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सम्यक् आचार .... व्यर्थ चर्चाओं में मंलग्नता
विकहा राग मंवधं, विमयं कपायं मदा। अनृतं राग आनंद, ते धर्म अधर्म उच्यते ॥९८॥ जो राग संबद्धक कथाओं की, पिलावे प्यालियाँ । जिसमें कपायों को. विषय को, बह रही हो नालियाँ ।। जो अन्त में, मिथ्यात्व में ही, मग्न परमानंद है।
वह हो मुमुक्षु अधर्म है, जो भव दुखों का कंद है ॥ वह धर्म. जो काम विकथा, चोय विकथा, राज्य विकथा व स्त्री विकथा इन चार विकथाओं से संबंधित हो; विषय-कपायों की चर्चाएं जिसमें पद पद पर भरी हो नथा जो अनात्म या पौगलिक विवचनों में विशप आनन्द लेता हो, वह वास्तव में अधर्म है।
विकहा परिनाम अमुहं च, नंदितं अमुह भावना । ममत्व काम रूपेन, कथितं वन विमेषितं ॥९९॥ विकथा जनित जो ज्ञान है, वह अशुभ है, कटु म्लान है । विकथा जनित आनंद जो है. वह अशुभतम ध्यान है ।। कई भांति से चित्रित बनाकर, ये कथा उच्चारना । यह कुछ नहीं, पर विषय भोगों में ममत्व प्रसारना ॥
विकथा सम्बन्धी जितना भी ज्ञान होता है, वह पूर्णतया अशुभ भावनाओं से परिपूर्ण होता है। उसमें आनन्द लेना, मानो अशुभ परिणामों से अपने आत्मा के स्वभाव को विकृत करना है। इन विकथाओं को जहाँ विशेप रूप से चित्रित करके कथन किया जाता है, वहाँ काम भाव का सहज ही प्रसार हो जाना है।