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सम्यक् आचार
कुगुरुं कुन्यानं प्रोक्तं च, सल्यं त्रि-दोष मंजुतं । कसायं बर्धनं नित्यं, लोकमूढस्य मोहितं ॥७॥ जो तीन शल्यों के घिनौने, अशुचिपूर्ण निवास हैं । जिनमें कषायों के भरे, अगणित भयंकर त्रास हैं। मूढत्व जिनके वचन से, शत शत मुखों से बोलता ।
जग में कुज्ञान विखेरता, ऐसा कुगुरु है डोलता ॥ मिथ्याज्ञान के उपदेशक साधु कैसे होते हैं ? मिथ्या, माया और निदान इन तीन शल्यों से भरे हाएः क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार संसारवद्धिनी कपायों को बढ़ाने वाले और भेदविज्ञान रहित लोकमूढ़ता के जाल में पूर्ण रूप से फँसे हुए।
इन्द्रियानां मनोनाथा, प्रमरंतं प्रवर्तते । विमयं विषय दिस्टं च, ममतं मिथ्या भूतयं ॥७९॥ पंचेन्द्रियों का नाथ मन है, जो महा बलवान है । जितना उसे अवकाश दो, वह प्रसरता द्रुतिमान है ॥ इस मन-कुरंग पर कल्पना में, कर कुगुरु असवारियाँ । जड़ इन्द्रियों के भोग की, निरखें विषम फुलवारियां ॥
मन पाँचों इन्द्रियों का नाथ माना जाता है। इसमें एक विशेषता होती है कि इसे जितना भी फैलने का अवकाश दिया जाय, यह फैलता ही जाता है। जो खोटे गुरु होते हैं, वे इस मिथ्याभूत मन पर असवारी करके, निशिवासर संसार की विषम विषय भोगों की फुलवारियों की सैर किया करते हैं।