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________________ सम्यक् आचार . ___[२३३ अहिंसा हिंसा असत्य सहितस्य, राग दोष पापादिकं । थावरं त्रम आरंभ, तिक्तते जे विचष्यना ॥४३८॥ रे ! असत्य से परिपूरित. रहती है जिसकी काया । रागद्वेष आदिक मल की, दिखती है जिसमें छाया ॥ स्थावर, त्रस के आरंभों से. जिसमें दोष हैं भारी । ऐसी हिंसा भूल न करते, ज्ञान-निकुज-बिहारी ।। जो विवेकी पुरुष होते हैं वे ऐसी उस हिंसा को, जो असत्य से परिपूरित होती है, जिसमें रागद्वेष आदि पापों के महम्रो नाले रहते हैं, तथा जिसमें स्थावर और त्रस जीवों के प्रारंभ करने का पाप लगता है, सर्वथा त्याग देते हैं। और इस तरह अहिंसाणुव्रत का पालन करते हैं। मत्य अनृतं अनृतं वाक्यं, अनुत अचेत दिस्टते । अमास्वतं वचन प्रोक्तं च, अनृतं तस्य उच्यते ॥४३९॥ अनृत, अनृत ही है, क्या उसकी पर परिभाषा भाई । दिखलाता यह अनृत, अचेतनता की जग को खाई ॥ क्षणभंगुर द्रव्यों को कहना, ये सब अजर अमर हैं । ये अक्षर, पद, वाक्य असत् सब, और अनृत के घर हैं । मिथ्या बोलना, यही असत्य की एकमात्र परिभाषा है । इस असत्य की शरण लेने से अनृत और अचेत वस्तुओं में आसक्ति बढ़ जाती है और फिर प्राणी स्वभावतः अनृत और अचेत सा हो जाता है। नाशवंत वस्तुओं को विनाश रहित शाश्वत वस्तुएं कहना, यह भी असत्य भाषण ही कहलाता है। इनसे विरत रहना सत्यागुत्रत पालन करना होता है ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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