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________________ सम्मक आपार .. . [७५. अस्तेयं दुस्ट प्रोक्तं च, जिन वयन विलोपितं । अर्थ अमर्थ उत्पाद्यते, म्तेयं व्रत खंडनं ॥१३२॥ कटु क्रूर वचनालाप करना; चौर्य दोष महान है। जिन वचन का आलोप यह भी, चोर्य है. असमान है ॥ कुछ अर्थ का कुछ अर्थ करना, यह भी चौर्य स्तेय है । करना व्रतों का भंग यह भी, एक चोरी हेय है ॥ दूसरे की चीज़ चुरा लेना, इतने ही से चोरी का प्राशय पूरा नहीं हो जाता । कटु वचन बोलनाः वीतराग ने जो वचन कहे हैं, उनको लुप्त कर देना; अर्थ का अनथ करना और त्रन लेकर उसे भंग कर देना, ये सब चोरी के ही लक्षण हैं। सर्वन्य मुख वानी च. मुद्ध तत्व समाचरेत् । जिन उक्तं लोपनं कृत्वा, अम्तेयं दुर्गति भाजयं ॥१३३॥ सर्वज्ञ ने शुद्धात्म की रे, जो बहाई धार है । नर कर उसी में तू रमण, वह ही तुझे सुखसार है ॥ जो जिन वचन का लोपकर, प्रतिकूल उनके जायेगा । वह चीर्य के कटु पाश में, बँधकर कुगतियें पायेगा । - सर्वज्ञ ने अपने मुख-कमल से जिस शुद्ध आत्मतत्व का प्राक्कथन किया है, हे प्राणियो ! तुम उसी में रमण करो। जितेन्द्रिय भगवान के वाक्यों को लुप्रकर जो उनके प्रतिकूल कार्य करेगा. वह चोय का भाजन बनकर दुर्गति का पात्र बनेगा।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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