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________________ १८४]...................... सम्यक आचार न्यानं च न्यान सुद्धच, सुद्ध तत्व प्रकासकं । न्यान मयं च संसुद्ध, न्यानं सर्वन्य लोकितं ॥३४४॥ श्रुत और आत्म-ज्ञान ये दोनों ही वे विज्ञान है। जो नित्य मानव को कराते, आत्मा का भान हैं। जो प्राप्त कर लेता कि इन ज्ञानों से, केवल-ज्ञान है । वह निज मुकर में देखता, त्रैलोक्य नित गतिमान है। शास्त्रों को पढ़कर उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान व अपने अंतर्जगत में उत्पन्न हुआ आत्मज्ञान, ये दोनों झान शुद्ध तत्व का प्रकाश करने की महान क्षमता रखते हैं। इन ज्ञानों की सहायता से, जो पंच ज्ञानों में प्रमुख केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह तीनों लोकों को तीनों काल हाथ में रखे हुये प्रामले के समान देखने का अपूर्व सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। न्यान आराध्यते जेन, पूजा तत्र च विंदते । सुद्धस्य पूज्यते लोके, न्यान मयं साधं धुर्व ॥३४५॥ जिस पुरुष-पुंगव ने बनाया, ज्ञान को आराध्य है। सर्वोच्च आतम तत्व जिसका, बना सुन्दर साध्य है। वह ज्ञानमय, ध्रुव, सत्पुरुष ही विज्ञ है, गुणधाम है । करता है उसको ही कि यह त्रैलोक्य, नित्य प्रणाम है। जिसने ज्ञान को अपना आराध्य और शुद्धात्म तत्व को ही अपना हृदय मन्दिर का देवता बना लिया, वह पुरुष अविनाशी, ज्ञानमय और ध्रुव बन जाता है और संसार के समस्त लोक उसके आगे अपना शीश झुकाते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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