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________________ १७८] ..... सभ्यक आचार देव पंच गुनं सुद्धं, पदवी पंचामि संजुदो सुद्धो । देवं जिन पण्णत्तं, साधु सुद्ध दिस्टि समयेन ॥३३२॥ जो पंच परमेष्ठी हैं, वे होते गुणों के धाम हैं । करते हैं आलोकित उन्हें, नित पंच पद अभिराम हैं। पांचों ही जिन सम्यक्त्व के, होते अगाध निधान हैं । कहते इसीसे विज्ञ जन, उनको जिनेन्द्र महान हैं। पांचों परमेष्ठी गुणों के अपूर्व निधान होते हैं और पांच पदवियों से संयुक्त रहते हैं । सम्यक्त्व की, रस-धार इनमें कल कल करके बहती रहती है। विज्ञजनों ने इन पांचों को ही, इसीलिये जितेन्द्रिय भगवान की संज्ञा प्रदान की है। अरहंत भावनं जेन, षोडस भावेन भावितं । ति अर्थ तीर्थकर जेन, प्रति पूरनं पंच दीप्त यं ॥३३३॥ अरहन्त पद की भावना से, जो सतत रहता सना । या जिस हृदय में नित्य जगतीं, भव्य षोड़श भावना ।। वह उपजता, जयरत्न, पंचज्ञान लेकर साथ है । वह पुरुष करता, तीर्थकर बन, त्रिलोक सनाथ है। जो पुरुष अरहन्त पद का व षोड़श कारण भावनाओं का चिन्तवन करना है, वह नियम से नीन रत्न और पाँच ज्ञानों का धारी, तीनों जगत को तारने वाला तीर्थकर होता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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