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________________ परम प्रहालु और कठोर साधनाओं में रत व्रती, सम्यग्दृष्टि के विचार और उसके कर्तव्य [३७८ से ४४४ तक] "सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं, यद्वजेपि पतत्यमी भयचलत्रैलोक्यमुक्तावनि । सर्वामेव निसर्ग निर्मयतया शंकां विहाय स्वयं, जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुष बोधाळ्यवन्ते न हि ॥" सम्यग्दृष्टि जीव बड़े ही साहसी होते हैं । ऐसा वज्रपात हो कि जिसके होते हुए, तीनों लोक के प्राणी भयभीत हो, मार्ग छोड़ भाग जावें, तो भी वे महान आत्मा के धारी, स्वभाव से निर्भय रहते हुए. सर्व शंकाओं को छोड़कर, अपने आपको अविनाशी. ज्ञानशरीरी जानते हुए, आत्मिक अनुभव से व आत्मज्ञान से कभी पतित नहीं होते हैं । -आचार्य अमृतचंद्र (समयसार कलश)
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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