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सम्यक् आचार तीन मूढ़तायें
लोक मृढ़ रतो जेन, देव मूढस्य दिस्टते । पापंडी मढ़ मंगानि, निगोयं पतितं पुनः ॥२८॥
लोकमूढ़ता का बन जाता, है जो जीव पुजारी । देवमूढ़ता भी आ करती, उसके सिर असवारी ॥ शेष नहीं पाखंडमूढ़ता, भी फिर रह पाती है । और कि यह त्रयराशि उसे फिर. दुर्गति दिखलाती है ।
जो मनुष्य लोकमूढ़ता का पुजारी बन जाता है, वह देवमूढ़ता के जाल से भी नहीं बच पानः । पाखंड मूढ़ता भी जो तीसरी मूढ़ता होती है, उसको असहाय जान, श्राकर उसका गला दबा देती है और इस तरह तीनों मिलकर उसे निगोद में फेंक देती हैं।
सम्यक् श्रद्धान में २५ दोष
अन्यानं मद अस्टं च, संकादि अस्ट दृषनं । मलं संपून जातं, सेव दुष दारुनं ॥२९॥ छह अनायतन और अष्ट मद, शंकादिक अठभाई । तीन मूढ़ता; ऐसे ये पच्चीस दोष दुखदाई ॥ ये कंटक सम्यक्त्व-मार्ग के, जो दारुण दुख देते । चौरासी लख योनि घुमाकर, प्राण जीव का लेते ॥
छह अनायतन, आठ मद, सम्यग्दर्शन के आठ दोप, और तीन मूढ़तायें ये सम्यक्त्व के २५ दोप होते हैं या यों कहिये कि मोक्षमार्ग के ये २५ रोड़े होते हैं। इनका जीवन में आचरण करना, महान दुःखों का कारण होता है।