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________________ २१२] सम्यक् आचार उर्वकारं ह्रीकारं च, श्रींकारं प्रति पूर्नयं । ध्यानंति मुद्धध्यानं च, अनोव्रतं मार्धं धुवं ॥३९६॥ ॐ हीं श्रींकार मयी जो, होता ध्यान विशद है । वही ध्यान है शुद्ध विज्ञजन. वही ध्यान सुखप्रद है ॥ दर्शनप्रतिमाधारी नितप्रति, ध्यान वही धरता है । इसी ध्यान सँग पंच अणुव्रत, वह पालन करता है । ओम ह्रीं श्रीं से जो परिपूर्ण ध्यान होता है, वहीं यान आराधना करने के योग्य होता है। दशनप्रतिमाधारी इमी ध्यान को लेकर शुद्धात्मा के ध्यान में तल्लीन होता है और अपने अगावनों की माध पूरी करता है। अन्यावेद कन्चैव, पदवी दुतिय आचार्य । न्यानं मति श्रुतं चिंते, धर्म ध्यान रतो मदा ॥३९७॥ आज्ञा, वेदक समकित धरता, दर्शनप्रतिमाधारी । करता है क्रमशः व्रतप्रतिमा का, साधन सुखकारी । मति श्रुतज्ञानों का नितप्रति ही, वह चिंतन करता है । परमानंद मगन हो नित वह, धर्मध्यान धरता है। दर्शनप्रतिमाधारी को आगे चढ़ने के लिये नई मीढ़ी है व्रतप्रतिमा । मन्यक्त को पूर्ववत ही पालते हुए उसे जो अतिरिक्त साधनाएं करनी होती है, व होती हैं मति और श्रुनज्ञान के द्वारा शाम्राभ्याम और मन वचन काय की एकता से धर्मध्यान का साधन ! और इन्हीं में वह अपना अभ्यास बढ़ाता रहता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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