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________________ सम्यक विचार दृष्टतं शुद्ध पद माध, दर्शन मल विमुक्तयं । ज्ञानं मयं मुद्ध सम्यक्त्वं, पंडितो दृष्टि सदा बुधैः ॥२०॥ सप्त तत्व का जो निदान है, अगम, अगोचर, मनभावन । उसी 'ओम् से मंडित दिखता. बुधजन को चेतन पावन !! आत्म-देश में जहां कहीं भी, जाते उसके मन-लोचन । उन्हें. वहीं दिखता है निर्मल, सम्यग्दर्शन दख-मोचन ॥ जो मनुष्य ज्ञान-नौर में निमग्न रहा करता है, म्नान करता रहता है उमकी दृष्टि जहां नहीं शुद्धात्मा या ओम के ही दर्शन करती रहती है। प्रात्मा के प्रदेशों में उस सम्यक्त्व-मम्यक्त्वकी ही लहरें दिखाई देती है और वे लहरें पवित्र पवित्रतम जैसे जल की चमकती हैं। उनम रंचमात्र भी कोई विकार नहीं : उन पवित्रनम लहरों में उसे अपनी आत्मा का वशन ठीक परनामा के जमा होता है. जिमम उमकी यह तलाश समाप्त हो जाती है कि भगवान का दशन कहां मिलेगा ! टोक ही है. जिसे अपने आपमें ही मिल गया, उसे फिर बाहर में नलाश क्यों ? वेदका अग्रस्थरश्चैव, वेदनं निरग्रंथं ध्रुवं । त्रैलोक्यं ममयं शुद्धं, वेद वेदनि पंडितः ॥२१॥ जो पंडित कहलाता है या, होता जो वेदान्त प्रवीण । अग्र ज्ञान को कर उसमें वह, सतत रहा करता नजीन । तीन लोक का ज्ञायक है जो, ग्रन्थहीन, ध्रव अविनाशी । उसी आत्म का अनुभव करता, नितप्रति ज्ञान-नगर-वामी ।। ज्ञान नगर निवासी पंडित अपने हृदय मन्दिर की वेदी में विराजमान निग्रन्थ, ध्र व, वीनगग स्वभावी अपनी आत्मा को जो कि पंचज्ञान का निधान है उसे ही वीतराग सर्वज्ञ की समकक्ष अपनी निश्चय दृष्टि में अवलोकन करता है, वेद का जो अग्र-सार उसे भी वह उसी में पाता है, अतः एकमात्र उसकी तन्मयता हो उसे प्रिय लगती है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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