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________________ २०० ..... सम्यक् आधार ये षट् कर्म आराध्यं, अविरतं श्रावर्ग धुवं । मंसार सरनि मुक्तस्य, मोषगामी न संसयं ॥३७६॥ जो व्रतरहित श्रावक हैं, जिनको व्रतक्रियादि असाध्य हैं । उनके लिये भी भव्यजन, षटकर्म नित आराध्य हैं। षटकर्म करते हुए वे, संसार से तिर जायेंगे । यह बात संशयहीन है, वे मुक्ति-पथ पा जायेंगे। जो व्रतहीन श्रावक हैं, उनके लिये भी ये षटकर्म साधने ही के योग्य हैं। यदि वे इन षट आवश्यक कर्मों की नित्यप्रति सम्यक् साधना करें, तो उनका भी संसार समय पाकर सूख जाये और वे भी बिना किसी संशय के आवागमन से छूटकर मुक्ति का अनन्त साम्राज्य पा जायें। एतत् भावनं कृत्वा, श्रावग मंमिक 'दस्टितं । अविरतं मुद्ध दिस्टी च, मार्धं ज्ञान मयं धुवं ॥३७७॥ पटकर्म किस विधि हों समुन्नत, यही करते चितवन । अवती सम्यग्दृष्टि करता है, व्रती-सा आचरण ॥ वह अवती, पर वस्तुतः वह पूर्ण सम्यग्दृष्टि है । सम्यक्त्व की उसके हृदय में, सतत होती वृष्टि है। अत्रत सम्यग्दृष्टि इन पटकमों को समुन्नत बनाते रहने की भावना करते हुए,नित्यप्रति सम्यग्दृष्टि के सदृश ही आचरण करता रहता है। यद्यपि उसका 'अत्रती' अवश्यमेव नाम होता है, किन्तु अवती होते हुए भी वह पूर्ण सम्यग्दृष्टि होता है, क्योंकि सम्यक्त्व का अथाह सिन्धु उसके अंतस्तल में पाठोंयाम नहरें लिया करता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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