SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक् आचार कुगुरुं अधर्म पस्यंतो, अदेव कृत ताडकी । विकथा राग दंड जालं, पास विस्वास मूढयं ।।८४॥ जिसको कुगुरु के धर्मरूपी, व्याल ने आ डस लिया । उसका अदेवों से समझ लो, भर गया पूरा हिया ॥ विकथा कषायों में ही अपना, वह समय खोने लगा । मूढत्व में हो लिप्त, भव के बीज वह बोने लगा ॥ जो कुगुरुओं के उपदेश से अधर्म के पात्र बन जाते हैं, वे अदेवों की भक्ति में निश्चयत: लीन हो जाते हैं; रागों से भरी हुई जो विकथाएं हैं, उनके सुनने में आनन्द लेने लगते हैं और इस तरह विश्वाम रूपी उस पाश में सदा के लिये बंदी बन जाते हैं जो मूढ़ता रूपी रेशों से बनी रहती है और अगणित जन्म मरण धारण कराती रहती है। बनं जीवा गणं रुदन, अहं बंधति जन्मयं । अगुरु लोकमूढस्य, बंधति जन्म जन्मयं ॥८५॥ फँसती बधिक के जाल में, जो भी विहँग की पांत है । वह एक भव के लिये ही, धोती वहाँ पर हाथ है ॥ जिन पर कुगुरु-रूपी बधिक की, पड़ गई पर जालियाँ । पीलीं समझ लो, उन खगों ने कई भवों की प्यालियाँ ॥ हे मानवो ! बनवासी पारधी के जाल में जो पक्षी फँस जाते हैं, वे सिर्फ एक जन्म के लिये ही मदन मचाते हैं, किन्तु लोकमूढ़ता के वशीभूत होकर जो प्राणी कुगुरों के फन्दे में फंस जाते हैं, वे जन्म जन्म के लिये बंधन में पड़ जाते हैं अर्थात् उनका अगणित काल तक संसार से आवागमन नहीं मिटता।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy