SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक् आचार ... ...... [२०९ जे केवि मल मंपूरनं, कुज्ञानं त्रि रतो सदा । ते तानि मंग तिक्तंते, न किंचिदपि चिंतए ॥३९०॥ पंचबीश दोषों से रे ! जो, परिपूरित रहते हैं । जिनके उर में त्रय कुज्ञानों के, पोखर बहते हैं। दर्शनप्रतिमाधारी उनका, नेक न चिंतन करता । वह उन मदों की संगति में, भूल न नेक विचरता ॥ जो मनुष्य शंकादिक पाठ दोष, तीन मूढ़ता, छह अनायतन और पाठ मद, सम्यक्त्व को दृपित करनेवाले इन पच्चीस दोषों से तथा तीन कुज्ञानों से युक्त होता है, उन पुरुषों को दर्शनप्रतिम धारी भूलकर भी कभी संगति नहीं करता है, न उनका कभी वह चितवन ही करता है। मल मुक्तं दर्सनं मुद्धं, आराध्यते बुध जनै । मंमिक दर्सन सुद्धं च, ज्ञानं चारित्र संजुतं ॥३९१॥ दर्शनप्रतिमाधारी धरते, वह समकित आभूषण । रंचमात्र जिसमें न दिखाते, शंकादिक अठ दूषण ॥ यदि सम्यग्दर्शन निश्चल है, ध्रुव है, शुद्ध, ममल है । तो ध्रुव, शुद्ध, ममल निश्चय से, ज्ञानाचार युगल है। दर्शनप्रतिमाधारी सदा उस ही सम्यक्त्व की आराधना करते हैं, जो पच्चीस दोषों से सर्वथा मुक्त रहता है, क्योंकि मलरहित सम्यग्दर्शन रत्नत्रय में सर्वोत्कृष्ट स्थान रखता है। जहां शुद्ध सम्यग्दर्शन है, वहां ज्ञान और चारित्र दोनों शुद्ध कहलाने की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं और जहां पर सम्यक्त्व ही शुद्ध नहीं होता, वहां ज्ञान और चारित्र अशुद्ध ही रहते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy