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________________ १२२] ... .................. सम्यक् आचार ति अर्थ समिक्तं सार्द्ध, तिथंकर नाम सुद्धये । कर्म पिपति त्रिविधं च, मुक्ति पंथ सिधं धुर्व ॥२२०॥ सम्यक्त्व साधन के ही करते, जो अनन्त प्रयास हैं । उनको ही मिलते, तीर्थकर, बंध के अवकाश हैं । वे तीन कर्मों के किले, पल में बनाते चूर्ण हैं । सत, चित, परम, आनंद बनकर वे कहाते पूर्ण हैं । जो सम्यक्त्व का साधन करता है, वही समय पाकर जग को तारने वाला बन जाता है और संसार में तीर्थंकर के नाम से प्रसिद्ध होता है। सम्यक्त्व साधन करने वाला द्रव्यकम, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों कर्मों को नाश कर डालता है और सन चित आनन्द बनकर पूण पुरुप परमात्मा कहलाता है। मंमिक्तं जस्य चिंतंति, बारंवारेन मार्धयं । दोषं तस्य विनस्यंति, निंघ मनंग जूथयं ॥२२१॥ सम्यक्त्व का जो जीव करता है, सदा ही चिन्तवन । उसके हृदय में दोष के, पड़ते नहीं कलुषित चरण ॥ क्या सिंह को, होता जो अनुपम शक्ति का आगार है । आकर कभी रे ! छेड़ता गजराज का परिवार है ? जो पुरुष सम्यक्त्व का वार बार चिन्तवन करता है और उसके अर्थ का मूक्ष्म बुद्धि से मनन करता है, उसके हृदय में दोपों के चरण किसी भी अवस्था में नहीं पड़ने पाते हैं। क्या विशाल शक्ति के मागर सिंह को हाथियों का समूह भी कभी आकर छेड़ सकता है ?
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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