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सम्यक् आचार .........
अनादि काल भ्रमनं च, अदेवं देव उच्यते । अनृतं अचेत दिस्टते, दुर्गति गमनं च मंजुतं ॥१२॥ यह ही नहीं कि अदेव को, सतदेव कहना भूल है । परिपक्व इस अज्ञान से. होती अरे भव-मूल है ॥ जड़-पत्थरों के दर्शनों से, कर्म ही बँधते नहीं ।
उनका पुजारी नर्क तज, जग में न थल पाता कहीं ॥ जो देव के अनिवार्य गुणों से हीन हैं, उनको देव कह देना, संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करने का एक प्रधान कारण है। जिनमें वास्तविकता नहीं है और जो जड़ है: चैतन्य से रहित है. ऐसे देवों के दर्शन नर्क में गमन कराने वाले होते है।
अनृतं अचेत मानं च, विनाम जत्र प्रवर्तते । ते नरा थावरं दुषं, इन्द्री इत्यादि भाजनं ॥६॥ जिम ओर सर्व विनाश की, विकराल दावा जल रही । जिनके बदन से प्रलयकर, गिरि-तुल्य ज्वाल निकल रही ॥ जो नर असत् को सत्य कह. जाता कहीं इस ओर है । एकेन्द्रियों में जन्म ले वह, कष्ट सहता घोर है॥
जो अन्न या मिथ्यावस्तु को सत्य मानता है और विनाश की ओर अपने कदम बढ़ाता है. वह मरण को प्राप्त होकर उस एकेन्द्रिय स्थावर पर्याय में जन्म लेता है, जहाँ उसे अनन्त काल नक कठिन से कठिन दुःख उठाना पड़ते हैं।