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________________ १८८] सम्यक् आचार मल्यं मिथ्या मयं प्रोक्तं, कुन्यानं त्रि विमुक्तयं । ऊर्धं च ऊर्ध सद्भावं, उर्वकारं च विंदते ॥३५२॥ करणानुयौगिक शास्त्र से जो, प्राप्त करते ज्ञान हैं । उनको उचित वे त्याग दें, जो तीन शल्य महान हैं । जो तीन मिथ्या ज्ञान हैं, उनका भी वे वर्जन करें । शुचि ॐ के ही गान से वे, हृदय के कण कण भरें ।। करणानुयोग के शास्त्रों का स्वाध्याय कर लेने के पश्चात मिथ्याम्प तीन शल्यों का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये; तीन प्रकार के कुज्ञानों से अपना हृदय अछूता बना लेना चाहिये और जो मुक्ति स्वभाव का धारी ओम् है, सदा उसी के चितवन में लीन रहना चाहिये। . . . द्रव्य दिस्टी च संपूरनं, सुद्ध मंमिक्त दर्सनं । न्यान मयं माथं सुद्धं, करनानुयोग स्वात्म चिंतनं ॥३५३॥ द्रव्यार्थिक नय ही सुजन, वह एक अनुपम दृष्टि है । सम्यक्त्व की करती सृजन जो, अंतरों में सृष्टि है ॥ करणानुयौगिक ग्रंथ, इस नय से ही पढ़ना चाहिये । हो स्वात्ममय,शिवमार्ग में, प्रति निमिष बढ़ना चाहिये ।। निश्चयनय या शुद्ध द्रव्याथिक नय ही एक ऐसी दृष्टि है, जिससे सम्यक्त्व की यथार्थ अनुभूति हो सकती है अथवा सम्यक्त्व से रंगे हुए पदार्थों के अंतर में सम्यक् विधि प्रवेश हो सकता है। करणानुयोग के पाटियों को उस कोटि के सारं ग्रन्थ इसी नय से पढना चाहिये, जिससे परिणामों व वस्तुओं का यथार्थ म्वरूप समझा जा सके ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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