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________________ सम्यक विचार प्रति इन्द्र प्रति पूर्णस्य, शुद्धात्मा शुद्ध भावना। शुद्धार्थ शुद्ध ममयं च, प्रति इन्द्रं शुद्ध दृष्टितं ॥२६॥ इन्द्र कौन ? निज चेतन ही तो, सत्य इन्द्र भव्यो स्वयमेव । वही एक है शुद्ध भावना, वही परम देवों का देव ॥ वही ब्रह्म, शुचि शुद्ध अर्थ है, वही समय निर्मल, पावन । उसी शुद्ध चिद्रप देव का, करो चितवन मनभावन ॥ भगवान की पूजा इन्द्रों ने की थी अथवा नहीं की थी यह तो भगवान हो जानें, किन्तु तुम्हारी शुद्धान्मा का बम्प भी परमब्रह्म परमेश्वर के समान है व ज्ञानधन की ठौर है, ऐसे चिद्रप देव शुद्धात्मा का जिमका कि दृमरा नाम इन्द्र है उम अपने इन्द्रस्वरुप आत्मा की तुम स्वयं इन्द्र के समान अत्यन्त नाम के साथ पूजन करो, क्योंकि यही पूजा तुम्हारा मंगल करने की क्षमता रखती है, दूसरी नहीं । दाताऽरु दान शुद्धं च, पूजा आचरण मंयुतं । शुद्धमम्यक्त्वहृदयं यस्य, स्थिरं शुद्ध भावना ॥२७॥ जिस जन के हृदयस्थल में है, सम्यग्दर्शन रत्न महान । अपने ही में आप लीन जो, जिसे न सपने में पर ध्यान ॥ आत्म द्रव्य का पूजन करता, कर जो नव आदर सत्कार । परमब्रह्म को वही ज्ञान का, देता महा दानदातार ॥ जिसके हृदय में सम्यक्त्व रत्न जगमगा रहा है और जो अपने आप में लीन रहने में ही मार मुग्यों का अनुभव करता है वह जब आत्म द्रव्य का पूजन करता है तो उसकी यह पूजा एक पवित्रतम दान का म्प धारण कर लेती है और विद्वान इस पूजा को एक ज्ञानी के द्वारा आत्मा को ज्ञान का दान दिया जाना ही कह कर के पुकारते हैं । इस ज्ञान दान में चारों ही दान का समावेश मंथन करने पर तुम्हें मालूम होगा। क्योंकि आत्म-पूजन से आत्मा में ज्ञान की वृद्धि; निर्भयता की जामति, अपने आप में स्थिरता, तथा आनन्दामृत का भोजन पान, इस तरह के यह चारों दान व्यवहार दान की अपेक्षा बह. मूल्य व मंगलदायक होंगे।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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