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________________ ११२] सम्यक् आचार दर्सन न्यान चारित्रं, विसेषितं गुन पर्जयं । अनस्तमितं सुद्ध भावस्य, फासू जल जिनागमं ॥२०॥ रहता है वह शुचि शुद्ध, दर्शन का नियम से पात्र है । होता है ज्ञानाचार, इन दो वर्ग का वह छात्र है ॥ वह रात्रि भोजन त्यागता, करता छना जल पान है । शास्त्रादिकों के पठन में, रखता सजग नित ध्यान है ॥ वह सम्यग्दर्शन का तो नियम से धारी होता ही है किन्तु सम्यग्ज्ञान और सम्यक-चारित्र का भी वह यथाशक्ति आचरण करता है। रात्रि को भोजन करना वह बिलकुल त्याग देता है और अपने सारे व्यवहारों में वह छने जल का उपयोग करता है । इसके अतिरिक्त शास्त्रों का पठन पाठन करना भी अत्रत सम्यग्दृष्टि का एक प्रमुख कर्म होता है। एतत् क्रिया संजुक्तं, सुद्ध समिक्त धारना । प्रतिमा व्रत तपस्वैव, भावना कृत सार्ध यं ॥२०१॥ अवती में बहती सदा, समकित-सुधा की धार है । रहता अठारह क्रियायुत, उसका सुभग संसार है। व्रत, तप, क्रिया, प्रतिमादि से, होता यदपि वह हीन है। रहता है पर शुभ भाव से, वह सतत उनमें लीन है ॥ अत्रत सम्यग्दृष्टि शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारण करने वाला होता है। अठारह क्रियाओं का तो वह पालन करता ही है, किन्तु साथ ही साथ यदि नियम से नहीं तो शुद्ध भावनाओं के साथ वह प्रतिमाओं और व्रतों के पालन करने में भी संलग्न रहा करता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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