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________________ सम्यक आचार मा चेतना भावं, आत्म धर्म च एकर्य । आचार्य उपाध्यायेन, धर्म सुद्धं च धारिना ॥३३८॥ आचार्य और उपाध्या (य) होते, जो साधु महान हैं । वे शुद्ध निश्चय धर्म में ही, लीन रखते ध्यान हैं। चैतन्य से मंडित जो, आतम देव पूर्ण ललाम है। करता उसीकी भावना बस, यह युगल अभिराम है ।। प्राचार्य और उपाध्याय दोनों परमेष्ठी शुद्ध आत्मधर्म के धारण करने वाले होते हैं। इन दोनों विभूतियों के द्वारा, चैतन्य लक्षण से मंडित शुद्धात्मा की ही अर्चना की जाती है, अन्य को नहीं। ते धर्म सुद्ध दिष्टी च. पूजितं च सदा बुधै । उक्तं च जिन देवेन, श्रूयते भव्य लोकयं ॥३३९॥ जो धर्म सबसे श्रेष्ठ है, वह धर्म आतम धर्म है । करना उसी की अर्चना, प्रज्ञाघरों का कर्म है। उपदेश इम सद्धर्म का, अरहन्त प्रभवर ने दिया । जो भव्य हैं, उनने यही, पीयूष का सागर पिया ॥ जो धर्म आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठी पालते हैं वही धर्म सबसे श्रेष्ठ है; वही धर्म सम्यग्दृष्टियों के अनुसरण करने योग्य है और उसी धर्म की विद्वानों के द्वारा आराधना होनी चाहिये। इस धर्म का उपदेश अष्टकमों और पाँचों इन्द्रियों के विजेता श्री जिनेन्द्र प्रभु ने दिया है और जो मोक्षगामी भन्य पुरुष हैं, उनने इसी धर्म का पान कर अपना जीवन सफल बनाया है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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