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________________ १२८] . . सम्यक आचार मधुरं मधुरस्चैव, व्यापार न च क्रीयते । मधुर मिश्रिते जेन, द्वि मूहूर्त संमूर्छनं ॥२३२॥ मधु. मांस, मद्यों का, न जिनमें रे ! हनन का पार है । करते नहीं, जो विज्ञ होते हैं, कभी व्यापार हैं ।। मधु का सम्मिश्रण, दो मुहतों के अनन्तर विज्ञजन । अगणित त्रसों, सम्मुर्छनों का, केन्द्र बनजाता सघन ।। जो विवेकी पुरुप होते हैं, वे मना, माँस या मधु का कभी भी व्यापार नहीं करते हैं । शहद भी बिलकुल ही अभक्ष्य पदार्थ है । इसको जिस किसी भी वस्तु के साथ मिलाया जाता है, उसमें निश्चित रूप से दो मुहूर्त के पश्चात अगणित सम्मूर्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। मंमूर्छनं जथा जानते, साकं पुहपादि पत्रयं । तिक्तंते न च भुक्तं च, दोषं मांस उच्यते ॥२३३॥ पत्ती, पुहुप औ शाक जो, होती वनस्पति काय हैं । उनमें विचरते जीव नित, सम्मूर्छन पर्याय हैं । त्यागो इन्हें, इनका ग्रहण करना सभी विधि हेय है । व्यापार भी इनका नहीं करना, इसी में श्रेय है ॥ शाक, फूल और पत्तों में अनंतानंत सम्मूर्च्छन जीव विचरते रहते हैं, अत: इनका सेवन कभी भी नहीं करना चाहिये । चूंकि इनके क्रय विक्रय में भी वही दोष लगता है, अतः सम्यग्दृष्टि को उचित है कि वह इन वस्तुओं का व्यापार भी नहीं करे ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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