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________________ २३४] . सम्यक् आचार अचार्य अस्तेयं स्तेय कर्मस्य, चौर भाव न कोयते । जिन उक्तं वचन सुद्धं च, असतेयं लोपनं कृतं ॥४४०॥ चौर कर्म या चौर भाव, करना ही चोरी ज्ञानी । कहते हैं यह वाक्य, परम प्रभु, वीतराग विज्ञानी ॥ श्री जिन के वचनों का करता है, जो लोपन भाई । वह भी चोरीजनित पाप की, करता मृद कमाई ॥ चोरी करना या चोरी करने के भाव करना, यही स्तंय या चौर्य कर्म कहलाता है । जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए वचनों का लोप करना या उनके अर्थ का अनर्थ करना, यह भी चौर्य कर्म का एक अंग होता है, और जहाँ पर ये कम नहीं किये जाते, वहीं अचौर्याणुव्रत का पालन होता है। ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य च सुद्धं च, अबभ भाव तिक्तयं । विकहा राग मिथ्यात्वं, तिक्तं बंभ व्रतं धुवं ॥४४१॥ ब्रह्मचर्य वह ही, अब्रह्म का, त्याग जहाँ पर होवे । आत्मकुंज में जाकर यह मन, निश्चल सुख में सोवे ।। जितनी विकथायें व राग हैं, हैं मिथ्यात्व दुखारी । हेय जान उनको तज देता, ब्रह्मचर्य-व्रतधारी ॥ शुद्धात्मा में रमण करना, और अब्रह्म भावों का त्याग करना, इसी का नाम ब्रह्मचर्य और इससे विपरीत कर्मों का नाम कुशील-सेवन है । इस अणुत्रत में उन सारी विकथाओं का कहना सुनना भी त्याग देना होता है जो मिथ्यात्व, राग भावों से सम्बन्ध रखनी हैं और आत्मा के परिणामों को कलुषित बनाती हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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