथ्या माया न दिस्टते । देवं गुरं सुतं शुद्धं, ममत्तं अनस्तमितं व्रतं ॥३०३॥ जो आत्म-निष्ठावान हैं, जो जीव समकित-दृष्टि हैं । मिथ्यात्व मायाचार की, जिनके न उर में सृष्टि हैं । सदेव, गुरु और शास्त्र में, जिनको अमिट श्रद्धान है ।
रे ! रात्रि भोजन त्याग उनका ही,सफल मतिमान है ।। जो मनुष्य शुद्ध सम्यग्दर्शन के आभूपण से विभूपित रहते हैं; मिथ्यात्व या मायाचार जिन्हें छूकर भी नहीं जाना और मच्चे देव, सच्चे गुरु व सच्चे शास्त्र में जिन्हें अमिट श्रद्धान रहता है, वही पुरुप अधिकारपूर्वक यह कह सकने में समर्थ हो सकते हैं कि हम रात्रि-भोजन-त्याग व्रत को धारण करने वाले हैं।
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१६५] . ........... .......... सम्यक् आचार
छने हुए जल का पान
पानी गालितं जेनापि, अहिंसा चित्त संकये । विलछितं सुद्ध भावेन, फासू जल निरोधनं ॥३०४॥ जिसको अहिंसा धर्म में, अनुराग है-श्रद्धान है। वह सत्पुरुष बस छानकर. करता सदा जलपान है ।। विलछन क्रिया का नित्य वह. करता विमल व्यवहार है । प्रासुक सलिल को ढांककर रखता सदा अविकार है ।।
जिसके मनमें यह भय रहता है कि मुझसे प्रमाद वश या जानबूझकर दीन प्राणियों की हिंसा न हो जाये, वह हमेशा पानी को छानकर ही पीता है तथा अन्य अन्य उपयोगों में लाना है। जिस जलाशय से पानी निकाला जाता है, पानी छान लेने के बाद, उसी जलाशय में वह उस छन्ने में आये हुए जीवों को पहुँचा देता है। यह विलछनक्रिया कहलाती है। विशेष सावधानी रखने के लिये वह लवंग आदि कसायले द्रव्यों से पानी को गर्म कर प्रासुक भी बना लेता है और कोई चीज उसमें गिर न पड़, इमलिये वह उसे हमेशा ढांककर ही रखता है।
जीव रव्या षट् कायस्य, संकये सुद्ध भावनं । स्रावगं सुध दिष्टी च, जलं फासू प्रवर्तते ॥३०५॥ जो श्राविकोचित गुणों का, परिपूर्ण शुद्ध निधान है । सम्यक्त्व से जिसका हृदय, प्रज्वलित सूर्य समान है। षटकाय जीवों की सुरक्षा, मात्र जिसका ध्येय है। प्रासुक सलिल को ही बनाता, वह पुरुष निज पेय है ।
पृथ्वी कायिक, जल कायिक, वायु कायिक, अग्निकायिक, वनस्पति कायिक, तथा त्रसकायिक इन छह काय के जीवधारियों के प्राण बचाने के लिये, सम्यग्दर्शन से विभूषित श्रावक अपने नित्यप्रति के उपयोग में निरन्तर प्रासुक जल का ही सेवन करता है।
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- सम्यक् आचार
जलं सुद्धं मनः सुद्धं च अहिंसा दया निरूपनं । सुद्ध दिस्टी प्रमाणं च, अव्रत स्रावग उच्यते ॥ ३०६ ॥
जो सत्पुरुष करता निरन्तर, शुद्ध जल का पान है । मन - शुद्ध हो वह जीव बन जाता, अहिंसा - प्राण है || जो शुद्ध जल व्यवहार करता, वही समकितवान है । अव्रती सम्यग्दृष्टि की भी यही सत् पहिचान है ||
शुद्ध जल पीने से मन शुद्ध बन जाता है और शुद्ध मन ही अहिंसा और दया का निरूपण करने वाला हुआ करता। जो मनुष्य शुद्ध जल का अर्थान छने हुए और प्रासुक जल का व्यवहार करता है, वही नियम से शुद्ध दृष्टि और वही नियम से अती श्रावक कहा जाता है ।
अशुद्ध कर्मों को छोड़कर सम्यक् षट्कर्मों का नियम से पालन
अविरतं स्रावगं जेन, षट् कर्म प्रतिपालये । षट् कर्म द्विविधस्चैव, सुद्धं असुद्ध पस्यते ॥३०७॥
[१६५
होते हैं अत्रत - शुद्ध दृष्टी, जो गृहस्थ महामना । भव्यो सुनो, षट्कर्म की, करते सतत वे साधना ॥ षट्कर्म हैं दो भांति के कहते अनूप जिनेन्द्र हैं । हैं प्रथम शुद्ध, द्वितिय अपावन, मलिनता के केन्द्र हैं |
जो
त सम्यग्दृष्टि श्रावक होते हैं, वे नित्यप्रति दैनिक घट्कर्म का पालन करते हैं। ये षट्कर्म दो कोटि के होते हैं । प्रथम शुद्ध और दूसरे श्रशुद्ध ।
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१६६]
सम्यक् आचार
सुद्धं षट् कर्म जेन, भव्य जीव रतो सदा । असुद्धं षट् कर्म जेन, अभव्य जीव न संसयः ॥३०८॥ रे ! शुद्धतम षटकर्म में, रहता वही नर लीन है । जो मोक्षगामी भव्य है, अज्ञान से जो हीन है। जो अशुचितम पटकम में, करता सदा किल्लोल है । वह है अभव्य अमोक्षगामी, आप्त वचन अमोल है ॥
. जिन्हें मोक्ष जाने का सौभाग्य प्राप्त होना है, ऐसे अज्ञान अंधकार से विहीन पुरुप तो शुद्ध पट्कर्म को समझते हैं और उनमें लीन रहा करते हैं. किन्तु जिनके भाग्य में आवागमन का चक्र ही लिखा हुआ है: मोक्ष का सुख जिन्हें कभी भी प्राप्त नहीं होगा, ऐसे अन्य पुरुप अशुद्ध पट्कर्मों के संपादन में ही अपना समय व्यतीत किया करते हैं और अपने संसार को बढ़ाया करते हैं ।
अशुद्ध षट कर्म सुद्ध असुद्धं प्रोक्तं च, अमुद्धं अमास्वतं कृतं । मुद्धं मुक्ति मार्गम्य, अमुद्धं दुरगति भाजनं ॥३०९॥ जो हैं अशुचि षट्कर्म, वे विज्ञो ! महा अपवित्र हैं । वे अशुभ बंधन हेतु के, प्रत्यक्षदर्शी चित्र हैं। जो शुद्ध सम्यक् कर्म हैं, वे मुक्ति के सोपान हैं।
रे ! अशुभतम षट्कर्म दुर्गति हेतु, दुःखनिधान हैं । अशुद्ध पटकम जो कि अशुचि पटकम भी कहलाते हैं, महान अपवित्र होते हैं। ये शाश्वत नहीं अशाश्वत होते हैं; सनातन नहीं, कल्पित होते हैं—गड़े हुए होते हैं। शुद्ध षट्कर्म जहाँ मुक्ति के मार्ग होने हैं, वहां ही ये अशुद्ध पटकर्म दुर्गतियों के आधार हुआ करते हैं।
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सम्यक् आचार
अमुद्धं प्रोक्तं स्चैव, देवलि देवपि जानते । पेत्रं अनंत हिंडते, अदेवं देव उच्यते ॥३१०॥ जो मन्दिरों की मूर्तियों को, मानते भगवान हैं । वे जीव करते हैं असम्यक , अशुभ कर्म महान हैं ।। पाषाण को, जड़ को अरे, जो देव कहकर मानते । वे नर अनंतानंत युग तक, धूल जग की छानते ॥
मन्दिरों की नृतियों को या प्रतिमाओं को साक्षात भगवान मानना, यह पट्कर्म के प्रथम अंग 'देवपूजा' का असम्यक् रूप है, जो अशुद्ध कर्म की कोटि में आता है ! जो मनुष्य देवत्व से हीन अंदवों को देव कहकर पुकारता है; उनकी पूजा करता है, वह अनन्त बार जन्म धारण करता है और मृत्यु के मुख का ग्रास बनता है।
मिथ्या मय मूढ दिस्टी च, अदेवं देव मानते । परपंचं येन कृतं माई, मानते मिथ्या दिस्टितं ॥३११॥
मिथ्यात्व मायाचारिता के, जो अगाध निधान हैं । वे ही अचेत अदेव को, कहते अरे भगवान हैं । इन पत्थरों के देवताओं के, जो विछते जाल हैं । फंसती है मिथ्यादृष्टि, जीवों की ही उनमें माल है ।
जो मिथ्यात्व और मायाचार के निधान होते हैं, वे अंधविश्वासी ही 'प्रदेवों' को देव कहकर मानते हैं। इन पत्थरों के देवताओं को प्रसन्न करने के लिये जो प्रपंच रचे जाते हैं, उनमें भी उन्हीं प्राणियों की श्रेणियों फंसती हैं, जिनकी आंखों पर मिथ्यात्व और मायाचारिता की पट्टियाँ चढ़ी होता है और जो सम्यक्त्व से हीन हुभा करते हैं।
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१६८]
सम्यक् आचार
ग्रंथं राग संजुक्तं, कषायं च मयं सदा । सुद्ध तत्व न जानते, ते कुगरुं गुरु मानते ॥३१२॥ धन धान्य आदि परिग्रहों के, जो विपुल आगार हैं । दुर्दम कषायों के अरे जो, तिमिरपूर्ण बिहार हैं । जो शुद्ध आत्मिक तत्व से, रे! पूर्णविधि अनजान हैं । ऐसे कुगुरु को मूढ़, सद्गुरु मान, देते मान हैं।
जो परिग्रहों की जंजीरों से जकड़े हुये हैं; कषायों के झुण्ड जिन पर मधुमक्खियों के समान भिनभिनाया करते हैं तथा शुद्ध तत्व क्या वस्तु है, इससे जो बिलकुल अनभिज्ञ हैं, ऐसे कुगुरुओं को, मृर्व अज्ञान लोग गुरु मान लेते हैं और उनकी भक्ति भाव से पूजा विनय करते हैं। यह दूसरा असत् षट्कर्म का अंग अशुद्ध गुरु उपासना है ।
मिथ्या माया प्रोक्तं च, असत्यं सत्य उच्यते । जिन द्रोही वचन लोपंते, कुगुरुं दुर्गति भाजनं ॥३१३॥
मिथ्यात्व-मायाचार का, देते कुगुरु उपदेश हैं । कहते असद्तम कथन को, वे कुगुरु सत्र सन्देश हैं। सर्वज्ञ वचनों को छपा, करते कि वे जिन-द्रोह है।
इस भाँति दुर्गति-हेतु होते. ये कुसाधु-गिरोह हैं । कुगुरु मिथ्यात्व और मायाचार से सना हुआ उपदेश जनता को दिया करते हैं; जो असत्य पदार्थ है, उनका सत्य पदार्थ केसमान वे वस्तुस्वरूप समझाया करते हैं; सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी प्रभु के कहे हुए वचनों का वे लोप किया करते हैं, अत: सारी दृष्टियों से कुगुरु, प्राणियों को दुर्गति प्रदान करने वाले ही ठहरते हैं।
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सम्यक् आचार
अनेक पाठ पठनंते, बंदना श्रुत भावना । मुद्ध तत्व न जानते, सामायिक मिथ्या मानते ॥३१४॥ चाहे अनेकों पाठ का, निशिदिन पठन. पाठन करो । चाहे अनेकों वंदनायें बांच, पूजाघर भरो ॥ पर यदि न तुमको ज्ञात क्या. शुद्धात्मा अभिराम है । तो यह तुम्हारी भक्ति, सामायिक सभी बेकाम है ।।
तीसरा निक कर्म है सामायिक ! अनेक पाठ पढ़ो-लोगों को पढ़ाओ; वंदना करो-स्तुति करोपूजा करोः भारती करो, कुछ करो, किन्तु जब तक तुम्हें शुद्धात्मा की अनुभूति प्राप्त नहीं होतो; तुम्हारा मन आत्म-रमण का रसास्वादन नहीं करता, तुम्हारा यह क्रियाकाण्ड एकदम बेकाम है । तुम्हारी मामायिक पूर्णतया निष्फल है, क्योंकि विना आत्मानुभूति के सारे कार्य अशुद्ध ही हुआ करते हैं ।
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मंजमं असुद्धं जेन, हिंमा जीव विरोध । मंजम सुद्ध न पस्यंते, ते मंजम मिथ्या मंजमं ॥३१५॥ बस जीव रक्षा ही नहीं, संयम निपट अनजान है । निज आत्म संयम ही कि, संयम पूर्ण सत्य महान है ॥ जो आत्म-संयम पाल कर, करते न पूर्णाचार हैं ।
वे पुरुष संयम नाम पर, रचते असत् संसार हैं। जो लोग यह समझते हैं कि प्राणीमात्र का वध नहीं करना, एक यही संयम है, दूसरा नहीं, वे लोग अज्ञान-अंधकार में है। उनका यह संयम अशुद्ध या अपूर्ण संयम है। अपनी आत्मा के परिणामों में विकृति उत्पन्न नहीं होने देना, यही आत्म संयम वास्तव में शुद्ध और सम्यक् संयम है। जो दैनिक षटकर्म का चतुर्थ अंग है । जो पुरुप संयम के नाम पर अन्यान्य कर्म करते हैं. वे संयम का बाह्याचरण ही करते हैं, अंतरंग नहीं, और इस तरह संयम के नाम पर वे एक अभिनय की ही मृष्टि करते हैं।
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१७०]
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सम्यक आचार
असुद्ध तप तप्तं च, तीव्र उपसर्ग सह । सुद्ध तत्व न पस्यंते, मिथ्या माया तपं कृनं ॥३१६॥ चाहे अनेकों भाँति को, दारुण तपश्चर्या करो । उपसर्ग झेलो, कायक्लेशों से, हृदस्तल को भरो । पर यदि न तुमको ज्ञात क्या, तत्वार्थ सुख का सार है । तो यह तुम्हारी तपश्चर्या, एक मायाचार है।
कितनी ही भांति की दारुण से दामण तपश्चर्या करो; उपसर्गों पर उपसर्ग झेलो, किन्तु यदि तुम्हें शुद्ध तत्व का ध्यान नहीं है; यदि तुम्हारी इन क्रियाओं में सम्यक्त्व की पुट नहीं है, तो तुम्हारी यह नपश्चर्या केवल मायाचार के केवल बाह्याडम्बर के और कुछ नहीं है। इस तरह की तपश्चर्या षट्कर्म का तप नाम का पांचवाँ अशुद्ध अंग होता है।
दानं असुद्ध दानस्य, कुपात्रं दीयते सदा । व्रत भगं कृतं मूढा, दावं मंमार कारनं ॥३१७॥
जो भी कुपात्रों को दिया जाता. अरे नर दान है । वह दान कुत्सित दान है. यह दान अशुचि महान है ॥ उससे पतित बनता जहां पर, शुद्ध सम्यग्दृष्टि है ।
करता सृजन आवागमन की, वह वहां ही सृष्टि है ॥ जो दान कुपात्रों को दिया जाता है, वह कभी भी शुद्ध नहीं होताः वह सर्वदा अशुद्ध ही हुआ करता है। ऐसा कुपात्रों को दिया हुआ दान जहां सम्यग्दृष्टि के व्रतों को खंड खंड कर देता है, वह वहीं
आवागमन का कारण भी होता है, जिसके कारण प्राणी को अनंतानंत काल तक संसार सागर में गोते ग्वाना पड़ता है। ऐसा दान षट्कर्म का अन्तिम अग अशुद्ध दान कहलाता है।
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सम्यक् आचार
[१७१
ये षट् कर्म पालंते, मिथ्या अन्यान दिस्टते । ते नरा मिथ्यादिस्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ॥३१८॥ मिथ्यात्व मायाचार से जो, पूर्ण विधि परिपूर्ण हैं । सम्यक न, पर षटकर्म करने में, जो नितप्रति चूर्ण हैं । वे भेद-ज्ञान-विहीन मानव, मूह मिथ्यादृष्टि हैं । संसार में वे नित बसाते, दुःखपूरित सृष्टि हैं।
मिथ्यात्व और अज्ञानता से पूर्ण जो पुरुप, किसी भी तरह दैनिक पट्कमों को पूरा करते हैं, व महान मिथ्यादृष्टी होते हैं और सम्यक्त्व से रिन और मिथ्यात्व में दृढ़ होने के कारण वे हमेशा संसार के पात्र बना करते हैं।
ये पर कर्म जानते, अनेय विभ्रम क्रीयते । मिथ्यात गुरु पस्यंते, दुर्गति भाजन ते नरा ॥३१९॥
अगणित भ्रमों के-विभ्रमों के, जो विशाल निधान हैं । इस भांति के करते असत, पटकम जो अज्ञान हैं। मिथ्यात्त का पत्थर गले से. बांधते वे मूह हैं ।
इस भाँति दुर्गति-पंथ पर, होते वे नर आरूढ़ हैं ।। अनेकों विभ्रमों और भ्रान्तियों से पूर्ण जो पट भाति के अशुद्ध कर्मों को संपादन करने में लगे रहते हैं, वे मुर्ख महा अज्ञान होते हैं। मिथ्यात्व के भारी पत्थर को गले से बांधकर, ऐसे पुरुष संसारअटवी में भांति २ की दुर्गतियों के पात्र बना करते हैं।
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१७२] ...
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सम्यक आचार
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सम्यग्षट्कर्म षट् कर्म सुद्ध उक्तं च, मुद्ध समय सुद्धं धुवं । जिन उक्तं षट् कर्मस्य, केवलि दिस्टि मंजुतं ॥३२०॥ सर्वज्ञ कहते, शुद्ध वे ही रे, सुनो षटकर्म हैं । जिनसे कि मानव लाभ करते, शुद्ध आत्मिक धर्म हैं । जिनके कि करने में न, कुत्सित भाव करते काम हैं ।
करते हुए जिनको झलकते, शुद्ध आतमराम हैं। शुद्ध षटकमों को क्या व्याख्या ? शुद्ध षट्कर्म वही जिनको सम्पादन करते हुए प्राणियों को ध्रुव और महापवित्र आत्मधर्म का लाभ हो । ये पट्कर्म जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये हुये हैं, अत: प्रामाणिक हैं और अविरल रूप से केवलियों की परम्परा से इसी तरह चले आते हैं।
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देव देवाधिदेवं च, गुरु ग्रंथ मुक्तं सदा । स्वाध्याय सुद्ध ध्यायंते, मंजमं मंजमं श्रुतं ॥३२१॥
देवाधिपति अरहन्त ही, बस मात्र हैं तारण तरण । निग्रंथ गुरु के ही सदा, आराध्य हैं पावन चरण ॥ शुद्धात्मा का मनन ही, स्वाध्याय सुख का सार है । शास्त्रानुकूलाचरण ही संयम, सुखद अविकार है।
जिन्होंने अष्टकों के समूह को समूल नष्ट कर दिया है, ऐसे देवों के देव सिद्ध प्रभु ही, या चार घातीय कमों के विध्वंसक अरहन्त परमात्मा ही आराधना के योग्य प्राप्त हैं; निग्रन्थ गुरु ही उपासना के योग्य गुरु हैं। अपने शुद्धात्मा का मनन ही स्वाध्याय है और शास्त्रानुकूल आचरण ही सम्यक् संयम है।
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सम्यक् आचार ...
[१७३
तपं अप्प सद्भावं, दानं पात्रस्य चिंतनं । षट् कर्म जिनं उक्तं, मार्धं ति सुद्ध दिस्टतं ॥३२२॥ शुद्धात्मिक-सद्भाव में तपना ही, तप आचार है । सत्पात्र-दल का चितवन ही, दान चार प्रकार है। इस भांति जो करते सश्रद्धा, नित्य प्रति षटकर्म हैं । कहते हैं तारण तरण, वे करते उपार्जन धर्म हैं।
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आत्मिक सद्भावों में तपना ही वास्तविक तप और दान के लिये सत्पात्र दल का चितवन करना ही वास्तविक शुद्ध दान है। आप्त के कहे हुए इन षट्भाँति के शुद्ध कर्मों का जो नित्यप्रति माधन करते हैं, संसार में वही वास्तविक धर्मोपार्जन करते हैं ।
देवं च जिन उक्तं च, ज्ञानं अप्प सद्भाव । नंत चतुष्टय जुत्तो, चौदस प्रान संजदो होई ॥३२३॥ शुद्धात्मिक आनंद में जो, पूर्ण हों तल्लीन हों । जिनके अनंत चतुष्टयों-सी, दिव्य निधि आधीन हों। जो इंद्रियों के नाथ हों, दश प्राण के आधार हो ।
इन लक्षणों से युक्त जो हों, देव वे स्वीकार हो । जो शुद्धात्म-रस में तल्लीन हों; अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त मुख, और अनन्त शक्ति मो जिनके पास चार अमूल्य शक्तियें विद्यमान हों: इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार अथवा दश प्राणों के जो स्वामी हों तथा पाँचों इन्द्रियों पर जिनका पूर्णाधिकार हो, वही आराधना के योग्य वास्तविक देव हैं।
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१७४] ..
सम्यक् आचार
देवो परमिष्टी मइयो, लोकालोक लोकितं जेन । परमप्पा ज्ञानं मइयो, तं अप्पा देह मज्झमि ॥३२४॥ जो सिद्ध हैं, करते अरे वे, मोक्ष में आलोक हैं । केवल-मुकुर में वे निरखते, सतत लोकालोक हैं । भव्यो ! तुम्हारी देह में भी, उसी प्रभु को वास है। जिसमें रमण करता निरंतर, रे अनंत प्रकाश है ।।
परम पद में स्थित जो सिद्ध परमात्मा हैं, वे अपार ज्ञान के स्वामी हैं-केवलज्ञान रूपी हैं। अपने केवलज्ञान रूपी दर्पण में वे तीनों लोकों को युगपत देखते हैं। हे भव्यो ! तुम्हारी देह में जो आत्मा निवास करती है. उसमें भी उसी ज्ञानधन परमात्मा का निवास है; उसमें भी वही ज्योतिपुंज परमात्मा रमण करता है।
देह देवलि देवं च, उबइट्टो जेहि जिन देही । परमिष्टी च मंजुत्तो, पूजं च मुद्ध मंमिक्तं ॥३२५॥ भव्यो ! तुम्हारी देह में जो, आत्मा अभिराम है । वह क्या ? स्वयं परमात्मा, चिद्रूप. देव ललाम है । परमेष्ठियों के सब गुणों का, रे ! वहाँ अस्तित्व है । इस आत्म की आराधना ही, विज्ञजन सम्यक्य है ।
हे भव्यो । तुम्हारी देह-स्थित आत्मा में जो ज्योति जगमग जगमग किया करती है, वह क्या है। वह स्वयं परमात्मा है और कुछ नहीं । सिद्धों में जितने भी गुण रहते हैं, वे सब तुम्हारे उस परमात्मा में विद्यमान है। इस आत्मा रूपी परमात्मा की आराधना ही वास्तविक सम्यक्त्व है।
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सम्यक् आचार
देवं गुनं विशुद्धं, अरहंतं सिद्ध आचार्य जेन । उवज्झाय साधु गुन मार्धं, पंच गुनं पंच परमिष्टी ॥ ३२६॥
अरहन्त, सिद्ध, विभूतिद्वय ये देव ज्ञान निधान हैं । आचार्य, उवज्झाय, साधु ये, गुरुराज तीन महान हैं | ये दीप्तियें गुणज्ञान की होतीं वृहद् आगार हैं ।
"
कहते इन्हें श्री पंच परमेष्ठी, विमल अधिकार हैं ।
[१७५
अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच गुणी आत्मायें, जो विशाल ज्ञान की धारी होती हैं, पंच परमेष्टी कहलाती हैं। ये पांचों विभूतियें 'देव' की कोटि में आती हैं । अतः इनमें से प्रत्येक का आराधन परमात्मा की अर्चना के समान ही महत्वपूर्ण और पवित्र है ।
अरहंतं ह्रियंकारं, न्यानमयी त्रिभुवनस्य ।
नंत चतुष्टय महियं, ह्रीयंकारं न्यान अरहंतं ॥ ३२७॥
चौबीस तीर्थकर जिन्हें, तीनों भुवन का ज्ञान है ।
जिनमें अनंत चतुष्टयों का वास सूर्य समान है || देते सदा ही 'ह्रीं' शुचि पद में, प्रचंड प्रकाश हैं । अरहंत प्रभु करते हैं, इससे हीं पद में वास हैं ॥
तीनों के भुवन के ज्ञाता तथा अनन्त चतुष्टय के धारी चतुर्विंश तीर्थंकर, जो स्वयं तरकर, संसार को तारते हैं, ह्रीं पढ़ वास करते हैं। इससे ह्रीं पद का ध्यान करने से सम्पूर्ण चतुर्विंश का व साथ ही साथ अरहन्त प्रभु का भी स्तवन हो जाता है।
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१७६] -
सम्यक आचार
सिद्ध सिद्ध धुवं चिंते, उर्वकारं च विंदते । मुक्तिं च ऊर्ध सदभावं, ऊर्धं च मास्वतं पदं ॥३२८॥ ओंकार की, जिसका कि ऊर्ध्व स्वभाव, मुक्ति समान है । जो शाश्वत, ध्रव, अमर, ऊर्ध्व अनंत ज्ञान निधान है। आराधना करने से मिलता. सौख्य अपरम्पार है । इसका नमन होता है, सिद्धों को नमन बहुवार है ।
ऊर्ध्व और मुक्ति स्वभाव के धारी शाश्वत, अचल और पुण्य ओम् का चिंतवन करने से सिद्धों की राशि और सिद्धालय दोनों का अभिवादन हो जाता है, क्योंकि श्रोम मुक्ति और मुक्त-राशि के समान ही निराकार है और अनन्त सौख्य का धारी है।
आचार्य आचरनं सुद्धं, तिअर्थ सुद्ध भावना । सर्वन्यं सुद्ध ध्यानस्य, मिथ्या तिक्तं त्रिभेदयं ॥३२९॥
आचार्य शुद्धाचरण का, करते निरंतर हैं कथन । रत्नत्रयों का मग्न हो, वे नित्य करते चितवन । सर्वज्ञ का धरते निरंतर, ध्यान वे अभिराम हैं । मिथ्यात्व से रहते परे, उनके हृदय के धाम हैं।
प्राचार्य गण मंसार को शुद्धाचरण का उपदेश देते हैं; रत्नत्रय की भावना से वे परिपूर्ण रहत है और उसी के चितवन में उनका अधिकांश समय व्यतीत होता है। तीनों मिथ्यात्व से वे सर्वथा परे रहत हैं और मर्वज्ञ प्रभु के ध्यान में निरन्तर निमग्न रहना उनके दैनिक जीवन का एक अंश होता है।
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सम्यक् आचार
उपाध्याय उपयोगे जेन, उपाय लष्यनं धुवं । अंग पूर्व उक्तं च, साधं न्यानमयं धुर्व ॥ ३३० ॥
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रहता उपाध्याय वर्ग नित, उपयोग में लवलीन है । उपयोग ही तो जीव का लक्षण विनाश-विहीन है ॥ पूर्वांग का देते वे नित, संसार में उपदेश हैं । तत्वार्थ का तो सहज ही, करते कथन सुविशेष हैं ।
उपयोग चेतन का निश्चित लक्षण है। उपाध्याय इसी ज्ञानोपयोग में नित्यप्रति लवलीन रहा करते हैं । वे ग्यारह अंग व चौदह-पूर्व का कथन करते व नित्यप्रति अपनी ज्ञानमय ध्रुव आत्मा की अर्चना में तल्लीन बने रहते हैं ।
साधुस्व सर्व सार्धं च, लोकालोकं च सुद्धये । रयनत्रय मयं सुद्धं, तिअर्थं साधु जोइतं ||३३१ ||
-- [१७७
सद्गुरु वही नित साधना में मग्न जिनके ध्यान हैं । रे ! लोक और अलोक के, जिनको भलीविधि ज्ञान हैं || शुद्धात्म की ही अर्चना में, जो निरन्तर चूर हैं । जो तीन रत्नों के अलौकिक, ज्ञान से भरपूर हैं |
साधु वही कहलाते हैं, जो साधना में निरन्तर मग्न रहते हों; लोकालोक का जिन्हें भली विधि ज्ञान हो; रत्नत्रय के जो अमूल्य निधान हों और शुद्धात्मा की अर्चना में तल्लीन रहते हुए जिन्हें अपूर्व आनन्द का आभास होता हो ।
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१७८]
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सभ्यक आचार
देव पंच गुनं सुद्धं, पदवी पंचामि संजुदो सुद्धो । देवं जिन पण्णत्तं, साधु सुद्ध दिस्टि समयेन ॥३३२॥ जो पंच परमेष्ठी हैं, वे होते गुणों के धाम हैं । करते हैं आलोकित उन्हें, नित पंच पद अभिराम हैं। पांचों ही जिन सम्यक्त्व के, होते अगाध निधान हैं । कहते इसीसे विज्ञ जन, उनको जिनेन्द्र महान हैं।
पांचों परमेष्ठी गुणों के अपूर्व निधान होते हैं और पांच पदवियों से संयुक्त रहते हैं । सम्यक्त्व की, रस-धार इनमें कल कल करके बहती रहती है। विज्ञजनों ने इन पांचों को ही, इसीलिये जितेन्द्रिय भगवान की संज्ञा प्रदान की है।
अरहंत भावनं जेन, षोडस भावेन भावितं । ति अर्थ तीर्थकर जेन, प्रति पूरनं पंच दीप्त यं ॥३३३॥
अरहन्त पद की भावना से, जो सतत रहता सना । या जिस हृदय में नित्य जगतीं, भव्य षोड़श भावना ।। वह उपजता, जयरत्न, पंचज्ञान लेकर साथ है । वह पुरुष करता, तीर्थकर बन, त्रिलोक सनाथ है।
जो पुरुष अरहन्त पद का व षोड़श कारण भावनाओं का चिन्तवन करना है, वह नियम से नीन रत्न और पाँच ज्ञानों का धारी, तीनों जगत को तारने वाला तीर्थकर होता है।
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सम्यक् आचार
......... [१७९
तस्यास्ति षोडसं भावं, ति अर्थ तीर्थकरं कृतं । षोडस भावनं भावं, अरहंतं गुण सास्वतं ॥३३४॥ जो तीर्थकर-बंध से, कृतकृत्य सब विधि हो चुका । सुख-राशि षोड़श भावना का, बीज वह नर वो चुका ।। सचमुच ही षोड़श भावना की, साधना सुखकंद है । होता है इससे व्यक्त, आत्म-निधान का आनंद है।
षोड़श कारण भावना या सोलह भावनाओं के चिन्तवन का सर्वोत्तम फल, तीर्थंकर पद को प्राप्त कर लेना ही है, अत: सोलह भावनाओं का चिन्नवन उसी का सफल है, जिसको तीर्थकर नाम कर्म का बंध हो गया। वास्तव में सोलह कारण भावनायें अपूर्व निधि को प्रदान करने वाली होती हैं, इससे आत्मा में सोते हुए अरहन्न पद में विद्यमान रहने वाली शाश्वत गुणों की राशि जाग जाती है।
सिद्धं च सुद्ध मंमिक्तं, न्यान दरसन दरसितं । वीजं सुह समहेतुं, अवगाहन अगुरुलघुस्तथा ॥३३५॥
'जो सिद्ध हैं, सम्यक्त्व के होते वे पारावार हैं । होते “अनंतानंत, दर्शन, ज्ञान के वे द्वार हैं। बल, सूक्ष्म, अव्याबाधिता, व अगुरुलघु, अवगाहना । इन अष्टगुण से दीप्त रहते, नित्य सिद्ध महामना ॥
जो सिद्ध हो चुके, वे पुरुष अनंतानंत गुणों के समुद्र होते हैं। अष्ट कमों के नाश हो जाने से उनमें प्रात्मा की अष्ट महान निधियें प्रकट हो जाती हैं और इस तरह वे सम्यक्त्व, अनंत ज्ञान, अनंत दशन, अनंत वीर्य, सूक्ष्मत्व, अध्याबाधव, अवगाहनात्व और गुरुलघुत्व इन अष्ट अलौकिक गुणों के म्वामी होते हैं।
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१८०].........................
सम्यक आचार
समिक्त आदि गुनं साद, मिथ्या माया विमुक्तयं । सिद्ध गुनस्य संजुत्तं, साधं भव्य लोकयं ॥३३६॥ सम्यक्त्व आदिक गुणों से जो, पूर्ण हैं, भरपूर हैं। मिथ्यात्व, मल रहते हैं जिनसे, दर और सुदूर हैं। ऐसे जो सद, चित, सिद्ध, अगणित गुणों के आगार हैं।
संसार में आराधना के, बस वही आधार हैं। सम्यक्त्व आदि अष्ट महान गुणों के जो आधार है; मिथ्यात्व जिनको छूने का भी सामर्थ्य नहीं कर सकता और जो आवागमन के लौह-बंधनों को तोड़कर कृतकृत्य हो चुके हैं, ऐसे अनंतानंत गुणों के स्वामी सिद्ध भगवान ही आराधना करने के पूर्ण योग्य हैं।
आचार्य आचरन धर्म, ति अर्थ सुद्ध दरसन । उपाय देव उवदेसन कृत्वा, दम लष्यण धर्म धुर्व ॥३३७॥ जो मोध के आधार जग में, तीन रत्न महान हैं । आचार्यगण करते कराते, नित्य उनका गान हैं । जगतीतली में श्रेष्ठ जो, दशलाक्षणिक सद्धर्म हैं ।
उनको पढ़ाकर, उपाध्याय, उनका बताते मर्म हैं । भाचार्य परमेष्ठी रस्वत्रय धर्म का स्वयं प्राचरण करते हैं व दूसरों को भी इसी धर्म के अनुसार चलने का उपदेश देते हैं। उपाध्याय परमेष्ठी, जो अविनाशी ध्रुव दशलाक्षणिक धर्म हैं, उनका मम बताते हैं और अपने व्याख्यानों से उन्हें, अपने संघ, समुदाय व जनता को हृदयंगम कराते हैं।
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सम्यक आचार
मा चेतना भावं, आत्म धर्म च एकर्य । आचार्य उपाध्यायेन, धर्म सुद्धं च धारिना ॥३३८॥ आचार्य और उपाध्या (य) होते, जो साधु महान हैं । वे शुद्ध निश्चय धर्म में ही, लीन रखते ध्यान हैं। चैतन्य से मंडित जो, आतम देव पूर्ण ललाम है।
करता उसीकी भावना बस, यह युगल अभिराम है ।। प्राचार्य और उपाध्याय दोनों परमेष्ठी शुद्ध आत्मधर्म के धारण करने वाले होते हैं। इन दोनों विभूतियों के द्वारा, चैतन्य लक्षण से मंडित शुद्धात्मा की ही अर्चना की जाती है, अन्य को नहीं।
ते धर्म सुद्ध दिष्टी च. पूजितं च सदा बुधै । उक्तं च जिन देवेन, श्रूयते भव्य लोकयं ॥३३९॥ जो धर्म सबसे श्रेष्ठ है, वह धर्म आतम धर्म है । करना उसी की अर्चना, प्रज्ञाघरों का कर्म है। उपदेश इम सद्धर्म का, अरहन्त प्रभवर ने दिया ।
जो भव्य हैं, उनने यही, पीयूष का सागर पिया ॥ जो धर्म आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठी पालते हैं वही धर्म सबसे श्रेष्ठ है; वही धर्म सम्यग्दृष्टियों के अनुसरण करने योग्य है और उसी धर्म की विद्वानों के द्वारा आराधना होनी चाहिये। इस धर्म का उपदेश अष्टकमों और पाँचों इन्द्रियों के विजेता श्री जिनेन्द्र प्रभु ने दिया है और जो मोक्षगामी भन्य पुरुष हैं, उनने इसी धर्म का पान कर अपना जीवन सफल बनाया है।
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१४२]
सम्यक् आचार
साधुओ साधु लोकस्य, दर्सन ज्ञान संजुतं । चारित्रं आचरनं जेन, उदयं अवहिं संजुत्तं ॥३४०॥ होते जो अट्ठाईस गुण युत, साधु पूज्य महान हैं । वे ज्ञानयुत नित शुद्ध दर्शन का, कि करते ज्ञान हैं। होता है उनका आचरण से, पूर्ण सब व्यवहार है ।
हर सांस में उनके कि बजता, मधुर समकित तार है ॥ साधु परमेष्टी ज्ञान सहित शुद्ध सम्यग्दर्शन की साधना करते हैं । उनका आचरण भी पूर्ण सम्यक्त्व से युक्त रहता है और जितने भी गुण उनकी आत्म-निधि में से प्रकट होते हैं, वे समस्त मम्यक्त्व की वेष-भूषा से सुसज्जित रहते हैं ।
गुरुउपासना ऊर्ध अर्ध मध्यं च, दिस्टितं मंमिक्त दरसनं । न्यान मयं च सर्वन्यं, आचरनं मंजुतं धुर्व ॥३४१॥ सम्यक्त्व-मणि से जो निरखते, सतत तीनों लोक हैं । करती हैं समकित-रश्मियें, जिन उरों में आलोक हैं । सम्पूर्ण, ध्रुव, शुचि, ज्ञानमय, आचरण के जो प्राण हैं । सम्यक्त्व-पारावार वे ही, साधु पूज्य महान हैं।
जो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक तीनों लोकों को सम्यकदृष्टि के द्वारा देखते हैं। ज्ञान से जो परिपूर्ण हैं तथा जिनके आचरण अविनाशी, ध्रुव सम्यग्दर्शन से श्रोतप्रोत है, वही सत्पुरुष, सच्चे माधु कहलाने के योग्य होते हैं ।
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सम्यक् आचार
.... [१८३
माधु गुनस्य संपूरनं, रयनत्रय लंकृतं । भव्य लोकस्य जीवस्य, रयनत्रयं पूजितं ॥३४२॥
रहते गुणोदधि साधु, . अट्ठाईस गुण की खान हैं । उनके हृदय में जगमगाते, तीन रत्न महान हैं। सम्यक्त्व के प्रतिविम्ब, ऐसे साधु जो गुणधाम हैं । उनकी ही करते अर्चना बस, विज्ञ आठों याम हैं।
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... साधु परमेष्ठी पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रियनिग्रह, छह आवश्यक, कंशलोंच, दिगम्बरत्व म्नान त्याग, दंतधावन त्याग, खड़े भोजन, एक बार भोजन, भूमि शयन इन २८ गुणों से युक्त होते है। रत्नत्रय से उनकी आत्मा पूर्ण प्रकाशित रहती है। जो भव्य जीव होते हैं, वे रत्नत्रय के साक्षान स्वरूप, इन साधु परमेष्ठियों की ही अर्चना करते हैं।
देवं गुरं पूज सार्धं च, अंग संमिक्त सुद्धये । माधं न्यान मयं मुद्ध, संमिक्त दरमन उत्तमं ॥३४३॥ सत् देव, गुरु और शास्त्र की आराधना सुख सेतु है । सम्यक्त्व-साधन की कि यह पूजन, सरलतम हेतु है॥ पर विज्ञजन ! समझो, सुनो, सम्यक्त्व जिसका नाम है । वह सच्चिदानंद आत्मा का, चितवन अभिराम है।
. . . - देव,गुरु व शास्त्र की पूजा करना व उनमें अटल श्रद्धा रखना, यह सम्यक्त्व का एक प्रधान अंग है, किन्तु अपने ज्ञानसिन्धु आत्मा में प्रतीति रखना और उसका नित्यप्रति चिन्तवन करना, यह सबसे उत्कृष्ट कोटि का सम्यग्दर्शन है।
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१८४]......................
सम्यक आचार
न्यानं च न्यान सुद्धच, सुद्ध तत्व प्रकासकं । न्यान मयं च संसुद्ध, न्यानं सर्वन्य लोकितं ॥३४४॥ श्रुत और आत्म-ज्ञान ये दोनों ही वे विज्ञान है। जो नित्य मानव को कराते, आत्मा का भान हैं। जो प्राप्त कर लेता कि इन ज्ञानों से, केवल-ज्ञान है । वह निज मुकर में देखता, त्रैलोक्य नित गतिमान है।
शास्त्रों को पढ़कर उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान व अपने अंतर्जगत में उत्पन्न हुआ आत्मज्ञान, ये दोनों झान शुद्ध तत्व का प्रकाश करने की महान क्षमता रखते हैं। इन ज्ञानों की सहायता से, जो पंच ज्ञानों में प्रमुख केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह तीनों लोकों को तीनों काल हाथ में रखे हुये प्रामले के समान देखने का अपूर्व सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है।
न्यान आराध्यते जेन, पूजा तत्र च विंदते । सुद्धस्य पूज्यते लोके, न्यान मयं साधं धुर्व ॥३४५॥ जिस पुरुष-पुंगव ने बनाया, ज्ञान को आराध्य है। सर्वोच्च आतम तत्व जिसका, बना सुन्दर साध्य है। वह ज्ञानमय, ध्रुव, सत्पुरुष ही विज्ञ है, गुणधाम है ।
करता है उसको ही कि यह त्रैलोक्य, नित्य प्रणाम है। जिसने ज्ञान को अपना आराध्य और शुद्धात्म तत्व को ही अपना हृदय मन्दिर का देवता बना लिया, वह पुरुष अविनाशी, ज्ञानमय और ध्रुव बन जाता है और संसार के समस्त लोक उसके आगे अपना शीश झुकाते हैं।
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सम्यक् आचार
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... [१८५
स्वाध्याय
न्यानं गुनं च चत्वारि, श्रुतं पूजा सदा बुधै । धर्मध्यानं च संजुक्तं, श्रुतं पूजा विधीयते ॥३४६॥
रे ! ज्ञान गुण दायक, जगत में जो अनंत प्रयोग है। सर्वज्ञ माषित सुश्रुति के, उनमें चतुर अनुयोग है। इन सुश्रुतों का पूजना, प्रति महजन का कम है।
पर धर्म-ध्यान समेत. श्रुत-आराधना ही धर्म है ॥ ज्ञान और गुणों को प्रदान करनेवाली जो श्रुतियां हैं उनकी चार कोटियें हैं। ये कोटियं अनुयोग कहलाती हैं। इन शास्त्रों का विनय सम्मान व पूजन हर एक विवेकवान पुरुष को करना चाहिये, किन्तु विनयसम्मान या पूजन कैसा ? धर्म ध्यान सहित-सम्यक्त्व सहित-आत्मानुभूति सहित ! बिना सम्यक्त्व की भावना के श्रुतपूजन से क्या तात्पर्य ?
प्रथमानुयोग करनं च, चरनं द्रव्यानि विंदते। न्यानं तिअर्थ संपूरनं, साधं पूजा सदा बुधै ॥३४७॥ प्रथमानुयोग प्रथम, द्वितिय करणानुयोग महान है । चरणानुयोग तृतीय, द्रव्य चतुर्थ भेद सुजान है ॥ इनमें भरा रहता जो, रत्नत्रयमयी विज्ञान है । करता उसी की अर्चना, जो विज्ञ है-गुणवान है ॥
प्रथमानुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग, और द्रव्यानुयोग, इस तरह इन चार अनुयोगों के शास्त्रों में तीन रत्नों से परिपूर्ण जो अमोलक ज्ञान भरा होता है, विद्वान सदा उसी की पूजा व विनय करता है व उसी को अपना शीश झुकाता है।
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१८६]
सम्यक आचार
प्रथमानुयोग पद विंदंते, विजनं पद मन्द यं । तिअथं पद सुद्धस्य, न्यानं आत्मा तुव गुनं ॥३४८॥ प्रथमानुयौगिक शास्त्रों का, पठन धर्म महान है । उनके जो व्यंजन, शब्द, पद हैं. ज्ञेय उनका ज्ञान है ॥ इनका कथानक नित्य प्रति, उज्वल बनाता ज्ञान है । उस ज्ञान से पाता निरंतर, वृद्धि आत्म-निधान है ।
प्रथमानुयोग शास्त्रों को पढ़कर, उनके व्यंजन पद व शब्दों के अर्थों का मनन करना चाहिये । इनके कथानक जिनमें कि महान पुरुषों के चरित्र-चित्रण मिलते हैं, ज्ञान को उज्ज्वलता प्रदान करते है जिससे आत्मा की ज्योति निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होती रहती है। .
विजनं च पदार्थ च, सास्वतं नाम सार्ध यं । उर्व कारस्य वेदंते, साधं न्यान मयं धुवं ॥३४९॥
व्यंजन, पदार्थ व नाम ये सब, ध्रुव, अमर सुखसोर हैं । बुधजन वही रचते जो इनमें, ओम् का संसार है ॥ जो ज्ञानमय, शुचि आत्मा, अगणित गुणों की धाम है ।
करना उसी का चिन्तवन, यह ही सुजन का काम है ॥ व्यंजन, पदार्थ व नाम ये सब अविनाशशील ध्रुव पदार्थ हैं। अल्पज्ञ लोग इन्हें सहज ही पढ़ जाते हैं, पर विज्ञजन वही होते हैं जो, इन में ओम् की पुण्य छबि निरखकर, उसका ही दर्शन मनन और चितवन करते हैं। प्रत्येक वस्तु में आत्मा की झांकी देखना और उसके रुप का चितवन करना, यही प्रज्ञाधारी पुरुषों का कर्तव्य होता है।
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" सम्यक् आचार
[१८७
करनानुयोग संपूरनं, स्वात्मचिंता सदा बुधै । स्वसरूपं च आराध्यं, करनानुयोग सास्वतं ॥३५०॥ करणानुयौगिक शास्त्र पढ़ने का, यही अभिप्राय हो । हो यही चिंतन, आत्महित का, कौन श्रेष्ठ उपाय हो । करणानुयोगिक ग्रंथ पढ़ने का, उसी क्षण श्रेय है । जिस क्षण सुजन यह जानलें, यह आत्मा ही ज्ञेय है।
करणानुयोग के शात्रों को पढ़कर मनुष्य को अपने आत्म चितवन के साधन ढूंढ निकालना चाहिये, मानो कारणानुयोग के सम्पूर्ण शास्त्र, पढ़ने वाले को बार बार यही सम्बोधन करते हैं। अपने म्वरूप का आराधन करना ही, करणानुयोग के सम्पूर्ण शास्त्रों का स्वाध्याय कर लेना है।
सुद्धात्मा चेतन जेन, उर्व हियं श्रियं पदं । पंच दीप्ति मयं सुद्ध, सुद्धात्म सुद्धं गुनं ॥३५१॥ जो शुद्ध आतम का कराते, इस त्रिजग को ज्ञान हैं । जो ॐ हीं व श्रीं के, गाते अलौकिक गान हैं। जिनके प्रकाशित पंचदीप्ति स्वरूप से शुचि गात्र हैं । शुद्धात्म-गुण से पूर्ण वे, करणानुयौगिक शास्त्र हैं।
जो तीनों लोक को शुद्धात्मा का ज्ञान करायें; ओम् ह्रों व श्री पदों पर विस्तृत प्रकाश डालें और पाँचों परमेष्ठियों का स्पष्ट रूप समझायें तथा परिणामों की उन बारीक से बारीक परिणतियों का ज्ञान करायें कि जिनके आधार से गतियों के गमनागमन का स्पष्ट मान होने लग जाता है, वही करणानुयोग के शास्त्र कहलाते हैं ।
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१८८]
सम्यक् आचार
मल्यं मिथ्या मयं प्रोक्तं, कुन्यानं त्रि विमुक्तयं । ऊर्धं च ऊर्ध सद्भावं, उर्वकारं च विंदते ॥३५२॥ करणानुयौगिक शास्त्र से जो, प्राप्त करते ज्ञान हैं । उनको उचित वे त्याग दें, जो तीन शल्य महान हैं । जो तीन मिथ्या ज्ञान हैं, उनका भी वे वर्जन करें । शुचि ॐ के ही गान से वे, हृदय के कण कण भरें ।।
करणानुयोग के शास्त्रों का स्वाध्याय कर लेने के पश्चात मिथ्याम्प तीन शल्यों का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये; तीन प्रकार के कुज्ञानों से अपना हृदय अछूता बना लेना चाहिये और जो मुक्ति स्वभाव का धारी ओम् है, सदा उसी के चितवन में लीन रहना चाहिये। . . .
द्रव्य दिस्टी च संपूरनं, सुद्ध मंमिक्त दर्सनं । न्यान मयं माथं सुद्धं, करनानुयोग स्वात्म चिंतनं ॥३५३॥ द्रव्यार्थिक नय ही सुजन, वह एक अनुपम दृष्टि है । सम्यक्त्व की करती सृजन जो, अंतरों में सृष्टि है ॥ करणानुयौगिक ग्रंथ, इस नय से ही पढ़ना चाहिये । हो स्वात्ममय,शिवमार्ग में, प्रति निमिष बढ़ना चाहिये ।।
निश्चयनय या शुद्ध द्रव्याथिक नय ही एक ऐसी दृष्टि है, जिससे सम्यक्त्व की यथार्थ अनुभूति हो सकती है अथवा सम्यक्त्व से रंगे हुए पदार्थों के अंतर में सम्यक् विधि प्रवेश हो सकता है। करणानुयोग के पाटियों को उस कोटि के सारं ग्रन्थ इसी नय से पढना चाहिये, जिससे परिणामों व वस्तुओं का यथार्थ म्वरूप समझा जा सके ।
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सम्यक आचार
ho ho ho
चरनानुयोग चारित्रं, चिद्रपं रूप दिस्टते । ऊर्ध अर्धं च मध्यं च, मंपूरलं न्यान मयं धुवं ॥३५४॥ चरणानुयौगिक ग्रन्थ में, रहते विमल चारित्र हैं । दिखते हैं सत् चिद्रप के, सर्वत्र उनमें चित्र हैं। होता है जब उनके पठन में, आत्मा तल्लीन है।
दिखता है तब त्रैलोक्य ही, शुद्धात्मा में लीन है ।। चरणानुयौगिक शास्त्रों में मुनियों या सद्गृहस्थों के चारित्रों का समावेश रहता है। उनमें उन विमल आत्माओं के चरित्र चित्रण किये गये होते हैं, जोकि अपने पद से बढ़कर परमात्मा बन गई थीं या जिन्होंने यह दिखा दिया था कि आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता विद्यमान है । जिस समय इन ग्रन्थों के स्वाध्याय में मन तल्लीन होता है, उस समय ऐसा प्रतीत होता है, मानो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक, तीनों लोक में शुद्धात्मा का ही गुंजार हो रहा है।
षट् कमलं त्रि लोकं च, सार्द्ध धर्म संजुतं । चिद्रूपं रूप दिस्ते, चरनं पंच दीप्त यं ॥३५५॥ पटकमल कर ओंकारमय, धरता जो धर्मध्यान है । चैतन्य का होता उसे, साक्षात्कार महान है । जो पंचदीप्ति-समूह करता, शुभ्र, पूर्ण प्रकाश है । उनके हृदय-आकाश में, चारित्र का ही वास है।
जो अपने छहों कमल को ओंकारमय करके, उसका ध्यान करता है, उसे आत्मा का साक्षात्कार होते देर नहीं लगती। संसार में पंच परमेष्ठी के नाम से जो ज्योतियें प्रकाश कर रही है, उनमें भी यही म्वरूपाचरण निश्चय चारित्र रमण कर रहा है, अर्थात वे भी इसी चारित्र के बल पर इन संसार श्रेष्ठ पदों पर मुशोभित हुए हैं।
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१९०] ....
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सम्यक् आचार
दिव्यानुयोग उत्पादंते, दिव्य दिस्टी च संजुतं । अनंतानंत दिस्ते, स्वात्मानं वक्त रूप यं ॥३५६॥ द्रव्यानुयौगिक ग्रंथ का स्वाध्याय, सौख्यागार है । यदि शुद्धनय हो तो, इसी सुख का न पारावार है॥ जिस भांति दिखता आत्म का, शुद्धात्मा सत् रूप है । दिखता है निश्चय दृष्टि से, त्यों विश्व ही चिद्रप है ॥
द्रव्यानुयौगिक ग्रंथों का स्वाध्याय मनन अत्यंत सुखद होता है। यदि इन ग्रन्थों के पढ़ने में निश्चयनय दृष्टि का उपयोग किया जाय, तब तो यह आनन्द और भी बढ़ जाता है। जिस प्रकार मनुष्य को अपनी आत्मा शुद्धात्मा के रूप में दृष्टिगोचर होती है, द्रव्यानुयौगिक ग्रन्थों को पढ़ने से मनुष्य को द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से उसी प्रकार संसारकी आत्मायें शुद्धात्मा या परमात्मा के रूप में दिखाई देती हैं।
दिव्यं द्रव्य दिस्टी च, सर्वन्यं सास्वतं पदं । नंतानंत चतुष्टं च, केवलं पदमं धुवं ॥३५७॥ यह द्रव्यदृष्टि अपूर्व है, अनुपम है. शोभाधाम है । दिखता है जिसकी दृष्टि में, सर्वज्ञ आतमराम है ।। वह जानती, रे ! आतमा अगणित गुणों से युक्त है ।
वह केवली, वह पद्म, ध्रुव, वह चतुष्टय संयुक्त है । यह निश्चयनय या द्रव्यदृष्टि एक अपूर्व शोभनीक वस्तु है, जो अपनी आत्मा के सर्वज्ञ, शाश्वत और ध्रुव पदार्थ के रूप में दर्शन करती है । व्यवहारनय या परमार्थिकनय आत्मा को, जहाँ कर्मों के गाढ़ अंधकार से लिप्त, संसारी और नाशवान मानती है, वहाँ ही यह नय उसी आत्मा को चार चतुष्टयों से युक्त, केवली ध्रुव और कमल के समान हमेशा प्रफुल्लित रहने वाली मानती है।
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सम्यक् आचार
चत्वारि गुण जानते, पूजा वेदंत जे बुधै । मंसार भ्रमण मुक्तस्य, सुद्धं मुक्ति गामिनो ॥३५८॥
करता है विज्ञ सदा, चतुर अनुयोग का अभ्यास है । होता है इनकी अर्चना में, विपुल सौख्याभास है । भव-सिन्धु में चिरकाल से, जो डूबते, अज्ञान हैं ।
श्रुतियें बचाकर उन्हें करती, मोक्ष-सौख्य प्रदान हैं । जो बुद्धिमान पुरुष होते हैं, वे इन चारों अनुयोगों के शास्त्रों का भली प्रकार अभ्यास करते हैं। ये शास्त्र संसार में भ्रमण करने वाले प्राणी को, संसार से छुड़ा देते हैं और अंत में उसे मोक्ष का मुख प्रदान करते हैं।
sho sho ho ho
श्रियं संमिक दर्सनं च, संमिक दर्सन मुद्यमं । मंमिक्तं संपूरनं सुद्धं च, ति अर्थ पंच दीप्तयं ॥३५९॥ सर्वज्ञभाषित सुश्रुत क्या हैं ? स्वयं ही सम्यक्त्व हैं । सम्यक्त्व, वह जिसमें निहित रे ! विश्व के सब तत्व हैं । जो तीन रत्नों का गगनचुम्बी, अलौकिक केतु है।
सम्यक्त्व, वह परमेष्ठियों का, जो प्रकाशन हेतु है ॥ सर्वज्ञ भाषित ये शास्त्र उस सम्यग्दर्शन के साक्षात प्रतीक हैं, जो सब अर्थों में सम्पूर्ण हैं और शुद्ध हैं, जिसके प्राधान्य में ज्ञान और आचरण दोनों का अस्तित्व निहित है तथा संसार को प्रकाशित करने वाले पंच परमेष्ठियों के स्वरूप को प्रकाश में लाने का जो एकमात्र साधन है।
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सम्यक् आचार
श्रियं संमिक दर्सनं सुद्धं, श्रियं कारेन उत्पादते । सर्वन्य न्यान मयं सुद्ध, श्रियं संमिक दर्सनं ॥३६०॥ सम्यक्त्व रूपी जिन बयन की, जो सुधा-सी धार है। श्रींकार-गिरि से भव्य वह, लेती महा अवतार है । शुचि, शुद्ध दृष्टि प्रतीक यह, होता जो निर्मल ज्ञान है ।
वह विश्व के विज्ञान का, होता अमूल्य निधान है। सम्यक्त्व रूपी जिनवाणी श्रींकार अर्थात साक्षात् मुक्ति श्री से उत्पन्न होती है। यह जिनवाणी संसार में जितने भी ज्ञान होते हैं, उन सबकी विशद भण्डार होती है। इसके ही सामर्थ्य से आत्मा में परमात्मापने का भान व ज्ञान-वैराग्य का प्रादुर्भाव होता है।
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न्यानं च मंमिक्तं सुद्ध, संपूरनं त्रिलोक मुद्यमं । सर्वन्य पंच मयं सुद्धं, पद वन्द्यं केवलं धुवं ॥३६॥ सम्यक्त्व से परिपूर्ण सम्यक्, ज्ञान ही शुचिज्ञान है । वह ही समीचीनत्व से संयुक्त, शुद्ध महान है॥ वह सर्व ज्ञान प्रधान, ज्ञान-समूह उसमें लीन है । वह ज्ञान ही है वंद्य, जो ध्रुव है, विनाश विहीन है ।।
जिनवाणी का ज्ञान सम्यक्त्व से परिपूर्ण होता है और सम्यक्त्व से परिपूर्ण ज्ञान ही संसार में सम्पूर्ण और शुद्ध ज्ञान कहलाने में समर्थ हो सकता है। यह ज्ञान सर्व ज्ञानों में श्रेष्ठ और विशुद्ध होता है और वही ज्ञान श्रेष्ठतम और वंदनीय कहा जा सकता है, जो कैवल्य प्राप्त कराने की क्षमता रखे ध्र व हो, विनाशहीन हो। जिनवाणी में ये सारी महत्तायें विद्यमान है।
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सम्यक् आचार
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श्रियं संमिक न्यानं च, श्रियं सर्वन्य सास्वतं । लोकालोकमयं सुद्ध, श्री संमिक न्यान उच्यते ॥३६२॥ श्रुतज्ञान क्या है ? कुछ नहीं, वह विमल सम्यग्ज्ञान है । श्रुतज्ञान क्या ? सर्वज्ञ का, शासन पुनीत महान है । शुचि विमल सम्यग्ज्ञान क्या? यह ज्ञान का वह पुंज है । नित लोक और अलोक का, जिसमें झलकता कुंज है।
सर्वज्ञ भाषित ये शास्त्र सम्यग्ज्ञान के साक्षात् स्वरूप हैं, जिनेन्द्र भगवान के शासन के ज्वलत प्रतीक है और उस ज्ञानपुंज के विशाल निधान है, जो लोकालोक से सम्बन्धित सम्पूर्ण विषयों को भली प्रकार जानते हैं।
श्रियं संमिक चारित्रं, संमिक्त उत्पन्न सास्वत । अप्पा परमप्पयं सुद्धं, श्री संमिक चरनं भवेत् ॥३६३॥ श्री जिन वयन से पूर्ण, ये श्रुत क्या ? परम चारित्र हैं । करते सृजन जो यथाख्याताचरण, नित्य पवित्र हैं। जिस निमिष बन जाता है चेतन, परम, ध्रुव चिद्रूप है ।
उस समय ही चारित्र का, परिपूर्ण होता रूप है ।। सर्वज्ञ भाषित ये शास्त्र निर्मल सम्यकचारित्र के उपमान हैं, जो अविनाशी, वीतराग यथाख्यात् चारित्र को जन्म देते हैं। चारित्र की सम्पूर्णता तभी कही जाती है, जब आत्मा अपने से चिपटे हुए कमों के बन्धनों को तोड़कर पूर्ण स्वाधीन हो जावे। जिनवाणो ऐसे हो दिव्य और मंगलमय मार्ग का प्रदशन करती है।
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१९४]
सम्यक् आचार
श्रियं सर्वन्य साथ च, स्वरूपं विक्त रूपयं । श्रियं संमिक्त धुवं सुद्धं, श्री संमिक चरनं बुधै ॥३६४॥ श्रुतज्ञान क्या ? सर्वज्ञ का साक्षात् पुण्य स्वरूप है । श्रुतज्ञान क्या ? आनंदघन, सत् ममल,ध्रुव चिद्रूप है ॥ जिस पंथ पर चल मनुज, बन जाता स्वयं तारणतरण ।
श्रुतज्ञान, वह सम्यक्त्व से, परिपूर्ण है शुद्धाचरण ॥ जिनवाणी सर्वज्ञ प्रभु का साक्षात् स्वरूप है; सत , चित , आनन्द घन परमात्मा है और मुक्ति की ओर ले जाने वाला वह मार्ग है जिस पर चलकर मनुष्य स्वयं विश्व को तारने वाला अविनाशी पुरुष बन जाता है।
पचहत्तर गुन वेदंते, माधं च सुद्धं धुवं । पूजतं अस्तुतं जेन, भव्य जन सुद्ध दिस्टिनं ॥३६५॥ ध्रुव, सत्य, मंगलमय, जो पचहत्तर गुणों का हार है। ध्रुव, सत्या, मंगलमय जो पहल चरणानुयौगिक ग्रन्थ का, सर्वस्व जो सुखसार है । उस हार को देते विनय से, जो हृदय पर ठौर हैं । वे भव्यजन ही शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं, शिरमौर हैं ।
चरणानुयौगिक ग्रंथों का सार ७५ गुणों में भरा हुआ है। जो उन गुणों की वंदना, साधना व पूजा करते हैं, वे नरश्रेष्ठ ही शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले कहाते हैं।
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सम्यक् आचार
एतत् गुन साई च, स्वात्म चिंता सदा बुधै । देवं तस्य पूजस्य, मुक्ति गमनं न संसयं ॥३६६॥ जो नर पचहत्तर गुणों का, करते विनय सम्मान हैं । जो स्वात्म के ही चिन्तवन में, लीन रखते ध्यान हैं। उन पुरुष को सुरवृन्द भी, आकर झुकाते माथ हैं । वे भव्य बनते मुक्ति-रमणी के, निसंशय नाथ हैं।
जो पुरुप पचहत्तर गुणों की साधना, वंदना व पूजा करते हैं तथा अपनी आत्मा के चिन्तवन में तल्लीन रहते हैं, उन्हें पुरुप तो क्या देवता भी शीश झुकाते हैं और वे निःशंसय मुक्ति के राज्य को प्राप्त करते हैं।
गुरुस्य ग्रंथ मुक्तस्य, राग दोषं न चिंतए । रत्नत्रयं मयं सुद्धं, मिथ्या माया विमुक्तयं ॥३६७॥ गुरु वही, जो न परिग्रहों की, बेड़ियों से युक्त हों । जो रागद्वेष-कुभावनाओं से, परे हों मुक्त हो । जो तीन रत्नों के विशद, अनमोल दिव्य निधान हो ।
मिथ्यात्व माया को न जिनके, हृदस्तल में स्थान हो । गुरु वही होत है, जो सर्व परिग्रहों से मुक्त हों; रागद्वेष का जो चिन्तवन भी न करते हों; रत्नत्रय के पवित्र जल से जिनकं हृदय प्रदेश पूर्ण पवित्र हों तथा मिथ्या और मायाचार से जो सर्वथा अछूते हों-- सर्वथा विलग हों।
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१९६] .................... सम्यक् आचार
गुरं त्रिलोक वेदंते, ध्यान धर्म संजुतं । ते गुरं सार्द्ध नित्य, रयन त्रय लंकृतं ॥३६८॥ गुरु वही धर्मध्यान जिनका, एकमात्र निधान हो । त्रिभुवनतली की वस्तुओं का, जिन्हें सम्यग्ज्ञान हो । दर्शन व ज्ञानाचार जिनके, हृदय के नव साज हों ।
संसार में आराध्य बस, ऐसे ही श्री गुरुराज हो । गुरु वही होते हैं, जिन्हें त्रिलोक के पदार्थों का सम्यग्ज्ञान हो; धर्मध्यान में जो सदा डूबे हुए रहते हों और रत्नत्रय से जिनके हृदय प्रदेश भलीभाँति आलोकित हों। जो इतने गुणों से पूर्ण हो बस उन्हीं विभूतियों का आराधन ज्ञानवान पुम्पों को करना चाहिये ।
स्वाध्याय
स्वाध्याय सुद्ध धुवं चिंते, मुद्ध तत्व प्रकासकं । सुद्ध मंपूरनं दिस्टं, न्यान मयं माधं धुवं ॥३६९॥ जो शुद्ध तत्व स्वरूप की. करते सुधा-सी वृष्टि हैं । जिनके कि पद पदमें वसी, शुचिज्ञान की सत सृष्टि हैं ।। इस भाँति के जो शास्त्र हों, श्रुत हों महान पुराण हों । उनके ही बस स्वाध्याय में, संलग्न सबके ध्यान हो ।
जो शुद्ध तत्व के स्वरूप का प्रकाशन करते हों; सम्यक्त्व की जो सृष्टि हों तथा जिनकं प्रत्येक वाक्य और पदों में ज्ञान की पवित्र रसधार बहती हो, ऐसे शास्त्र या धर्म पुस्तकों का शुद्ध हृदय से पठन करना हो वास्तविक बाध्याय होता है और इस प्रकार के स्वाध्याय करने में ही मनुष्य को दत्तचित्त रहना चाहिये।
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सम्यक् आचार
स्वाध्याय सुद्ध चिंतस्य, मन वचन काय रंधनं । त्रिलोकं तिअर्थ सुद्धं, अस्थिर सास्वतं धुर्व ॥३७०॥ स्वाध्याय से मन विकृतियों का, शीघ्र होता नाश है । मन, वचन, काय त्रियोग बनता दास, रहता पास है। इस आत्मा में निहित जो, जयरत्न-राशि महान है । स्वाध्याय उस निधि से, करा देता अमर पहिचान है ।।
स्वाध्याय करने से मनुष्य का चित्त पूर्णरूपेण शुद्ध हो जाता है; मन वचन काय तीनों योगों पर उसका अधिकार हो जाता है और आत्मा में जो रत्नत्रय का निधान छिपा हुआ है, उससे उसकी सदा के लिये ध्रुव और अमर पहिचान हो जाती है।
संयम
मंजमं मंजमं कृत्वा, मंजमं द्विविधं भवेत् । इन्द्रियानं मनोनाथा, रष्यनं त्रय थावरं ॥३७१॥ संयम क्या ? मननिग्रह है, संयम दो प्रकार सुजान है । इन्द्रिय प्रथम है, प्राणि संयम, द्वितीय भेद महान है । मन सहित पंचेन्द्रिय निरोधन, प्रथम संयम सार है । त्रस स्थावरों का त्राण, यह संयम द्वितिय सुख द्वार है ।।
अपने मनको वश में रखना इसी का नाम संयम है। संयम दो प्रकार का होता है (१) इन्द्रिय संयम (२) प्राणी संयम । पंचेन्द्रिय सहित मनका निरोध करना इसे इन्द्रिय संयम और त्रस और स्थावर प्राणियों की रक्षा करना इसे प्राणी संयम कहते हैं।
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· सम्यक् आचार
संजमं संजमं सुद्ध, सुद्ध तत्व प्रकासकं । ति अर्थ न्यान जलं सुद्धं, अमनानं संयम धुर्व ॥३७२॥ निज आत्म में ही रमण करना, सुखद संयम सार है । बस यही संयम, दिव्य रत्नत्रय प्रकाशनहार है। निज आत्मा का ज्ञान-जल ही, रम्य तीर्थ सुजान है । करना इसी में स्नान, संयम यही शुद्ध महान है ॥
अपनी आत्मा में रमण करना, इसी का नाम वास्तव में शुद्ध संयम है और यही संयम वास्तव में शुद्ध तत्व को प्रकाश में लाने वाला होता है। अपनी आत्मा रूपी तीर्थ में, जो अथाह ज्ञान की गंगा भरी हुई है, उसी गंगाजल में स्नान करना, वास्तविक संयम है।
तप
तपस्च अप्प सद्भावं, मुद्ध तत्वस्य चिंतनं । सुद्ध न्यान मय सुद्ध, तथाहि निर्मलं तपं ॥३७३॥
शुद्धात्मा में ही ठहरना, बस तप इसी का नाम है। शुद्धात्मा का चितवन ही, पूर्ण तप अभिराम है ॥ चैतन्य से मंडित जो अपना, आत्मा गुणवान है ।
लवलीन हो जाना उसी में, तप यही गुणवान है । आत्मा के यथार्थ स्वभाव में ठहरना; निशिवासर आत्मा का ही चितवन करना या ज्ञानकूप आत्मा में निमग्न हो जाना, इसी का नाम वास्तव में तप है।
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• सम्यक् आचार
दान
दात्रं पात्र चिंतस्य, सुद्ध तत्व रतो सदा । धर्म रतो भावं पात्र चिंता दान मंजु || ३७४ ||
मुद्ध
"
यह आत्मा परमात्मा का श्रेष्ठ रम्य निधान है । करना इसी का चिंतवन, रे ! पात्रदान महान है ॥ जो शुद्ध आत्मिक धर्म में, लवलीन हैं संयुक्त हैं । वे सत्पुरुष सत्पात्रदान, सुभावना से युक्त हैं
जो शुद्धात्म तत्व में लीन हैं, ऐसे पुरुषों को दान का उत्तम पात्र मानना और उसका पात्रदान के लिये चितवन करना यही दान कहलाता है किन्तु अपनी आत्मा को शुद्धभावों का दान देना अपनी आत्मा में आप ही रमण करना, यही वास्तव में दान और यही वास्तव में आत्म अर्चना में निमग्न उत्तम पात्रों का अहर्निश चितवन करना है ।
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ये पट् कर्म मुद्धं च, जे साधति सदा बुधै । मुक्ति मार्ग धुवं मुद्धं, धर्म ध्यान रतो मदा ॥ ३७५ ॥
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सम्यक्त्व युत षटकर्म की, करते हैं जो नर साधना । वे सुजन करते हैं निरन्तर श्रेष्ठ सत् आराधना || बढ़ते हैं उनके मुक्ति पथ पर ही, चरण अभिराम हैं । रहते हैं धर्मध्यान में, वे लीन आठों याम हैं ॥
जो पुरुष शुद्ध कोटि के पटकर्मों की नित्यप्रति साधना करते हैं, वे नित्यप्रति मोक्षमार्ग की ओर ही अग्रसर होते रहते हैं; आर्त और रौद्र परिणाम उनसे छूट जाते हैं और धर्मध्यान की साधना में ही वे निमग्न बने रहते हैं ।
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२००
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सम्यक् आधार
ये षट् कर्म आराध्यं, अविरतं श्रावर्ग धुवं । मंसार सरनि मुक्तस्य, मोषगामी न संसयं ॥३७६॥ जो व्रतरहित श्रावक हैं, जिनको व्रतक्रियादि असाध्य हैं । उनके लिये भी भव्यजन, षटकर्म नित आराध्य हैं। षटकर्म करते हुए वे, संसार से तिर जायेंगे । यह बात संशयहीन है, वे मुक्ति-पथ पा जायेंगे।
जो व्रतहीन श्रावक हैं, उनके लिये भी ये षटकर्म साधने ही के योग्य हैं। यदि वे इन षट आवश्यक कर्मों की नित्यप्रति सम्यक् साधना करें, तो उनका भी संसार समय पाकर सूख जाये और वे भी बिना किसी संशय के आवागमन से छूटकर मुक्ति का अनन्त साम्राज्य पा जायें।
एतत् भावनं कृत्वा, श्रावग मंमिक 'दस्टितं । अविरतं मुद्ध दिस्टी च, मार्धं ज्ञान मयं धुवं ॥३७७॥ पटकर्म किस विधि हों समुन्नत, यही करते चितवन । अवती सम्यग्दृष्टि करता है, व्रती-सा आचरण ॥ वह अवती, पर वस्तुतः वह पूर्ण सम्यग्दृष्टि है । सम्यक्त्व की उसके हृदय में, सतत होती वृष्टि है।
अत्रत सम्यग्दृष्टि इन पटकमों को समुन्नत बनाते रहने की भावना करते हुए,नित्यप्रति सम्यग्दृष्टि के सदृश ही आचरण करता रहता है। यद्यपि उसका 'अत्रती' अवश्यमेव नाम होता है, किन्तु अवती होते हुए भी वह पूर्ण सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि सम्यक्त्व का अथाह सिन्धु उसके अंतस्तल में पाठोंयाम नहरें लिया करता है।
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NIRErrntain
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तीर्थक्षेत्र श्री सेमरखेड़ी का एक बाह्य दृश्य
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परम श्रद्धालु और कठोर साधनाओं में रत
व्रती सम्यग्दृष्टि के विचार और उसके कर्तव्य
(चतुर्थ खण्ड)
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परम प्रहालु
और कठोर साधनाओं में रत
व्रती, सम्यग्दृष्टि के विचार और उसके कर्तव्य
[३७८ से ४४४ तक]
"सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं, यद्वजेपि पतत्यमी भयचलत्रैलोक्यमुक्तावनि । सर्वामेव निसर्ग निर्मयतया शंकां विहाय स्वयं, जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुष बोधाळ्यवन्ते न हि ॥"
सम्यग्दृष्टि जीव बड़े ही साहसी होते हैं । ऐसा वज्रपात हो कि जिसके होते हुए, तीनों लोक के प्राणी भयभीत हो, मार्ग छोड़ भाग जावें, तो भी वे महान आत्मा के धारी, स्वभाव से निर्भय रहते हुए. सर्व शंकाओं को छोड़कर, अपने आपको अविनाशी. ज्ञानशरीरी जानते हुए, आत्मिक अनुभव से व आत्मज्ञान से कभी पतित नहीं होते हैं ।
-आचार्य अमृतचंद्र (समयसार कलश)
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परम श्रद्धालु और कठोर साधनाओं में रत व्रती सम्यग्दृष्टि के विचार और उसके कर्तव्य
ग्यारह प्रतिमाओं का उत्तरोत्तर पालन
श्रावग धर्म उत्पादंते, आचरनं उत्कृष्टं सदा । प्रतिमा एकादमं प्राक्तं, पंच अनुव्रतं सुद्धये ॥३७८॥ श्री जिन भाषित धर्म-रत्न के, घर घर ध्वज फहरायें । सब संसारी जीव आचरण, अपना श्रेष्ठ बनायें ॥ शुद्ध, पंच अणुव्रत हो जायें, तपकर कुन्दन नाई ।
श्री जिन शासन में इससे, ग्यारह प्रतिमा दरशाई ।। श्री सर्वज्ञ प्रभु के द्वारा कथित मार्ग का अनुसरण करके, गृहस्थगण अपना आचरण पवित्र से पवित्रनम बनायें: धर्म की वृद्धि हो और पंच अणुव्रत तपकर स्वर्ण की नाईं शुद्ध हो जायें, जिनशासन में इसी हेतु ग्यारह प्रतिमाओं का निर्देशन किया गया है। ये प्रतिमाएँ ग्यारह स्थान भी कहलाती हैं।
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२०४]
सम्यक् आचार
ग्यारह प्रतिमाएं
दंसन वय सामाइ, पोसह सचित्त चिंतनं । अनुराग बंभवर्यं च आरंभ परिग्रहस्तथा ॥ ३७९ अनुमति उद्दिष्ट देमं च प्रतिमा एकदसानि च । व्रतानि पंच उत्पादंते, श्रूयते जिनागमं ॥ ३८० ॥
दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित विरत, अनुराग 1 ब्रह्मचर्य, आरंभ, परिग्रह, अनुमति, उद्दिष्ट त्याग ॥ ये एकादश प्रतिमाएं हैं, भव्यो सुख की सागर । पंच अणुव्रत और जिनागम के सागर की गागर ॥
(१) दर्शन, (२ व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोपध, (५) सचित्त त्याग, (६) अनुराग भक्ति, (७) ब्रह्मचर्य, (=) आरंभ त्याग, (६) परिग्रह त्याग, (१०) अनुमति त्याग, (११) उद्दिष्ट भोजन त्याग, ये ग्यारह प्रतिमाएँ होती हैं ।
यहाँ तक एकदेशत्रत की मर्यादा होती है। इन ग्यारह प्रतिमाओं के सीमावद्ध प्रदेश में पंचागुतों की शक्ति को बढ़ाया जाता है और जिन आगमों का यथेष्ट आभास किया जाता है ।
अहिंसा नृतं येन, अमृतेयं भ परिग्रहं ।
सुद्ध तत्व हृदयं चिंते, मार्द्ध न्यान मयं धुवं ॥ ३८९ ॥
हिंसा, चोरी, झूठ, परिग्रह और कुशील दुखारी । इन पापों को तज जो बनता, पंच अणुव्रत धारी ॥ ज्ञानमयी, ध्रुव आत्मतत्व का, जो अनुभव करता है । वह नर प्रतिमाऐं पालन को, आगे पद धरता है ||
हिंसा, चोरी, झूठ, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों से जो पूर्ण विमुक्त हो जाता है तथा शुद्ध आत्मतत्व के चिंतन करने ही में जो लीन बना रहता है, वही पुरुष प्रतिमाओं को पालने के लिये अपने पद आगे बढ़ाता है ।
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सम्यक् आचार
[२०५
दर्शन प्रतिमा प्रतिमा उत्पादंते जेन, दर्सनं सुद्ध दर्सनं । उर्वकारं च विदंते, मल पच्चीस विमुक्तयं ॥३८२॥ विज्ञो ! जो मानव बनता है, दर्शन प्रतिमा धारी । वह नितप्रति धारण करता है, प्रिय दर्शन सुखकारी ॥ पंचविंश मल का दल, उसके पास नहीं आता है ।
वह नितप्रति शुचि ओम् मंत्र ही, अनुभव में लाता है । जो मनुष्य दर्शनप्रतिमा को धारण करता है, वह अपने हृदय में दर्शन ( मम्यक्त्व ) को सबसे पहले स्थान देता है। सम्यग्दर्शन को दूषित करनेवाले जो पच्चीस दोष होते हैं, उनको वह पूर्ण रीति से विलग कर देता है। महामंत्र ओम् का चितवन करना इस प्रतिमाधारी के कर्तव्य का एक प्रमुख अंग होता है।
मूढत्रयं उत्पादंते लोक मूढं न दिस्टते । जेतानि मूढ दिस्टी च, तेतानि दिस्टि न दीयते ॥३८३॥ सम्पीड़ित होता न मृढताओं से, दर्शन धारी । लोकमूढता देती उसको, भूल न दुःख दुखारी । तीनों ही मूढत्व जहाँ पर, विकृति फैलाते हैं । दर्शन प्रतिमाधारी के, उस ओर न दृग जाते हैं।
दर्शन प्रतिमाधारी के सन्निकट तीन मूढ़तायें कभी भी नहीं दिखाई देती हैं, न उसके पास लोकमूढ़ता रहने पाती है न अन्य कोई भी। ये मूढ़तायें जहाँ कहीं भी विकृतियों का सृजन करती हैं, वहां इन दर्शन प्रतिमाधारियों की दृष्टि भी नहीं जाती है। अर्थात् ये पुरुष मूढ़ता से सनी हुई वातों को देखना तक पसन्द नहीं करते।
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२०६]
सम्यक आचार
लोक मूढं देव मूढं च, अनृतं अचेत दिस्टते । तिक्तते सुद्ध दिस्टी च, सुद्ध मंमिक्त रतो सदा ॥३८४॥ लोकमूढता के समान ही, मिथ्या मति की प्याली । दर्शन धारी को दिखती है. देवमूढता काली ॥ वह इनको अपने पैरों से, नितप्रति ठुकराता है।
समकित सागर आतम को ही, वह नितप्रति ध्याता है । दर्शन प्रतिमा धारी को लोकमूढ़ता के समान देवमूढ़ता भी बिलकुल अनिष्टकारी प्रतीत होती है। अनृत और अचेत वस्तु सम्बन्धी जितने भी राग होते हैं, उन सबको वह तृण के समान पैरों से ठुकरा दता है। उसका एकमात्र आराध्य होता है, उसका निर्मल सम्यग्दर्शन ! जिसकी आराधना व साधना में वह हमेशा ही तल्लीन रहा करता है।
पाखंडी मूढ दिस्टी च, असास्वतं असत्य उच्यते । अधर्म च प्रोक्तं येन, कुलिंगी पाखंड तिक्तयं ॥३८५॥ असत्, अध्रुव द्रव्यों को रे जो. ध्रुव, नित, मत् कह गाते । जो अधर्म-प्रवचन कर जग को, झूठा मार्ग बताते ॥ ऐसे गुरुओं का पूजन ही, गुरुमूढत्व दुखारी । करते इनका भूल न चन्दन, दर्शन प्रतिमा धारी ।।
जो पारखण्डी, अशाश्वत वस्तुओं को शाश्वत, और अचेतन वस्तुओं को चेतन बताते हैं; जनता को झूठे धर्म का उपदेश दत है, ऐसे गुरुओं के फंदे में पड़कर दर्शन प्रतिमाधारी गुरुमूढ़ता का पातक अपने शीश पर नहीं लेते । ऐसे कुवेषधारी और पाखंडी साधुओं से वे बिलकुल ममत्व तोड़ देते हैं।
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सम्यक् आचार
अन्यानतन षट्कस्वैव, तिक्तते जे विचण्यना । कुदेव कुदेव धारी च कुलिंगी कुलिंग मानते ॥ ३८६ ॥
कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र हैं भव्यो, जन्म मरण के प्याले । ये तीनों औ इन तीनों के आराधक मतवाले || ये कहलाते षट अनायतन, जो नरकों के दानी | तज देता है इनको, दर्शन प्रतिमा धारी ज्ञानी ॥
कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और इन तीनों की उपासना करने वाले, ये छहों मिलकर छह श्रनायतन कहलाते हैं । दर्शन प्रतिमाधारी पुरुष इन छह अनायतनों की भूलकर भी संगति नहीं करते हैं, क्योंकि सांसारिक रागों को बढ़ाने वाले और मनुष्यों का नर्क में पतन कराने वाले होते हैं ।
कुसास्त्रं विकहा रागं, तिक्तते सुद्ध दिस्टतं । कुसास्त्रं राग वृद्धन्ते, अभव्यं नरयं पतं ||३८७ ||
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जिनके पृष्ठों पर दिखती हैं, पद पद पर विकथायें । दर्शनधारी उन ग्रंथों से, रंच न नेह लगायें ॥ राग बढ़ानेवाली ऐसी होतीं जो भी वाणी । उनमें रत हो नर्कों में ही लेता सांसें
प्राणी ॥
कुशास्त्र विकथाओं में राग बढ़ाने के कारण जानकर दर्शन प्रतिमाधारी सम्यग्दृष्टि पुरुष ऐसे शात्रों की मान्यता नहीं करता, क्योंकि कुशास्त्र सांसारिक वासनाओं में राग बढ़ाकर अभव्य जीव को नर्क पतन करा देते हैं ।
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२०८]
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सम्य क आचार
अन्यानी मिथ्या संजुतं, तिक्तते सुद्ध दिस्टतं । सुद्धात्मा चेतना रूब, साधं न्यान मयं धुर्व ॥३८८॥ मिथ्यामति से पूरित होते, जो अज्ञानाचारी । उनकी भूल न संगति करते, दर्शन प्रतिमा धारी ॥ सत्, चित्, आनंद का ध्रुव निश्चल, मुकुट पहिरने वाला । होता है बस विज्ञ दार्शनिक का, साथी गुणवाला ।।
दर्शन प्रतिमा धारी पुरुष, अज्ञान तिमिर से व्याप्त तथा माया मिथ्याचार से सने हुये पुरुषों की संगति बिना विलम्ब, अकिंचन पदार्थ की नाई छोड़ देते हैं। उनके जीवन का बस एक ही साथी होता है और वह, उनका सन, चित्, ध्रुव, आनंद, ज्ञानमय आत्मा ! जो प्रतिनिमिप उनके अंतर से उन्हें अपनी अलौकिक छवि दिखलाया करता है।
मद अस्टं संसय अस्टं च, तिक्तते भव्य आत्मनः । सुद्ध पदं धुवं साधं, दर्सन मल विमुक्तयं ॥३८९॥ दर्शन प्रतिमाधारी होता, भव्य आत्मा भाई । त्रास नहीं देते उनको, मद आट महा दुखदाई ॥ सम्यग्दर्शन के जो होते, आठ कलंक सुजन हैं। उनसे होकर मुक्त दार्शनिक, रहते आत्म मगन हैं।
दर्शनप्रतिमाधारी भव्य आत्मा के पास शंकादिक आठ मद भी नहीं रहने पाते हैं। इन दोषों को व उसी क्षण पद से ठुकरा देते हैं, जिससमय वे इस पुण्य प्रतिमा को अंगीकार करते हैं। ज्ञान से ओतप्रोत जो शुद्धात्मा है, उसी के चितवन में ये प्रतिमाधारी सर्व दोषों से मुक्त होकर निमग्न प्राय बने
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सम्यक् आचार ...
...... [२०९
जे केवि मल मंपूरनं, कुज्ञानं त्रि रतो सदा । ते तानि मंग तिक्तंते, न किंचिदपि चिंतए ॥३९०॥ पंचबीश दोषों से रे ! जो, परिपूरित रहते हैं । जिनके उर में त्रय कुज्ञानों के, पोखर बहते हैं। दर्शनप्रतिमाधारी उनका, नेक न चिंतन करता । वह उन मदों की संगति में, भूल न नेक विचरता ॥
जो मनुष्य शंकादिक पाठ दोष, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और पाठ मद, सम्यक्त्व को दृपित करनेवाले इन पच्चीस दोषों से तथा तीन कुज्ञानों से युक्त होता है, उन पुरुषों को दर्शनप्रतिम धारी भूलकर भी कभी संगति नहीं करता है, न उनका कभी वह चितवन ही करता है।
मल मुक्तं दर्सनं मुद्धं, आराध्यते बुध जनै । मंमिक दर्सन सुद्धं च, ज्ञानं चारित्र संजुतं ॥३९१॥ दर्शनप्रतिमाधारी धरते, वह समकित आभूषण । रंचमात्र जिसमें न दिखाते, शंकादिक अठ दूषण ॥ यदि सम्यग्दर्शन निश्चल है, ध्रुव है, शुद्ध, ममल है ।
तो ध्रुव, शुद्ध, ममल निश्चय से, ज्ञानाचार युगल है। दर्शनप्रतिमाधारी सदा उस ही सम्यक्त्व की आराधना करते हैं, जो पच्चीस दोषों से सर्वथा मुक्त रहता है, क्योंकि मलरहित सम्यग्दर्शन रत्नत्रय में सर्वोत्कृष्ट स्थान रखता है। जहां शुद्ध सम्यग्दर्शन है, वहां ज्ञान और चारित्र दोनों शुद्ध कहलाने की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं और जहां पर सम्यक्त्व ही शुद्ध नहीं होता, वहां ज्ञान और चारित्र अशुद्ध ही रहते हैं।
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२१०] .
सम्यक् आचार
दर्सन जस्य हृदयं च, दोष तस्य न पस्यते । विनास सकलं जानते, स्वप्नं तस्य न दिस्टते ॥३९२॥ जिसके अंतर में दर्शन का, होता शुद्ध बसेरा । दोषों की टुकड़ी न जमाती, फिर उस थल में डेरा ॥ दर्शनप्रतिमाधारी को जग, दिखता झूठी माया । जड़ द्रव्यों की उसे न दिखती, सपनों तक में छाया ।।
जिसके हृदय में दर्शन का प्रखर प्रदीप जगमगाया करता है, उसे सांसारिक दोषों से रंचमात्र भी राग नहीं होता है। दार्शनिक संसार के सारे पुद्गल पदार्थों को क्षण भंगुर और विनाशीक मानना है और उसे ऐसे पदार्थ स्वप्न तक में भी अपनी ओर आकर्षित करने में सफल नहीं होते हैं।
मंमिक्त दर्सनं सुद्धं, मिथ्या कुन्यान विलीयते । मुद्ध समय उत्पादते, रजनी उदय भास्करं ॥३९३॥ जिसके अंतर में बहती है, सम्यग्दर्शन-धारा । अनृत, अचेतन ज्ञान वहां से, हो जाता चिर न्यारा ॥ समकित-मणि से आतम में त्यों, हो जाता उजियाला । रवि आने पर ज्यों दिन होता, ढुल जाता निशि प्याला ॥
जिसके अंतर में सम्यक्त्व की शुद्ध धारा बहती है, मिथ्या ज्ञान उसके हृदय में क्षणमात्र भी नहीं ठहरने पाता है और जिस तरह प्रभात होने पर, निशा का साम्राज्य मिट जाता है और चारों ओर मुहावनी लाली छा जाती है, उसी तरह सम्यक्त्व के प्रभाव से प्रात्मा की विभाव परिणतियों का नाश होकर उसके चारों ओर शुद्धात्मा का शुभ्र प्रकाश छा जाता है।
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सम्यक् आचार
........... [२११
दर्सन तत्व सरधान, तत्व नित्य प्रकासकं । ज्ञानं तत्वानि वेदंते, दर्मन तत्व सार्धयं ॥३९४॥
आत्म तत्व में श्रद्धा करना ही. सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन ही दर्शाता, तत्वों को बुधजन है ।। आत्म तत्व में जब तक-जिस क्षण तक श्रद्धान न होगा। तब तक, उस क्षण तक. अंतर में सम्यग्ज्ञान न होगा ।
आत्मतत्व में श्रद्धा करना-प्रतीति करना इमीका नाम सम्यग्दर्शन कहा गया है। यह मम्यग्दर्शन तत्वों के म्वरूप को प्रकाश में लानेवाला होता है, अत: जब तक सम्यग्दर्शन या आत्मतत्व ने प्रतीति नहीं होती, नब तक मनुष्य को किसी भी प्रकार सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
संमिक दर्मनं सुद्धं, उर्वकारं च विंदते । धर्म ध्यानं उत्पाद्यते, हियं कारेण दिस्टिते ॥३९५॥ सम्यग्दर्शन का होता है, जब घट में उजियाला । तब ही छल छल छल कि छलकता शुद्धातम का प्याला ॥ दिखता है तब ही आतम में, परमातम पद न्याग । धर्मध्यान का उदित तभी बस, होता है ध्रुव-तारा ।।
जब अन्तस्तल में सम्यग्दर्शन रूपी सूर्य का उदय होता है, तभी महामंत्र ओम् का रहस्य समझने में आता है तभी धर्मध्यान की उत्पत्ति होती है और तभी आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार होता है। बिना सम्यक्त्व के इनमें से कोई सी भी बातें संभव नहीं होती।
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२१२]
सम्यक् आचार
उर्वकारं ह्रीकारं च, श्रींकारं प्रति पूर्नयं । ध्यानंति मुद्धध्यानं च, अनोव्रतं मार्धं धुवं ॥३९६॥
ॐ हीं श्रींकार मयी जो, होता ध्यान विशद है । वही ध्यान है शुद्ध विज्ञजन. वही ध्यान सुखप्रद है ॥ दर्शनप्रतिमाधारी नितप्रति, ध्यान वही धरता है । इसी ध्यान सँग पंच अणुव्रत, वह पालन करता है ।
ओम ह्रीं श्रीं से जो परिपूर्ण ध्यान होता है, वहीं यान आराधना करने के योग्य होता है। दशनप्रतिमाधारी इमी ध्यान को लेकर शुद्धात्मा के ध्यान में तल्लीन होता है और अपने अगावनों की माध पूरी करता है।
अन्यावेद कन्चैव, पदवी दुतिय आचार्य । न्यानं मति श्रुतं चिंते, धर्म ध्यान रतो मदा ॥३९७॥ आज्ञा, वेदक समकित धरता, दर्शनप्रतिमाधारी । करता है क्रमशः व्रतप्रतिमा का, साधन सुखकारी । मति श्रुतज्ञानों का नितप्रति ही, वह चिंतन करता है । परमानंद मगन हो नित वह, धर्मध्यान धरता है।
दर्शनप्रतिमाधारी को आगे चढ़ने के लिये नई मीढ़ी है व्रतप्रतिमा । मन्यक्त को पूर्ववत ही पालते हुए उसे जो अतिरिक्त साधनाएं करनी होती है, व होती हैं मति और श्रुनज्ञान के द्वारा शाम्राभ्याम और मन वचन काय की एकता से धर्मध्यान का साधन ! और इन्हीं में वह अपना अभ्यास बढ़ाता रहता है।
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सम्यक् आचार
[२१३
अनेय व्रत कर्तव्यं, तप संजम च धारनं । दर्सन सुद्ध न जानते, वृथं मकल विभ्रमं ॥३९८॥
कोई मानव कितने ही व्रत, कर नन क्षीण बनावे ? जप, तप, संयम धारण कर, नितप्रति नव भक्ति बढ़ावे ? पर यदि वह सत्पुरुष नहीं है, सम्यग्दर्शन धारी । तो उसके जप, तप, विभ्रम हैं, व्रत, संयम दुखकारी ।।
व्रतप्रतिमा की साधना में भी सम्यक्त की अन्यतावश्यकता है, क्योंकि व्रत मंयम, और नप, फिर वे चाहे कितनी ही संख्या में क्यों न किये गये हों, विना सम्यक्त के बिलकुल निरर्थक और निम्मार ही होते हैं और शुभ फल देने के बदले मनुष्य को विभ्रम-ग्रस्त बना देते हैं।
अनेक पाठ पठनं च, अनेय क्रिया मंजुतं । दर्मनं सुद्ध न जानते, वृथा दान अनेकधा ॥३९९॥ कितने ही पाठों को कोई, नितप्रति क्यों न उचारे ? चार भांति के पात्रदान कर, नित पटकर्म संवारे ।। पर यदि वह सत्पुरुष नहीं है, सम्यग्दर्शनधारी ।
तो उसके सब दान विभ्रम हैं, पाठ सभी दुखकारी ।। मनुष्य चाहे कितने ही पूजा और स्तुनि के पाट पढ़े दान द या अन्य अन्य धार्मिक क्रियाएं करने में दत्तचित्त रहे, किन्तु यदि उसे सम्यक्त का समीचीन बोध नहीं है या सम्यक्त से उसका हृदय अछूता है, तो उसके ये सारे क्रियाकाण्ड एकदम व्यर्थ और अशुद्ध है।
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सम्यक् आचार
दर्मनं यं हृदयं दिस्टं, सुयं न्यान उत्पादंते । कमठी दिस्टि यथा डिंभ, मुर्य वर्धति य बुधै ॥४०॥ जिसके अंतर में सम्यग्दर्शन, झर झर बहता है । उसमें शुचि श्रुतज्ञान निरन्तर ही, बढ़ता रहता है। कछुए के अंडे पर रखती, दृग बस उसकी माता । इतनी ही सदृष्टि मात्र से, अंडा बढ़ता जाता ॥
जिमकं हृदय में शुद्ध दर्शन विद्यमान रहता है, श्रुतज्ञान उसमें दिन प्रतिदिन प्रचुर मात्रा में बढ़ता ही जाता है। कछए की माता अपने अंडों पर प्रगाढ़ अनुराग की दृष्टि रखती है, पर इस अनुराग दृष्टि मात्रका फल यह होता है कि उसके अंडे अपने आप बढ़ते चले जाते है। उसे उनके लिये कोई कष्ट उठाना नहीं पड़ता।
दर्सन जस्य ह्रिदंश्रुतं, सुयं ज्ञानं च संभवं । मच्छका अंड जथा रेतं, सुयं वर्धन्ति जं बुधै ॥४०१॥ जिसका उर सम्यग्दर्शन का, पावन तीर्थस्थल है । उस उर को ही केन्द्र बनाता, नित श्रुतज्ञान विमल है ।। बालू में मछली का अण्डा, जैसे बढ़ता जाता । तैसे ही समकित थल में. श्रुतज्ञान वृद्धि को पाता ॥
जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन का बीज विद्यमान रहता है, वहां श्रुतज्ञान उत्पन्न होकर अपने आप बढ़ता चला जाता है। मछली रेती में अपने अंडे रख देती है, इसके पश्चात् उसे उसकी चिन्ता नहीं रहती, किन्तु रेती का वातावरण उन अंडों के लिये कुछ ऐसा होता है कि वे वहां अपने आप बढ़ते चले जाते हैं।
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सम्यक् आचार
[२१५
दर्सन हीन तपं कृत्वा, व्रत संजम च धारना । चपलता हिडि मंसारे, जल मरनि ताल कीटऊ ॥४०२॥ सम्यग्दर्शन के बिन जो नर, जप, तप साधन करते । सामायिक श्रुत-पाठ-पठन कर, नित संयम आचरते ।। वे मानव उन ताल-कंटकों सी टोकर खाते हैं । सरवर तज, जो अन्य जलों में, शरण नहीं पाते हैं ।
जो मनुष्य बिना सम्यक्त्व-आधार स्थल के व्रत, तप, मंयम पाठ-पूजा व अन्य क्रियाएं करते हैं वे तालाब में से उखड़ी हुई उस सिंघाड़े की बेल के समान होते हैं, जो संसार के किसी अन्य जलाशय में, तीनों काल फिर आने के बाद भी, कभी शरण नहीं पाती है और इस तरह अपनी पूर्व स्थिति से हमेशा के लिये हाथ धोकर, संसार-सागर में भ्रमण मात्र किया करती है।
दर्मनं स्थिरं जेन, न्यानं चरनं च स्थिरं । मंसारे तिक्त मोहंधं, मुक्ति स्थिरं सदा भवेत् ॥४०३॥
जिस उर में बहता ध्रव, निश्चल, शुचि सम्यक्त्व सलिल है। उस उर में रहता ध्रुव, निश्चल, ज्ञानाचार युगल है। जिसने इस मायावी जग से, अपना राग हटाया ।
उसने निश्चय ही ध्रव, निश्चल मुक्तिनगर को पाया ॥ जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन का अविरल और अथाह स्रोत बहता है, उसका हृदय ज्ञान और चारित्र दोनों से भलीभांति परिपक्व हुआ करता है। बात यह है कि संसार की मूढ़ता में याने मिथ्यात्व में जो फंसा रहता है, वह तो संसार में ही फंसा रह जाता है और इससे विपरीत जो संसार से विलग हो जाता है अर्थात सम्यक्त धारण कर लेता है, वह ज्ञान और चारित्र से भी निर्मल होकर एकदिन मुनिसौख्य पाता और पाता ही है।
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२१६]
सम्यक् आचार
एतत दर्मनं दिस्टा, न्यानं चरण सुद्धए । उत्कृष्टं व्रतं सुद्ध, मोष्यगामी न ममयं ॥४०४॥ ज्ञान आचरण शुद्ध बनें, व्रत पावन, शुचि हो जायें । एकोद्देश्य यही ले भविजन, सम्यग्दर्शन ध्यायें ।। इस विधि करता है जो, सम्यग्दर्शन का आराधन । वह नर निःशंकित पाता है, शिवपथ सुख का साधन ॥
ज्ञान और आचरण परिष्कृत बनकर, पूर्ण शुद्ध बन जायें, इस भावना को भाते हुए जो सम्यग्दर्शन की साधना करते हैं. वे नर मोक्ष के अनन्त सौग्य को पाते हैं इसमें कोई संशय नहीं है :
व्रत प्रतिमा
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दर्मनं साधन जस्य, व्रत तपस्य उच्यते । मा ति तत्वार्थ च, दर्मनं स्वात्म दमनं ॥४०५॥ जो मानव बन जाता है, दर्शन प्रतिमा का धारी । वह ही धारण कर सकता है, व्रत-प्रतिमा सुखकारी ॥ इस प्रतिमा में नित्य नियम से, वह व्रत, तप आचरता। आतम-चिंतनकर नितप्रति वह, आतम-दर्शन करता ॥
जो पुरुष मम्यग्दर्शन की साध पूरी कर लेता है, वही व्रतप्रतिमा धारण करने में समर्थ हो पाता है । इस प्रतिमा को धारण करनेवाला, व्रत, तप नियमों का पूर्ण पालन करनेवाला और अपने श्रात्मा का सदेव चिन्तवन करनेवाला प्राणी हुआ करता है।
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सम्यक् आचार
[२१७
सामायिक प्रतिमा
मामायिकं नृतं जेन, सम संपूरन सार्द्धयं । उधं च अर्धं मध्यं च, मन रोधो स्वात्म चिंतनं ॥४०६॥
जो समता-जल से शुचि होकर, ध्यान अचल धरता है । वह नर ही सम्यक ध्रुव निश्चल, सामायिक करता है ॥ सामायिक तब ही, जब होता त्रिभुवन से मन न्यारा । ध्याता को प्रतिनिमिष, आत्म का होता दर्शन प्यारा ॥
जो समता-जल से शुचि होकर, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक इन तीनों लोकों से अपने मन को खींचकर अपनी आत्मा में बढ़ रग्वता है और उसका भली प्रकार चिन्तवन करता है, वही पुरुष नामायिक को मम्यक प्रकार माधना करता है और इसी प्रकार सामायिक करनेवाला सामायिक प्रतिमा का धारण करनेवाला कहा जाता है।
आलापं भोजन गच्छं, श्रुतं सोकं च विभ्रम । मनो वच कार्य मुद्धं. मामायिक स्वात्म चिंतनं ॥४०७॥ सामायिक प्रतिमाधारी जब, सामायिक को धारे । तब वह मन,वच,कायों की, सब हलन चलन निर वारे ॥ भोजन, विभ्रम, शोक, गमन, आलाप और श्रुत भाई । ये तज, ध्याता सामायिक में, ध्यावे आत्म सुहाई ॥
सामायिक प्रतिमा धारण करनेवाले को उचित है कि सामायिक करते समय वह मन, वचन, काय इन तीनों योगों को पूर्ण स्थिर करले; सामायिक के काल वार्तालाप, भोजन, आना जाना, किसी बात को सुनना, शोक, विभ्रम आदि बातों से पूर्ण मुक्त रहना चाहिये, जिससे कि मन की स्थिरता भंग न होने पावे ।
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२१८] -
सम्यक् आचार
प्रोषधोपवास प्रतिमा पोषह प्रोषधस्चैव, उववासं येन क्रीयते । मंमिक्त जस्य हृदयं सुद्धं, उववासं तस्य उच्यते ॥४०८॥ प्रोषध या पर्वो के दिन, उपवास जो नर करता है । वह प्रोषध-उपवास नाम की, शुचि प्रतिमा धरता है । पर इस प्रतिमा का धारी, बस होता वह ही जन है। जिसके अंतरतम में रहता, ध्रुव सम्यग्दर्शन है।
प्रोषधोपवास प्रतिमा में पोषहरूप या पवों के दिन उपवास करने का नियम लिया जाता है। जो मनुष्य पवों के दिन या पोपहरूप नियम से सम्यक्त सहित उपवास करता है, वही प्रोषधोपवास प्रतिमा का धारण करनेवाला कहा जाता है।
संसार विरचितं जेन, सुद्ध तत्वं च सायं । सुद्ध दिस्टी स्थिरीभृतं उववामं तस्य उच्यते ॥४०९॥ सांसारिक रागों को जिसने, पद-तल से ठुकराया । शुद्ध आत्म को ही जिसने. अपना आराध्य बनाया ॥ जिस उर में धधका करती है. समकित की चिङ्गारी । वह नर ही प्रोषध करने का, है सम्यक अधिकारी ॥
लंघन का नाम उपवास नहीं ! जिसने सांसारिक रागों से मोह छोड़ दिया; शुद्ध तत्व की जिसके हृदय में प्रगाढ़ श्रद्धा हो गई तथा जिसके अंतर प्रदेश में सम्यक्त्व की कभी नहीं बुझने वाली आग प्रदीप हुआ करे उसी पुरुष के उपवास का नाम वास्तविक उपवास है और ऐसा ही उपवास प्रोषधोपवास प्रतिमाधारी को करने का निर्देशन किया गया है।
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सम्यक् आचार
उववासं इच्छनं कृत्वा, जिन उक्तं इच्छन जथा । भक्ति पूर्वं च इच्छंते, तस्य हृदय समाचरेत् ॥ ४१० ॥
जो मानव प्रोषध करने की, शुभ इच्छा करता है । वह विराग के आदेशों को, मस्तक पर धरता है ॥ पर अंतरतम से ही जब उपवास किया जाता है । तब ही वह उपवास नाम की, शुचि संज्ञा पाता है ॥
उपवास करने की साधारण इच्छा करना, जिनराज प्रभु के आदेशों का सम्मान करना है, किन्तु इच्छा में भक्ति या सम्यक्त का समावेश हो जाना - आदेशों को मान्य कर लेना प्रत्यक्ष या क्रियारूप में उपवास कर लेना है। तात्पर्य यह कि उपवास तभी होता है, जब उसकी सारी क्रियाओं में सम्यक्त का भलीभाँति तारतम्य हो, विना उसके सम्यक् उपवास संभव नहीं ।
उववासं व्रतं सुद्धं, सेमं संसार तिक्तयं ।
पछितो तिक्त आहारं उववामं तस्य उच्यते ॥ ४११ ॥
[२१९
सुजन - शिरोमणि जिस दिन साधें, रे ! उपवास प्रियङ्कर । उस दिन वे भत्र ममता छोड़ें, छोड़ें भाव भयङ्कर ॥ इन संकल्पों को लेकर, जो भोजन छोड़ा जातो । वह ही जिन शासन में भव्यो, शुचि 'उपवास' कहाता ||
जिस दिन उपवास की साधना की गई हो, उस दिनके जीवन में 'शुद्ध उपवास व्रत' ही गूंजना चाहिये और कुछ नहीं । सारे संसार की ममता उस दिन छोड़ दी जाना चाहिये और वह भी प्रतिज्ञा रूपसे अर्थात् उपवास करने की प्रतिज्ञा से पहले यह संकल्प कर लेना चाहिये कि आज मुझे भव, तन और भोग इन तीनों का परित्याग है। संकल्प रूपसे संसार को त्यागना और फिर उपवास धारण करना, बस इसी का नाम शुद्ध उपवास है ।
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२२०]
सम्यक् आचार
उववास फलं प्रोक्तं, मुक्ति मार्गस्य निस्चयं । संसार दुःख नामंते, उववामं सुद्धं फलं ॥४१२॥ विज्ञो! यह उपवास अनेकों, मृदु फल का दाता है । इसका साधक मुक्तिमार्ग को, निश्चल ही पाता है ॥ इस तप से सांसारिक दुःखों का, दल-बल मिट जाता । स्वात्म-रमण-सुख इस साधन से, वृद्धि अलौकिक पाता ॥
जो पुरुप सम्यक् उपवास का साधन करता है, वह नियम से मोक्षफल का भोगनेवाला बन जाया करता है। इस उपवास-साधन से जहाँ संसार दुःखों का नाश हो जाना है, वहां आत्म-भावों की भी अलौकिक रूप से वृद्धि होते, इसी उपवास से देखी गई है ।
संमिक्त बिना व्रत जेन, तपं अनादि कालयं । उवासं माम पाषं च, मंमारे दुष दारुलं ॥४१३॥ सम्यग्दर्शन बिन, अनादिकालीन तपस्याधारी । मिथ्या तप तपने से पाता, भव भव दुख दुखकारी ॥ मासों के पक्षों के भी. उपवास, तभी सुखदाई । उनके कण कण में जब गूंजें, दर्शन-चरण सुहाई ॥
विना सम्यक्त के साधे हुए व्रत, तप और क्रियाकांड ये सब मात्र मंमार के दुःखों को ही बढ़ाने वाले हुआ करते हैं फिर ये व्रत तप अनादिकाल से ही और पन और मासों के ही होते क्यों न चले आये हों ?
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सम्यक आचार
[२२१
उववासं एक सुद्धं च, मन सुद्धं तत्व माधयं । मुक्ति श्रियं पथं सुद्धं प्राप्तं नात्र (न अत्र) संसया ॥४१४॥ आत्म तत्व की मधुर भावना का पी मादक प्याला । अपने वश कर अपना दुर्दम, मन-मधुकर मतवाला ॥ एक बार भी कर लेता रे! जो उपवास सुजन है । वह निश्चय से पा जाता, चिर सुख का नन्दन-वन है ॥
जो पुरुप शुद्धात्म भाव से, शुद्ध मन के साथ केवल एक उपवास कर लेता है, वह मुक्ति के पथ को पा जाता है, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है ।
मचित्त त्याग प्रतिमा
मचित्त चिंतनं कृत्वा, चेतयंति मदा बुधै । अचेतं अमत्य तिक्तंते, मचित्त प्रतिमा उच्यते ॥४१५॥ जो सचित्त या शुद्ध आत्मा, है अगणित सुख साधन । करते हैं उसका ही नितप्रति, जो अर्चन गुणवादन ।। असत् , अचेतन का न कभी भी, जो चिंतन करते हैं । वे सज्जनगण सचित त्याग नामक प्रतिमा धरते हैं ।
...जो नित्यप्रति सचित्त अथवा शुद्धात्मा के चितवन में ही लीन रहता है; अचित्त, अचन और असत्य पदार्थ का जो बिलकुल ही वर्जन कर देता है, वह प्रज्ञाधर मचित्त प्रतिमा का धारी कहलाता है।
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२२२]
सम्र्पक आचार
मचित हिरतं जेन, तिक्तंते न विरोधनं । मचितं सन्मूर्छनं च, तिक्तंते सदा बुधै ॥४१६॥ हरित वनस्पतियें जो मानव, रंच नहीं खाते हैं । जो प्रमादवश व्यर्थ न उनको, पीड़ा पहुँचाते हैं। सचित, एकेन्द्रिय, सम्मूर्छन भी तज देते जो प्राणी । वे ही होते हैं, सचित्त प्रतिमा के धारी ज्ञानी ।
जो मचित्त या हरित वनस्पतियों का और एकेन्द्रिय सम्मूर्छन का बिलकुल त्याग कर देते हैं तथा जो किमी भी वनस्पतिकायिक जीव को प्रमादवश न तो तोड़ते हैं, न उसे व्यर्थ में किसी प्रकार का कष्ट ही पहुंचाते हैं, वही पुरुष मचित्तप्रतिमा के धारण करनेवाले कहलाते हैं ।
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सचित्तं हिरत तिक्तं, अचित्तं सार्ध तिक्तयं । मचित चेतना भावं, मचित्त प्रतिमा सदा बुधै ॥४१७॥
सचित वनस्पति साथ मिली हुई, अचित वनस्पति प्राणी । सेवन करते हैं न कभी, पंचम-प्रतिमा-धर ज्ञानी ।। जो सचेत आतम होता है. सत्, चित्, सुख का साधन । मचित-त्याग-प्रतिमा-धर करते, उसका ही आराधन ॥
जो मचित्त या हरित वनस्पतियों का तो त्याग कर ही देते हैं, किन्तु जो सचित्त के साथ मिली हुई अचित्त वनस्पति का सेवन भी नहीं करते हैं; सदा शुद्धात्मा के ध्यान में ही जो तल्लीन रहा करते हैं, वही पुरुष मचित्तप्रतिमा का धारण करनेवाले कहलाते हैं।
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सम्यक् आचार
२२३
अनुराग भुक्ति प्रतिमा अनुराग भक्तिं दिस्टं च, राग दोष न दिस्टते । मिथ्या कुन्यान तिक्तं च, अनुरागं तत्र उच्यते ॥४१८॥ राग द्वेष, कुज्ञान कषायें, जिसने छोड़ दिये हैं। जाग गये आतम चिंतन से, जिनके हृदय-दिये हैं। असत्, अनृत, त्रय शल्यों के दल, जिनसे दर विचरते ।
वे मानव अनुराग-मुक्ति, षष्ठम प्रतिमा हैं धरते ॥ जो रागद्वेष के विकारों से सर्वथा रहित हो जाता है; मिथ्यात्व और कुज्ञान जिससे भलीभाँति विलग हो जाते हैं तथा जिसका हृदयाकाश आत्मा के शुद्ध और प्रखर प्रकाश से जगमग कर उठता है, वही नर अनुराग भुक्ति प्रतिमा धारण करने के योग्य होता है।
सुद्ध तत्वं च आराध्यं, असत्यं सर्व तिक्तयं । मिथ्या संग विनिर्मुक्तं, अनुराग भक्ति सार्धयं ॥४१९॥ शुद्ध तत्त्र का ही जिस उर में, शुचि निर्झर बहता है । असत्. अचेतन संगों से जो, दूर-दूर रहता है। मिथ्यादर्शन की जिस पर रे ! पड़ती छाँह न काली ।
वह ही जन अनुराग-भुक्ति-धर, होता गौरवशाली ॥ जो मनुष्य शुद्ध तत्त्व का आराधन करता है और असत्य अनृत पदार्थों के राग तथा तीन शल्यों के ताप से बिलकुल पृथक हो जाता है, वही अनुराग-भक्ति प्रतिमा धारण करने में समर्थ होता है।
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२२४]
सम्यक् आचार"
ब्रह्मचर्य प्रतिमा वंभ अबभं तिक्तं च, सुद्ध दिस्टी रतो सदा। मुद्ध दर्सन ममं सुद्धं, अबभं तिक्त निस्चयं ॥४२०॥ ब्रह्मचर्य प्रतिमा में नित मन, ब्रह्म-रमण करता है । इसका साधक शुद्ध दृष्टि हो, ब्रह्म ध्यान धरता है। सम्यग्दर्शन-सी भावों में, जब शुचिता आ जाती । ब्रह्मचर्य-प्रतिमा तबही आ, अंतर-सेज सजाती ॥
ब्रह्मचर्य प्रतिमा में ब्रह्म का पालन और अब्रह्म का त्याग करना होता है। इस प्रतिमाधारी का मन नितप्रति ब्रह्म में ही रमण किया करता है; उसके हृदय में शुद्धदृष्टि का जागरण और समता भाव का उदय हो जाता है। जब श्रात्मा में सम्यग्दर्शन का प्रखर प्रकाश हो जाता है. तभी ब्रह्मचर्य नामक प्रतिमा का धारण किया जाता है।
जस्य चितं धुवं निस्चय, ऊर्ध अधो च मध्ययं । जस्य चित्तं न रागादि, प्रपंचं तस्य न पस्यते ॥४२१॥ ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी का, मन निश्चल रहता है । त्रिभुवन तल में चित्त न उसका, नेक कहीं बहता है । जिसके उर में रागद्वेष के, उड़ते मेघ न काले । उसमें बहते हैं न प्रपंचों के, मलपूरित नाले ॥
ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी का चित्त ऊर्ध्व, अधो और मध्यलोक इन तीनों लोकों में कहीं भी विचलित नहीं होता: सदा समताभाव में लीन बना रहता है। उसके सन्निकट रागद्वेष स्वप्न में भी नहीं आने पाते और न वह कभी प्रपंचों के जाल पूरने में ही व्यस्त रहता पाया जाता है।
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सम्यक आचार
[२२५
विकहा विमन उक्तं च. चक्र धरनेंद्र इन्द्रयं । नगेन्द्र विभ्रमं रूपं. वर्नत्वं विकहा उच्यते ॥४२२॥ सप्त व्यसन से सम्बन्धित जो, चर्चाएं रहती हैं । चक्र, इन्द्र, धरणेन्द्रों को जो, चर्चाएं कहती हैं । ऐसी चर्चाएं जो मनमें, रागादिक उपजातीं ।
परम, श्रेष्ठ, जिनवर के द्वारा, विकथाएं कहलाती ।। __ जिनमें व्यसनों की, चक्रधनियां की, इन्द्रों की, धरणन्द्रों को, राजाओं की या एमी चर्चा रहती है जो मन में रागद्वेप या विभ्रम उपजाद व सब कथानक विकथाएं कहलाते है।
व्रत भंगं राग चिंतते, विकहा मिथ्या रंजितं । अब तिक्त वंभं च, बंभ प्रतिमा म उच्यते ॥४२३॥ झूठे रागों के चिन्तन से, व्रत खण्डित हो जाते । विकथाओं से अनृत् असत्, मिथ्यात्व हृदय में आते ॥ यह सारी अब्रह्म-क्रिया, जब सब तज दी जाती है ।
ब्रह्मचर्य प्रतिमा तब ही, निज मुद्रा दिखलाती है । इन रागद्वेष और मिथ्यात्व से सनी हुई विकथाओं के चिन्तवन से ब्रह्मचर्य नामक व्रत भंग हो जाता है, क्योंकि इनके कहने सुनने से अब्रह्म पोषण का दूषण लगता है। जब अब्रह्म उपासना का सर्वथा त्याग हो जाता है तब ही सफलता पूर्वक ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की जा सकती है।
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२२६]
सम्यक् आचार
यदि वभचारिनो जीवो, भाव सुद्धं न दिस्टते । विकहा राग रंजंते, प्रतिमा बंभ गतं पुनः ॥४२४॥ ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी यदि, भाव अशुद्ध न होवे । विकथा-रागों में ही यदि वह, काल अमोलक खोवे ।। तो वह अपनी प्रतिमा से च्युत. खंडित हो जाता है ।
ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी वह, भूल न कहलाता है। यदि ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी के भावों में शुचिता दृष्टिगोचर नहीं होती है और यदि वह विकथाओं के कहने सुनने ही में आनन्द मनाता रहता है तो उसकी प्रतिमा भंग हो जाती है और फिर वह पुरुष किसी भी प्रकार ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करने का अधिकारी नहीं कहला पाता है।
चित्तं निरोधतं जेन, सुद्ध तत्वं च मार्धयं । तस्य ध्यानं च स्थितं भूतं, बंभ प्रतिमा म उच्यते ॥४२५॥ आत्म-कुंज में ही करता है, जिसका मन-कपि क्रोड़ा । रागादिक जिसके उर में आ, देते नेक न पीड़ा । स्वात्म-मग्न हो आतम की ही, जो अर्चन करता है ।
वह मानव ही सप्तम प्रतिमा, ब्रह्मचर्य धरता है । जिसको अपने मनके ऊपर पूर्ण अधिकार प्राप्त है और जो उसे सदा अपने शुद्धात्म-कुंज में स्थिरीभूत बनाये रहता है, वही आत्मा का पुजारी ब्रह्मचर्य प्रतिमा पालने में समर्थ हो पाता है।
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सम्यक् आचार
आरंभ त्याग प्रतिमा
आरंभ मन पसरस्य, दिस्टं अदिस्टं संजुतं । निरोधनं च कृतं तस्य, सुद्ध भावं च संजुतं ॥ ४२६॥
देखा या कि सुना या जिसको अवसर पाकर पाया । ऐसे जिन आरंभों में, जिसने मनको न भुलाया ॥ शुद्ध भावनाओं से करता, जो नर हृदय उजागर | वह आरंभ - त्याग - प्रतिमाधर होता सुजन गुणागर ॥
जो देखे हुए, सुने हुए, अनुभव किये हुए या अवसर पाकर पाये हुए किसी भी आरंभ में अपने मनको नहीं लगाता है: श्रारंभों की ओर से सदा उदासीन भाव धारण किये रहता है और सदा शुद्धात्मचितवन में लीन रहा करता है, वह पुरुष आरंभत्याग नाम को प्रतिमा का पालन करता है।
अनृत अचेत असत्यं आरंभ जेन क्रीयते ।
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जिन उक्तं न दिस्टंते, जिनद्रोही मिथ्या तत्परा ॥ ४२७ ॥
[२२७
अनृत, अचेत, असत्यपूर्ण जो, करते आरंभ काले ।
श्री जिन के आदेशों को जो भूल रहे मतवाले || ऐसे अज्ञानी, पापी, उदरों के पोषी मोही ।
होते हैं जिन - आज्ञा - लोपी, मिथ्यात्वी, जिनद्रोही ॥
जो विवेकाविवेक छोड़कर, अनृत, अचेत और असत्य उद्यमों को उदर पोषण की दृष्टि से अपने हाथ में लेते हैं, वे सवज्ञ महाप्रभु के आदेशों का रंचमात्र भी पालन नहीं करते और इस तरह मिथ्यात्व पूरित कर्म करने में तत्पर हो, जिनद्रोह का पाप अपने शीश पर उठाते हैं ।
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२२८]
सम्यक आचार
अदेवं अगुरं जेन अधर्म क्रियते मदा। विम्वामं जैन जीवम्य. दुग्गति दुप भाजनं ॥४२८॥
जो आरंभ परिग्रह के, जालों में फँस जाता है । वह अदेव, अगुरों की सेवा में, निज को पाता है । करता है वह नर अधर्म की, सेवाएं दुग्वकारी । और इस तरह बनता है यह, दृतियों का धारी ॥
जो अविवेकी पापों से मन हा आरंभ परिग्रहों में ग्रासक्त हो जाना है, वह अदवों की और अगुगं की उपासना करने में व अधम में प्ररित क्रियाओं के कग्न में पूरी नौर में फंस जाना है और इन अपृज्य नत्वों की पूजा करकं अंतकाल नक दुगनियों का पात्र बनना है।
आरंभं परिग्रहं दिन्ट, अनंतानंत च तुम्टये । ते नरा न्यानहीनम्य, दुग्गनि गमनं न मयः ॥४२९॥ अज्ञानी जगती के वैभव, देख देख ललचाता । वह भी उनही से आरंभों में, निज पर बढ़ाता ॥ पर आरंभ महा दुखदाई, आरंभी अज्ञानी ।
आरंभी दुर्गति का बनता, पात्र निसंशय ज्ञानी ।। अज्ञानी पुरुष दूसरों के प्रारंभों को देखकर मन ही मन ललचाया करना है और स्वयं भी उनहीं जैसे प्रारंभों को करने की बातें मन में सोचा करता है परन्तु ऐसा पुरुप विवेक से बिलकुल रहित होता है। क्या उसके भी अज्ञान की कोई सीमा होती है ? हिंसा से हुए आरंभ, अनन्तानंत प्राणियों के प्राण लेने के कारण और अशुभ ध्यान के प्रमुख द्वार हुआ करते हैं । अतः प्राणियों को वे दुर्गति प्रदान करते ही है, इसमें कोई भी संशय नहीं है।
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सम्यक आचार
[૨૨૬
आरंभ मुद्ध दिलं च. मंमिक्तं सुद्धं धुवं । दर्मनं ज्ञान चारित्रं, आरंभ सुद्ध मास्वतं ॥४३०॥
ज्ञानी का आरंभ यही. में शुद्ध भाव कब पाऊँ ? दर्शन का भाजन बन. का मैं सम्यग्दृष्टि कहाऊँ ? दर्शन पाकर कौन करूँ मैं. ऐसा उद्यम भारी । हो जाऊँ जिससे बड़भागी, ज्ञान-आचरण धारी ?
ज्ञानीजनों का एक ही प्रारंभ होता है. और वह है अपने अमृन्य शुद्धामिक भावों को पाने की उत्तरोत्तर उत्कट अभिन्नापा। वह प्रनिनिमिप यही चिन्नवन करना रहनामा कौनमा दिन आय कि मैं शुद्ध मम्यग्दर्शन पा जाऊँ किदिन मेरा हृदय शन से पूरित हो दिवाली मा जगमगा उट और दर्शन से पूर्ण होकर मैं कौन मा एमा उद्यम करूं कि ज्ञान और चारित्र में प्रगण होकर मैं सम्यक प्रकार पूर्ण बन जाऊँ मुझे फिर कुछ भी करने को शेप न रहे ! नानी का एमा प्रारंभ ही शुद्ध प्रारंभ कहलाता है, और यही आरंभ मोक्षलक्ष्मी को प्रदान करने वाला हुआ करता है।
आरंभं सुद्ध नत्वं च, मंमार दुप तिक्तयं । मोष्यमागं च दिम्टंते, प्राप्तं मास्वतं पदं ॥४३१॥
आत्मतत्व का ही विज्ञो ! आरंभ सदा सुखकर है । यह दिखलाता, अविनाशी, शिव सुन्दर मोक्ष-नगर है । सांसारिक दुख इससे सारे, नष्ट-भ्रष्ट हो जाते । शुद्ध तत्व-आरभी निश्चय, मुक्ति-महा-पथ पाते ।
शुद्ध तत्व से सम्बन्ध रखनेवाले आरंभ ही संसार में वास्तविक सुख प्रदान करने वाले हुआ करते हैं । ये प्रारंभ संसार को सुष्क बना देते हैं, मनुष्य को उस लोक का वासी बना देन है, जहाँ से वह फिर कभी लौटकर नहीं आता।
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२३०]
सम्यक् आचार
परिग्रह त्याग प्रतिमा परिग्रहं पुद्गलार्थ च, परिग्रहं नवि चिंतए । ग्रहणं दर्सनं सुद्धं, परिग्रह नवि दिस्टते ॥४३२॥
नश्वर पुद्गल हेतु परिग्रह, जो भी रक्खे जाते । संग-त्याग प्रतिमा में मानव, उन सबही को ठुकराते ॥ एकमात्र सम्यग्दर्शन को ही, वे ग्राह्य बनाते । बाह्य परिग्रह के दलदल से, वे निज नेह हटाते ॥
परिग्रह त्याग प्रतिमा में इम नश्वर शरीर के लिये जितने भी परिग्रहों का संयम किया जाता है, उन मबका त्याग कर दिया जाना है। जिससे सम्बन्ध रखा जाता है ऐसी वस्तु केवल शुद्ध सम्यक्त्व ही होनी है, जो उसकी नचं आत्मा की निधि होती है। दृसंग बाह्य परिग्रहों से इस प्रनिमा का धारी अपने मब मम्बन्ध विच्छंद कर लेता है।
अनुमति त्याग प्रतिमा अनुमतं न दातव्यं, मिथ्या रागादि देसन । अहिंमा भाव सुद्धस्य, अनुमति न चिंतए ॥४३३॥
इस जग में जो रागवर्द्धिनी, चर्चाएं रहती हैं। जिनमें सांसारिक विषयों को, धाराएं बहती हैं । अनुमति-त्यागी इनमें बनते, नेक न सम्मतिदाता । शुद्ध अहिंसक भावों का ही, उनमें सर लहराता ।।
अनुमतिन्याग प्रतिमा का धारी ऐसे किन्हीं विषयों पर अपनी सम्मति प्रदान नहीं करता, जिनका मंबंध मिथ्या रागादि भावों से हुआ करता है। अहिंसा या आत्मभावों से युक्त जितने विषय हुआ करते हैं इम प्रतिमा का धारी केवल उन्हीं का चितवन करता है और जग से उदासीन रहकर केवल उन्हीं में लल्लीन रहा करता है।
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सम्यक् आचार
..... .२३१
उहिष्ट भोजन त्याग प्रनिमा
उद्दिष्टं उत्कृष्ट भावेन, दर्सन न्यान संजुतं । चरनं सुद्ध भावस्य, उद्दिष्टं आहार मुद्धये ॥४३४॥ दर्शन. ज्ञानमयी चारित की, धरता जो नर माला । जिसके उर में श्रेष्ठ भाव नित, करते हैं उजियाला || जग से निर्मम ऐसा होता, जो श्रावक बड़भागी । होतो वह उद्दिष्ट अशन का, पूर्णरूप से त्यागी ।
जो श्रावक दर्शन ज्ञान के सहित शुद्ध चारित्र का पालन करता है तथा शुद्ध भावों का जो निधान होता है, वह ग्यारहवीं प्रतिमा में जाकर उस भोजन का सर्वथा त्यागी हो जाता है, जो किसी भी गृहस्थ के यहाँ उसके निमित्त से बनाया जाता है।
अंतराय मनं कृत्वा, वचनं काय उच्यते । मन सुद्धं, वच मुद्धं च, उदिस् आहार सुद्धये ॥४३५॥ होता जो उद्दिष्ट अशन-त्यागी, प्रतिमाधर प्राणी । होता वह मन-शुद्ध, शुद्ध होती है उसकी वाणी ॥ मन, वच, कायिक होते जितने, अंतराय के दल हैं । उनका रखते ध्यान सदा ही, ये योगी पल पल हैं।
उदिष्ट भोजन-त्याग प्रतिमा धारण करनेवाले मन शुद्ध, वचन शुद्ध तथा काया शुद्ध उत्कृष्ट श्रावक हुआ करते हैं। वे भोजन करते समय उन सभी अंतरायों का ध्यान रखते हैं जो मन वच तन इन तीनों में से किसी से भी सम्बन्ध रखते हैं, उनको बचाकर ही आहार करते हैं।
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२३२]
सम्यक आचार
प्रतिमा एकादमं जेन, जिन उक्तं जिनागमे । पालंति भव्य जीवानं, मन मुद्धं म्वात्म चिंतनं ॥४३६॥ श्री सर्वज्ञ जिन्हें दर्शाते, जिनश्रुत जिनको गायें । उनही के अनुरूप व्यक्त की, एकादश प्रतिमायें ॥ इन प्रतिमाओं को वे ही. भविजन पालन करते हैं । जो हो मनमा शुद्ध, आत्म का ध्यान सदा धरते हैं ।
श्री जिनेन्द्र प्रभु द्वारा निर्दिष्ट दो ग्यारह प्रतिमाएं हैं उनका वे ही भव्यजीव पालन करते हैं जा अपने मन को मर्वदा शुद्ध रखते हैं तथा अपने आत्मा के ही चितवन में जो निरन्तर लवलीन रहा करते हैं।
पंच अणुव्रतों की निर्मलता में उत्तरोत्तर वृद्धि
अनुव्रतं पंच उत्पादंते, अहिंसा नृत उच्यते । अस्तेयं ब्रह्म व्रतं सुद्धं, अपरिग्रहं म उच्यते ॥४३७॥ हिंसा, चोरी, झूठ, परिग्रह. और कुशील दुखारी । इनसे उलटे होते हैं जो, अणुव्रत पांच सुखारी ॥ जो गृहस्थगण ग्यारह प्रतिमायें, क्रमशः धरते हैं । ये पांचों अणुव्रत वे पल पल, वृद्धिंगत करते हैं।
जो श्रावक उन ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं, वे निम्नांकित पांच अणुव्रतों का पालन करते हैं, और उन्हें क्रमश: उत्तरोत्तर बढ़ाते जाते हैं । १-अहिंसा, २-सत्य, ३-अस्तेय, ४-ब्रह्मचर्या, ५-अपरिग्रह ।
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सम्यक् आचार .
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अहिंसा
हिंसा असत्य सहितस्य, राग दोष पापादिकं । थावरं त्रम आरंभ, तिक्तते जे विचष्यना ॥४३८॥ रे ! असत्य से परिपूरित. रहती है जिसकी काया । रागद्वेष आदिक मल की, दिखती है जिसमें छाया ॥ स्थावर, त्रस के आरंभों से. जिसमें दोष हैं भारी । ऐसी हिंसा भूल न करते, ज्ञान-निकुज-बिहारी ।।
जो विवेकी पुरुष होते हैं वे ऐसी उस हिंसा को, जो असत्य से परिपूरित होती है, जिसमें रागद्वेष आदि पापों के महम्रो नाले रहते हैं, तथा जिसमें स्थावर और त्रस जीवों के प्रारंभ करने का पाप लगता है, सर्वथा त्याग देते हैं। और इस तरह अहिंसाणुव्रत का पालन करते हैं।
मत्य
अनृतं अनृतं वाक्यं, अनुत अचेत दिस्टते । अमास्वतं वचन प्रोक्तं च, अनृतं तस्य उच्यते ॥४३९॥ अनृत, अनृत ही है, क्या उसकी पर परिभाषा भाई । दिखलाता यह अनृत, अचेतनता की जग को खाई ॥ क्षणभंगुर द्रव्यों को कहना, ये सब अजर अमर हैं ।
ये अक्षर, पद, वाक्य असत् सब, और अनृत के घर हैं । मिथ्या बोलना, यही असत्य की एकमात्र परिभाषा है । इस असत्य की शरण लेने से अनृत और अचेत वस्तुओं में आसक्ति बढ़ जाती है और फिर प्राणी स्वभावतः अनृत और अचेत सा हो जाता है। नाशवंत वस्तुओं को विनाश रहित शाश्वत वस्तुएं कहना, यह भी असत्य भाषण ही कहलाता है। इनसे विरत रहना सत्यागुत्रत पालन करना होता है ।
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२३४] .
सम्यक् आचार
अचार्य अस्तेयं स्तेय कर्मस्य, चौर भाव न कोयते । जिन उक्तं वचन सुद्धं च, असतेयं लोपनं कृतं ॥४४०॥ चौर कर्म या चौर भाव, करना ही चोरी ज्ञानी । कहते हैं यह वाक्य, परम प्रभु, वीतराग विज्ञानी ॥ श्री जिन के वचनों का करता है, जो लोपन भाई ।
वह भी चोरीजनित पाप की, करता मृद कमाई ॥ चोरी करना या चोरी करने के भाव करना, यही स्तंय या चौर्य कर्म कहलाता है । जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए वचनों का लोप करना या उनके अर्थ का अनर्थ करना, यह भी चौर्य कर्म का एक अंग होता है, और जहाँ पर ये कम नहीं किये जाते, वहीं अचौर्याणुव्रत का पालन होता है।
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य च सुद्धं च, अबभ भाव तिक्तयं । विकहा राग मिथ्यात्वं, तिक्तं बंभ व्रतं धुवं ॥४४१॥
ब्रह्मचर्य वह ही, अब्रह्म का, त्याग जहाँ पर होवे । आत्मकुंज में जाकर यह मन, निश्चल सुख में सोवे ।। जितनी विकथायें व राग हैं, हैं मिथ्यात्व दुखारी ।
हेय जान उनको तज देता, ब्रह्मचर्य-व्रतधारी ॥ शुद्धात्मा में रमण करना, और अब्रह्म भावों का त्याग करना, इसी का नाम ब्रह्मचर्य और इससे विपरीत कर्मों का नाम कुशील-सेवन है । इस अणुत्रत में उन सारी विकथाओं का कहना सुनना भी त्याग देना होता है जो मिथ्यात्व, राग भावों से सम्बन्ध रखनी हैं और आत्मा के परिणामों को कलुषित बनाती हैं।
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सम्यक् आचार
मन वचन काय हृदयं सुद्धं, सुद्ध समय जिनागमं । विकहा काम सद्भावं तिक्तते ब्रह्मचारिना ॥ ४४२ ॥
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ब्रह्मचर्य व्रत का धारी जो होता है गुण आगर । वह त्रियोगको आतमरत रख, रखता नित्य उजागर ॥ ऐसी चर्चाओं से वह नर भित्र सदा रहता है । कामभाव, विकथाओं का, जिनमें पोखर बहता है ॥
ब्रह्मचर्याशुव्रत को पालने वाले जो ब्रह्मचारी होते हैं वे मन वचन काय त्रियोग को सर्वदा निज आत्मा में और कथित ग्रन्थों में संलग्न बनाये रखते हैं। उनका मन वचन या तन ऐसी विकथाओं में रंजायमान नहीं होने पाता, जो विषय वासनाओं से भरी हुई होती हैं, और जिनके कहने सुनने से कामभावना जाग्रत हो जाती है।
अपरिग्रह
परिग्रह प्रमानं कृत्वा, पर द्रव्यं नवि दिस्टते ।
अनृत असत्य तिक्तं च, परिग्रह प्रमानस्तथा ॥ ४४३ ॥
[२३५
बाह्य परिग्रह - दल प्रमाण जब मानव करलेता है । पर द्रव्यों की ओर तनिक भी दृष्टि नहीं देता है ॥ अनृत, असत् द्रव्यों से बिलकुल, तजदेता है नाता | वह नर तत्र परिग्रह - प्रमाण-व्रत का धारी कहलाता ॥
परिग्रह-परिमाण व्रत में परिग्रहों का एक परिमाण कर लिया जाता है—एक सीमा बाँध ली जाती है, और उस सीमा के बाद संसार का सारा द्रव्य मिट्टी के ढेले के समान ही समझा जाता है । अमृत और असत्य पदार्थों से भी इस व्रत सर्वथा नाता तोड़ दिया जाता है। जो इस व्रत का पालने होता है वह श्रावश्यकतानुसार परिग्रह रखते हुए भी अंतःकरण से निर्मोही बना रहता है।
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२३६]]
सम्यक् आचार
एतत् क्रिया मंजुक्तं, मंमिक्तं मा धुवं । ध्यानं सुद्ध समयस्य, उत्कृष्ट सावकं धुवं ॥४४४॥ एकादश प्रतिमाओं को, सम्यक् विधि पालन करते । पंच अणुव्रत को क्रमशः, निज जीवन में आचरते ॥ दर्शनयुत हो स्वात्म-मनन के, पीते हैं जो प्याले ।
वे मानव ही सद्गृहस्थ हैं, श्रावक-कुल-उजियाले ॥ जो ग्यारह प्रतिमाओं को पालते हैं, पंचाणुव्रतों का पूर्णरूप से साधन करते हैं, सम्यक्त की उपासना में प्रति समय तल्लीन रहते हैं और आत्मा की अर्चना करने में ही अपने त्रियोग का उपयोग करते हैं, वही उत्तम और समीचीन पद के धारी उत्कृष्ट श्रावक हैं, जिन्हें क्षुल्लक या ऐलक कहा जाता है।
THIHA
Mananpipan
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RARg Plotdhala
[ 'अमचारी-निवाम' निमई जो]
( [पूज्य श्री ब्र० महाराज मेमरखेड़ी जी में मामायिक करते हुए ]
BILALDUKO
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rram श्री. जी मानतीशन माना निजी।
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मुक्तिमार्ग के पथिक, तपोपूत मुनि या साधुओं के कर्तव्य
पंचम खण्ड
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मुक्तिमार्ग के afte तपोपूत
मुनि या साधुओं के कर्तव्य [ ४४५ से ४६० तक ]
"मन के समस्त विरोधों का नाश करके जो निर्दुःख और निस्तृण होकर रहता है, उसे ही मैं मुनि कहता हूँ । अखिल लोक में अध्यात्म-विषयक तथा साधुओं और असाधुओं का धर्म जानकर जो आसक्ति के उस पार चला गया है, उसे मुनि कहते हैं। उसकी पूजा मनुष्य क्या देवता भी करते हैं।"
- महात्मा बुद्ध ।
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मुक्तिमार्ग के पथिक, तपोपूत
मुनि या साधुओं के कर्तव्य
त्रेपन क्रियाएं व तेरह विध चारित्र का पालन
साधुवो साधु लोकेन, रयनत्तयं च संजुतं । ध्यानं ति अर्थ सुद्धं च, अवधं तेन दिस्ट ||४४५ ॥
साधु लोक में करते हैं नित, रत्नत्रय का ही साधन | रत्नत्रयमय ध्यान उदधि में, करते नित वे अवगाहन || परिग्रहों से आरंभों से, नेह नहीं वे करते हैं । नील गगन में पंछी नाई, वे निर्मुक्त विचरते हैं ॥
साधु निशवासर रत्नत्रय की साधना में ही चूर रहा करते हैं; उनका ध्यान भी आत्मभावना
और रत्नत्रय से ही पूर्ण रहा करता है। न तो वे किसी आरंभ परिग्रह आदिक बंधनों से बंध हुए होते हैं और न संसार की कोई शक्ति ही उन्हें बांधकर अपने मन अनुसार आचरण करा सकती है, अर्थात वे पूर्णमुक्त स्वभाव के धारी होते हैं, और अपने शुद्धाचरण का पालन करते हुए स्वाधीनता से जगत में विहार करते हैं ।
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२४०]
सम्यक् आचार
न्यानं चारित्र संपूरनं, क्रिया त्रेपन मंजुतं । तप व्रतं च समिदि च, गुप्ति त्रय प्रति पालकं ॥४४६॥
पन क्रियायुक्त रहते हैं, सद्गुरु तारणतरण सुजान । जगमग करते रहते उनको, ज्ञान आचरण रत्न महान ॥ पंच महाव्रत, पंच समिति का, वे नित पालन करते हैं । तीन गुप्ति का पालन कर नित, आत्मध्यान वे धरते हैं ।
साधु ज्ञान और चारित्र से पूर्ण रहा करते हैं। त्रेपन क्रिया, पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का वे पूर्णतया पालन करते हैं और इस तरह संसार के सामने सम्यक्चारित्र का अलौकिक आदर्श रखते है।
मन वचन काय को रोककर योग साधना
चारित्रं चरन सुद्धं, समय सुद्धं च उच्यते । मंपूरनं ध्यान योगेन, माधुओ साधु लोकयं ॥४४७॥ साधु पालते हैं नितप्रति ही, शुद्ध और व्यवहार चरित्र । देते हैं वे शुद्ध तत्व का ही, जग को उपदेश पवित्र । मन, वच, काय त्रियोग रोक वे, योगसाधना करते हैं।
सौख्यसिन्धु शुद्धात्म-कुंज में, ध्रुव हो सतत विचरते हैं। साधु महाराज शुद्ध निर्दोष व्यवहार व निश्चय चारित्र का पालन करते हैं और संसार को शुद्ध रत्नत्रय का उपदेश देने हैं और मन वचन काय इन तीनों योगों को निश्चल बनाकर आत्मसमाधि का अवर्णनीय आनन्द प्राप्त करते हैं ।
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.....सम्यक आचार ... ... ... .. .. ... .................[२४१
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शुद्धात्मतत्व का निरूपण व चितवन
संमिक दर्सनं न्यानं, चारित्रं सुद्ध संजमं । जिन रूपं सुद्ध दिव्याथ, साधओ साधु उच्यते ॥४४८॥ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, आचरण का जो करते हैं उपदेश । भव्यलोक को संयम पालन. का जो करते हैं निर्देश ॥ आत्मद्रव्य और जिनस्वरूप को, जो नितप्रति दर्शाते हैं ।
वे ही जगतीतल में तारणतरण, साधु कहलाते हैं। जो जगत को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा संयम पालन का उपदेश देते हैं तथा जिन भगवान व शुद्ध अत्मद्रव्य. का स्वरूप झलकाते हैं, वही मोक्षपथ के साधक वीतराग साधु कहलाते हैं।
ऊर्ध अधो मध्यं च, लोकालोकं च लोकितं । आत्मानं सुद्धात्मानं, महात्म्यं महाव्रतं ॥४४९॥ ऊर्ध्व. अधो और मध्य, त्रिलोकों में जो यत्र तत्र सर्वत्र । आत्मद्रव्य को हैं विलोकते, सिद्ध समान विशुद्ध पवित्र । पंच महाव्रत का करते हैं, जो सम्यक् साधन गुणवान ।
के ही सरल विशुद्ध आत्मा, कहलाते हैं साधु महान । - जो ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक इन तीनों लोकों में भरी हुई आत्माओं को सिद्ध के समान विशुद्ध और पवित्र देखते हैं तथा पंच महावतों की जो महान साधना करते हैं, वही महान आत्मा धारी उत्तम साधु कहलाते हैं ।
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२४२]--
- सम्यक् आचार
धर्म ध्यानं च संजुतं, प्रकासनं धर्म सुद्धयं । जिन उक्तं जस्य सर्वन्यं, वचनं तस्य प्रकास ॥ ४५० ॥
शिव-सुख-साधन धर्मध्यान ही, नित्य साधुजन ध्याते हैं । मंगलकारी शुद्ध धर्म ही, वे प्रकाश में लाते हैं ॥ श्री जिनेन्द्र ने बरसाये हैं. निज मुग्वसे जो वचन महान । साधु उन्हीं से जगमग करते, इस भूतल को सूर्य समान ॥
जो आत्मरूप धर्मध्यान की आराधना करने में तल्लीन रहा करते हैं; शुद्धात्म धर्म का जो जग को उपदेश देते हैं तथा वीतराग हितोपदेशी और सवज्ञ प्रभु ने जिन तत्वों का कथन किया है, उन्हीं का प्रकाश जो जगत में करते हैं, वही परम हितैषी पूज्य साधु कहलाते हैं ।
मिथ्यात त्रय सल्यं च कुन्यानं त्रय उच्यते । राग दोषं च येतानि, तिक्तते सुद्ध साधवा ||४५१ ॥
तीन तरह के मिथ्यादर्शन, तीन तरह के मिथ्याज्ञान । तीन तरह की शल्य, शूल सी, देती हैं जो दुःख महानः ॥ ये सारे ही दोष साधु के पास न जाने पाते हैं । होते जो सत्साधु, इन्हें वे तृण से तोड़ बहाते हैं ॥
जो तीन तरह के मिध्यात्व, तीन तरह के कुज्ञान और तीन तरह की शल्यों से बिलकुल विमुक्त
हो जाते हैं और रागद्वेष व संसार में जितने भी अन्य प्रकार के दोष होते हैं, उन सबसे जो अपना हृदय रिक्त बना लेते हैं, वही शुद्ध संयमी साधु कहलाते हैं ।
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... सम्यक आचार-~~~~~~~~~~~~~~............ [२४३
अप्पं च तारन सुद्ध, भव्य लोकैक तारकं । सुद्धं च लोकलोकत्वं, ध्यानारूढं च साधवा ॥४५२॥
जो होते सत्माधु विज्ञ, वे होते तारणतरण महान । स्वयं पार हो. पार लगाते, वे त्रिलोक को पोत समान ।। तीन लोक में दिखता है बस. उन्हें आतमा ही अभिगम । धर्मध्यान में ही रहते हैं. लीन निरन्तर के मुणधाम ।
जो अपनी आत्मा को विशुद्ध प्रात्मा बनाकर, स्वयं तर जाते तथा दूमरी आत्माओं को भी अपने उपदेश से इस संसार-सागर से पार लगा देते हैं; तीन लोकों में भरे हुए द्रव्यों में जिन्हें एक प्रात्मा ही मारभूत पदार्थ दृष्टिगोचर होता है, वही सच्चे आत्मनिष्ठ साधु कहलाते हैं ।
मन च सुद्ध भावस्य, सुद्ध तत्वं च दिस्टते । संमिक दर्सनं सुद्ध, सुद्धं तिअर्थ संजुतं ॥४५३॥ शुद्ध आत्मिक मावों को ही, नित्य साधुजन च्याते हैं । आत्मतत्व को ही सम्यक विधि, वे अनुभव में लाते हैं । उनका अंतस्तल रहता है, शुचि सम्यग्दर्शन साकार ।
रत्नत्रय से जगमग करता, रहता है उनका संसार ॥ साधुगण शुद्ध आत्मिक भावों का ही मनन और नित्यप्रति उसका ही दर्शन किया करते हैं। उनका हृदय शुद्ध सम्यग्दर्शन से ओतप्रोत रहता है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र इन तीन रत्नों की निधि उनकी आत्मा को प्रति समय प्रकाशित बनाती रहती है ।
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२४४] .....
सम्यक् आचार
रयनतयं सुद्ध संपूरनं, संपूरनं ध्यान मंजुतं । रिजु विपुलं व उत्पादने, मनपर्जय न्यानं धुवं ॥४५४॥
साधु शुद्धतम रन्नत्रय के. होते हैं गंभीर निधान । सम्यक विधि ध्रा अनल ध्यान में रहते हैं वे मग्न सुजान । इन्हें ध्यान से ऋजु विपुगे मी वे निधि मिल जानी हैं । जो त्रिकाल प्रत्यक्ष बनाकर. केवलज्ञान जगाती हैं ।
साधुगण रत्नत्रय के गंभीर निधान हुआ करते हैं वे आत्मा के निश्चल ध्यान में मग्न रहा करते हैं और अपनी साधना से अात्मा में उम रितु और विपुल मन:पर्यय ज्ञान की ज्योति जगा लेते हैं, जो केवलज्ञान को उत्पन्न कर उन्हें चर चर के ज्ञान से साक्षात्कार करा देनी है।
वैराग्य त्रिविहं मुद्धे मंमारे तजति तृनं । भूषन रयनतयं मुद्धं, ध्यानारूढ स्वात्म चिंतनं ॥४५५॥ भा. गरीर, भोगों से निस्पृह, पूज्य माधु हो जाते हैं । यह संसार असार ! इस वे, तृण समान ठुकराते हैं। निमल रत्नत्रय ही होते. उनके आभूषण. श्रृंगार ।
स्वात्म-रमण में ही पाते हैं, वे पुनीत आनंद अपार ॥ साधुगण संसार, शरीर और भोग इन तीन जंजालों को तोड़कर पूर्ण वैराग्यवान हो जाते हैं और इस संसार की समस्त वामनाओं को तृण के समान तोड़कर अपने पदों से ठुकरा देते हैं। रत्नत्रय की आराधना ही उनका एकमात्र भूषण होता है और वे ध्यानारूढ़ रहते हुए अपने आत्मा का ही अनुभव किया करते हैं।
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सम्यक आचार....
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केवलं भावनं कृत्वा, पदवी अर्हन्त सार्धयं । चरनं सुद्ध समयं च, नंत चतुस्टय मंजुतं ॥४५६॥ लौकिक सिद्धि प्राप्त करने को, साधु नहीं धरते हैं ध्यान । हो कर्मविमुक्त, यही रहता उनका उद्देश्य महान ।। केवलज्ञान मिले का हमको, होवें हम भी कर अर्हन्त । बनं चतुष्टयवान किस निमिप, यही भावना करते सन्त ।।
साधुओं का अात्माप धर्मध्यान का आराधन और पंचमहाव्रत का पालन करना तथा तदनुसार समस्त चारित्र (आचार-विचार ) प्रतिपादन करने का बस एक ही कारण होता है-वह यह कि इस संसार के आवागमन की वे ड़यों को काटकर कैवल्यपद प्राप्त करना; अहत पद प्राप्त करना और प्राप्त करना चार अनन्त चतुष्टय । और इसी श्रात्म-अर्चा में ही वे अपने उपयोग को लगाये रहते हैं।
माधओ साधु लोकेन, तव व्रत क्रिया संजुतं । माधओ सुद्ध न्यानस्य, माधओ मुक्तिगामिनो ॥४५७॥ साधु सदा ही क्रियायुक्त, सम्यक् तप, व्रत आचरते हैं । शुद्ध ज्ञान हो प्राप्त. सदा वे यही साधना करते हैं। ऐसे जो रत्नत्रयधारी, होते सद्गुरु ज्ञानो ।
वे निःसंशय सुमुखि मुक्ति को. पाते नीलपद्य-पाणी ॥ साधु महाराज क्रिया सहित तप व व्रतों का आचरण करने में सदा लवलीन रहा करते है। इन सबको साधन करने का उनका एक ही उद्देश्य होता है और वह केवल शुद्ध ज्ञान प्राप्ति की कामना । रत्नत्रय से पूर्ण शुद्ध भावना के धारी ऐसे जो साधु होते हैं, वे मुक्ति का अचल साम्राज्य पाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं।
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२४६]
- सम्यक् आचार
अर्हतं अरहो देव, सर्वन्य केवलं ध्रुवं । अनंतानंत दिस्टं च, केवल दर्सन दर्सन || ४५८ ॥
इस जग में अर्हन्त देव ही, वन्दनीय हैं पूज्य महान | वही एक सर्वज्ञ, वही धुत्र. वही एक कैवल्य निधान ॥ उनमें जगमग करता है जो, ज्ञान राशियों का आलोक | दर्पण नाई वही प्रदर्शित कर सकता है लोकालोक ||
इस जगत में चार महान कार्यों के प्रतिपादक श्री अरहन्तदेव ही एक ऐसे देव हैं, जो पूर्ण देवत्व को धारण करने की क्षमता रखते हैं; सकल चराचर को जाननेवाले हैं; ज्ञान की चरम सीमा, केवलज्ञान के धारी हैं, पूर्ण स्वाधीन हैं और ध्रुव हैं । उनमें जिस व्यक्तित्व का वास है, वही और केवल वही, इस विस्तृत लोक और अलोक के पदार्थों को जानने में और उन्हें प्रकाश में लाने में पूर्ण भांति समर्थ होता है। साधु इसी अरहन्तपढ़ को पाने का तीनों काल प्रयत्न किया करते हैं ।
सिद्धं सिद्धि संजुक्तं, अस्ट गुनं च संजुतं । अनाहतं विक्त रूपेन, सिद्धं सास्वतं धुवं ॥ ४५९॥
होते हैं जो सिद्ध, आन्मा पर वे जय पा जाते हैं । अष्ट विशिष्ट गुणाधिगुणों के, वे अधिदेव कहाते हैं ॥ होते हैं वे व्यक्त, अनाहत. अजर अमर ध्रुव, अविनाशी । साधु इसी पद को पा, बनते हैं, सिद्धालय के वासी ॥
सिद्ध भगवान आठ कर्मों के विजेता होते हैं; उनके लिये संसार में कुछ भी करना शेष नहीं रहता श्रतः वे कृतकृत्य हो जाते हैं— सिद्ध हो जाते हैं । श्रष्ट कर्मों के नाश हो जाने से उनमें आत्मा के आठ अमूल्य गुण, रत्नों की राशि की भांति दैदीप्यमान हो उठते हैं। वे श्रव्यावाध, अविनाशी और अचल पद धारी होते हैं। साधु भी अपनी साधना से इसी पद को पाकर सिद्धक्षेत्र के वासी बन जाते हैं 1
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सम्यक् आचार
परमिष्टी साधनं कृत्वा, सुद्ध संमिक्त धारना । ते नरा कर्म षिपनं च, मुक्तिगामी न संसयः ॥ ४६०॥
पंच परम प्रभु की शरणों में, जो ले लेते हैं विश्राम । सम्यग्दर्शन से शोभायुत, कर लेते जो अंतर धाम ॥ वे कर्मों की लौह - बेड़ियाँ, चूर चूर कर देते हैं । शिव पथ पाकर निश्चय ही वे, मुक्तिनगर पा लेते हैं ॥
[२४७
जो मानव, अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंच विभूतियों की शरण लेता है और अपने अन्तस्तल को शुद्ध सम्यक्त भावना से ओतप्रोत बना लेता है, वह अपने कर्मों की बेड़ियों को चूर चूर कर निसंशय ही मुक्तिपद प्राप्त कर लेता है ।
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मागम की बन्दना
त्रिविध ग्रंथं प्रोक्तं च, साध न्यान मयं धुवं । धर्मार्थ काम मोष्यं च, प्राप्तं परमेष्टी नमः ॥४६१॥
आगम के हैं तीन भंद, यह कहते सिद्धालय वासी । शब्द, अर्थ, विज्ञान रूप जो तीनों हैं ध्रव अविनाशी ॥ धर्म, अर्थ और काम मोक्ष के, ये आगम ही हैं माधन । ये ही परमेष्ठी-पद-दाता, इनको शतशत अभिवादन ।।
श्री सर्वज्ञ प्रभु ने आगम को तीन भागों में विभक्त किया है (१) शब्द (२) अर्थ (३) ज्ञान : ये भागम धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को मिद्धि कराने वाले और परमेष्ठी पर को प्राप्त करने वाले होते हैं, अत: उनको सविनय नमस्कार हो ।
परमानंद आनंद, जिन उक्तं माम्यतं पदं । एकोदेम उवदेमं च, जिन तारण मुक्ति पथं श्रुतं ॥४६२॥ ज्ञान और आनन्दमयी है वीतगग प्रभु की वाणी । स्वरलहरी भरते हैं जिसमें, आत्मतत्वपद-विज्ञानी ॥ आत्मतत्व का चमके, वसुधा प्रांगण में उज्ज्वल तारा । किया श्रावकाचार इसी से, मैंने यह प्रस्तुत प्याग ।
वीतराग प्रभु की वाणी अत्यन्त ही आनन्दमयी है. जिसमें पद पद पर आत्मतत्व के दर्शन होते हैं। वह भात्म-पद संसार को अपने प्रकाश से आलोकित करे, केवल इसी ध्येय से मैंने यह पुण्य ग्रन्थ प्रस्तुत किया है।
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सम्यक् आचार ः सम्यक् विचार
:
सम्यक विचार
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श्री नारणस्वामी
सम्यक विचार
प्रथम धाग (पण्डिन पूजा)
__ ओम् ओंकारम्य ऊर्वस्य, ऊर्च सद्भाव शाश्वतं । विन्दम्थानेन तिष्टते, ज्ञानेन शाश्वतं ध्रुवं ॥१॥ ओम् रहा है और रहेगा, सतत उच्च मद्भावागार । परमब्रह्म, आनन्द ओम् है. ओम् अमृत शून्य-आकार ॥ ओम् पंच परमेष्ठी मंडित, ओम् ऊर्ध्व गति का धारी । केवल-ज्ञान-निकुंज ओम् है, ओम् अमर ध्रुव अधिकारी ।
ओम् सनातनकाल से उर्ध्वगति का धारी रहा है, और रहेगा। ऊर्ध्व स्वामी तो यह है हो, किन्तु साथ ही माथ सद्भावों का धारी और शाश्वत भी है।
इसमें शून्य को एक प्रमुख स्थान दिया गया है, और शून्य में इसका निवाम भी है, जिसका तात्पर्य यह है कि यह मुक्त है, म्वाधीन है।
इसका वास व्यवहार दृष्टि से तो मोक्ष-स्थान में कहा जाता है जहाँ पहुँचने पर इसकी संसार-यात्रा समाप्त हो जाती है और फिर वहाँ से लौटकर नहीं आता, किन्तु वस्तुस्वरूप अथवा निश्चय दृष्टि से उसका अपना निवास तो अपने आपमें ही रहता है। भले ही वह आज हमारे इस शरीर में है और कल ( अगले जन्म में ) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अनुकूलता पाकर मोक्ष-धाम में जा विराजे।
यही तो वह सिद्धांत है कि-"आत्मपरमात्मतुल्यं च विकल्प चित्त न क्रोयते" तथा ज्ञानों में सबसे श्रेष्ठ जो केवलज्ञान है उस ज्ञान से यह ओम् पद मंडित है और ध्रुव तारा के समान चमक कर संसार को अनादिकाल से सन्मार्ग बता रहा है और बताता भी रहेगा । हाँ, उसके बताए हुये मार्ग पर चलना न चलना हमारी इच्छा पर निर्भर है । चलेंगे तो संसार पार हो जायेंगे अन्यथा अनादिकाल से संसार में भटक रहे हैं और अनन्तकाल तक भटकते रहेंगे।
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सम्यक् विचार
"महावीर की विचारधारा व्यक्तिमूलक थी । भारताय संस्कृति में भी विचारों की एकता की अपेक्षा उनके समन्वय का अधिक महत्व रहा है, विचारों के समन्वय को ही म्याद्वाद कहते हैं। सत्य को समग्ररूप से जानने के लिए जब हम उसे कई दृष्टियों में देखते हैं तो ज्ञान में नम्रता
आती है और मन से दूसरे के विचारों के प्रति आस्था जगती है । संक्षेप में उनके कथन के अनुसार समाज-रचना का आधारभूत तत्त्व योग्यता है, जन्म नहीं; व्यक्ति का आदर्श अकिंचनता है, संचय नहीं; और लोकसेवा की कसौटी विचारों का समन्वय हे, एकता नहीं।"
"भारतीय संस्कृति उस महानदी के समान है जिसमें नाना विचारप्रवाह मिलते हैं और जिससे निकलते भी हैं, पर जो लोक में हमेशा बहती रहती है, उसके तट पर कई तीर्थ बन और मिटे । तीर्थकर महावीर ने भी लगभग ढाई हजार वर्ष पहले एक सदिय तीर्थ की रचना की थी, भल ही वह आज समय के प्रवाह में बिखरी प्रतीत हो, पर उसके निर्माण की कला अमिट है, और कोई चाह तो नये तीर्थ के निर्माण में उसका उपयोग कर सकता है। उनकी यह कला थी कि लोक की उपासना के लिए लोक की वासना छोड़ दो, साधना द्वारा अपने आपको इतना तग्ल बनाओ कि लोक में घुलमिल सको, युग की आस्तिकता के अनुसार समन्वय-दृष्टि में ऐसे आदर्श चुनी और उन्हें जीवन में ढाली कि तुम्हारा जीवन भावी समाज की जीवनपद्धति का आधार बन जाए।
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= सम्यक विचार
निश्चयनय जानते, शुद्ध तत्त्व विधीयते । ममात्मा गुणं शुद्धं, नमस्कारं शाश्वतं ध्रुवं ॥२॥
जिन्हें वस्तु के सत् चित् ज्ञायक, या निश्चयनय का है ज्ञान । वही अनुभवी पारखि करते, निज स्वरूप की सत् पहिचान ।। अन्तस्तल-आमीन आत्मा, ही है अपना देव ललाम । आत्मद्रव्य का अनुभव करना, ही है सच्चा अचल प्रणाम ।।
जो पुरुप निश्चय नय और केवल निश्चय नय को ही वस्तु को परखने की कमोटो मानते हैं, केवल वही इम मंसार में मन ओर अपन की वाम्नविक परीक्षा कर मकन है, और केवल वही शुद्धात्मा के गुणों को परग्ब सकने में समर्थ हो पाते हैं। उन जैसे समर्थवान पुरुषों को हो सम्यग्दष्टि पुरुष कहा जाता है ।
_अपने अंतस्तल में जो आत्मदेव विराजमान है वही निश्चयनय से वह देव है जिसे जिनवाणो हितोपदेशी, वीतराग, सर्वज्ञ और मोक्षप्रदायक के नाम से संबोधन करती है। ऐसे शुद्धात्मा रूपी जगत-प्रभू को मैं ध्रुव एवं शाश्वत मानकर दृढ़ निश्चयपूर्वक ( अचल भाव से ) नमस्कार करता हूँ।
ॐ नमः विंदते योगी, सिद्धं भवत् शाश्वतं । पंडितो सोपि जानते, देवपूजा विधीयते ॥३॥ योगीजन नित ओम् नमः का, शुद्ध ध्यान ही धरते हैं। 'सोऽहं' पद पर चढ़कर ही वे, प्राप्त सिद्ध-पद करते हैं। 'ओम् नमः' जपते जपते जो, निज स्वरूप में रम जाता ।
वही देवपूजा करता है, पंडित वह ही कहलाता ॥ जो वास्तविक योगी-मुनि होते हैं वे नित प्रति "ॐ नमः " का ही पारायण किया करते हैं और इसी मंत्र के पारायण-पोत पर चढ़कर वे भवसागर से पार होकर सिद्ध और शाश्वत पद प्राप्त कर लेते हैं।
__ जो 'ओम् नमः' का मनन करते ही निजस्वरूप में लवलीन हो जाता है वही उसकी सच्ची देवपूजा करता है और वही सच्चा पंडित है, ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है।
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सम्यक् विचार
ह्रींकारं ज्ञान उत्पन्न, ओंकारं च वदते । अरहं सर्वज्ञ उक्तं च, अचक्षु दर्शन दृष्ट || ४ ||
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जगतपूज्य अरहन्त जिनेश्वर, जिसका देते नव उपदेश । साम्य दृष्टि सर्वज्ञ सुनाते, जिसका घर घर में सन्देश || जो अचक्षु दर्शन- चख गोचर, जो चित चमत्कार सम्पन्न | ओंकार की शुद्ध वंदना करती वही ज्ञान उत्पन्न !!
जिसका रहंत प्रभु उपदेश देते हैं और जिस सन्देश को वे ही सर्वज्ञ भगवान प्रत्येक प्राणी तक पहुँचाते हैं, उस ओम् महापद की या अपनी शुद्धात्मा की वह वन्दना उसके अपने अन्तरंग में उस विशुद्ध ज्ञान की सृष्टि सृजन कर देती है जो कल्पनातीत होता है। और केवल उसकी अपनी आत्मा ही जिसका रसास्वादन करती है तथा उसके चमत्कार को उसके ज्ञान नेत्र हो देखते हैं।
मति श्रुतश्च संपूर्ण, ज्ञानं पंचमयं ध्रुवं । पंडितो मोपि जानते, ज्ञानं शास्त्र म पूजते ॥ ५ ॥
[ ५
मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय से, ज्ञान करें जिसमें कल्लोल । पंच ज्ञान केवल भी जिसमें छोड़ रहा नित ज्योति अलोल || ऐसे आत्म-शास्त्र को ही नित, जो पूजे विवेक-शिरमौर । वही सत्य पंडित प्रज्ञाघर, वही ज्ञान-धन का है ठौर ॥
जिसमें मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और यहां तक कि केवलज्ञान भी अपने प्रकाश-पुंज बिखरा रहा है, अथवा जो पांचों ज्ञान का एक मात्र निधान है ऐसे आत्मा रूपी शास्त्र की ही जो विज्ञजन पूजा करते हैं, वे ही वास्तव में पंडित हैं और प्रज्ञा उन्हीं में ठौर पाकर अपने जीवन को कृतकृत्य मानती है ।
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= सम्यक् विचार=
ॐ ह्रीं श्रियंकारं, दर्शनं च ज्ञानं ध्रुवं । देवं गुरुं श्रुतं चरणं, धर्म सद्भावशाश्वतं ॥६॥ ह्रीं श्रीं के रूप मनोहर, करते जिसमें विमल प्रकाश । अमर ज्ञान दर्शन का है जो, एक मात्रतम दिव्य निवास ॥ वही परम उत्कृष्ट ओम् ही, है त्रिभुवन मंडल में सार ।
वही देव, गुरु, शास्र, आचरण, वही धर्म सद्भावागार ।। जिसमें ॐ ह्रीं श्रीं' इस मंत्र का पूर्णरूपेण निवास है, दर्शन, ज्ञान और आचरण का जो मन्दिर है, वास्तव में एसा वह ओम ही सच्चा देव है, ओम् ही सच्चा गुरु है, ओम् ही सच्चा क्रियायुक्त
आचरण है और एमा वह आम ही तीन लोक को पार करने वाला सच्चा धर्म है जिसका कि घट घट में सद्भाव है।
वीर्य अंकूरणं शुद्ध', त्रैलोकं लोकितं ध्रुवं । रत्नत्रयं मयं शुद्धं, पंडितो गुण पूजते ॥७॥ केवलज्ञान-मुकुर में जिसको, तीनों लोक दिखाते हैं । जिसके स्वाभाविक बल जल का, निधिदल थाह न पाते हैं। रत्नत्रय की सुरसरिता से, शुद्ध हुआ जो द्रव्य महान् ।
उसी आत्म रूपी सद्गुरु की, करते हैं पूजन विद्वान ॥ जिसको अपने कंवलज्ञान मुकुर में संसार के सब पदार्थ युगपत दृष्टिगोचर होते हैं; जिसकी शक्ति कल्पना से पर है, अनंत है, असीम है, तथा रत्नत्रय को पवित्र निरिणी जिसके चरण अह. निश पखारती रहती है। विद्वान् केवल ऐसे प्रात्मा रूपी सद्गुरु की ही अर्चना करते हैं और ओम् या प्रात्मा रूपी सद्गुरु को पूजने वाला पंडित ही वास्तविक प्रज्ञाधारी पंडित कहा जाता है-माना जाता है।
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==सम्यक विचार
देवं गुरुं श्रुतं वंदे, धर्मशुद्धं च विंदते । तिअर्थ अर्थलोक च, स्नानं च शुद्धं जलं ॥८॥ आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सद्गुरु भाई । आतम शास्त्र, धर्म आतम ही. तीर्थ आत्म ही सुखदाई ॥ आत्म-मनन ही है रत्नत्रय-पूरित अवगाहन सुखधाम |
ऐसे देव, शास्त्र, सद्गुरुवर, धर्मतीर्थ को सतत प्रणाम ।। आत्मा ही सच्चा देव है; आत्मा ही मचा गुरु है; आत्मा ही मचा शास्त्र है; आत्मा ही मना धम है और आत्मा ही सच्चा तीर्थ है। और यदि वास्तव में पूछा जाय तो रत्नत्रय से पूरित इस श्रात्मा का मनन ही एक मात्र सच्चा स्नान है।
ऐसे आत्मा रूपी देव, गुरु, शास्त्र, धर्म और तीर्थ को मैं नित्य मन वचन काय से प्रणाम करना है।
चेतना लक्षणो धर्मो, चेतियंति मदा बुधै । ध्यानस्य जलं शुद्ध, ज्ञानं स्नान पंडितः ॥९॥ चिदानन्द ध्रुव शुद्ध आत्मा, की चेतनता है पहिचान । बुद्धिमान जन नित्य निरन्तर, धरते हैं उमही का ध्यान ।। नदी सरोवर में करते हैं, अवगाहन जड़ अज्ञानी ।
आत्म-ज्ञान-जल से प्रक्षालन, करते सत्पंडित ज्ञानी ॥ प्रात्मा का लक्षण चेतना से संयुक्त है और इसी चेतना के नाते, बुद्धि के धनी बुद्धिमान जन उसका अहर्निश मनन करते हैं ।
नदी, सरोवर और कुण्डों में तो ( धर्मभाव से ) केवल स्थूल-बुद्धि के मानव म्नान करते हैं, किन्तु जो प्रज्ञाधारी पंडित होते हैं, वे प्रात्म-मनन के जलाशय में ही स्नान करके अपने को पूर्ण पवित्र और कृत्यकृत्य मानते हैं।
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सम्यक विचार
शुद्धतत्वं च वेदंते, त्रिभुवनम् ज्ञानेश्वरं । ज्ञानं मयं जलं शुद्ध, स्नानं ज्ञानं पंडितः ॥१०॥
हस्तमलकवत जिमको तीनों भुवन चराचर प्राणी हैं । उसी ब्रह्म को ध्याते हैं बम, जो बुधजन विज्ञानी हैं । शुद्ध आन्म है स्वच्छ सरोवर, कल कल करता जिसमें ज्ञान ।
इसी ज्ञानरूपी जल में नित, पंडित जन करते (हैं) स्नान ।। जो अपने अमीम ज्ञान से ममम्त चराचर प्राणियों के घट घट की और तीनों लोक की ममस्त बानों को हाथ में रख हय आंवले के समान देखना और जानता है, वही ज्ञान का ईश्वर ओम् या शुद्धान्मा विद्वानों के पृजन का एक मात्र आधार होना है।
विद्वज्जन लोक की देग्वादेवी नदी, नालाबों में स्नान करके अपने को धार्मिक या पवित्र नहीं मानते, किन्तु ज्ञानपृगा जलाशय एक मात्र शुद्धात्मा में ही स्नान कर उनकी अपनी आत्मा विशुद्धता को प्राप्त होती है, एमा उनका अपना विश्वास रहता है।
मम्यक्तस्य जलं शुद्ध, संपूर्ण सर पूरितं । म्नानं पिवत गणधरनं, ज्ञानं मरनंतं ध्रुवं ॥११॥ सम्यग्दर्शन रूपी जिसमें, भरा हुआ है नोर अगम्य । ऐमा है वह परम ब्रह्म का, भव्यो ! सरवर अविचल रम्य ।। महा मुनीश्वर श्री गणधर जी, जिनकी शरण अनेको ज्ञान ।
इस सर में ही अवगाहन कर, करते इसका ही जलपान ।। जिनकी शरण में अनेकों ज्ञान ठोर पा रहे थे, व गणधर प्रशु भी नदी सरोवर के जल से ही अपने को पवित्र हुआ नहीं मानते थे, किन्तु वे भी उसी जलाशय का उपभोग करते थे, जिसमें रत्नत्रय रूपी अगम्य नीर भरा हुआ है और जो मुमुक्षुओं के संसार में 'शुद्धात्मा' के नाम से प्रसिद्ध है तथा जो अपने ही पास है।
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=सम्यक् विचार
शुद्धात्मा चेतनाभावं. शुद्ध दृष्टि समं ध्रुवं । शुद्धभाव स्थिरीभूत्वा, ज्ञानं स्नान पंडितः ॥१२॥ शुद्ध आत्मा है हे भव्यो ! सत् चैतन्य भाव का पुंज । सम्यग्दर्शन से आभूषित, मोक्ष प्रदाता, ज्ञान-निकुज ॥ निश्चल मन से इसी तत्व को, शुद्ध गुणों का करना ध्यान । पंडित वृन्दों का बस यह ही, प्रक्षालन है सत्य महान् ॥
शुद्धात्मा, चतना से मंयुक्त प्रकाश का एक विशाल और अलौकिक पुज है, सम्यक्त्व इसका प्रधान आभूपण है और अनश्वरना इसका वह गुण है जिमकं कारण मंसार में यह अपना सर्वोच्च स्थान रम्बना है व इसके ममान यह गुण दृमर किमी में नहीं पाया जाता । इम शुद्धात्मा में स्थिर होकर इसके ज्ञान-गुणों का चितवन करना ही पंडितों का एकमात्र वास्तविक प्रक्षालन है।
प्रक्षालितं त्रति मिथ्यात्वं, शल्यं त्रियं निकंदनं । कुज्ञान राग दोपं च, प्रक्षालितं अशुभभावना ॥१३॥
धुल जाते इस ज्ञान-नीर से, तीनों ही मिथ्यात्व समूल । तीनों शल्यों को विनिष्ट कर, ज्ञान बना देता यह धूल ॥ अशुभ भावनाएं भी सारी, इस जल से धुल जाती हैं ।
राग द्वेष, कुज्ञान-कालिमा, पास न रहने पाती हैं । शुद्धात्मा के इस मरोवर में स्नान करने से तीनों मिथ्यात्व समूल नष्ट हो जाते हैं। हृदय में दिन रात चुभने वाली तीनों शल्ये इसके जलस्पर्श से ततकाल निकल जाती हैं और कुज्ञान राग द्वेष
और अशुभ भावनायें तो फिर इसमें स्नान करने वाले विद्वान के साथ रहने ही नहीं पाती; शरीर मल के समान वे भी उसकी आत्मा से एक साथ ही खिर जाती हैं, पृथक हो जाती हैं।
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ܐ ܘܐ
सम्यक् विचार = कषायं चत्रु अनंतान, पुण्य पाप प्रक्षालितं । प्रक्षालितं कर्म दुष्टं च, ज्ञानं स्नान पंडितः ॥१४॥ पुण्य पाप दोनों रिपुओं को, क्षय कर देता है यह नीर । मलिन कषायें छिप जाती हैं, देख रश्मि से इसके तीर ।। कर्म-नृपति की सेना को भी, कर देता यह जल-भट चूर्ण । ऐसा है यह ज्ञान-उदक का, अवगाहन मंगल-परिपूर्ण ॥
क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार अनन्तानुबन्धी कपाय भी फिर उसके साथ नहीं रह पाती है जो इस अात्म-मरोवर में स्नान करता है, पुण्य पाप भी दोनों इसके जल से प्रक्षालित हो जाते हैं
और अष्टकर्म की सेना तो इनके ज्ञान-नीर को देखते ही पलायमान होने लगती है । एसे इम आत्मसरोवर में विद्वज्जन म्नान करते हैं। वास्तव में वे ही सच्चे पण्डितजन है ।
प्रक्षालितं मनश्चपलं, विधि कर्म प्रक्षालिते । पंडितो वस्त्र संयुक्तं, आभरनं भूपण क्रियते ॥१५॥ चंचल मन भी ज्ञान-नीर से, प्रक्षालित हो जाता है । द्रव्य, भाव, नोकर्म-यूथ भी, वहां न फिर दिख पाता है । सम्यक् विधि से परम ब्रह्म को, जब उज्वल कर देता नीर । तब ज्ञानी जन धारण करते, हैं अपने आभूषण चीर ॥
जो मर्कट के समान चंचल है ऐसा वह मन भी इस आत्म-सरोवर के जल में स्नान करने से एकदम शांत हो जाता है। तीन प्रकार के कर्म-द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म इस जल से शनैः शनैः धुलते जाते हैं, और वह स्नान करने वाला पंडित निर्विकार स्थिति में पहुंच जाता है और उसके ज्ञानदर्शनादि रूप जो अन्तरंग वस्त्राभूषण हैं उनसे वह शोभायमान हो जाता है, जिसके सामने बाह्य बहुमूल्य वस्त्राभूषणों की कोई कीमत नहीं ।
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सम्यक् विचार
वस्त्रं च धर्म सद्भावं, आभरणं रत्नत्रयं । मुद्रका मम मुद्रस्य, मुकुटं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥१६॥ शुद्ध आत्म-सद्भाव-धर्म ही, है पंडित का उज्वल चीर । झिलमिल करता रत्नत्रय ही. है उसका भूषण गंभीर ॥ समताभावमयी मुद्रा ही, है उसकी मुद्रिका अनूप ।
अविनाशी, शिव, सत्यज्ञान है, उसका ध्रुव किरीट चिद्रूप ॥ आत्म-सरोवर में रमण करने वाले विद्वान म्नान करने के बाद जिन श्राभरणों से अपनी देह सजाते हैं उनमें वस्त्र और आभूपण ये दो ही मुख्य सामग्री होती हैं । वस्त्र तो होता है उनका सद्भावरूपी धम, और आभूषणों में मुद्रिका होती है उनकी समता तथा मुकुट होता है उनका आत्मज्ञान । जो आत्म-ज्ञान सत्यं शिवं सुन्दरम् से युक्त होने से इन्द्र तथा चक्रवर्ती के मुकुटों को भी फीका कर देता है।
दृष्टतं शुद्ध दृष्टीं च, मिथ्यादृष्टि च त्यक्तयं ।
असत्यं अनृतं न दृष्टन्ते, अचेत दृष्टिं न दीयते ॥१७॥ जो ज्ञानी-जन करते रहते, ज्ञान-नीर से अवगाहन । परमब्रह्म उनका दर्पण-वत, होजाता निर्मल पावन ॥ मिथ्यादर्शन को क्षय कर वे, शुद्ध दृष्टि हो जाते हैं ।
असत, अचेतन, अनृतदृष्टि से, फिर न दुःख वे पाते हैं । जो ज्ञानीजन इस आत्म-सरोवर के नीर में अवगाहन करते रहते हैं, उनका अन्तरंग दर्पण के समान पवित्र हो जाता है। मिथ्यादर्शन को क्षय करके फिर वे शुद्ध दृष्टि हो जाते हैं और उनकी दृष्टि फिर असत्य, अनृत या अचेत की मान्यता की ओर भूलकर भी नहीं जाती। और उनकी शुद्ध दृष्टि में एकमात्र शुद्धात्मा ही झलकती है तथा उसी का वे मनन, ध्यान व चितवन करते हैं।
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१२ ]==
=सम्यक् विचार===
दृष्टतं शुद्ध समयं च, सम्यक्त्वं शुद्धं ध्रुवं । जानं मयं च मंपूर्ण, ममलदृष्टि मदा बुधैः ॥१८॥ ज्ञान-नीर के अवगाहन में, अमत् भाव मिट जाता है । परम शुद्ध सम्यक्त्व मात्र ही, फिर हिय में दिख पाता है । शुद्ध बुद्ध ही दिखते हैं फिर, आंखों में प्रत्येक घड़ी । दिखता है बस यही ज्ञान की, अन्तर में मच रही झड़ी ॥
ज्ञान नीर में स्नान करने से मिथ्यात्वभाव ममूल नष्ट हो जाता है और फिर ना नहां ज्ञान को मम्यकाव की ही नोकिया रिलाई पड़ना है । उनको दृष्टि जहां जानी है. यहां उसे फिर शुद्धान्मा की ही छवि के दर्शन होते हैं, म कांकी की झलक के मामन अब उस कृत्रिम झांकियों के प्रति प्रम अथवा मान्यता नहीं रह जात बार नस पाठों पहरमा मालूम पड़ता है मानों अन्तर में ज्ञान की झड़ी नगई है।
लोकमढ़ न दृष्टंते, देव पाखंड न दृष्टते । अनायतन मद अष्टं च, शंकादि अष्ट न दृष्टते ॥१९॥ ज्ञान-नीर से मिट जाता है, तीन मूढ़ताओं का ताप । अष्ट मदों का मन-मन्दिर में, फिर न शेष रहता सन्ताप ॥ छह अनायतन डरते हैं फिर, नहीं हृदय में आते हैं।
अष्ट दोष भी तस्कर नाई, देख इसे छिप जाते हैं ॥ ज्ञानरूपी जल में स्नान करने से देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाखण्डमूढ़ता, इन तीनों का नाश हो जाता है। अज्ञानपूर्वक किये हुये ६ कमों में सुधार की लहर पैदा हो जाती है, आठों मद विला जाते हैं और शंकादिक अष्ट दोषों के भी पंख लग जाते हैं। तात्पर्य यह कि आत्म-सरोवर में स्नान करने से हृदय में प्रगाढ सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो जाती है।
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सम्यक विचार
दृष्टतं शुद्ध पद माध, दर्शन मल विमुक्तयं । ज्ञानं मयं मुद्ध सम्यक्त्वं, पंडितो दृष्टि सदा बुधैः ॥२०॥ सप्त तत्व का जो निदान है, अगम, अगोचर, मनभावन । उसी 'ओम् से मंडित दिखता. बुधजन को चेतन पावन !! आत्म-देश में जहां कहीं भी, जाते उसके मन-लोचन ।
उन्हें. वहीं दिखता है निर्मल, सम्यग्दर्शन दख-मोचन ॥ जो मनुष्य ज्ञान-नौर में निमग्न रहा करता है, म्नान करता रहता है उमकी दृष्टि जहां नहीं शुद्धात्मा या ओम के ही दर्शन करती रहती है। प्रात्मा के प्रदेशों में उस सम्यक्त्व-मम्यक्त्वकी ही लहरें दिखाई देती है और वे लहरें पवित्र पवित्रतम जैसे जल की चमकती हैं। उनम रंचमात्र भी कोई विकार नहीं : उन पवित्रनम लहरों में उसे अपनी आत्मा का वशन ठीक परनामा के जमा होता है. जिमम उमकी यह तलाश समाप्त हो जाती है कि भगवान का दशन कहां मिलेगा ! टोक ही है. जिसे अपने आपमें ही मिल गया, उसे फिर बाहर में नलाश क्यों ?
वेदका अग्रस्थरश्चैव, वेदनं निरग्रंथं ध्रुवं ।
त्रैलोक्यं ममयं शुद्धं, वेद वेदनि पंडितः ॥२१॥ जो पंडित कहलाता है या, होता जो वेदान्त प्रवीण । अग्र ज्ञान को कर उसमें वह, सतत रहा करता नजीन । तीन लोक का ज्ञायक है जो, ग्रन्थहीन, ध्रव अविनाशी ।
उसी आत्म का अनुभव करता, नितप्रति ज्ञान-नगर-वामी ।। ज्ञान नगर निवासी पंडित अपने हृदय मन्दिर की वेदी में विराजमान निग्रन्थ, ध्र व, वीनगग स्वभावी अपनी आत्मा को जो कि पंचज्ञान का निधान है उसे ही वीतराग सर्वज्ञ की समकक्ष अपनी निश्चय दृष्टि में अवलोकन करता है, वेद का जो अग्र-सार उसे भी वह उसी में पाता है, अतः एकमात्र उसकी तन्मयता हो उसे प्रिय लगती है।
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सम्यक विचार
उच्चारण ऊर्ध शुद्धं च, शुद्ध तत्वं च भावना। पंडितो पूज आराध्यं, जिन समयं च पूजतं ॥२२॥
ऊर्ध्व-प्रणायक प्रणव मंत्र का, करना मुख से उच्चारण । अपने विमल हृदय-मन्दिर में, करना शुद्ध भाव धारण ॥ यही एक पंडित-पूजा है, पूज्यनीय शिव सुखदाई ।
शुद्ध आत्मा का पूजन ही, है जिन-पूजन हे भाई ॥ अपने मुख से बार बार 'श्रोम' का उच्चारण करना और सदैव शुद्धात्मा की भावनाओं में लीन होना यही वास्तव में एकमात्र पंडितपूजा ( पंडितों के करने योग्य पूजा ) होती है, और इसी तरह की ज्ञान-पूजा ही वास्तव में वह पूजा होती है जिसको शास्त्रों में देवपूजा या जिनपूजा कही गई है। हे पंडित मनो ! ऐसी ही ज्ञान-पूजा या आत्म-पूजा करो, ऐसी ही भक्ति और आराधना करो, यह पूजा चारों संघ को उपयोगी है।
पूजतं च जिनं उक्तं, पंडितो पूजतो सदा । पूजतं शुद्ध साधं च, मुक्ति गमनं च कारणं ॥२३॥
आत्मद्रव्य की पूजा करता, बन जो जिन-वच-अनुगामी । वही एक जग में करता है, पंडितपूजा शिवगामी ॥ शुद्ध आत्मा ही भव-जल से, तरने का बस है साधन । मुक्ति चाहते हो यदि तुम तो, करो इसी का आराधन ॥
श्री जिनेन्द्र के वचनों का अनुयायी बनकर जो आत्म-द्रव्य की, अत्म-गुणों की पूजा करता है, वही वास्तव में एकमात्र पंडित-पूजा है, जबकि दूसरी पूजायें पुण्य तथा पाप बंध करके संसार में ही भटकाया करती हैं । जब कि यह आत्म-पूजा या आत्म-अर्चना ज्ञानी को, विवेकवान पूजक को नियम से भवसागर से पार उतारकर मुक्ति-नगर में पहुंचा देती है।
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सम्यक विचार=
=
=[१५
अदेवं अज्ञान मूढं च, अगुरुं अपूज्य पूजनं । मिथ्यात्वं सकल जानते, पूजा संसार भाजनं ॥२४॥ 'देव' किन्तु देवत्वहीन जो, वे 'अदेव' कहलाते हैं । वही 'अगुरु' जड़, जो गुरु बनकर, झूठा जाल बिछाते हैं । ऐसे इन 'अदेव' 'अगुरों' की, पूजा है मिथ्यात्व महान् ।
जो इनकी पूजा करते वे, भव भव में फिरते अज्ञान ॥ ज्ञान-चेतना रहित और देवत्वपने से सर्वथा हीन ऐसे स्वनिर्मित अदेवों को देव मानकर पूजना तथा गुरु के समान वेप बना लेने पर भी गुरु के गुणों से कोसों दूर रहते हैं ऐसे कुगुरु या अगुरुओं को गुरु के समान मानना, पूजना केवल मिथ्यात्व ही होता है । ऐसे अदबों और अगुरुओं की पूजा पूजक का मंगल तो नहीं करती, हों उन्हें संसार सागर में बार बार भटकाया ही करती है, अनन्तकाल पर्यन्त दुःखों का ही भोग कराती है ।
तेनाह पूज शुद्धं च, शुद्ध तत्व प्रकाशकं । पंडितो वंदना पूजा, मुक्तिगमनं न मंशयः ॥२५॥ सप्त तत्व के पुजों का नित, करता है जो प्रतिपादन । वही ब्रह्म है पूज्य, विज्ञगण ! करो उसी का आराधन ॥ अगुरु, अदेवादिक की पूजा, आवागमन बढ़ाती है ।
आत्म-अर्चना, आत्म-बंदना, मुक्ति-नगर पहुँचाती है ॥ जो सप्त तत्वों के पुंजों का नित्यप्रति प्रतिपादन करता है, उन्हें प्रकाश में लाता है, हे विज्ञजन ! तुम उसी शुद्धात्मा का पाराधन करो । अगुरु, अदेवों की पूजा केवल संसार को ही बढ़ाती है, किन्तु आत्म-अर्चना और प्रात्म-वन्दना इस संसार सागर को सुखाकर मोक्ष नगर के मार्ग को स्पष्ट कर देती है।
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सम्यक विचार
प्रति इन्द्र प्रति पूर्णस्य, शुद्धात्मा शुद्ध भावना। शुद्धार्थ शुद्ध ममयं च, प्रति इन्द्रं शुद्ध दृष्टितं ॥२६॥ इन्द्र कौन ? निज चेतन ही तो, सत्य इन्द्र भव्यो स्वयमेव । वही एक है शुद्ध भावना, वही परम देवों का देव ॥ वही ब्रह्म, शुचि शुद्ध अर्थ है, वही समय निर्मल, पावन । उसी शुद्ध चिद्रप देव का, करो चितवन मनभावन ॥
भगवान की पूजा इन्द्रों ने की थी अथवा नहीं की थी यह तो भगवान हो जानें, किन्तु तुम्हारी शुद्धान्मा का बम्प भी परमब्रह्म परमेश्वर के समान है व ज्ञानधन की ठौर है, ऐसे चिद्रप देव शुद्धात्मा का जिमका कि दृमरा नाम इन्द्र है उम अपने इन्द्रस्वरुप आत्मा की तुम स्वयं इन्द्र के समान अत्यन्त नाम के साथ पूजन करो, क्योंकि यही पूजा तुम्हारा मंगल करने की क्षमता रखती है, दूसरी नहीं ।
दाताऽरु दान शुद्धं च, पूजा आचरण मंयुतं । शुद्धमम्यक्त्वहृदयं यस्य, स्थिरं शुद्ध भावना ॥२७॥ जिस जन के हृदयस्थल में है, सम्यग्दर्शन रत्न महान । अपने ही में आप लीन जो, जिसे न सपने में पर ध्यान ॥ आत्म द्रव्य का पूजन करता, कर जो नव आदर सत्कार ।
परमब्रह्म को वही ज्ञान का, देता महा दानदातार ॥ जिसके हृदय में सम्यक्त्व रत्न जगमगा रहा है और जो अपने आप में लीन रहने में ही मार मुग्यों का अनुभव करता है वह जब आत्म द्रव्य का पूजन करता है तो उसकी यह पूजा एक पवित्रतम दान का म्प धारण कर लेती है और विद्वान इस पूजा को एक ज्ञानी के द्वारा आत्मा को ज्ञान का दान दिया जाना ही कह कर के पुकारते हैं । इस ज्ञान दान में चारों ही दान का समावेश मंथन करने पर तुम्हें मालूम होगा। क्योंकि आत्म-पूजन से आत्मा में ज्ञान की वृद्धि; निर्भयता की जामति, अपने आप में स्थिरता, तथा आनन्दामृत का भोजन पान, इस तरह के यह चारों दान व्यवहार दान की अपेक्षा बह. मूल्य व मंगलदायक होंगे।
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=सम्यक् विचार=
[१७ शुद्ध दृष्टी च दृष्टते, मा, ज्ञानमयं ध्रुवं । शुद्धतत्वं च आराध्यं, बंदना पूजा विधीयते ॥२८॥
चिदानंद के ज्ञान-गुणों के, अनुभव में होना तल्लीन । यही एक वन्दन है मच्चा, नहीं बन्दना और प्रवीण ॥ शुद्ध आत्म का निर्मल मन से, करना सच्चा आराधन । यही एक बस पूजा समची. यही मन्य वस अभिवादन ॥
चिदानंद शुद्धान्मा कं ज्ञान गुगों में तल्लीनता होना यही एक मच्चा बन्दना है और यही एक मच्ची पूजा । क्योंकि शुद्वाम्मा का मच्चे मन से आगधन करना पंडिनों ने इसे ही वास्तव में वन्दना या पूजा कही है, अथवा जिनवागी में एमी वन्दना या पृजा कही है अथवा जिनवाणी में एमी वन्दना पूजा करने वाले का ही पंडित कहा है।
पंडिनों द्वारा की जाने वाली पडित पूजा" कवल इसी आधार से इसका नाम पंडिन पूजा' श्री नाग्न म्वामी ने रखा है।
संघम्य चत्र मंघस्य, भावना शुद्धात्मनां । ममयमारम्य शुद्धस्य, जिनोक्तं माधं ध्रुवं ॥२९॥ मुनी, आर्यिका श्रावक दम्पति, भी क्यों करें इतर चर्चा ? निजानन्द-रत होकर वे भी, करें आत्म की ही अर्चा ।। शुद्ध आत्मा ही बस जग में, सारभृत है हे भाई !
जिन प्रभु कहते, आत्मध्यान ही, एक मात्र हे सुखदाई ॥ मुनि, आयिका, श्रावक और श्राविका, याने चतुविध संघ का यही कत्तव्य है कि ये इसी शुद्धात्मा की भावनाओं को भा कर उसके ही गुणों को आराधना करें। ऐमा करने में ही सबका कल्याण होगा।
श्री जिनेन्द्र का कथन है कि-संसार में प्रात्मा ही कंवल एक सारभूत है और प्राणीमात्र का कल्याण करने वालो एकमात्र आत्मा की धाराधना व पूजा करना है।
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१८ ]
- सम्यक् विचार
सार्धं च मप्ततत्वानं, दर्वकाया पदार्थकं । चेतनाशुद्ध ध्रुवं निश्चय, उक्तं च केवलं जिनं ॥ ३० ॥
सप्त तत्व को देखो चाहे, छह द्रव्यों का छानों कुज । नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय का, चाहे सतत बिखेरो पुंज ॥ इन सब में पर जीव-तत्व ही, सार पाओगे विज्ञानी । आत्मतत्व ही सारभूत है, कहती यह ही जिनवाणी ||
चाहे तुम सात तत्रों के पुत्र को देखा, और चाहे छह द्रव्यों की राशि को विखोरी अथवा पंचास्तिकाय और नौ पदार्थों की। इन सबमें तुम्हें सारभूत पदार्थ केवल एक आत्मा ही मिलेगा । श्री जिनवाणी का भी यहीं कथन है कि हे भव्यो ! जी चेतना लक्षण से मंडित ध्रुव और शाश्वत आत्मा है, वास्तव में वही इस जगत में केवल एक सारभूत है, तीर्थस्वरूप कल्यागादायिनी है ।
मिथ्या तिक्त त्रतियं च शुद्धभाव शुद्ध समयं च
कुज्ञान त्रति तिक्तयं । सार्धं भव्य लोकयः ॥३१॥
दर्शन मोह तीन हैं भव्यो छोड़ो उनसे अपना नेह | कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, कुज्ञानों, से भी हीन करो हिय-गेह ॥ निर्मल भात्रों से तुम निशिदिन, धरो आत्म का निश्चल ध्यान । आत्म- ध्यान ही भव-सागर के, तरने को है पोत महान ||
तीन प्रकार के मिथ्यात्वों को छोड़कर जो तीन प्रकार के कुज्ञान हैं, हे भव्यो ! तुम उनसे भी अपना नाता तोड़ दो। तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम निर्मल भावों से केवल अपनी शुद्धात्मा का ही ध्यान करो। क्योंकि तुम्हारी आत्म- नौका हो तुम्हें पार लगायेगी, किसी दूसरे चेतन व अचेतन पदार्थ में यह शक्ति नहीं जो तुम्हें संसार समुद्र से पार कर दे ।
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=सम्यक् विचार=
एतत् सम्यक्त्वपूज्यस्य, पूजा पूज्य समाचरेत् । मुक्तिश्रियं पथं शुद्धं, व्यवहारनिश्चयशाश्वतं ॥३२॥
निर्मल कर मन वचन काय की, तीर्थ-स्वरूपिणि वैतरणी । करो आत्म की पूजा विज्ञो, यही एक भव-जल--तरणी ॥ शुद्ध आतमा का पूजन ही, पूजनीय है सुखदाई । युगल नयों से मिद्ध यही है, यही एक शिव--पथ माई ।।
अपने मन, वचन, काय की त्रियोग-त्रिवणी पवित्र कर, हे विज्ञो ! तुम्हें उचित है कि तुम अपने शुद्धात्मा की ही निशिदिन पूजा कगे, क्योंकि व्यवहार और निश्चय दोनों ही नय इस बात को एक म्बर से पुकार पुकार कर कहते हैं कि यदि संमार में मोक्ष ले जाना कोई पंथ है तो वह केवल अपनी ही आत्मा का पूजन, अपनी ही आत्मा का मनन और अपनी ही आत्मा का मननपूर्वक अर्चन करना है।
___ श्री तारन म्वामी कहते हैं कि हे भव्या ! उपरोक्त सम्यक्त पूजा करी और तदनुसार ही आचरण करो। यही व्यवहार तथा निश्चय इन दोनों नयों से मुक्ति-पंथ का शुद्ध शाश्वत मार्ग है। ध्यान रहे, तदनुसार आचरण के बिना मात्र पूजा केवल पूजा का आडम्बर है।
अथ
। मालारोहण
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सम्यक्त्व माहात्म्य
. सम्यक्त्वहीन जोव यदि पुण्य सहित भी हो तो भी ज्ञानीजन उस पापी करते हैं। क्योंकि पुण्य-पाप रहित म्वरूप की प्रतीति न होने सं पुण्य के फल की मिठास में पुण्य का व्यय करके, स्वरूप का प्रतीति रहित होने से पाप में जायगा।
. सम्यकत्व सहित नरकवास भी भला है और सम्यकत्वहीन होकर देवलोक का निवास भी शोभास्पद नहीं होता।
• संसार रूपा अपार समुद्र से रत्नत्रय रूपी जहाज को पार करने के लिये सम्यग्दर्शन चतुर ग्वेवटिया ( नाविक) के समान है।
. जिस जीव के सम्यग्दर्शन है वह अनंत सुख पाता है और जिस जीव के सम्यग्दर्शन नहीं है वह यदि पुण्य करे तो भी अनंत दुःखा को भागता है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन की अनेकविध महिमा है, इसलिये जा अनंत सुख चाहते हैं उन समस्त जीवों को उसे प्राप्त करने का सर्व प्रथम उपाय सम्यग्दर्शन ही है।
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श्री तारणस्वामी
सम्यक् विचार
द्वितीय धारा (मालारोहण)
ॐकार वेदंति शुद्धात्म तत्वं, प्रणमामि नित्यं तत्वार्थमा) । ज्ञानं मयं सम्यकदर्शनोत्थं, मम्यक्त्वचरणं चैतन्यरूपं ॥१॥
ओङ्कार रूपी वेदान्त ही है. रे तत्व निर्मल शुद्धात्मा का । ओङ्कार रत्नत्रय की मंजूपा, ओङ्कार ही द्वार परमात्मा का ।। ओङ्कार ही मार तत्वार्थ का है, ओङ्कार चैतन्य प्रतिमाभिगम । ओङ्कार में विश्व, ओङ्कार जग में. ओङ्कार को नित्य मेग प्रणाम ॥
विश्व के श्रेष्ठतम अनुभव एक बार से कह रहे है कि यदि शुद्धात्मा का अनुभव किया जाय तो नममें एक ही माग्भून पदार्थ हिगोचर हागा और वह पदाथ होगा ॐ या प्रकार का रहस्यमे पृगण पद।
श्रांकार-- सम्यग्दशन. मम्यग्ज्ञान और मम्यक चारित्र का निधान है; मान का एक माग है और चेतन के वास्तविक रूप की यदि कोई प्रतिमूर्ति है तो वह भी ओंकार ही है।
___ संसार के समस्त पदाथ व नच्चों में अग्रगण्य उम ओंकार पर को मैं मन झुमाकर अभिवादन करता है।
मालारोहा ग्रन्थ की इस प्रथम गाथा में जिम ओंकार का अभिवादन श्री नाना म्वामी ने किया है उस ही ओंकार के गुणों का वर्णन इम ग्रन्थ की ३२ गाथाओं में करके शिष्य ममूह को यह उपदश दिया है कि भी भव्य जीवा ! तुम भी प्रकार के उन गुणों को जो कि मिद्धां में प्रत्यक्ष आर तुम्हाग आत्मा में प्रच्छन्न रूप से विदामान हैं प्रगट करी, आरोहण करो अथान ओंकारम्बम्प अपनी आत्मा के गुणरूपी माला को कंठ में पहिनी, धारण करो, जिस आत्म-गुणमाला को पहिन कर अनन्त जीवों ने सिद्धपद प्राप्त किया है।
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२२ ]
= सम्यक् विचार
नमामि भक्तं श्रीवोरनाथं, नंतं चतुष्टं तं व्यक्त रूवं । मालागुणं वोच्छं तत्वप्रबोध, नमाम्यहं केवलि नंत मिद्धं ॥२॥
जोऽनंत चतुष्टय के निकेतन, जिनके न ढिंग अष्ट कर्मारि बसते । ऐसे जिनेश्वर श्री वीर प्रभु को, मेरा युगल पाणि से हो नमस्ते ॥ में केवली, सिद्ध, परमेष्ठियों को, भी भक्ति से आज मस्तक नवाता । जो सप्त तत्वों की है प्रकाशक, उस मालिका के गुण आज गाता ॥
अनंन दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुग्व और अनंत वीर्य के धारी तथा शुद्धात्मा के सर्वोत्तम प्रतीक, भगवान महावीर को भी मैं नमस्कार करता है, तथा कमों की बेड़ियों को काटकर आज तक जितने भी जीव म्वाधीन होकर मुक्ति नगर को पहुँच चुके हैं उनके चरणों में भी नन मस्तक होकर हे श्रावको ! मैं तुम्हार मामने कल्याण के लिये उस माला की या शुद्धात्मा की चर्चा करता हूँ, जो मर्मज्ञ मंमार के बीच अध्यात्म या समकित माल के नाम से प्रसिद्ध है।
कायाप्रमाणं त्वं ब्रह्मरूपं, निरंजनं चेतनलक्षणत्वं । भावे अनेत्वं जे ज्ञानरूपं, ते शुद्ध दृष्टी सम्यक्त्व वीर्यं ॥३॥
इस ब्रह्मरूपी निज आत्मा का, काया बराबर स्वच्छंद तन है। मल से विनिमुक्त है यह घनानंद, चैतन्य-संयुक्त तारनतरन है॥ जो इस निरंजन शुद्धात्मा के, शंकादि तजकर बनते पुजारी ।
वे ही सफल हैं निज आत्मबल में, वे हो सुजन हैं सम्यक्त्वधारी ॥ आत्मा जिम शरीर में निवास करती है उसी प्रमाण अपना रूप धारण कर लेती है, किन्तु नश्वर के माथ अनश्वर का यह मेल अनेक भेदों से भरा हुआ है । काया जहाँ अंधकार से परिपूर्ण है वहाँ आत्मा निरंजन-प्रकाशमय है, अंधकार का उस पर कोई पर्दा नहीं, जहाँ काया अचेतन है, वहाँ आत्मा में चेतना का अविनाभावी संबंध है।
जो ज्ञानी पुरुष इस श्रात्मा के शंकादि छोड़कर निश्चल पुजारी बन जाते हैं, वे ही वास्तव में अपने आत्मवल में सफल होते हैं और वे ही इस संसार में सम्यग्दृष्टि' नाम की संज्ञा प्राप्त करते हैं।
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=सम्यक् विचार=
[ २३
संसार दुक्खं जे नर विरक्तं, ते समय शुद्धं जिन उक्त दृष्टं । मिथ्यात्व मद मोह रागादि खंडं, ते शुद्ध दृष्टी तत्वार्थ मार्धं ॥ ४ ॥
श्री जैन वाणी में मुख कमल से, कहते गिरा सिद्ध परमात्मा हैं । संसार - दुःखों से जो परे हैं, भव्यो वही जीव शुद्धात्मा हैं || मिथ्यात्व, मद, मोह, रागादिकों से, जिनने किये हैं रिपु नाश भारी । वेही सुजन हैं तत्त्रार्थ ज्ञाता, वे ही पुरुष हैं सम्यक्त्वधारी ॥
--
जिन्हें आत्मा की पहिचान हो जाती है, उनके पास दुःख नाम की कोई वस्तु नहीं रह जाती, अतः इस संसार में शुद्धात्मा या महात्मा केवल वही पुरुष हैं जो संसार के दुःखों से परे हो चुके हैंजो यह नहीं जानते कि आत्मा को कलुषित करने वाला दुःख आखिर किस पदार्थ का नाम है, ऐसे महात्मा न तो फिर संसार के मिथ्या विश्वासों में फँसते हैं और न राग द्वेष या ममना मोह के जाल में ही । संसार में जो आठ प्रकार के मह कहे जाते हैं, उनको तो वे खंड खंड हो कर डालते हैं। विश्व की कल्याण करने वाली, करुणामयी जिनवाणी ऐसे ही महात्माओं को शुद्ध सम्यग्दृष्टी के नाम से पुकारती है, संबोधन करती है।
शल्यं त्रियं चित्त निरोधनेत्वं. जिन उक्त वाणी हृदि चेतनेत्वं ।
,
मिथ्याति देवं गुरु धर्मदूरं शुद्धं स्वरूपं तत्वार्थ मार्धं ॥५॥
"
श्री वीर प्रभु के अमृत वचन का, जिनके हृदय में जलता दिया है । मिध्यादि त्रय शल्य का रोग जिनने सम्यक्त्व-उपचार से क्षय किया है ।। मिथ्यात्व-मय देव गुरु धर्म से जो, रहते सदा हैं परे आत्म - ध्यानी । वे ही पुरुष हैं शुद्धात्म-प्रतिमूर्ति, सम्यक्त्वधारी तत्वार्थ - ज्ञानी ॥
मिथ्या, माया, निदान इन तीन शल्यों से जिनके हृदय रहित हो जाते हैं, भगवान के वचन जिनके मन-मन्दिर में नितप्रति गूँजते हैं और जो खोटे मार्ग पर ले जाने वाले देव, गुरु और धर्म से दूर और कोसों दूर रहा करते हैं, वे ही पुरुष वास्तव में शुद्धात्मा के प्रतीक होते हैं और उनमें ही वास्तव में तत्त्वार्थ का यथार्थ सार भरा हुआ होता है ।
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२४
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---------सम्यक विचार
जे मुक्ति मुक्वं नर कोपि माधु, सम्यक्त्व शुद्धं ते नर धरेत्वं । रागादयो पुन्य पापाय दुरं, ममात्मा स्वभावं ध्रुव शुद्ध दृष्टं ॥६॥
मैं सिद्ध हूँ, मुक्तिरमणी बिहारी, है मोक्ष मेरी यही चारु काया । मद मोह मल पुण्य गगादिकों की, पड़ती न मुझ पर कभी भूल छाया । मम्यक्त्व से पूर्ण जिनके हृदय हैं, जो चाहते मोक्ष किम रोज पावें । वे स्वावलम्बी इसी भांति अपने, हृदयस्थ परमात्मा को रिझावें ॥
मंमार बन्धनों को काटकर, जो मुक्ति के अनन्त सुग्न को पाने के अभिलापी है, जिनक हृदयमगंबर में मम्यक्त्व पल पल शीतल हिलारें लिया करना है, उन्हें अपनी आत्मा को पहिचानने में तनिक भी समय नहीं लगना । वं मानन है कि मैं ध्र व है, शाश्वन ह और शुद्ध हवा अनन्त ज्ञान का धारी हूँ, वह अलौकिक आत्मा है, जो नीन लोक का प्रकाशित करनी है। और है प्रकाश का वह पुंज जो मदेव अवाध गनि से एक समान चमकना रहता है । राग, द्वंप, पुण्य पाप इन विकारों की कोई छाया उनकी श्रान्मा पर नहीं पड़ती।
से सम्यग्दो जीव अपनी आत्मा का चितवन ठीक इसी तरह से करते रहते हैं। उनका एमा ग्रामचिनन ही उनकी आत्मा को परमात्मा बना देता है।
श्री केवलंज्ञान विलोकतत्वं. शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं । मम्यक्त्व ज्ञानं चर नंत सौख्यं, तत्वार्थ मार्धं त्वं दर्शनेत्वं ॥७॥
ज्ञानारसी में जिस तत्व का रे ! दिखता सतत है प्रतिविम्म प्यारा । जिसके बदन से प्रतिपल बिखरता, रहता प्रभा-पुंज शुचि शुद्ध न्यारा ।। सम्यक्त्व को पूर्ण प्रतिमूर्ति है जो, हे जो अनूपम आनन्द-राशी । तत्वार्थ के सार उस आत्मा को, देखो, बिलोको, मोक्षाभिलाषी ॥
कंवलज्ञान में जिस तत्व की स्पष्ट छाया दृष्टिगोचर होती है। जिसके कण-कण से प्रकाश के सैकड़ों पुज एक साथ प्रस्फुटित होते रहते हैं तथा जो सम्यक्त्व की पूर्ण प्रतिमूर्ति है ऐसा शुद्धात्म तत्त्व ही वास्तव में सदैव मनन करने योग्य है।
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------सम्यक विचार---------------[ २५
मम्यक्त्व शुद्धं हृदयं ममम्तं. तम्य गुणमाला गुथतस्य वीयं । देवाधिदेवं गुरु ग्रन्थ मुक्तं. धर्म अहिंमा क्षमा उत्तमध्यं ॥८॥
मम्यन्य की चारु चन्द्रावली से, मबके हदय-हार हैं जगमगाते । पुण्यात्मा, बीरवर जीव ही पर. उसके गुणों को कर व्यक पाते ॥ जिनगज ही देव हैं ज्ञानियों के, गुरु ग्रंथ-निमुक्त, कल्याणकारी । है धर्म परमोच्च उत्तम अहिंसा, निममें विहमती क्षमा शक्तिधारी ।।
सम्यान एकप का हृदय सम्यक से छलछलाना रहता है। ठीक यही हाल हम य का भी है, क्योक निश्चय मय में हम भी तो मत्र शुद्ध प्रान्मार्ट है. पर यह सम्पन्न मबक पाप हान हुये भी मब अपने आपने विशुद्ध दृष्टि से देखने में, पृगण हान हा भी केवल कुछ ही अन्गा मी होती हैं जो अपने इम मम्यवान को अपनी पृगना को ऊपर लाने में ममर्थ हो पाना है और इस तरह अपने प्रात्मबल का दिग्दश " कराती है। अट कगों पर जय पाने वाले अरहन महाप्रभु और बाईम पापह महन करने वाले निग्रंथ माधु इम पीरुप के चलान उदाहरण है। मंमार की माग शक्तियों के स्वामी होत हए भी अहिमा उनका धम है और क्षमा है. उनका आपण ।
नत्वार्थ मार्धं त्वं दर्शनत्यं, मलं विमुक्तं मम्यक्त्व शुद्ध । ज्ञान गुणं चरणम्य सुद्धम्य वीयं नमामि नित्यं शुद्धात्म नत्वं ॥९॥
तत्वार्थ के मार को तुम विलोको, जो शुद्ध मम्यक्त्व का बन्धु! प्याला । परिपूर्ण जो शुद्धतम ज्ञान से है, जो है अतुल शक्ति चारित्र वाला । यह सार प्यारा शुद्धात्मा है, चिर सुग्वसदन का अनुपम सु साधन । ऐसे अमोलक विज्ञानघन को, मैं नित्य करता महाभिवादन ।।
जीव, अजीवादि मानां तत्वों के निष्कप पर यदि हम विचार करें तो पता लगेगा कि जीव तत्व ही इन सत्र में अपना प्रधानता रखता है। जीव तत्व, कमां से विमुन और अतुल ज्ञान गुग्ण नथा शक्ति का भण्डार है। सम्यक्त्व के इस पुंज को मैं नमस्कार करता है जो कि अपने ही प्रकाश से अपने आपके श्रानन्द में तन्मय है।
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२६
=सम्यक् विचार=
जे सप्त तत्वं पट दर्व युक्तं, पदार्थ काया गुण चेतनेत्वं । विश्वं प्रकाशं तत्वान वेदं श्रुतदेव देवं शुद्धात्म तत्वं ॥ १०॥
,
जो सप्त तत्वों को व्यक्त करता, पट द्रव्य जिसको हस्तामलक हैं । पंचास्तिकाया ओ नौ पदारथ, जिसमें निरन्तर देते झलक हैं ।। चैतन्यता से है जो विभूषित, त्रिभुवन-तली को जो जगमगाता ।
श्रुत - ज्ञान रूपी उस आत्म में ही, रत रह, करो आत्म-कल्याण आता ॥
जो सततच्चों को व्यक्त करता है पट् द्रव्यों से जो युक्त है, पचास्तिकाय और नौ पदार्थ जिसमें निरन्तर अपनी झलक दिखाते रहते हैं. ऐसे विश्व को प्रकाशित करने वाले उस विज्ञान रूपी देवाधिदेव शुद्धात्म तत्र का तुम निरंतर हो आराधन करो, मनन व चिन्तवन करी ।
"
देव गुरुं शास्त्र गुणान नेत्वं सिद्ध गुणं सोलाकारणत्वं । धर्मं गुणं दर्शन ज्ञान चरणं, मालाय गुथतं गुणमत्स्वरूपं ॥ ११ ॥
सत् देव सत् शास्त्र सत् साधुजन में श्रद्धा करो नित्य सम्वधारी । मुक्तिस्थ सिद्धों का नित मनन कर, ध्यावो परम भावनायें सुखारी || शुचि, शुद्ध रत्नत्रय - मालिका से, अपने अमोलक हृदय को सजाओं । शिव पंथ जिन धर्म को ही समझकर उसके निरन्तर सतत गीत गाओ ॥
हे भव्यो ! पर हितोपदेशी, वीतराग, सर्वज्ञ देव में, निग्रंथ गुरु में, तथा कल्याणकारी शास्त्रों में अपनी निष्ठा स्थिर करो, सिद्धों के गुणों का चितवन करो तथा अपनी अध्यात्म- मालिका में समयक्त्व रत्न को पिरोकर जोड़कर, उसकी सौरभ चन्द्रमा की कलाओं के समान दिन दूनी और रात चौगुनी कि जिस बढ़ते हुये प्रकाश में दश धर्म, सम्यक्त्व के आठ अंग तथा दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप रत्नत्रय आदि अनेक गुण प्रगट हो जावें, जो गुण कहीं बाहर नहीं, तुम्हारे में हो विद्यमान हैं ।
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सम्यक विचार---
==[२७
पड़माय ग्यारा तत्वान पेपं. वृत्तानि शीलं तप दान चित्तं । मम्यक्त्व शुद्धं न्यानं चरित्रं, सुदर्शनं शुद्ध मलं विमुक्तं ॥१२॥
एकादश स्थान में आचरण कर, कारि पर जय करो प्राप्त भारी । पंचाणुव्रत पाल भव भव मुधारो, एकाग्र हो तप तपो तापहारी ।। दो दान सत्पात्र-दल को चतुर्भीति, निज आत्म की ज्योति को जगमगाओ। पावन करो शील-मुर-वारि मे गेह, सम्यक्त्व-निधि प्राप्त कर मोक्ष पाआ ॥
भव्यो ! तुम्हाग क्रमश: प्रात्मक विकाम हा, कंवल इसके लिये ही ग्यारह प्रतिमाओं ( ग्यारह प्रतिज्ञाओं ) की मृण हुई है। अनः तुम अपनी शक्ति के अनुसार क्रमशः एक मीढ़ी से दृमरी सीढ़ी पर चढ़ते चले जाओ। पंचाण व्रतों का यथाशक्ति पालन करो और शील, तप व दान में अधिक से अधिक अपनी शक्ति को लगाकर प्रयाम यह करो कि तुम्हारा मम्यक्त्व पूरण निमलता को प्राप्त हो जावे । 'मम्यक्त्व का प्रादुर्भाव होने पर ही पहली दशनप्रतिमा कही गई है' तथा उसकी क्रमबद्ध निर्मलता ही प्रतिमाओं की विशेषता है।
मूलं गुणं पालंन जीव शुद्धं, शुद्धं मयं निर्मल धारणेत्वं । ज्ञानं मयं शुद्ध धरंति चित्तं, ते शुद्ध दृष्टी शुद्धात्मतत्वं ॥१३॥
वसु मूलगुण को पालन किये से, रे ! जीव होता है शुद्ध, सुन्दर । पुण्यार्थियों को इससे उचित है, धारण करें वे यह व्रत-पुरन्दर ॥ जो ज्ञानसागर इस आचरण से, यह देव-दुर्लभ जीवन सजाते । व वीर नर ही हैं शुद्ध दृष्टी, शुद्धात्म के तत्व वे ही कहाते ।
मम्यक्त्व के अष्टमूल गुणों को पालन करने से अपना यह दह दुर्लभ जीवन शोभायमान हो जाता है, आत्मा के प्रदेशों से बंधे हुये कर्म कटने लगते हैं और उनकी अपनी आत्मा दिन प्रतिदिन शुद्धता की ओर अग्रसर होती चली जाती है, ऐमा इम सम्यक्त्व का माहात्म्य जानकर जो भव्यजीव अष्टमूल गुणों का पालन करते हैं मानों वे ही पुरुप शुद्ध सम्यक्त्व के पात्र है अथवा पात्र होने के वे ही जीव अधिकारी है।
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२८ ]
==मभ्यक विचार
शंकाद्य दोपं मद मान मुक्तं, मृदं त्रियं मिथ्या माया न दृष्टं । अनाय पट्कर्म मल पंचवीमं, त्यक्तम्य ज्ञानी मल कर्ममुक्तं ॥१४॥
शंकादि वमु दोप, मानादि मद को, जिसके हृदय में कुछ थल नहीं है। त्रय मृढ़ता, पट आनायतन की, जिस पर न पड़ती छाया कहीं है । उपरोक्त पच्चीस मल-रियों पर, जिसने विजय प्राप्त की भव्य भारी। वह कर्म के पाश में छूटता है, बनता वही मुक्ति-रमणी-विहारी ।।
जिसके अपने आवन में सम्यग्टशन के शंकादि = दाप, जानि कुल प्रादि के - मद. नान मृढ़ता नथा अज्ञान पूर्वक किए हुए : कम, प म य पच्चीस दोप नहीं है, वह ज्ञानी पुरुप शाही कमां की पाश से छूट कर मान का नया माग पकड़ लेता है और एक दिन ममम्न कमां से मुक्त होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेना है, आत्मा का परमात्मा बना लेना है ।
शुद्धं प्रकाशं शुद्धात्मतत्त्वं, ममस्त मंकल्प विकल्प मुक्तं । रत्नत्रयालंकृत मत्स्वरूपं, तत्वार्थमाथं बहुभक्तियुक्तं ॥१५॥
शुद्धात्मा-तत्व का भव्य जीवो, है शुद्ध, मित, सौम्य, निर्मल प्रकाश । संकल्प आदिक का क्षोभ उसमें, करता नहीं रंच भी है निवास ॥ शुद्धात्मा का शुद्ध स्वरूप, है रत्नत्रय से सजित सुखारी ।
तत्वार्थ का सार भी बस यही है, भव्यो वनो आत्म के तुम पुजारी ॥ जो तत्त्वज्ञानी पुरुप नित्यप्रति शुद्धात्मा के गुणों का चिन्तवन करते रहते है तथा उसी तरह के अपने धर्म-आत्म धर्म में लीन बने रहते हैं, संसार के दुखों का उन्हें आभास भी नहीं होता ।
से विशिष्ट महात्मा पुरुप जीवादि तत्त्वों के ज्ञान में पारंगत होकर अपनी आत्मा में लोन रहने लग जाते हैं, और समय पाकर समस्त संकल्प विकल्पों से छूटकर कर्मों की वेड़ियों को विध्वंम करके उस अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं जिसे मुक्तावस्था या परमपद कहते हैं ।
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सम्यक विचार
-[ २९
जे धर्म लीना गुण चेतनेत्वं, ते दुःख हीना जिनशुद्धदृष्टी | संप्रय तत्वं मोई ज्ञान रूपं व्रजेति मोक्षं क्षत्रमेक एवं ॥ १६ ॥
शुद्धात्मा के चैतन्य गुण में, जो नर निरन्तर लवलीन रहते ।
विज्ञ ही हैं, जिन शुद्ध दृष्टी, संसार दुख-धार में वे न बहते ॥ जीवादि तत्वों का ज्ञान करके, होते स्वरूपस्थ वे आत्म-ध्यानी । कमरि-दल का विध्वंस करके, बरते वही वे शिवा-मी भवानी ||
जो भव्यजीव अपने आपके आत्म श्रम में लीन रहते हुए आत्म गुणों का चितवन करते हैं वे पुरुष संसार के समस्त दुखों से रहित होकर अन्तरात्मा से परमात्मपद पाने के अधिकारी हो जाते है । उनकी शुद्धात्मा से जो प्रकाश प्रगट होता है वह प्रकाश ही उन्हें निकल तथा शनि बना देता है। यह प्रकाश तीन रत्नों की जगमगाहट से परिपूर्ण रहता है, अतः ऐसे प्रकाश वाले इस अलौकिक शुद्धात्म तत्व की अर्चना में तुम अपने हृदय की पूण निर्मलता का उपयोग करो, यह तुम्हारी निमलता एक जग्गा में तुम्हें मुक्ति का दर्शन करा देगी और समय पाकर मुक्तिस्थान में पहुँचा देगी |
जे शुद्ध दृष्टी सम्यक्त्व शुद्धं, माला पुणं कंट अवलितं । तत्वार्थ सार्धं च करोति ने संसार मुक्तं शिव सौख्य वीर्य ||१७||
जो शुद्ध दृष्टी शुद्धात्म-प्रेमी, नित पालते हैं सम्यक्त्व पावन । अपने हृदयस्थल पर धारते हैं, जो यह गुणों की माला सुहावन ॥
भव्य जन ही पाने निरन्तर, तत्वार्थ के सार का चारु प्याला । संसार-सागर से पार होकर पाते वही जीव चिर मौख्य-शाला ॥
"
जो शुद्ध दृष्टी शुद्धात्म पुरुष सम्यक्त्व का नित प्रति पूर्ण रूप से पालन करते हैं तथा जो अपने कंठ में अध्यात्म मालिका धारण करते हैं वे ही तत्वार्थ की उस माधुरी का पान करने में समर्थ हो पाते हैं और वे ही जीव संसार सागर से पार होकर मुक्तिशाला में जाकर विराजमान होते हैं ।
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==सम्यक् विचार
ज्ञानं गुणं माल मुनिर्मलत्वं, मंक्षेप गुथितं तुव गुण अनन्तं । रत्नत्रयालंकृत सम्स्वरूपं, तत्वार्थ माधं कथितं जिनेद्रैः ॥१८॥
शुद्धात्मा की गुणमालिका में, वाणी अगोचर है पुष्प भाई । संक्षेप में ही, पर पुष्प चुन चुन, यह दिव्य माला मैंने बनाई ॥ आगम, पुराणों से तुम मुनोगे, बस एक ही वाक्य परमात्मा का ।
रत्नत्रयाच्छन्न हे भव्य जीवा, शशि सा सुलक्षण परमात्मा का ॥ वैसे तो अध्यात्म गुणों की इन मालिका में अर्थात शुद्धात्मा में अनेकों सुरभियुक्त प्रसून गूथ हुए हैं, किन्तु उनमें से कुछ ही प्रमूनों ( फूलों ) को उठाकर उनके गुणों की चर्चा मैंने तुमसे की है।
आगम पुगण और मंमार के सार ज्ञान व विज्ञानों से तुम्हें एक ही कथन मुनने को मिलेगा और वह यह कि शुद्धात्मा या अध्यात्म मालिका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की निधान है, उस निधान की-तत्त्वार्थ की तुम श्रद्धा करो, एकमात्र यही जिनेन्द्रदेव का कथन है ।
श्रेनीय पृच्छति श्री वीरनार्थ, मालाश्रियं मागंत नेहचक्र । धरणेन्द्र इन्द्र गन्धर्व जलं, नरनाह चक्रं विद्या धरेत्वं ॥१९॥
श्री वीर प्रभु से श्रेणिक नृपति ने, पूछा सभा में मस्तक नवाकर । इस मालिका को त्रिभुवन तली पर, किसने विलोका कहो तो गुणागर ? क्या इन्द्र, धरणेन्द्र, गन्धर्व ने भी, देखी कभी नाथ यह दिव्यमाला ? या यक्ष, चक्रश, विद्याधरों ने, पाया कभी नाथ यह मुक्ति-प्याला ?
भगवान महावीर से श्रेणिक नृपति ने उनकं समोशरण में एक प्रश्न पूछा-भगवन् ! त्रिभुवन में इम अध्यात्म माला के दर्शन पाने में कौन समर्थ हुआ ? इस अलौकिक गुणों को लक्ष्मी ने किसके गले में जयमाला डाली !
_क्या इन्द्र, धरणेन्द्र, गन्धर्व सरीखी विभूतियों ने कभी इस माला को देखा या कभी यक्ष, चक्रश या विद्याधरों ने इस माला को आरोहण किया ? हे सम्यक्त्वधाम ! यह आप बतावें ।
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- सम्यक् विचार =
[ ३१
किं दिप्त रतनं बहुवे अनन्तं, किं धन अनंतं बहुभेय युक्तं । किं त्यक्त राज्यं वनवामलेत्वं, किं तत्ववेत्वं बहुवे अनंतं ॥२०॥
जिसके भवन में हीरे जवाहिर, या द्रव्य की लग रहीं राशि भारी । ऐसे कुबेरों ने भी प्रभो क्या, देखी कभी माल यह सौख्यकारी || या राज्य को त्याग जोगी बने जो, उनने विलोकी यह माल स्वामी । या सप्त तत्वों के पंडितों ने देखी गुणावलि यह मोक्षगामी ?
हे भगवन् ! जिसके भवन में हीरे, जवाहर या रत्नों की राशियों के डेर लगे थे ऐसे कुबेर ने भी क्या कभी इस मालिका के दर्शन किये ? या जो राज्य पाट को त्याग कर योगी बन गये उन्होंने कभी इस मालिका से अपना हृदय सुशोभित किया या कभी इस मालिका को अपने वक्षस्थल पर वे देख पाये जो जंगलों अथवा पर्वतों में जाकर घोर तप करते हैं और जिनका शरीर तपस्या के मारे सूख कर कांटा हो गया है ?
श्री वीरनाथं उक्तं च शुद्धं श्रुणु श्रेण राजा माला गुणार्थं । किं रत्न किं अर्थ किं राजनार्थ, किं तत्व वेत्वं नवि माल दृष्टं ॥ ३१ ॥
बोले जिनेश्वर श्री मुख-कमल से, 'श्रेणिक सुनो मालिका की कहानी | इस आत्म-गुण की सुमनावली के, दर्शन सहज में न हों प्राप्त ज्ञानी ॥
ना
तो कभी रत्नधन-धारियों ने, श्रेणिक सुनो मालिका यह निहारी । ना मालिका को उनने विलोका, जो मात्र थे तत्व के ज्ञानधारी ॥
समदर्शी भगवान महावीर बोले- 'श्रेणिक ! मैं इस अध्यात्म माला की कहानी तुमसे कहता हूँ, तुम ध्यान पूर्वक सुनो ! सारभूत बात यह है कि यह अध्यात्म मालिका उन साधारण मालाओं मां माला नहीं, श्रेणिक ! जिसके दर्शन सबको ही सहज में प्राप्त हो जायें। न तो हीरे जवाहरात के धनी इसे पा सके, न वे ही इस माला को पहिन सके जो मात्र तवज्ञाता थे या जो राज्यपाट छोड़कर केवल वेषधारी बनकर जंगलों या पर्वतों में घोर तपस्या को चले गये और तप करते हुये शरीर को मुखा डाला ।
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३२ ]-----
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---- सम्यक् विचार
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किल कार्य वहविहि अनंतं,कि अर्थ अर्थ नहि कोपि कार्य । किं गज चक्र कि काम रूपं, किं नत्व वेत्वं विन शुद्ध दृष्टि ॥२२॥
"इम माल के दर्शनों में न तो भूप, रत्नादि पत्थर ही काम आवें । ना मार्वभौमों के राज्य या धन, ही इस गुणावलि को देख पावें ॥ ना तो इस दख तत्वज्ञ पाये, ना कामदेवों-में दृग-मुखारी ! दर्शन वही कर मक मालिका का, थे जो मुनो शुद्धतम दृष्टि धारी ।।"
पुनश्च- अंशाक ! इस माला को प्राप्त करने में न तो रत्नादि पत्थर ही काम आते हैं और न चक्रवनियों के मध्य पाट या वैभव ही। नथा कामदेव का नीनों भुवन को मोह लेने वाला रूप भी हम माला को प्राप्त न कर सका । नात्पर्य यह है कि- बिना शुद्ध दृष्टिकं ये सब ही इम अध्यात्म माता को पान में अमफल्न रहे अर्थात न पा सके ।
जे इन्द्र धरणेन्द्र गंधर्व यज्ञ, नाना प्रकार वहविहि अनंतं । तज्नंत प्रकारं बहु भय कृत्वं. माला न दृष्टं कथितं जिनेन्द्रः ॥२३॥
"श्रणिक ! मुनो वास्तविक गूढ़ यह है, जो पूर्णतम है सम्यक्त्व धारी । कंवल वही पुण्यशाली सुजन ही, नृप ! धर सके मालिका यह सुखारी ।। जो इंद्र. धरणेन्द्र, गंधर्व, यक्षादि, नाना तरह के तुमने बताय ।
व स्वप्न में भी कभी भूल राजन् ! यह दिव्य माला नहीं देख पाये ॥" हे श्रेणिक ! इन्द्र इत्यादि समारी भावनाओं की कामना वाले इस माला के दर्शनों से वंचित रहे, भले ही उन्होंने अनेक मंद प्रभंद पूर्वक आचरण किये, किन्तु अध्यात्म माला और उसके पाने के रहस्य को समझे बिना कोई भी उसे न पा सके। दूसरे शब्दों में नात्पर्य यह कि इम माला का संबंध रत्नादि पत्थरों से, चक्रवनियों के राज्य-वैभव से, इन्द्र, धरणेन्द्र, गन्धर्व, यक्षादि की विभूति से या कामदेव के अद्वितीय रूप से न होकर आत्मा के विशिष्ट गुणों से है; इसलिये यह मब इसे प्राप्त न कर मकं । श्रेणिक ! यही तुम्हार प्रश्न का उत्तर है । इसके रहस्य को समझने में भी तुम भूल न करना ।
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सम्यक विचार
=[ ३३
जे शुद्ध दृष्टी सम्यक्त्व युक्तं, जिन उक्त सत्यं सु तत्वार्थ साधं । आशा भय लोभ स्नेह त्यक्तं, ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलितं ॥२४॥
जो स्याद्वादज्ञ, सम्यत्व-सम्पन्न, शुचि, शुद्धदृष्टी, निज 'आत्मध्यानी । तत्वार्थ के सार को जानते नित्य, ध्याते पतित-पावनी जैन वाणी ॥ आशा, भय, स्नेह औ लोभ से जो, बिलकुल अछूते हैं स्वात्मचारी ।
वे ही हृदय कंट में नित पहिनते, है आत्म-गुणमाल यह सौख्यकारी ॥ हे श्रेणिक ! इस अध्यात्ममाला को केवल वही व्यक्ति प्राप्त कर सके जो दर्शन, ज्ञान और आचरण से संयुक्त "शुद्ध दृष्टी" थे, सम्यक्त्व से परिपुण थे। इम मालिका के साथ जो रहस्य है वह यह है कि केवल सम्यक्त्व से परिपूर्ण शुद्ध दृष्टि पुरुष ही इसे प्राप्त करने में ममर्थ हो सके हैं।
जिन्हें करुणामयी जिनवाणी के वचनों पर अटूट श्रद्धा होती है, तत्त्वार्थ के सार श्रात्मा के जो पूर्णरूपेण ज्ञाता होते हैं तथा आशा, भय, लोभ और स्नेह से जिनका हृदय दूर बहुत दूर हो जाता है ऐसे नररत्नों के हृदय ही इस मालिका से सुशोभित होते हैं, हुए हैं, और होवेंगे।
जिनस्य उक्तं जे शुद्ध दृष्टी, सम्यक्त्वधारो बहुगुणसमृद्धिम् । ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलितं, मुक्ती प्रवेशं कथितं जिनेन्द्रः ॥२५॥
"जिन उक्त-तत्वों को जानते हैं, जो पूर्ण विधि से सम्यक्त्व धारी । आत्म-समाधि सा मिल चुका है, जिनको समुज्ज्वल-तम रत्न भारी ।। उनके हदय-कंठ पर ही निरंतर, किल्लोल करतीं ये माल ज्ञानी !
वे ही पुरुष मुक्ति में राज्य करते, कहती जगतपूज्य जिनराज-ज्ञानी ॥" श्री जिनवाणी ने जिन सिद्धांतों का अपने ग्रन्थों में प्रतिपादन किया है, जो उनको भली भांति अपने जीवन में उतारते हैं; वे सम्यक्त्वनिधि को पाकर त्रैलोक्य के धनी बन जाते हैं । हे श्रेणिक ! सुनो ! ऐसे पुरुष ही इस मालिका को अपने वक्षस्थल पर धारण करने में समर्थ होते हैं और ऐसे ही पुरुष कमों के पाश से छूटकर मुक्तिस्थान में पहुँचकर चिरकाल पर्यंत निवास करते हैं।
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३४
सम्यक् विचार
सम्यक्त्व शुद्धं मिथ्या विरक्तं, लाजं भयं गारव जेवि त्यक्तं । ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलित, मुक्तस्य गामी जिनदेव कथितं ॥ २६ ॥
" मिथ्यात्व को सर्वथा त्याग कर जो, नर हो चुके हैं सम्यक्त्व धारी । जिनके हृदय लाज, भय से रहित हैं, जिनने किये नष्ट मद अष्ट भारी || उनकी हृदय-सेज ही भव्य जीवो ! इस मालिका की क्रीड़ास्थली है । जिनदेव कहते उनके रमण को ही बस खुली शिवनगर की गली है ।"
जिनके हृदय में 'शुद्ध सम्यक्त्व का सरोवर लहरें लिया करता है-संसार की विडंबनाओं से जो पूर्ण मुक्ति पा चुके हैं, तथा लौकिक लाज, भय और मदां से अपना पल्ला छुड़ा चुके हैं, हे श्रेणिक ! सुनो ! पुरुषों में ऐसे ही उत्तम पुरुष इतनी क्षमता रखते हैं कि इस अध्यात्म- माला को अपने वक्षस्थल पर सजा सकें और केवल वही पुरुष ही संसार सागर को पार कर मुक्ति नगर पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त करने में समर्थ हो पाते हैं ।
जे दर्शनं ज्ञान चारित्र शुद्धं, मिथ्यात्व रागादि असत्य त्यक्तं । ते माल दृष्टं हृदयकंठ रुलितं सम्यक्त्व शुद्धं कर्म विमुक्तं ॥२७॥
शुचि, शुद्ध दर्शन, ज्ञानाचरण से, जिनके हृदय में मची है दिवाली । मिथ्यात्व, मद, झूठ, रागादि के हेतु, जिनके न उर में कहीं ठौर खाली || उनके हृदय कंठ पर ही निरंतर, ये माल मनहर लटकती रही है । वे ही सुजन हैं जिन शुद्ध दृष्टी, रिपु-कर्म से मुक्ति पाते वही हैं ।
दर्शन, ज्ञान, आचरण और वह भी सम्यक् की संज्ञा को प्राप्त हुआ ऐसे रत्नत्रय के संयोग से जिनका हृदय दीपावली के समान जगमगाया करता है, मिथ्यात्व भाव या खोटे-राग द्वेष को उत्पन्न करने वाले पदार्थों का मोह जिनमें रंचमात्र भी निवास नहीं करता, तथा राग द्वेष परिणतियों और असत्य को जो बिलकुल ही तिलांजलि दे चुके हैं, हे श्रेणिक ! ऐसे ही महात्माओं को यह सौभाग्य प्राप्त होता है कि वे उस अध्यात्म-माला के प्रसाद से अपने को कृत-कृत्य कर सकें ।
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= सम्यक विचार
-[ ३५
पदस्थ पिण्डस्थ रूपस्थ चित्तं, रूपा अतीतं जे ध्यान युक्तं । आर्त रौद्रं मद मान त्यक्त, ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलितं ॥२८॥
पादस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, निमूत, इन ध्यान-कुंजों के जो बिहारी । मद-मान-से शत्रुओं के गढ़ों पर, जिनने विजय प्राप्त को भव्य भारी ॥ जिनके न तो रौद्र ही पास जाता, जिनको न ध्यानात की गंध आती।
ऐसे सुजन-पुंगवों के हृदय ही, यह आत्मगुण-मालिका है सजाती ।। पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये धर्मध्यान के चार भेद ही जिनके दैनिक जीवन के अंग हो जाते हैं, आर्त और रौद्र ध्यान जिनके पास फटकने भी नहीं पाता तथा अष्ट मदों को जलाकर जो भस्म कर चुके हैं, हे श्रेणिक ! ऐसे ही आत्मबल में श्रेष्ठ पुरुष इस माला को अपने हृदय पर पहिरने के अधिकारी हुआ करते हैं।
आज्ञा सुवेदं उपशम धरत्वं, क्षायिक शुद्धं जिन उक्त साधु । मिथ्या त्रिभेदं मल राग खंडं, ते माल दृष्ट हृदय कंठ रुलितं ॥२९॥
जो श्रेष्ठतम नर बेदक व उपशम, सम्यक्त्व के हैं शुचि शुद्ध धारी । मिथ्यात्व से हीन, है प्राप्त जिनको, सम्यक्त्व क्षायिक-सा रत्न भारी ॥ मद-राग से जो रहित सर्वथा है, जो जानते जिन-कथित तत्व पावन । वे ही हृदस्थल पर देखते हैं, नित राजती, मालिका यह सुहावन ॥
आज्ञा, वेदक, उपशम और क्षायिक सम्यक्त्व के जो पूर्णरूपेण धारी हो जाते हैं, तीन प्रकार के मिथ्यात्वों को जो खंड खंड करके एक भोर डाल देते हैं तथा कमों के पहाड़ को रजकणों में मिला देने का पुरुषार्थ जिनमें जाग्रत हो जाता है, हे श्रेणिक सुनो ! यह अध्यात्ममाला उनके ही कंठ में निवास करती है।
अंधमद्धा से नहीं, विवेकपूर्वक जिन-वचनों पर विश्वास करने को माझा सम्यक्त्व जानना ।
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=सम्यक् विचार
जे चेतना लक्षणो चेतनेत्वं, अचेतं विनासी असत्यं च त्यक्तं । जिन उक्त सत्यं सु तत्वं प्रकाश, ते माल दृष्टं हृदयकंठ रुलितं ॥३०॥
चैतन्य- लक्षण-मय आत्मा के, हैं जो निराकुल, निश्चल पुजारी । अनृत, अचेतन, विनाशीक, पर में, जिनको नहीं रंच ममता दुखारी ॥ जिनके हृदय में जिन उक्त तत्वों, की नित्य जलतो संतप्त ज्वाला।
उनके हृदय-कंह को ही जगाती, श्रेणिक सुनो ! यह अध्यात्म-माला || हे श्रीगक ! और सुना कि यह माला किसके गले में जयमाल डालती है, उसके जो दैतन्य लक्षण मय आत्मा का बिलकुल और निश्चल पुजारी होता है तथा अचनन, बिनाशीक और मिथ्या पदार्थों में जिसे रचमात्र भी श्रद्धा नहीं होती और भगवान के वचनों से जिसका हृदय तीनों काल प्रकाशित रहता है और तत्वों का प्रकाश जिसके हृदय में नित नये ज्योति के पुंज बिखराया करता है।
जे शुद्ध बुद्धस्य गुण सस्य रूपं, रागादि दोषं मल पुंज त्यक्तं । धर्म प्रकाशं मुक्तिं प्रवेशं, ते माल दृष्टं हृदय कंठ रुलितं ॥३१॥
जिन शुद्ध जीवों को दिख चुकी है, निज आत्मकी माधुरी मूर्ति बाँकी । जिनके हगों के निकट झूलती है, प्रतिपल सुमुखि मुक्ति की दिव्य झांकी ।। जो रागद्वेषादि मल से परे हैं, जो धर्म की कान्ति को जगमगाते ।
इस मालिका को वही शुद्ध दृष्टी, अपने हृदय पर फबी देख पाते । जिन्हें अपनी आत्मा की विशुद्ध झाँकी दिख चुकी है-जो शुद्ध बुद्ध परमात्मा और अपनी आत्मा में अब कोई भेद नहीं पाते हैं-राग द्वेष और संसार के अन्य सभी दोष जिनसे कोसों दूर भाग चुके हैं तथा जिनकी यह स्थिति हो गई है कि धर्म में आचरण कर वे अब धर्म के स्थंभ बन गये हैंधर्म उनसे अब प्रकाशमान होने लगा है। हे राजा श्रेणिक ! ऐसे ही नरश्रेष्ठ इस अध्यात्म गुण की मालिका से अपना यह देव-दुर्लभ जीवन सजाते हैं और उन्हीं के कंठ में रहकर यह समकित माल तीनों काल किल्लोल किया करती है। '
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- सम्यक् विचार
-[३७ जे सिद्ध नंतं मुक्ति प्रवेशं, शुद्ध स्वरूप गुण माल ग्रहित । जे केवि भव्यात्म सम्यक्त्व शुद्धं, ते जात मोक्षं कथितं जिनेद्रैः ॥३२॥
अब तक गये विश्व से जीव जितने, चोला पहिन मुक्ति का शिद्ध शाला । अपने हृदय पर सजा ले गये हैं, वे सब यही आत्म-गुण-पुष्पमाला ।। इस ही तरह शुद्ध सम्यक्त्व धरकर, जो माल धरते यह मौख्यकारी ।
कहते जिनेश्वर वे मुक्त होकर, बनते परमब्रह्म आनन्दधारी ॥ हे राजा श्रेणिक सुनो ! मैं तुम्हें सार की बात बताता है। अब तक जितने भी जीव सिद्धि का चोला पहिन कर मुक्तिशाला को पहुँचे हैं सबके वक्षस्थल इसी मालिका से सुशोभित हुए थे और मदेव ही रहेंगे। तथा आगे जो जीव इस समकित माल को पहिनेंगे व नररत्न भी मुक्ति लक्ष्मो को प्राप्त करेंगे।
यह मालिका क्या है. केवल अपने शुद्ध म्वरूप के गुणों का सम्यक संकलन ।
वैभव या नश्वर लौकिक वस्तुओं से इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता. किन्तु उत्तरोत्तर साधनाओं के निकट यह स्वयं अपने आप ही चली आती है। जो भव्य जन शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त कर आगे भी इसी तरह साधना करते जायेंगे, जिनवाणी का कथन है कि वे भी निश्चय से इमी ममकित माल को धारण कर मुक्ति का वह साम्राज्य पाते जायेंगे जो कल्पना से पर है।
अथ कमल बत्तीसी
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सम्यकज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है
आत्मा के स्वभाव को समझने का मार्ग सीधा और सरल है। यदि यथार्थ मार्ग को जानकर उस पर धीरे धीरे चलने लगे तो भी पंथ कटने लगे, परन्तु यदि मार्ग को जाने बिना ही आंखों पर पट्टी बांधकर तेली के बैल की तरह चाहे जितना चलता रहे तो भी वह घूम घामकर वहीं का वहीं बना रहेगा। इसी प्रकार स्वभाव का सरल मार्ग है। उसे जाने बिना ज्ञान नेत्रों को बन्द करके चाहे जितना उलटा सीधा करता रहे और यह माने कि मैंने बहुत कुछ किया है; परन्तु ज्ञानी कहते हैं कि भाई तूने कुछ नहीं किया, तू संसार का संसार में ही स्थित है, तू किंचित् मात्र भी आगे नहीं बढ़ सका। तूने अपने निर्विकार ज्ञानस्वरूप को नहीं जाना, इसलिये तु अपनी गाड़ी को दौड़ाकर अधिक से अधिक अशुभ से खींचकर शुभ में ले जाता है और उसी को धर्म मान लेता है, परन्तु इससे तो तृ घूम घामकर वहीं का वहीं विकार में ही आ जमता है। विकार-चक्र में चक्कर लगा कर यदि विकार से छूटकर ज्ञान में नहीं आया तो तूने क्या किया ? कुछ भी नहीं। -'सम्यग्दर्शन'
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श्री तारणस्वामी
सम्यक् विचार
तृतीय धारा (कमलबत्तीमी)
तत्वं च परम तत्वं परमप्पा, परम भाव दरमीए । परम जिनं परमिस्टी, नमामिहं परम देवदेवस्य ॥१॥
तत्वों में जो तत्व परम हैं, भाव परम दरशाते । परम जितेन्द्रिय परमेष्ठी जो, परमेश्वर कहलाते ॥ सब देवों में देव परम जो, वीतराग, सुख-साधन ।
ऐसे श्री अरहन्त प्रभू को, करता मैं अभिवादन ॥ जो तत्त्वों में परम तत्व परमात्म स्वरूप जो आत्माएँ श्रेष्ठतम भावों को प्राप्त कर चुकी हैं, ऐसी उन आत्माओं को जो पंच परमेष्ठी पद धारी देवों के द्वारा भी वंदनीय है उन्हें मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ । यह आदि मंगल श्री तारन स्वामी ने किया है, यह नमस्कार व्यक्तिवाचक नहीं, गुणवाचक है। 'जैनधर्म में व्यक्ति की नहीं, गुणों की ही मान्यता की गई है ।' बस यहीं से अध्यात्मवाद और इसके विपरीत मान्यताओं में जड़वाद का सिद्धान्त बन जाता है।
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=सम्यक् विचार=
जिन वयनं मदहनं, कमलमिरि कमल भाव उबवन्न । आर्जव भाव मंजुत्तं, ईर्ज स्वभाव मुक्ति गमनं च ॥२॥
पतितोद्धारक जिनवाणी के, होते जो श्रद्धानी । आत्म-कमल से प्रगटे, उनके, ही भव-भाव भवानी ॥ आत्मबोध का होजाना ही, आकुलता जाना है। आकुलता का जाना ही बस, शिव सुख को पाना है ॥
जो पनितोद्धारक जिनवाणो में अटूट श्रद्धा रखते हैं उनके हृदय से, कमल के समान निराकुल और पवित्र भावों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि जहां आत्मबोध हो जाता है, वहां पाकुलता समूल नष्ट हो जाती है और जहां श्राकुलता नहीं यहाँ मुक्ति का द्वार तो फिर खुला हो है, ऐसा समझो ।
अन्मोयं न्यान सहावं, रयनं रयन स्वरूपममल न्यानस्य । ममलं ममल सहावं, न्यानं अन्मोय सिद्धि संपत्ति ॥३॥
ज्ञान--स्वभाव है, स्वत्व सनातन, आत्मतत्व का प्यारा । रत्नत्रय से है प्रदीप्त वह, रत्न प्रखरतम न्यारा ।। कर्मों से निमुक्त सदा वह, शुचि स्वभाव का धारी ।
जो उसमें नित रत रहते वे, पाते शिव सुखकारी ॥ ज्ञान, आत्मा का एक जन्मसिद्ध और सनातन गुण है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र इन तीन रत्नों से वह सदैव ही प्रदीप्त रहता है।
कमों के बंधनों से यह नितान्त निर्मुक्त है, अत: ऐसे निर्मल स्वभाव के धारी श्रात्मतत्त्व का जो ज्ञानी चितवन करते हैं, वे निश्चय ही उस सिद्धि-सम्पत्ति के अधिकारी बनते हैं। तात्पर्य यह कि-आत्मा का अपना जो ज्ञान स्वभाव, उससे प्रीति करना ही एकमात्र मोक्षप्राप्ति का उपाय है, साधन है।
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सम्यक् विचार=
= [ ४१
जिनयति मिथ्या भावं, अमृत असत्य पर्जाव गलियं च । गलियं कुन्यान सुभावं, विलय कम्मान तिविह जोएन ॥४॥
आत्म-मनन से मिथ्यादर्शन; इंधन-सा जल जाता । अनृत, अचेतन, असत् पदों में, मोह न फिर रह पाता || 'सोऽहं' की ध्वनि क्षय कर देती, कुज्ञानों की टोली ।
आत्म-चिन्तवन रचदेता है, अष्ट मलों की होली ।। श्रात्ममनन से मिथ्यादर्शन, इंधन के समान जलकर भस्म हो जाता है, जिसका फल यह होता है कि अनृत, अचेतन और असत् पदार्थों में फिर मोह रहता ही नहीं।
कुज्ञानों का समूह आत्म-मनन की ध्वनि को सुनकर पलायमान हो जाता है और अष्ट कमों की तो यह आत्म-मनन मानो होली ही रचकर भम्मीभूत कर देता है।
नन्द आनन्दं रूवं, चेयन आनन्द पर्जाव गलियं च । न्यानेन न्यान अन्मोयं, अन्मोयं न्यान कम्म पिपनं च ॥५॥
परम ब्रह्म में जब रत होता, मन-मधुकर-मतवाला । सत् चित्, आनन्द से भर उठता, तब अंतर का प्याला ॥ ज्ञानी चेतन, ज्ञान-कुण्ड में, खाता फिर फिर गोते ।। मलिन भाव और सबल कम तब, पल पल में क्षय होते ॥
जिस समय यह मन परम ब्रह्म स्वरूप शुद्धात्मा के चितवन में लीन होता है, उस समय सत् चित और आनन्द से अंतरंग हृदय भर जाता है। होता यह है कि चेतन के ज्ञान कुण्ड में बार बार गोता लगाने से, हमारी मलिन आत्मा के समस्त मलिन भाव और कर्म क्रमशः क्षीण होने लगते हैं, जो कर्मावरण क्षीण होने से हमें हमारा वास्तविक स्वरूप दृष्टिगोचर होने लगता है। इसी का दूसरा नाम सम्यक्त्व का उदय है अथवा आत्म-साक्षात्कार हो जाना है।
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सम्यक विचार
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काम्म सहावं विपनं, उत्पन्न षिपिय दिष्टि सद्भाव । चेयन रूव मंजुत्तं, गलियं विलयंति कम्म बंधानं ॥६॥ कर्मों का नश्वर स्वभाव है, जब वे खिर जाते हैं । क्षायिक-सम्यग्दर्शन-सा तब, रत्न मनुज पाते हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टी नित प्रति, आत्म-ध्यान धरता है । जन्म जन्म के कर्मों को वह, क्षण में क्षय करता है।
कों का स्वभाव नश्वर है-क्षयशाल है और जब व बिरने लग जाते हैं, नब ज्ञानी के हाथों में मानों एक अनुपम रत्न की प्राप्ति हो जाती है जिसे क्षायिक मम्यग्दशन कहते हैं। क्षायिक सम्यग्दनी पुरुप अपने स्वभाव के अनुरूप ही आत्म-अर्चना में मग्न रहना है, जिससे जन्म जन्म के मंचित कर्मों को वह अल्पकाल में ही नष्ट कर देता है और कंवलज्ञान लक्ष्मी का अधिपनि बनकर पंचमगति पा लेता है।
मन सुभाव मंपिपनं, मंमारे सरनि भाव पिपन च । न्यान बलेन विसुद्धं, अन्मोयं ममल मुक्ति गमनं च ॥७॥
इस चंचल मन का स्वभाव है, नाशवान प्रिय भाई । नश्वर है मिथ्यादर्शन की, भी प्रकृति दुखदाई ।। आत्मज्ञान ही सरल शुद्ध, भावों को उपजाता है । सरल शुद्ध भावों के बल से, ही नर शिव पाता है ।
मन का स्वभाव भी नश्वर है, और मिथ्यादर्शन की प्रवृत्ति भी शाश्वत नहीं है, क्षीण होने वाली है। आत्मज्ञान से मन की प्रकृति और मिथ्यादर्शन की प्रकृति ये दोनों नष्ट हो जाती हैं और उनकी जगह सरल और शुद्ध भाव ग्रहण कर लेते हैं और इन सरल शुद्ध भावों के बल पर ही मनुष्य मुक्किलोक की अपार सम्पदा का अधिकारी बन जाता है । अतः शुद्ध भावों की जाग्रति एवं रक्षा और दिन प्रति दिन वृद्धि करनी चाहिये, बस यही मनुष्यजीवन की सार्थकता है, सारभूत पुरुपार्थ है, मोक्ष का उपाय है।
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सम्यक् विचार=
वैरागं तिविधि उवनं, जनरंजन रागभाव गलियं च । कलरंजन दोष विमुक, मनरंजन गारवेन तिक्तं च ॥८॥
भव, तन, भोगों से निस्पृह बन जाता आत्म- पुजारी । जन-रंजन गारव न उसे रह, देता दुख दुखकारी ॥ तन-रंजन के भय से वह छुटकारा पा जाता है । मन - रंजन गारव भी उसके पास न फिर आता है ||
आत्मा का मनन करने वाला, जनरंजन, तन रंजन और मन रजन इन तीनों भावों से छुटकारा पा जाना है। आत्मज्ञान होने पर ज्ञानी को न तो फिर लोक को रंजायमान अर्थात प्रसन्न करने की प्रवृत्ति रहता है, और न तन को व मन को भी। इन तीनों की ओर से वह पूर्ण उदासीन ही बन जाता है। उसके चित्त में तो केवल वैराग्य ही किल्लोल करता है ।
दर्मन मोहं विमुक्क, रागं दोपं च विषय गलियं च । ममल सुभाउ उवन्नं नन्त चतुष्टये डिस्टि संदर्भ ॥९॥
[ ४३
दर्शन --मोह से हो जाता है, मुक्त आत्म का ध्यानी । रागद्वेष से उसकी ममता, हट जाती दुखदानी ॥
घट में उसके आत्म-भाव का, हो जाता उजियाला । नंत चतुष्टय की जिसमें नित, जगती रहती ज्वाला ॥
आत्म-ध्यानी पुरुष दर्शनमोह से मुक्त हो जाता है; राग द्वेप से उसकी ममना घट जाती है और उसके घट में आत्मभाव का सुन्दर उजियाला हो जाता है। वह उजियाला जिसमें अनन्त चतुष्टय की प्रतिछाया दृष्टिगोचर होती रहती है।
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४४ ]==
=सम्यक विचार
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तिअर्थ मुद्ध दिष्टं, पंचार्थ पंच न्यान परमेस्टी । पंचाचार मु चरनं, सम्मत्तं सुद्ध न्यान आचरनं ॥१०॥
सम्यग्दृष्टी नितप्रति निर्मल, रत्नत्रय को ध्याता । पंच ज्ञान, पंचार्थ, पंच प्रभु, का होता वह ज्ञाता ॥ पंचाचारों का नितप्रति ही, वह पालन करता है ।
सब मिथ्या व्यवहार त्याग वह, आत्म-ध्यान धरता है ।। जिसे आत्मबोध हो जाता है या जो एकमात्र आत्मा का ही पुजारी रहता है वह नित प्रति रत्नत्रय का ही चिन्तवन किया करता है।
____पांचों ज्ञान, पांचों तत्त्व तथा पांचों प्रभु के गुणों का वह पूर्ण ज्ञाता रहता है। पंचाचारों का वह नियम पूर्वक पालन करता है तथा मिथ्या व्यवहारों से वह अपना अंचल छुड़ाकर सदा आत्मध्यान में ही लवलीन रहा करता है। यही सब उसके ज्ञान सहित व सम्यक्त्व सहित बाह्य व अभ्यन्तर आचरण हैं।
दर्सन न्यान सुचरन, देवं च परम देव मुद्धं च । गुरुवं च परम गुरुवं, धर्म च परम धर्म संभावं ॥११॥
आत्म तत्व ही इस त्रिभुवन में, सच्चा रत्नत्रय है । सब देवों का देव वही, परमेश्वर एक अजय है ॥ आत्म तत्व ही सब गुरुओं में, श्रेष्ठ परम गुरु ज्ञानी ।
सब धर्मों में श्रेष्ठ धर्म बस, आत्म तत्व सुखदानी ॥ इस त्रिभुवन में यदि कोई सच्चा रत्नत्रय है तो वह है शुद्धात्मा, सच्चा देव कोई है तो वह है शुद्धात्मा, गुरु यदि सच्चा गुरु है तो वह है शुद्धात्मा और धर्म कोई है तो वह भी शुद्धात्मा ही है, जिसकी विद्यमानता बाहर कहीं नहीं, अपने आप में घट घट में है।
तात्पर्य यह कि-अपने आपकी शुद्धात्म-परिणति ही सम्यक्त्व है और वही संसार सागर से पार लगाने वाला सच्चा धर्म है।
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=सम्यक् विचार
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=४५
जिन पंच परम जिनयं न्यानं पंचामि अक्षरं जोयं । न्यानेय न्यान विधं, ममल मुभावेन सिद्धि सम्पत्तं ॥१२॥
आत्म तत्व ही सम्यक्त्वी का, परमेष्ठी पद प्यारा । आत्म तत्व ही उसका, केवलज्ञान अलौकिक न्यारा ॥ आत्म तत्व के अनुभव से ही, आत्मज्ञान बढ़ता है ।
आत्मज्ञान के बल पर ही नर, शिवपथ पर चढ़ता है ॥ सम्यग्दृष्टी पुरुष के लिये आत्मतत्त्व ही पमेष्ठी का पद है और वही उसे सिद्ध है, सिद्ध प्रभु व अरहंत प्रभु का केवलज्ञान है । इस आत्म-तत्त्व का अनुभव आत्मज्ञान के बढ़ाने में अत्यन्त ही महकारी होता है और यही आत्मज्ञान ही वास्तव में वह नौका या जहाज है जिस पर बैठकर यह मानव संसार सागर से पार हो जाता है ।
चिदानन्द चितवन, चेयन आनन्द सहाव आनन्दं । कम्ममल पयडि पिनं, ममल सहावेन अन्मोय मंजुत्तं ॥१३॥ सत्-चित्-आनन्द चेतन में तुम, रमण करो प्रिय भाई ! इससे तुमको होगा अनुभव, एक अकथ सुखदाई ॥ मुरझा जाती है पापों की, आत्म मनन से माला । कर्म प्रकृतियों की हो जाती, हिम-सी ठण्डी ज्वाला ॥
हे भाइयो ! तुम सत् चित आनन्द के घर इस आत्मा में रमण करो; इससे तुम्हें एक अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति प्राप्त होगी। आत्ममनन से पापों की माला मुरझा जाती है, और कर्म प्रकृतियों की ज्वाला इससे हिम के समान ठंडी-शीतल हो जाती है।
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==सम्यक् विचार
अप्पा पर पिच्छंतो, पर पर्जाव सल्य मुक्कं च । न्यान महावं सुद्धं, चरनम्य अन्मोय संजुत्तं ॥११॥
आत्म द्रव्य का पर स्वभाव है, पर द्रव्यों का पर है । इस मन में बहता जब ऐसा, ज्ञानमयी निर्झर है ।। पर परिणतिय, शल्ये तब सब, सहसा ढह जाती है । निज स्वरूप की ही ता फिर फिर, झांकी दिखलाती हैं।
आत्मद्रव्य का न्यभाव चैतन्य लक्षण कर विभूपित है, जब क अनात्म-द्रव्यों का स्वभाव केवल जड़-चेतनाहीन है अथान आत्मा से सर्वथा भिन्न है। जिस समय अंतरंग में यह भदज्ञान का निर्मर बहना है, तो संसार को मारी पर परिणतिय और शल्ये वालू की दीवार के समान अपने आप ढहने लगती है और फिर आत्मा के दर्पण में आत्मा को केवल अपनी और कंवल अपनी ही विशुद्ध छबि दिग्याई देनी है। यदि कदाचित किमी काय कारण से उसमें पर-परिणति का रंचमात्र भी संचार दृष्टिगोचर होता है तो उसे वह तत्काल प्रथक कर देना है।
अवम्भं न चवन्तं, विकहा विनस्य विषय मुक्कं च । न्यान सुहाव सु समय, ममय महकार ममल अन्मोयं ॥१५॥
परमब्रम में जब चंचल मन, निश्चल हो रम जाता । तब न वहां पर अन्य; किन्तु. निज आत्मस्वरूप दिखाता । चारों विकथा, व्यसन, विषय, उस क्षण छुप-से जाते हैं । परमब्रम में रत मन होता, मल सब धुल जाते हैं ।
जब परम ब्रह्म परमात्मा के बम्प शुद्धामा में यह मन निश्चल होकर रम जाता है तब फिर उसकी दृष्टि में केवल एक और एक ही पदार्थ दृष्टिगोचर होता है और वह पदार्थ होता है उसका स्वयं का स्वरूप-आत्मम्वरूप । संसार की सारी व्यथ चर्चाय और विपय कपाय उस क्षण जैसे कहीं छिप से जाते हैं और आत्मा के साथ जितने कर्मबंध हैं लगता यह है कि जैसे वे उस समय धीरे धीरे धुल रहे हैं, खिर रहे हैं अर्थात् निर्जरा हो रहे हैं।
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=सम्यक विचार=
[४७
जिन वयनं च सहावं, जिनय मिथ्यात कषाय कम्मान । अप्पा सुद्धप्पानं, परमप्पा ममल दर्सए सुद्धं ॥१६॥ जिन-मुख सरसीरुह की है यह, ऐसी प्रिय जिनवाणी । मल. मिथ्यात्व, कपायें सबको, पल में हरती ज्ञानी ॥ आत्मतत्व ही शुद्ध तत्व है, जिन प्रभु कहते भाई । आत्म-मुकुर में ही बस तुमको. देंगे प्रभु दिखलाई ॥
निश्चयनय का यह जो कुछ भी कथन है यह परम्परा से हो चला आया है, और इसके मूल में जिनवाणी का ही श्रोत झर झर कर रहा है। जिनवाणी का कथन है कि हे भाइयो ! संसार में केवल शुद्धात्मा ही एक विशुद्ध नत्त्व है और इमी नत्त्व के दर्पण में तुम्हें परमेश्वर की माधुरी छवि दृष्टिगोचर होगी।
जिन दिष्टि इष्टि नमुद्धं, इम्टं मंजोय विगत अनिष्टं । इस्टं च लस्ट कलं, ममल महावेन कम्म मंपिपरं ॥१७॥
जिनवाणी की श्रद्धा हिय में. शुचि पारनता लाती । विरह अनिष्टों ने, इष्टों ने, यह संयोग कगनी ॥ त्रिभुवन में सबसे मृदुनम वस. आत्म-मनन की प्याली ।
आत्म-मनन से ही टूटेगी, कर्म-कमट की जाली ॥ जिनवाणी का श्रद्धा हृदय में पूर्ण विशुद्धता का सृजन करती जिमसे अनिष्ट पदाथों से तो हमारा छुटकारा हो जाता है और इष्ट पदाथ हमें बिना प्रयास किये ही प्राप्त हो जाने हैं। भगवान का यह वचन है कि त्रिभुवन में सबसे इष्ट वस्तु यदि कोई है तो वह है शुद्धात्मा का अचना और शुद्धात्मा की अर्चना में ही यह शक्ति विद्यमान है कि वह कम के लोह-बंधनों को जर्जर करके तोड़ सके।
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४८ ]=
सम्यक विचार=
अन्यानं नहि दिन, न्यान सहावेन अन्मोय ममलं च । न्यानंतरं न दिहूं, पर पर्जाव दिट्टि अंतरं सहसा || १८ |
क्षायिक सम्यग्दृष्टी में, अज्ञान नहीं रहता है । ज्ञान-तरंगों पर चढ़, नित वह, शिव-सुख में बहता है | आत्म-ज्ञान में अंतर उसके नेक नहीं दिखलाता | भेद-भाव, पर परिणतियों में, पर सहसा आ जाता ॥
आत्ममनन करने वाले विज्ञानी के अंतरंग में अज्ञान का वास ढूढे से भी नहीं मिलता है और वह नित्य प्रति ज्ञान की तरंगों पर ही हिलोरें लिया करता है। समय के प्रभाव से यह नहीं होता कि कभी उसके आत्म-ज्ञान में अन्तर पड़ जाये या न्यूनता आ जाये। हां, यह अवश्य हो जाता है कि नो परिणितियें कल उसमें अन्तरंग में विद्यमान थीं, वे आज वहाँ दिखाई भी न दें और उनकी जगह शुद्ध भावनाओं की नई तरंग ले ले । पर परिणतियों से तो उसे भेदभाव और विशेष भेदभाव उत्पन्न हो जाता हैं, उन्हें तो वह अपने में फटकने भी नहीं देता-स्पर्श भी नहीं करने देता ।
अप्पा अप्प सहावं, अप्पसुद्धप्प ममल परमप्पो ।
परम सरूवं रूवं, रूवं विगतं च ममल न्यानं च ॥१९॥
आत्म द्रव्य ही है परमोत्तम, शुद्ध स्वरूप हमारा । वह ही है शुद्धात्म यही है, परमब्रह्म प्रभु प्यारा ॥ त्रिभुवन में चेतन - सा उत्तम, रूप न और कहीं है । है यह ज्ञानाकार, अन्यतम इसका रूप नहीं है ||
हमारे शुद्ध स्वरूप की यदि कहीं कोई छवि है तो वह हमारी आत्मा में विद्यमान है । हमारी वह आत्मा इसी लिये हमें शुद्धात्मा है और इसी लिये परमात्मा । तीनों लोक में इस आत्मा सा ज्ञानाकार उत्तम पदार्थ न कहीं है और न कभी होगा ही ।
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= सभ्यक् विचार=
ममलं ममल सरूवं, न्यान विन्यान न्यान सहकारं । जिन उत्तं जिन वयनं, जिन सहकारेन मुक्तिगमनं च ॥२०॥
जिनके अमृत वचन मोक्ष से, हस्तमलकवत् जो त्रिभुवन के ऐसे जिन प्रभु भी यह कहते, आत्म-ज्ञान ही पंच ज्ञान के,
मृदु फल के दायक हैं । घट घट के ज्ञायक हैं ॥ चेतन अधिकारी है । पथ में सहकारी है ॥
जिनके मृत पी वचन मोक्ष का सा मधुर फल देने वाले हैं तथा जो त्रिभुवन के घट घट के ज्ञाता हैं, ऐसे जिनेन्द्र प्रभु भी केवल एक ही बात कहते हैं और वह यही कि हे भन्यो ! तुम्हारे घट में जो आत्मा का वास हैं तुम उसी के ज्ञान गुणों में तल्लीन होकर केवल उसी का मनन करो, क्योंकि वह आत्मा चेतनता से युक्त एक निर्विकार पदार्थ है, तथा केवलज्ञान की उत्पत्ति भी आत्मज्ञान से ही होती है ।
पटुकाई जीवानां क्रिया सहकार ममल भावेन,
सत्तु जीव सभावं, कृपा सह ममल कलिष्ट जीवानं ॥ २१॥
अनिल, अनल, जल, धरणि, वनस्पति, औ त्रस तन में ज्ञानी !
पाये जाते हैं वसुधा पर सच संसारी प्राणी ॥
इन जीवों पर दयाभाव ही, समताभाव कहाता । चेतन का यह चिर स्वभाव है, भाव- विशुद्ध बढ़ाता ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन और वनस्पति इन सबमें तथा त्रस पर्यायों में अगणित षट्कायिक जीवों का वास है। इन जीवों पर दया भाव करना ही समता भाव कहलाता है और यह समता भाव चेतन का चिर-स्वभाव है जिसके बल पर भावविशुद्धि में नितप्रति वृद्धि होती रहती है। पटुकाय के सभी जीवों को अपना शरीर मोह के वशीभूत इष्ट लगता है, उसमें दुःख का भान कराने का नाम हिंसा है और सुख साता का भान कराना दया करना है ।
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= सम्यक् विचार=
एकांत विप्रिय न दिहूं मध्यस्थं ममल शुद्ध सन्भाव | सुद्ध सहावं उत्तं, ममल दिट्टि च कम्म षिपनं च ॥ २२
ज्ञानी जन एकान्त विपर्यय, भाव न मन में लाते । स्याद्वाद - नय पर चढ़कर वे, मध्य-भाव अपनाते भावों में शुचिता आना ही, कर्मों का जाना है । कर्मों का जाना ही भाई ! शिव-पथ को पाना है ॥
ज्ञानी जन एकान्त, विपर्यय या एकांगो भाव को कभी भी अपने मन में स्थान नहीं देते, प्रत्युत वे मध्यस्थ भाव हो सदैव रखते हैं । मध्यस्थ भाव अपनाने से भावों में विशुद्धता आती है; भाव विशुद्ध होने से कमों की बेड़ियां टूटने से उस स्थल की प्राप्ति हो जाती है जिसके लिये मनुष्य कोटि कोटि वर्षों पर्यन्त तप करता है फिर भी कदाचित् उस स्थल- मोक्षस्थान को नहीं पाता ।
सत्वं क्लिष्ट जीवा, अन्मोयं सहकार दुग्गए गमनं । जे विरोह सभावं, संसारे सरनि दुःषवीयम्मि ॥ २३॥
जो नर संसारी जीवों को, पीड़ा पहुँचाते हैं । या पर से दुख पहुँचा उनको, जो अति सुख पाते हैं || ऐसे दुष्टों का होता बस, नर्क - स्थल में डेरा | असम-भाव जिसके, उसको बस, मिलता नर्क बसेरा ||
जो मनुष्य संसारी - षटकाय के जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं ऐसे उन दुष्टों का बसेरा केवल नर्क में ही होता है, क्योंकि सिद्धांत इस बात को उच्च स्वरों से कहता है कि जिसके भावों में विषमता (हिंसक क्ररता) रहती है उसको केवल नर्क में ही डेरा मिलेगा। अथवा वे भव भव के लिए दुखों का ही बीज बोते रहेंगे। तात्पर्य यह कि विषम भावों से विषम योनियों को प्राप्त होगा यह संसारमान्य सिद्धान्त है, केवल एक जैनधर्म का ही नहीं ।
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सम्यक विचार
= [५१
न्यान सहाव सु समयं, अन्मोयं ममल न्यान सहकारं । न्यानं न्यान सरूवं, ममलं अन्मोय सिद्धि सम्पत्तं ॥२४॥
आत्म-सरोवर में रमना ही. ज्ञान-स्वरूप है भाई ! आत्मज्ञान से ही मिलता है, केवलज्ञान सुहाई ॥ आत्मज्ञान ही से पाता नर, पद अरहन्त सुखारी ।
आत्मज्ञान के बल पर ही नर, बनते शिव-अधिकारी । आत्म-मरोवर में रमण करना और ज्ञान-स्वरूप में प्राचरण करना ये दोनों शब्द एक ही पर्याय के वाची हैं जिनसे आत्मज्ञान और कालान्तर में केवलज्ञान को उपलब्धि होती है।
___ आत्मज्ञान से ही मनुष्य बढ़ते बढ़ते अरहन्त पद को प्राप्त कर लेता है और अरहन्त पद से ही वह मुक्ति के साम्राज्य में जाकर अपना निवास बना लेता है।
इष्टं च परम इष्टं, इष्टं अन्मोय विगत अनिष्टं । पर पर्जायं विलयं, न्यान सहावेन कम्मजिनियं च ॥२५॥ त्रिभुवन में सर्वोत्कृष्ट बस, इस चेतन का पद है । निज स्वरूप में रमना ही बस, अहित-विगत सुख-प्रद है ।।
आत्म मनन से कर्मों की सब, वेड़ी कट जाती हैं।
इसके सन्मुख पर पर्यायें, पास नहीं आती हैं। त्रिभुवन में यदि कोई मबसे श्रेष्ठ पद है तो वह केवल एक शुद्धात्मा का ही है, और यदि कोई सर्वोच्च सुम्ब प्रदान करने वाली स्थिति है तो वह है आत्मरमण । आत्मरमण से कमों की सारी वेड़ियां कटकर खंड खंड हो जाती हैं और जब तक श्रात्मरमण की यह स्थिति विद्यमान रहती है तब तक संसार की पर पय:यें इसके सम्मुम्ब पदार्पण नहीं करती-वे दूर रहती हैं।
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५२ ]=
सम्यक विचार:
जिन वयन सुद्ध सुद्धं, अन्मोयं ममल सुद्ध सहकारं । ममले ममल सरूवं, जं रयनं रयन सरूव समिलियं ॥ २६ ॥
श्री जिनवाणी निश्चयनय का, प्रिय सन्देश सुनाती । त्रिभुवनतल में उससी पावन, वस्तु न और लखाती ॥ ज्ञान-सिन्धु आतम का भव्यो ! रूप परम पावन है । आत्म-मनन से ही मिलता बस, रत्नत्रय सा धन है ||
करुणामयी जिनवाणी निश्चय का पवित्र सन्देश सुनाते हुए हमको जगा जगाकर कहती है कि हे भव्यो ! ज्ञान-सिन्धु श्रात्मा का रूप सबसे विशुद्धतम रूप है, तुम इसी का मनन करो, क्योंकि मोक्ष के द्वार रत्नत्रय की प्राप्ति केवल आत्म-मनन से ही होती है ।
खेष्टं च गुन उववन्नं खेष्टं सहकार कम्म संषिपनं ।
"
खेष्टं च इष्ट कमलं, कमलसिरि कमल भाव उववन्नं ॥२७॥
जगता है शुद्धोपयोग गुण, आत्म-मनन से भाई । जिसके बल से गल जाते सब, कर्म महा दुखदाई ॥ कर्म काट, अरहन्त महापद, आत्म-कमल पाता है और यही निज-रूप रमण फिर, शिवपुर दिखलाता है |
भन्यो ! आत्ममनन से अन्तर में शुद्धोपयोग की जाग्रति होती है— शुद्धोपयोग का संचार होता है जिसके द्वारा आत्मा के प्रदेशों से चिपटे हुए सारे कर्म पृथक होने लग जाते हैं कि यही आत्मा रहंत पद प्राप्त कर लेती है । अरहन्त पद सन्निकट प्राप्त होने पर मुक्ति का मार्ग तो क्या वह स्वयं मुक्त स्वरूप हो जाता है और समय आने पर द्रव्यमुक्त हो जाता है - मोक्षधाम में जा बिराजत्ता है । -
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-सम्यक् विचार=
जिन वयनं सहकार, मिथ्या कुन्यान सल्य तिक्तं च । विगतं विषय कषाय, न्यानं अन्मोय कम्म गलियं च ॥२८॥
भव-सागर अति दुर्गम, दुस्तर, थाह न इसकी प्राणी ! इसको तारन में समर्थ बस, एक महा जिनवाणी ॥ जिनवाणी कुज्ञान, कषायें, शल्य, विषय क्षय करती ।
निश्चयनय का गीत सुना यह सब कर्मों को हरती ॥ यह संसार सागर महा गहन और दुस्तर है, इससे पार करने में केवल एक जिनवाणी ही समथ है। जिनवाणी-कुज्ञान, कषायें, शल्य और विषय इन सबका क्षय कर देती है और निश्चय नय का गीत सुनाकर समस्त कमों को क्षय कर देती है। ऐसी जिनवाणी की शरण लेना व उसकी आज्ञानुसार चलना ही कल्याणकारी है। तात्पर्य यह कि कर्मों का क्षय करने वाली जिनवाणी ही है।
कमलं कमल सहावं, षट्कमलं तिअर्थ ममल आनन्दं । दर्सन न्यान सरूवं, चरनं अन्मोय कम्म मंषिपनं ॥२९॥
आत्म-कमल अरहन्त रूप में, जिस क्षण मुसकाता है । उस क्षण ही, पट गुण त्रिरत्न-दल उसको विकसाता है । दर्शन-बान-सरोवर में तब, आत्म रमण करता है । और अघातिय कम नाश, वह शिव में पग धरता है।
ज्ञान सूर्य के उदय होने पर जिस समय आत्म-कमल प्रफुल्लित होता है उस समय शरीर रचना में जो छह कमल वे सब प्रफुल्लित हो जाते हैं और तीन रत्न सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का विकास हो जाता है । इस स्थिति में ज्ञानी आत्मरमण में तल्लीन हो जाता है और अघातिया कमों का विध्वंस करके वह मुक्ति नगर की ओर अग्रसर हो जाता है। केवलज्ञानी हो जाता है।
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=सम्यक् विचार मंमार सरनि नहु दिदें, नहु दिटुं समल पर्जाय सुभाव । न्यानं कमल महावं, न्यान विन्यान ममल अन्मोयं ॥३०॥ सिद्ध न संसारी जीवा से, भव मत्र गोते खावें । अशुचि मलिन परिणतियें उनके, पास न जाने पावें ।। उनके उर में कमल-पहल बस, केवलज्ञान विहंसता ।
शुद्ध ज्ञान, सत्-चित् सुग्व ही बस, उनके हिय में बसता ॥ ___ जो जीव सिद्ध पद प्राप्त कर लेते हैं व मंमार में गोता खाने के लिये फिर यहां कभी नहीं आते, और न फिर उनके पास अशुचि या मलिन परिणनिय हो जाने पाती हैं। उनके अन्तरंग में तो कमल के समान बस केवलज्ञान ही मुस्कुराया करता है और वे तो केवल सत् चित और प्रानन्द की सम्पदा को प्राप्त कर अपने आप में ही संतुष्ट रहा करते हैं ।
जिन उत्तं सद्दहनं, अप्पा परमप्प सुद्ध ममलं च । परमप्पा उवलद्धं, परम मुभावेन कम्म विलयन्ती ॥३१॥ 'विज्ञो ! अपना आत्म देव ही, है जग का परमेश्वर । बरसाते इस वाक्य सुधा को, तारण तरण जिनेश्वर ॥ जो जन, जिन-चच पर श्रद्धा कर, बनता आत्म पुजारी ।
कम काट, भवसागर ना वह, बनता मोक्ष-बिहारी ॥ हे विज्ञा ! अपना आत्मदेव ही संसार का एकमात्र परमेश्वर है, ऐसा संसार पार करने वाली जिनवाणी का कथन है। जो मनुष्य जिनवाणी के इस कथन पर श्रद्धापूर्वक श्रात्मा के पुजारो बनते हैं व निश्चय से ही कर्म काटकर मुक्ति नगर को प्राप्त कर लेते हैं।
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सम्यक् विचार=
जिन दिष्ट उत्त सुद्धं, जिनयति कम्मान तिविह जोएन । न्यानं अन्मोय ममल, ममल मरूवं च मुक्ति गमनं च ॥३२॥
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जैसा जिन ने देखा, जैसा बचन - अमिय बरसाया । वैसे ही शुद्धात्म तत्व का मैंने रूप दिखाया || त्रिविध योग से सतत करेंगे, जो आतम आराधन । कर्म जीत, वे ज्ञानानन्द हो पायेंगे शिव पावन ॥
मैंने जो यह कथन किया है, इसमें मेरा कुछ भी नहीं है, श्री जिनवाणी के चरण कमलों का अनुसरण करके ही मैंने सब कुछ कहा है ।
मेरा विश्वास है कि मन, वचन और काय के नियोग जो आत्मा का आराधन करेंगे वे अवश्य ही कर्मों के बंध काटकर एक दिन मुक्ति श्री के दर्शन कर अपने जीवन और ज्ञान चक्षुत्रों को सफल करेंगे। इतना ही नहीं, समय पाकर उसके स्वामी बनकर शाश्वत सुख के भोगी बनेंगे ।
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प्रातः कालीन
* जिनवाणी - प्रार्थना *
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जय करुणामय जिनवाणी ! जय जय मां ! मंगलपाणी !! स्याद्वाद नय के प्राङ्गण में बहे तुम्हारी धारा, परम अहिंसा मार्ग तुम्हारा निर्मल, प्यारा, प्यारा ! माँ ! तुम इस युग की वाणी ! सब गुणखानी !!
अशरण शरणा, प्रणतपालिका माता नाम तुम्हारा । कोटि-कोटि पतितों के दल को तुमने पार उतारा ॥ क्या ज्ञानी क्या अज्ञानी ? तिर्यग् प्राणी !! मोह - मान- मिथ्यात्व मेरु को तुमने भस्म बनाया । जिसने तुम्हें नयन भर देखा, जीवन का फल पाया ॥ तुम मुक्ति-नगर की रानी ! शिवा भवानी !!
कुन्दकुन्द, योगीन्दु देव से तुमने सुत उपजाये । तारणस्वामी, उमास्वामि से तुमने सूर्य जगाये ॥ माँ ! कौन तुम्हारी शानी ? तुम लाशानी !!
"यह भव- पारावार कठिन है इसका दूर किनारा ! इसके तरने को समर्थ है, आत्म- जहाज हमारा ।" यह माँ की सुन्दर वाणी ! शिवसुख दानी !!
माता ! ये पद - पद्म तुम्हारे हमसे कभी न छूटें । छूटें ही तो तब, जब 'चंचल' जन्म-मरण से छूटें | माँ ! तुम चन्दन हम पानी ! हृदय समानों !!
- 'चंचल'
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