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सम्यक् आचार
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कर्म त्रि-विनिर्मुक्तं व्रत तप मंजम मंजुतं । मुद्ध तत्वं च आराध्यं, दिस्टतं नमिक दर्न ॥७२॥
सद्गुरु वही, उस आत्म का ही ध्यान जो धरता सदा । जो तीन दारुण कर्म के, भय से रहित है सर्वदा ॥ व्रत, तप, सुसंयम-साधना में, जो सतत संलग्न है । शुद्धात्मा में लीन जो, सम्यक्त्व-सिन्धु निमग्न है।
जो सद्गुरु होते हैं वे तीन प्रकार के कमां से सर्वथा हीन होते हैं। बन, तप व संयम से व युक्त होते हैं। उनका एकमात्र आराध्य शुद्धात्म तत्व ही होता है और उनकी जहाँ कहीं भी दृष्टि जाती है. सर्वत्र उनको शुद्ध सम्यग्दर्शन की झांकी ही दिखाई पड़ती है।
तस्य गुनं गुरुम्चैव, तारनं तारकं पुनः । मान्यते सुद्ध दिस्टि च, संसारे तारनं सदा ॥७३॥ शुद्धात्मा की अर्चना, इतनी मृदुल सुखसार है । भव-सिन्धु से इसका पथिक, तरता न लगती बार है ।। जो तर गया वह तरनतारन, आत्म-ध्वनि उच्चारता । संसार सागर से करोड़ों, जीव पार उतारता ॥
जिसमें साधुगण निशिबासर निमग्न रहते हैं, उस आत्मा की आराधना इतनी मृदुफलदायिनी है कि वह अपने आराधक को इस संसार सागर से पार कर देती है। इतना ही नहीं, किन्तु उसका आराधक भी आत्मतत्व पर श्रद्धान करता हुआ और जग को शुद्धात्म तत्व का पाठ पढ़ाता हुआ, मानवों को तारने के लिये संसार सागर में पोत के समान हो जाता है।