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सम्यक् आचार ........
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देवत्व से हीन अदेवों की अर्चना अदेवं देव प्रोक्तं च. अंधं अंधेन दिस्यते । मार्ग किं प्रवेन च. अंध कृपं पतंति ये ॥६॥
चैतन्यता से हीन जो. अज्ञान जड़ स्वयमेव हैं । उनको बना आराध्य ये नर, कह रहे ये देव हैं ॥ अन्धों को अन्धराज ही यदि, स्वयं पथ दिखलायेंगे । तो है सुनिश्चित वे पथिक जा, कृप में गिर जायेंगे ।
मनुप्य दवों में कहे गय गुगों से शून्य अंदवों को दव कहकर पुकारते हैं। अदेवों को देव मान लना याने एक नेत्र-विहीन पुरुप का. उम पुरुप में अपने गंतव्य स्थान की राह पूछना है, जो स्वयं बहुन दिनों में अपनी दृष्टि ग्योंय वटा है । भल! मृग्दाम को सृग्दाम ही क्या गह बनायेंगे? फल यही होगा कि अगर उनके बनाय हाप पथ का अनुशरण किया गया ना निश्चित ही व पथिक कुए में जाकर गिर जायेंगे।
अटेव जैन दिन्टने. मानने मृढ मंगते । ने नरा नीव दुपानि, नरयं तिरयं च पतं ॥६१॥ जिन मूढ पुरुषों पर, कुसंगति का अकाट्य प्रभाव है । जिनके हृदय में राज्य करता, भेद-ज्ञान-अभाव है ।। वे देव-सी करते अदेवों की सतत आराधना । नक-स्थली या तिथंग गति पा, दुःख वे सहते घना ॥
जो पुरुप मियाज्ञान से ढंक हुए, मूढ़ पुरुषों की संगति के प्रभाव से अदेवों में देव क प का दर्शन करते है और उनको देव के समान मानकर उनकी आराधना करते हैं, वे या तो विकराल दःखों के समुद्र नर्क में जाते हैं, या फिर तिर्यंच गति में जन्म लेकर भयंकर कष्ट सहते है।