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सम्यक आचार
चौरस्य उत्पाद्यते भावं, अनर्थ मो मंगीयते । असुद्ध परनाम तिम्रते, धर्म भाव न दिस्टते ॥१०४॥ यह चौर विकथा. चौर्यभावों का ही करती है सृजन । उन भाव का ही, जो बनाते, प्राणियों का विकल मन ॥ इनसे मलिन भावों को ही, मिलती हियों में ठौर है । दिखता नहीं फिर धर्म का सद्भाव हिय में और है ॥
चौर्य विकथा अनिष्ट क्यों ? इसलिय कि इसके मनने से परिणामों में भी चौयं भावों का ममावेश हो जाता है। परिणाम अशुद्ध हो जाते हैं। जहां परिणामों में विकृति आई, वहां फिर धर्म का सद्भाव कैसा ? धर्मभाव फिर यहाँ दृटिगोचर नहीं होता है।
चौरस्य भावना कृत्वा, आरति रौद्र मंजुतं । अम्तेया नंद आनंद मंमारे दुष दारुनं ॥१०५॥ यह चौर्य विकथा. हृदय में जिन भाव का करती सृजन । वे आतं रौद्र ध्यान से. संतप्त रहते विज्ञजन ! इन चौर्य विकथाओं में जो, लेते सतत आनंद हैं ।
उनको सदा ही फाँसते रहते, विकट भव-फंद हैं । चोरी की भावना हृदय में जिन परिणामों की मृष्टि करती है, वे आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों से संयुक्त होते हैं। जो मनुष्य इस चौर्य विकथा में प्रानन्द लेते हैं, वे संसार में अगणित समय तक भयंकर से भयंकर दुःख उठाते रहते हैं।