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________________ सम्यक आचार ८५ लोभ अनृतं सद्भावं, उत्साह अनृतं कृतं । तस्य लोभ प्राप्तं च, तं लोभ नरगं पतं ॥१५२॥ यह लोभ करता है सृजन, रे ! अनृत का संसार है । मिथ्यात्व का करता, निठुर जो हृदय में संचार है । इस भांति का जो लोभ है, होता नहीं उसका शमन । वह नियम से निज पात्र का, करता नरक में है पतन । जिसका हृदय लोभ का भण्डार होता है, वह अपने प्रति कार्यों से मिथ्यात्व का संसार मृजन किया करता है और अंतर से मिथ्यात्व-जनित कार्य करने में प्रोत्माहन पाया करना है । ऐसे लोभ पुरुष के लोभ की ज्वाला कभी भी शान्त नहीं होती और वह नियम से नर्क का पात्र बनता है। लोभं कुन्यान मद्धावं, अनाद्यं भ्रमते सदा। अति लोभ चिंतंते येन, लोभं दुर्गति कारनं ॥१५३॥ यह लोभ ही, हे भव्यजन. कुज्ञान का आधार है । जिसका शरण ले नर सदा से, छानता संसार है। लोभी असत्य पदार्थ में ही. नित्य करता है रमण । इस ही लिये वह मूद नर, करता है दुर्गति में भ्रमण ॥ जिसके कारण यह प्राणी अनादिकाल से संसार की धूल छान रहा है, उस मिथ्यात्व को य. मिथ्याज्ञान को, यह लोभ ही इस संसार पर अवतीर्ण करता है। इस लोभ के कारण ही यह मनुष्य असत्य और अचेतन पदार्थ का चितवन किया करता है। मनुष्य जितनी भी दुर्गतियें पाता है, सब इसी दुष्ट लोभ के कारण ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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