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सम्यक आचार
दर्सनं भृस्ट गुरुश्चैव, अदर्मनं प्रोक्तं सदा । मानते मिथ्या दिस्टी च, न मानते सुद्ध दिष्टितं ॥८॥ जो नामधारी गुरु हैं, पर जो पूर्ण मिथ्यादृष्टि हैं । वे नित्य ही करते अदर्शन की, जगत में वृष्टि हैं । बस अंधविश्वासी ही ऐसे. कुगुरु को गुरु मानते ।
सत दृष्टि तो ऐसे कुगुरु की, भूल विनय न जानते ॥ जो गुरु नामधारी अवश्य है, किन्तु जो रंचमात्र भी आत्मनिष्ट नहीं है; दर्शनभ्रष्ट है, व सदा अनात्म को ही प्रधानता देते हुए उपदेश करते हैं अर्थान आत्मतत्व की ओर से व सदा पराङ्गमुग्व रहते हैं। से अनात्म-चारी कुगुम्ओं को सिर्फ मियाज्ञान से श्रावृत्त पुरुप ही गुरु मानते हैं। जिनके हृदय में आत्म-प्रतीति का सूर्य जाग चुका है. से ज्ञानवान पुरुष उनकी विनय भूलकर भी नहीं करते।
कुगुरुं मंगते जेन, मारते भय लाजयं । आमा अनुनेह लोभेन, ते नरा दुर्गति भाजां ॥८९।। भय, लाज, आज्ञा, स्नेह या पड़ लोभ के जंजाल में । जो कुगुरु को कर मान्यता, पं.सते हैं उनके जाल में । वे मू! कर मिथ्यात्व को यों, मान्यता अनुमोदना । पड़कर अधोगति में निरन्तर, दुःख महते हैं धना ॥
जो मनुप्य अाशा, भय, म्नेह, लोभ या लाज भीमन होकर, कुगुरुओं के धर्मापदश के श्रवण करते हैं या उनकी विनय पूजा करते हैं, व मनुष्य अवश्य ही दुगति के पात्र होते है।