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सम्यक् आचार
ते धर्म कुमति मिथ्यातं, अन्यानं राग बंधनं । आराध्य जेन केनापि, संसारे दुष कारणं ॥ ९२ ॥
जो कुगुरुओं का धर्म है, वह राग- बंधन हेतु है । मिथ्यात्व उसका सार है, अज्ञान का वह सेतु है | मिथ्यात्वमय इस धर्म की, जो वंदना में चूर हैं । संसार में वे नर उठाते, दुख दुसह भरपूर हैं ॥
खोटे गुरु जिस धर्म का उपदेश जन-साधारण को देते हैं, वह कुमति और मिथ्याज्ञान का भंडार होता है; अज्ञान से वह परिपूर्ण होता है और संसार में राग पैदा कराने वाला होता है । जो मनुष्य उनके धर्म की आराधना करते हैं, वे इस दुःख के कारण संसार में अनेकों कष्ट पाते हैं 1
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अधर्मं धर्म प्रोक्तं च अन्यानं न्यान उच्यते । अचेत अमास्वतं वंदे, अधर्मं भंसार भाजनं ॥९३॥
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जो है अधर्म, कुसाधु उसको धर्म कहकर मानते । अज्ञान को ही वे अहंमति, ज्ञान कहकर जानते || जो है अनित्य, कुगुरु उसे कहते यही ध्रुव, सार है । पर यह सुजान ! अधर्म है, संसार का यह द्वार है ॥
जो कुगुरु होते हैं वे अधर्म को धर्म और अज्ञान को ज्ञान कहकर पुकारते हैं। जो अनित्य, नश्वर-शील पदार्थ हैं, उनको वे कुगुरु शाश्वत और ध्रुव बतलाते हैं, पर यह सब मिध्याधर्म की बातें होती हैं, जो संसार को वृद्धिंगत बनाने ही में सहायक होती हैं ।