SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६] सम्यक् आचार यदि वभचारिनो जीवो, भाव सुद्धं न दिस्टते । विकहा राग रंजंते, प्रतिमा बंभ गतं पुनः ॥४२४॥ ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी यदि, भाव अशुद्ध न होवे । विकथा-रागों में ही यदि वह, काल अमोलक खोवे ।। तो वह अपनी प्रतिमा से च्युत. खंडित हो जाता है । ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी वह, भूल न कहलाता है। यदि ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी के भावों में शुचिता दृष्टिगोचर नहीं होती है और यदि वह विकथाओं के कहने सुनने ही में आनन्द मनाता रहता है तो उसकी प्रतिमा भंग हो जाती है और फिर वह पुरुष किसी भी प्रकार ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करने का अधिकारी नहीं कहला पाता है। चित्तं निरोधतं जेन, सुद्ध तत्वं च मार्धयं । तस्य ध्यानं च स्थितं भूतं, बंभ प्रतिमा म उच्यते ॥४२५॥ आत्म-कुंज में ही करता है, जिसका मन-कपि क्रोड़ा । रागादिक जिसके उर में आ, देते नेक न पीड़ा । स्वात्म-मग्न हो आतम की ही, जो अर्चन करता है । वह मानव ही सप्तम प्रतिमा, ब्रह्मचर्य धरता है । जिसको अपने मनके ऊपर पूर्ण अधिकार प्राप्त है और जो उसे सदा अपने शुद्धात्म-कुंज में स्थिरीभूत बनाये रहता है, वही आत्मा का पुजारी ब्रह्मचर्य प्रतिमा पालने में समर्थ हो पाता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy