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________________ सम्यक आचार [७३ पारधी पामि मुक्तस्य, जिन उक्तं सार्थ धुर्व । मुद्ध तत्व च साद्धं च, अप्प सद्भाव चिन्हितं ॥१२८॥ सर्वज्ञ भाषित धर्म पर, श्रद्धान जिसको आ गया । 'शुद्धात्म ही तत्वाथं है, जो यह अतुल निधि पा गया । वह पारधी के जाल में, फिर और रह पाता नहीं । अपने परों को तौल कर, वह बिहग उड़ जाता वहीं । श्री जिनेन्द्र भगवान ने जिसका महत्व संसार को समझाया है, उस शुद्ध सत्तात्मक भाव से श्रोत प्रांत शुद्धात्मा पर श्रद्धान लाकर जो उसका पुजारी बन जाता है, वह अधर्मरूपी पारधियों के या स्वयं गरधियों के जाल में फिर और नहीं रह पाता है: तुरन्त ही उनके फन्दे से उसकी मुक्ति हो जाती है। ___ चौर्य कर्म अस्तेयं अनर्थ मूलम्य, विटवं असुह उच्यते । ममारे दुष सद्भावं. अस्तेयं दुर्गति भाजनं ॥१२९॥ चोरी, सुनो हे भव्यजन, आपत्तियों का मूल है । करती विकल परिणाम, यह उर का खटकता शूल है ॥ इस लोक में तो यह पिलाती है, दुखों की प्यालियाँ । उस लोक में भी पर दिखाती, यह कुगति की नालियाँ । चोरी सारे अनर्थों की मूल हुआ करती है; हृदय को आकुलता रूप परिणामों से यह भर देती है: अशुभ परिणामों को उत्पन्न करने में इसका प्रमुख हाथ रहता है। जब तक मनुष्य जीता है, तब तक तो उमे मसार मागर में यह अनेकों दुःख देकर कलाती है और उसके अनंतर परलोक में यह उसे नीच से नीच गति का पात्र बनाती है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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