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________________ सम्यक् विचार= वैरागं तिविधि उवनं, जनरंजन रागभाव गलियं च । कलरंजन दोष विमुक, मनरंजन गारवेन तिक्तं च ॥८॥ भव, तन, भोगों से निस्पृह बन जाता आत्म- पुजारी । जन-रंजन गारव न उसे रह, देता दुख दुखकारी ॥ तन-रंजन के भय से वह छुटकारा पा जाता है । मन - रंजन गारव भी उसके पास न फिर आता है || आत्मा का मनन करने वाला, जनरंजन, तन रंजन और मन रजन इन तीनों भावों से छुटकारा पा जाना है। आत्मज्ञान होने पर ज्ञानी को न तो फिर लोक को रंजायमान अर्थात प्रसन्न करने की प्रवृत्ति रहता है, और न तन को व मन को भी। इन तीनों की ओर से वह पूर्ण उदासीन ही बन जाता है। उसके चित्त में तो केवल वैराग्य ही किल्लोल करता है । दर्मन मोहं विमुक्क, रागं दोपं च विषय गलियं च । ममल सुभाउ उवन्नं नन्त चतुष्टये डिस्टि संदर्भ ॥९॥ [ ४३ दर्शन --मोह से हो जाता है, मुक्त आत्म का ध्यानी । रागद्वेष से उसकी ममता, हट जाती दुखदानी ॥ घट में उसके आत्म-भाव का, हो जाता उजियाला । नंत चतुष्टय की जिसमें नित, जगती रहती ज्वाला ॥ आत्म-ध्यानी पुरुष दर्शनमोह से मुक्त हो जाता है; राग द्वेप से उसकी ममना घट जाती है और उसके घट में आत्मभाव का सुन्दर उजियाला हो जाता है। वह उजियाला जिसमें अनन्त चतुष्टय की प्रतिछाया दृष्टिगोचर होती रहती है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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