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सम्यक आचार
मिथ्या समय मिथ्या च, समय प्रकृति मिथ्ययं । कमायं चत्रु अनंतानं, तिक्तते मुद्ध दिस्टितं ॥३२॥
सर्व प्रथम मिथ्यात्व शास्त्र में, है मिथ्यात्व कहाता । है द्वितीय सम्यक् तृतीय, सम्यक् प्रकृति है भ्राता ॥ क्रोध मान माया व लोभ ये, होती चार कषायें । जो होते हैं शुद्ध दृष्टि वे इनमें मन न रमायें ।
(१) मिथ्यात्व (२) सम्यक् मिथ्यात्व (३) सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व-ये तीन मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया, और अनंतानुबंधी लोभ-ये चार कपायें जो छोड़ देता है, उसे मम्यग्दर्शन की प्रानिधी जाती है ।
मिथ्यात्व का अभाव या सम्यक्त्व का उदय
सप्त प्रकृति विच्छदो जत्र, मुद्ध दिस्टिदिस्टतं । श्रावकं अविरतं जेन, मंगारदुष परान्मुषं ॥३३॥ सप्त प्रकृतियां अन्तस्तल से, जब विलीन हो जाती। शुद्धदृष्टि की छवियाँ तब ही, अंतर में दिख पातीं ॥ शुद्धदृष्टि धारी जन ही बस, अव्रत श्रावक होता ।
सांसारिक दुख दूर बसा, जो अविरल सुख में सोता ॥ जब अंतस्तल से सप्तप्रकृतियों का या तीन मिथ्यात्व व चार कपायों का लोप हो जाता है तभी शुद्ध दृष्टि के दर्शन होते हैं। यही शुद्ध दृष्टि जीव अत्रत सम्यग्दृष्टि श्रावक कहलाना है जो संसार के मारे दुःखों से पर रहकर मुख और शान्ति का अनुपम अनुभव करता है।