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सम्यक् आचार
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आचरनं द्विविधं प्रोक्तं, समिक्तं संयम धुवं । प्रथमं संमिक्त चरनस्य, अथिरीभूतस्य संजमं ॥२५४॥
चारित्र के त्रय भेद हैं, कहते हैं जिन तारण तरण । है प्रथम दर्शन और विज्ञो, द्वितिय संयम आचरण ॥ जो प्रथमतम आचार है, वह एक श्रद्धास्तूप है । आचार का उसमें नहीं, मिलता सबलतम रूप है।
आचरण के तीन भेद होते हैं (१) सम्यक्त आचरण (२) संयम आचरण (३) ध्रुव शुद्धात्म आचरण । प्रथम आचरण में मात्र श्रद्धा विशेष होकर संयम में अस्थिरता रहती है, जबकि द्वितीय संयमा. चरण में, वाह्य में षट्कायिक जीवों की रक्षा व अन्तर में आत्म विमलतारूप पूर्णपने संयमभाव रहता है। ये दोनो कारण उस तृतीय शाश्वत आचरण में स्थिरता कराने वाले हो जाते हैं।
चारित्रं संजमं चरनं, सुद्ध तत्व निरीष्यन । आचरनं अबंध्यं दिलं. माधं सुद्ध दिस्टितं ॥२५५॥
जो शुद्ध संयम आचरण, वह स्वानुभव का सार है । होता है उसमें तत्व-रूपण, प्रतिनिमिष प्रतिवार है ॥ श्रद्धान ही होता है रे! इस निझरी का कूल है ।
बहता है जिसमें आचरण-जल, नित्यप्रति सुखमूल है । यह संयमाचरण शुद्धात्म तत्व का अनुभव करानेवाला होता है । सम्यक्त्व इस जलाशय का किनारा होता है और पाचरण उसका जल ।