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________________ सम्यक् आचार अमुद्धं प्रोक्तं स्चैव, देवलि देवपि जानते । पेत्रं अनंत हिंडते, अदेवं देव उच्यते ॥३१०॥ जो मन्दिरों की मूर्तियों को, मानते भगवान हैं । वे जीव करते हैं असम्यक , अशुभ कर्म महान हैं ।। पाषाण को, जड़ को अरे, जो देव कहकर मानते । वे नर अनंतानंत युग तक, धूल जग की छानते ॥ मन्दिरों की नृतियों को या प्रतिमाओं को साक्षात भगवान मानना, यह पट्कर्म के प्रथम अंग 'देवपूजा' का असम्यक् रूप है, जो अशुद्ध कर्म की कोटि में आता है ! जो मनुष्य देवत्व से हीन अंदवों को देव कहकर पुकारता है; उनकी पूजा करता है, वह अनन्त बार जन्म धारण करता है और मृत्यु के मुख का ग्रास बनता है। मिथ्या मय मूढ दिस्टी च, अदेवं देव मानते । परपंचं येन कृतं माई, मानते मिथ्या दिस्टितं ॥३११॥ मिथ्यात्व मायाचारिता के, जो अगाध निधान हैं । वे ही अचेत अदेव को, कहते अरे भगवान हैं । इन पत्थरों के देवताओं के, जो विछते जाल हैं । फंसती है मिथ्यादृष्टि, जीवों की ही उनमें माल है । जो मिथ्यात्व और मायाचार के निधान होते हैं, वे अंधविश्वासी ही 'प्रदेवों' को देव कहकर मानते हैं। इन पत्थरों के देवताओं को प्रसन्न करने के लिये जो प्रपंच रचे जाते हैं, उनमें भी उन्हीं प्राणियों की श्रेणियों फंसती हैं, जिनकी आंखों पर मिथ्यात्व और मायाचारिता की पट्टियाँ चढ़ी होता है और जो सम्यक्त्व से हीन हुभा करते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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