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सम्यक् आचार
जावत् सुद्ध गुरं मन्य, तावत् गत विभ्रमं । सल्यं निकंदनं जेन, तस्मै श्री गुरुभो नमः ॥७४॥ शुद्धात्मा के अनुभवी, गुरुवर्य की जब तक शरण । मोहादि भ्रम के हृदय में तब तक, नहीं पड़ते चरण ॥ जिन साधुओं के शून्य, तीनों शल्य से हृद-धाम हैं ।
उनके पदाम्बुज में अकिंचन के. असंख्य प्रणाम हैं। जब तक शुद्ध, सम्यक् और आत्मानुभवी गुरु की शरण रहती है, तब तक किसी भी मोह या विभ्रम के इस हृदय में चरण नहीं पड़ने पाते । जिन गुरुवयों ने तीनों शल्यों को नष्ट कर डाला है. उनको मेरे असंख्य प्रणाम हों।
असद्गुरु के लक्षण
'कुगुरुस्य गुरुं प्रोक्तं च, मिथ्या रागादि संजुतं । कुन्यानं प्रोक्तं लोके, कुलिंगी असुह भावना ॥७५॥ जो रागद्वेषादिक मलों के. पूर्णतम आधार हैं । जो अशुभ कुत्सित-भावनाओं के विशद भण्डार हैं। कुज्ञान का जो दान दें, जिनके कुलिंगी वेश हैं ।
वे गुरु नहीं हैं, कुगुरु हैं, कहते महान जिनेश हैं । जो रागद्वेष आदिक प्रात्मा की मिथ्या परिणतियों के धारी हैं; जनता में मिथ्याज्ञान का प्रचार करते हैं; साधु का जो परिग्रहों से हीन वेष होना चाहिए, उसे छोड़कर जो आडम्बरों से युक्त वेष को धारण करते हैं और जिनकी भावनाओं में अशुभ परिणाम विचरण किया करते हैं, वही इस संसार में कुगुरु कहलाने योग्य साधु हैं।