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________________ ............... सम्यक् आचार.... [११३ अन्या संमिक्त संमिक्तं, भाव वेदक उपममं । क्षायिकं सुद्ध भावस्य, समिक्तं सुद्धं धुर्व ॥२०२॥ सर्वज्ञ के मुख-कमल से, विकसित हुए जो फूल हैं । रुचि करो उनही पर वही, सम्यक्त्व निधि के मूल हैं। भगवान में श्रद्धान सब, श्रद्धान का श्रद्धान है । वेदक यही, उपशम यही, क्षायिक यही मतिमान है । भगवान के कहे हुए वचनों में श्रद्धा रखना, यह सबसे महान कोटि का सम्यक्त्व है। यही उपशम, यही वेदक, और यही वह शुद्ध और ध्रुव क्षायिक सम्यक्त्व है, जिसे पाकर मनुष्य एक दिन स्वयं शुद्ध और ध्रुव की संज्ञा से विभूषित हो जाता है। प्रगाढ़ सम्यग्दर्शन की ओर प्रवृत्ति मोक्ष पथ का आधार सम्यग्दर्शन उपादेय गुण पदवी च, सद्ध मंमिक्त भावना । पदवी चत्वारि साद्धं च, जिन उक्तं सुद्ध दिस्टितं ॥२०३॥ सम्यक्त्व क्या है ? आत्मा का, वह अनित्य निधान है । जो पंच परमेष्ठी पदों से, व्याप्त नित्य समान है ।। सर्वज्ञ कहते, विज्ञजन ! सम्यक्त्व क्यों ध्याते नहीं । सम्यक्त्व पा, क्यों पंच परमेष्ठी स्वपद पाते नहीं ? सम्यक्त्व की भावना भाते हुए या अपने आत्म श्रद्धान को उत्तरोत्तर वृद्धिंगत बनाते हुए मनुष्य को इस संसार से मुक्ति प्राप्त करने का साधन जुटाना ही योग्य है। अर्थात् जीवन का श्रेय इसी में है कि मनुष्य मुक्त बनने का प्रयास करे। सर्वज्ञ कहते हैं कि हे भव्यो ! अपने प्रात्मा के प्रकाश को विस्तृत बनाओ और श्रेष्ठ परमेष्ठी पद को प्राप्त करो।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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