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अनृत वस्तुओं के चिन्तन से, मार्ग असत् बढ़ता है । इस पथ का अनुगामी नितप्रति, मिथ्या पथ चढ़ता है । यह मिथ्यात्व जमा लेता है, जिसके उर में डेरा ।
शुद्ध, बुद्ध प्रभु का न वहाँ फिर, रहता नेक वसेरा ॥ आगे एक जगह वे पुन: यही बात दोहराते हैं
मिथ्यात मति रतो जेन, दोसं अनंता नंनयं । सुद्ध दिस्टि न जानन्ते, असुद्धं सुद्ध लोपन ॥
जो मिथ्यामति के सरवर में, नितप्रति करता क्रीड़ा । वह अनन्त दोषों का भाजन, होकर महता पीड़ा ।। दर्शन--मणि के सपने तक में, उस को दर्श न होते ।
यत्र तत्र वह दुर्गतियों में, खाता नित प्रति गोते ॥ अध्यात्मवाद की ओर उनका यह मोड़ इतना प्रवल है कि उन्होंने हर वस्तु को अध्यात्म के रंग में रंगने का प्रयास किया है,-हर वस्तु में उन्होंने आध्यात्मिकता की झांकी देखी है।
मदिरा क्या है, यह सब जानते हैं, और सप्रव्यमन के अन्तर्गत होने से सबने उसको त्याज्य ही बतलाया है, लेकिन चेतन और अचेतन को नहीं पहचानना, क्या यह भी कोई मदिरापान है ? जी हां ! है, श्रीगुरु का अध्यात्मवाद कहता है
अनृतं असत्य भाव च, कार्याकार्य न सूच्यते । ते नरा मद्यपी होन्ति, संसारे भ्रमनं सदा ॥
जो नर अचेतन और चेतन को नहीं पहिचानते । क्या कार्य और अकार्य क्या, जो नर नहीं यह जानते ॥ अविवेक मदिरा से छलकती, पी निरन्तर प्यालियां ।
वे मद्यपी संसार की नित, छानते हैं नालियां ॥ शुद्ध तत्वं न वेन्दन्ते, अशुद्ध शुद्ध गीयते । मद्यं ममत्व भावेन, मद्य दोषं जथा बुधैः ॥
जो शुद्धतम तत्वार्थ का लाते न मनमें ध्यान हैं । जड़, पुद्गलों का आत्मवत, करते सतत जो गान हैं ।। इस भांति के मिथ्यात्व में ही, जो सदा लवलीन हैं । वे मद्यपी हैं, छानते नित चतुर्गति मतिहीन हैं ।