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________________ = सम्यक् विचार= ॐ ह्रीं श्रियंकारं, दर्शनं च ज्ञानं ध्रुवं । देवं गुरुं श्रुतं चरणं, धर्म सद्भावशाश्वतं ॥६॥ ह्रीं श्रीं के रूप मनोहर, करते जिसमें विमल प्रकाश । अमर ज्ञान दर्शन का है जो, एक मात्रतम दिव्य निवास ॥ वही परम उत्कृष्ट ओम् ही, है त्रिभुवन मंडल में सार । वही देव, गुरु, शास्र, आचरण, वही धर्म सद्भावागार ।। जिसमें ॐ ह्रीं श्रीं' इस मंत्र का पूर्णरूपेण निवास है, दर्शन, ज्ञान और आचरण का जो मन्दिर है, वास्तव में एसा वह ओम ही सच्चा देव है, ओम् ही सच्चा गुरु है, ओम् ही सच्चा क्रियायुक्त आचरण है और एमा वह आम ही तीन लोक को पार करने वाला सच्चा धर्म है जिसका कि घट घट में सद्भाव है। वीर्य अंकूरणं शुद्ध', त्रैलोकं लोकितं ध्रुवं । रत्नत्रयं मयं शुद्धं, पंडितो गुण पूजते ॥७॥ केवलज्ञान-मुकुर में जिसको, तीनों लोक दिखाते हैं । जिसके स्वाभाविक बल जल का, निधिदल थाह न पाते हैं। रत्नत्रय की सुरसरिता से, शुद्ध हुआ जो द्रव्य महान् । उसी आत्म रूपी सद्गुरु की, करते हैं पूजन विद्वान ॥ जिसको अपने कंवलज्ञान मुकुर में संसार के सब पदार्थ युगपत दृष्टिगोचर होते हैं; जिसकी शक्ति कल्पना से पर है, अनंत है, असीम है, तथा रत्नत्रय को पवित्र निरिणी जिसके चरण अह. निश पखारती रहती है। विद्वान् केवल ऐसे प्रात्मा रूपी सद्गुरु की ही अर्चना करते हैं और ओम् या प्रात्मा रूपी सद्गुरु को पूजने वाला पंडित ही वास्तविक प्रज्ञाधारी पंडित कहा जाता है-माना जाता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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