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सम्यक् आचार
श्रियं संमिक दर्सनं सुद्धं, श्रियं कारेन उत्पादते । सर्वन्य न्यान मयं सुद्ध, श्रियं संमिक दर्सनं ॥३६०॥ सम्यक्त्व रूपी जिन बयन की, जो सुधा-सी धार है। श्रींकार-गिरि से भव्य वह, लेती महा अवतार है । शुचि, शुद्ध दृष्टि प्रतीक यह, होता जो निर्मल ज्ञान है ।
वह विश्व के विज्ञान का, होता अमूल्य निधान है। सम्यक्त्व रूपी जिनवाणी श्रींकार अर्थात साक्षात् मुक्ति श्री से उत्पन्न होती है। यह जिनवाणी संसार में जितने भी ज्ञान होते हैं, उन सबकी विशद भण्डार होती है। इसके ही सामर्थ्य से आत्मा में परमात्मापने का भान व ज्ञान-वैराग्य का प्रादुर्भाव होता है।
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न्यानं च मंमिक्तं सुद्ध, संपूरनं त्रिलोक मुद्यमं । सर्वन्य पंच मयं सुद्धं, पद वन्द्यं केवलं धुवं ॥३६॥ सम्यक्त्व से परिपूर्ण सम्यक्, ज्ञान ही शुचिज्ञान है । वह ही समीचीनत्व से संयुक्त, शुद्ध महान है॥ वह सर्व ज्ञान प्रधान, ज्ञान-समूह उसमें लीन है । वह ज्ञान ही है वंद्य, जो ध्रुव है, विनाश विहीन है ।।
जिनवाणी का ज्ञान सम्यक्त्व से परिपूर्ण होता है और सम्यक्त्व से परिपूर्ण ज्ञान ही संसार में सम्पूर्ण और शुद्ध ज्ञान कहलाने में समर्थ हो सकता है। यह ज्ञान सर्व ज्ञानों में श्रेष्ठ और विशुद्ध होता है और वही ज्ञान श्रेष्ठतम और वंदनीय कहा जा सकता है, जो कैवल्य प्राप्त कराने की क्षमता रखे ध्र व हो, विनाशहीन हो। जिनवाणी में ये सारी महत्तायें विद्यमान है।