________________
सम्यक आचार
मुक्ति पंथं तत्व सार्द्ध च, लोका लोकं च लोकितं । पंथ भृस्ट अचेतम्य, विस्वास जन्म जन्मयं ॥ १२४ ॥
शुद्धात्म का श्रद्धान क्या है ? मुक्तिश्री का द्वार है। यह तत्व तीनों लोक का, करता सुभग शृंगार है ॥ पर मूढ़ जन इस तत्व का, करते न किंचित् ध्यान हैं । जड़ पत्थरों के ही सतत, गाते अधम वे गान हैं।
शुद्धात्मा का श्रद्धान क्या वस्तु है ? साक्षान मुक्तिश्री या स्वाधीनताः जन्म मरण के बंधनों से न्वाधीनता का द्वार ! किन्तु अज्ञानी लोगों की समझ में यह बात नहीं आती। वे पथ भ्रष्ट मानव अचेतन देव. प्रदेवों पर देव पने का विश्वास करके जन्म जन्मान्तर पतन-कूप में गिरते रहते हैं।
पारधी पासि जन्मम्य, अधर्म पामि अनंतयं । जन्म जन्मं च दुस्टं च. प्राप्तं दुष दारुणं ॥ १२५ ॥ भव्यो ! अधिक तो. एक जीवन के लिये ही पाश है । पर यह अधर्म, अनन्त पाशों का दुखान्त निवास है ॥ यह दुष्ट इस संसार का, करता महा अपकार है ।
भव भव रुला देता उसे, यह त्रास अपरम्पार है ॥ जो दुष्ट हृदय वाला या पारधी होता है, वह तो एक जन्म के लिये ही पाश सिद्ध होता है, किन्तु हे मानवो ! यह अधर्म रूपी पारधी जन्म जन्मों के लिये बंधन रूप हो जाता है। संसार के प्राणियों को यह दुध. अगणित समय तक दारुण से दामणतम दुःख दिया करता है।