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________________ २४६] - सम्यक् आचार अर्हतं अरहो देव, सर्वन्य केवलं ध्रुवं । अनंतानंत दिस्टं च, केवल दर्सन दर्सन || ४५८ ॥ इस जग में अर्हन्त देव ही, वन्दनीय हैं पूज्य महान | वही एक सर्वज्ञ, वही धुत्र. वही एक कैवल्य निधान ॥ उनमें जगमग करता है जो, ज्ञान राशियों का आलोक | दर्पण नाई वही प्रदर्शित कर सकता है लोकालोक || इस जगत में चार महान कार्यों के प्रतिपादक श्री अरहन्तदेव ही एक ऐसे देव हैं, जो पूर्ण देवत्व को धारण करने की क्षमता रखते हैं; सकल चराचर को जाननेवाले हैं; ज्ञान की चरम सीमा, केवलज्ञान के धारी हैं, पूर्ण स्वाधीन हैं और ध्रुव हैं । उनमें जिस व्यक्तित्व का वास है, वही और केवल वही, इस विस्तृत लोक और अलोक के पदार्थों को जानने में और उन्हें प्रकाश में लाने में पूर्ण भांति समर्थ होता है। साधु इसी अरहन्तपढ़ को पाने का तीनों काल प्रयत्न किया करते हैं । सिद्धं सिद्धि संजुक्तं, अस्ट गुनं च संजुतं । अनाहतं विक्त रूपेन, सिद्धं सास्वतं धुवं ॥ ४५९॥ होते हैं जो सिद्ध, आन्मा पर वे जय पा जाते हैं । अष्ट विशिष्ट गुणाधिगुणों के, वे अधिदेव कहाते हैं ॥ होते हैं वे व्यक्त, अनाहत. अजर अमर ध्रुव, अविनाशी । साधु इसी पद को पा, बनते हैं, सिद्धालय के वासी ॥ सिद्ध भगवान आठ कर्मों के विजेता होते हैं; उनके लिये संसार में कुछ भी करना शेष नहीं रहता श्रतः वे कृतकृत्य हो जाते हैं— सिद्ध हो जाते हैं । श्रष्ट कर्मों के नाश हो जाने से उनमें आत्मा के आठ अमूल्य गुण, रत्नों की राशि की भांति दैदीप्यमान हो उठते हैं। वे श्रव्यावाध, अविनाशी और अचल पद धारी होते हैं। साधु भी अपनी साधना से इसी पद को पाकर सिद्धक्षेत्र के वासी बन जाते हैं 1
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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